Sunday, October 23, 2011

जूते.. चप्पल...


कितना सारा काम है..? जिसे निभाने की कसमों के बीच एक अदना छिछला आदमी है जो आदमी के रुप सा ना होकर...जानवर सा दीख पड़ रहा है। धीमे कदमों से हंसता हुआ आतंक सीड़ीयां चढ़ रहा है...। वह सीड़ीयां उतर रहा है की सोच मन में लिए मैं उसका इंतज़ार नहीं कर रहा हूँ...। वह फिर भी चला आ रहा है....। मैंने अपने कुछ जूते खड़की की सलाखों से बांधकर बाहर की तरफ टांगे हुए हूँ..। वह कभी मेरे काम आएगें... जब मैं बाहर निकल चुका होऊंगा और जल्दी में जूते पहन्ना भूल चुका होऊंगा..। जूता कितना मेरा साथ दे देगा...? मैं कितनी देर तक उसका साथ दे पाऊंगा यह प्रश्न मैं हमेशा खुद से करने से डरता हूँ। जूता चलना चाहता है... मैं उसे अपने कमरों में मुझे ताकते हुए देखता हूँ.... हर बार की उन प्रश्नवाचक जूताई निगाहों से बचने के लिए मैंने उन्हें एक दिन अपनी खिड़की की सलाखों से बाहर की तरफ लटका दिया था। सो जब भी बाहर निकलता हूँ तो एक बेपरवाही होती है। बहुत लंबे कही नहीं जाता हूँ... कुछ दूर जाकर लौट आता हूँ... चप्पल पर ज़्यादा दूर जाया नहीं जा सकता है..। जूता लंबी यात्रा की याद दिलाता है... जूता उपन्यास जैसा है जिसे मैं कभी भी लिख नहीं पाया... चप्पल छोटी कहानियों जैसी है जिसे पहनकर मैं यहाँ वहाँ टहल आता हूँ...। इन सब में नाटक नंगे पैर चलने सा है....।

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

कभी कभी हल्कापन आवश्यक हो जाता है, चप्पलों वाला।

Sushant Parashar said...

और आपका यह नंगे पांव चलना दुसरो के लिए भी एक सुखद अनुभव रहा है ....आप हमें वहां ले जाते हैं, जहाँ हम नहीं पहुँच पाते ..

Pratibha Katiyar said...

नंगे पाँव चलना है धरती को छूना, उसे चूमना, प्यार करना, उससे एकसार हो जाना. यानी एक नाटक में रम जाना. मै जब चलती हूँ घास पर नंगे पाँव तो डरती हूँ कहीं मेरे क़दमों से घास की कोई पाती टूट न जाये, धरती को चोट न लग जाये और न टूट जाये लय उस प्रेम की जो मेरा धरती से है, जैसे किसी का नाटक से, किसी का कविता से और किसी का संगीत से. जूते, चप्पल अवरोध हैं बीच के इन्हें खिड़की के बाहर टांगना ही ठीक. उपन्यास लिखते समय भी शायद...

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल