Friday, April 8, 2011

निर्मल और मैं....

मैं पहले घर से निकलकर दूसरे घर में आया हूँ।
पर दूसरे घर में जाता हूँ तो खुद को पहले घर के कमरों में बैठा पाता हूँ। पहला घर, जहाँ से मैं आया हूँ....पीछा नहीं छोड़ता है। आँखें जल्दी-जल्दी झपकाता हूँ, सिर को एक दो झटके देता हूँ तो दूसरे घर के रंग नज़र आने लगते हैं। कमरे में तीन खिड़कियाँ है... गहरे रंग के पर्दे हैं। सामने चाय पड़ी हुई है जिसे मैं पहले घर में बैठा हुआ पी रहा था। मैं तुरंत कप उठा लेता हूँ। अभी मैं वापिस दूसरे घर में आ चुका हूँ। चाय का स्वाद जाना पहचाना है। चाय शब्द के दिमाग़ में जाते ही शायद मेरी स्वादेन्द्री... अपने चाय के स्वाद के खजाने से कुछ स्वादों को बाहर निकाल लेती है। चाय का एक घूंट लेते ही मुझे किसी एक स्वाद को चुन लेना होता है। मैंने अपने जीवन में इतने किस्मों की चाय पी है कि मुझमें चाय पीने का अंतर खत्म हो गया है। शायद इस चाय का स्वाद अलग हो लेकिन मैं उस स्वाद को कभी पता ही नहीं कर पाऊंगा..। चाय के स्वाद को लेकर मेरी स्वादेन्द्री सिर्फ कुछ ही option मुझे देती है जिसमें से मुझे किसी एक को चुनना पड़ता है.... और मुझे पता लग जाता है कि मैं चाय पी रहा हूँ। ठीक-ठीक स्वाद मुझे कभी पता नहीं चलेगा।
निर्मल मेरे सामने बैठें हैं। मैं इन्हें सालों से जानता हूँ। मेरी उम्र और इनकी उम्र में बहुत अंतर है। जब जीवन में बहुत सी उठापटक हो जाती है, और वह मेरे संभाले नहीं संभलती तो मैं इनके पास चला आता हूँ। इनके घर की बालकनी को मैं अपना confession box कहता हूँ। अधिक्तर मैंनें अपनी सारी ग्लानी, पीड़ा इन्हें वही कह दी है। जब मैं अपनी पूरी बात कह देता हूँ... तो एक लंबे सन्नाटे के बाद निर्मल कहते हैं...’चलो चाय पीते हैं।’ और मैं ठीक महसूस करने लगता हूँ।
आज वातावरण कुछ दूसरा है। हवा उल्टी बह रही है। आज निर्मल का फोन मुझे आया और बड़ी हिचकिचाई-भर्राई आवाज़ में उन्होने कहा... अगर व्यस्त नहीं हो तो आ जाओ। और मैं आ गया।
मैं- जी कहें..?
निर्मल- क्यों चाय ठीक नहीं है क्या?
मैं- अरे! अच्छी है। मैं पूछ रहा था... सब ठीक तो है ना?
निर्मल- हाँ।
मैं- फोन पर आपकी आवाज़ कुछ ठीक नहीं लग रही थी।
निर्मल- हाँ... मैं सोच रहा था कुछ बदल दूं।
मैं- क्या बदलना चाहते हैं?
निर्मल- बदलने की शुरुआत करना चाह रहा था। बहुत समय से सब कुछ वैसा का वैसा ही लग रहा था।
मैं- तो?
निर्मल- तो क्या?
मैं- तो कुछ बदला?
निर्मल- हाँ शुरुआत घर से की...।
मैं- घर से..?
निर्मल- हाँ... तुम्हें कुछ बदला हुआ नहीं लग रहा है?
मैं- मुझे बहुत बदलाव नज़र तो नहीं आ रहा।
निर्मल- तुम बहुत दिनों बाद आए हो इसीलिए... देखों तुम पहले इस तरफ बैठते थे... वह दीवान यहाँ रखा हुआ था। कुर्सीयाँ सारी मैंने भीतर के कमरे में रख दी हैं।
मैं- हाँ यह कमरा काफी खाली लग रहा है। पर कुर्सीयाँ तो ठीक थीं...।
निर्मल- बहुत सी खाली कुर्सीयाँ दिन भर आँखों के सामने पड़े-पड़े खालीपन को बढ़ा देती हैं। ख़ाली कुर्सीयाँ नहीं होगी तो कोई आएगा की प्रतिक्षा भी मर जाएगी।
मैं- आप किसी का इंतज़ार कर रहे थे क्या?
निर्मल- हम सब किसी ना किसी का इंतज़ार कर रहे होते हैं... हमेशा।
मैं- इस बदलाव के बाद कैसा लग रहा है?
निर्मल- बाहरी बदलाव बहुत ज़रुरी है। बाहरी चीज़ों की परछाईयाँ ही भीतर के अंधेरे में काम करती है।
मैं- उस हिसाब से तो यह बहुत छोटा बदलाव है।
निर्मल- शुरुआत कहीं से करना था।
मैं- तो अभी कैसा लग रहा है।
निर्मल- तुम्हारे आने के पहले तक ठीक लग रहा था।
मैं- अरे!.. मैंने क्या किया?
निर्मल- सोचा था इस बदलाव का तुम्हारे ऊपर भी कुछ असर होगा.. पर तुम्हारे सारे सवाल वहीं है... भले ही दीवान यहाँ होता.. या वहाँ.. चाहे कुर्सीयाँ यहाँ होती या भीतर... तुमपर कुछ असर नहीं होता।
मैं- आप तो नाराज़ हो गए!!!
निर्मल- नाराज़ नहीं... अगर कुर्सीयाँ यहाँ होती तो मैं नाराज़ होता.. पर कुर्सीयाँ भीतर है... इस बात की मुझे खुशी है...। अब भीतर जाना भी अच्छा लगता है.. और यहाँ बैठना भी। तुमने चाय ख़त्म कर ली।
मैं- जी।
निर्मल- चलो मेरे भीतर जाने का समय हो गया।

और मैं वहाँ से चला आया। फिर पहले घर की तरफ... जो मेरा अपना है... जिसे में दूसरे घरों में अपने साथ लिये घूमता हूँ। पहले घर की तरफ चलते-चलते ’बदलाव’ शब्द बुरी तरह भीतर हरकत कर रहा था।

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल