Sunday, January 1, 2012

आजकल मैं लड़ रहा हूँ....


(एक नाटक लिखने के ठीक पहले.....)
’आजकल मैं लड़ रहा हूँ.... मैं अभी भी लड़ रहा हूँ... पिछले कई दिनों से मैं लड़ रहा हूँ...’
एक झटके में सन्नाटा छा जाता है... चुप... दूर कहीं कुछ खोजता सा एक आदमी दिखता है...। क्या पूर्ण है? किसे जी लेने से शांति मिल जाएगी? कौन से शब्द इस हड़बड़ी को चुप कर देंगें? वह शब्दों की तलाश में हर कोने कुछ देर रह लेना चाहता है...। रह लेने दें... ऎसे कोने अब घर में नहीं बचे है.. हर कोना अपनी बैचेनी लिए कब से उसका इंतज़ार कर रहा था। वह उस अटपटेपन में फिर घर में गोल-गोल चक्कर काटने लगता है। बहुत सारा कुछ कह लेने की कुलबुलाहट से वह एक खाली पन्ना तलाशता है... ख़ाली कोरे पन्ने बहुत ज़िम्मेदारी लिए आते हैं..। हर शब्द.. हर वाक़्य एक कहानी का दरवाज़ा खोल देता है... कोई एक बैचेनी जिसे कह कर उस बैचेनी को छूट जाना होता है...। हर बैचेनी अपने किस्से के साथ उसकी कलम की नोक पर बैठ जाती है। कलम की नोक़ के भारीपन में वह अपनी कलम में काली सियाही भर लेता है। पहली बात लिखने के पहले ही उसके कोरे पन्ने पर बहुत से चहरे घूमने लगते हैं.... किसे लिख कर आज़ाद कर दे? पर उसकी खुद की आज़ादी का क्या? वह कब आज़ाद होगा? उसकी अपनी तड़प कब शांत होगी...? उसने सोचा कि कुछ ऎसा लिख दूं कि हर कोने की बैचेनी ख़ाली हो जाए...। उसने लिखा ’आजकल मैं लड़ रहा हूँ.... मैं अभी भी लड़ रहा हूँ... पिछले कई दिनों से मैं लड़ रहा हूँ...’ वह यह लिखकर चुप दीवारों को ताक़ता रहा... कहीं कोई भी हलचल नहीं थी...। उसने कुछ कोनों की तरफ नज़र दौड़ाई... वहां बस एक चुप अजनबीपन था.. बैचेनी से चिपका हुआ। यह क्या लिख दिया? इसका क्या संबंध है उस किसी भी तड़प से जिससे वह छुटकारा पाना चाहता है? उसे हंसी आ गई... यह लेखक का कमीनापन है... जब कोई एक बात अपनी पूरी छटपटाहट पर होती है तो वह ठीक उसके उलट बात लिखना शुरु कर देता है... इस तरह वह बदला लेता है... पर किससे? क्या उन छोटी बातों से जो कभी किसी सन्नाटे में उसने ही पैदा की थीं... जिन्हें वह घर के किसी कोने में रख कर भूल गया था? पर वह अचानक बहुत हल्का महसूस करने लगा था। यह बदला उसने घर के हर कोने की बैचेनी से लिया था... उसकी क़लम हल्की हो गई...। कोरे कागज़ पर उभरे सारे चहरों पर से उनके नाम पिघल कर टपकने लगे। वह आदमी इस सुख को छिपा ना सका... उसकी हंसी में बदला था... अपने ही, बीच में छूटे हुए, अनकहे सत्य से बदला..। एक फांस गड़ने की तकलीफ को कम करने के लिए दूसरी बड़ी फांस को अपने भीतर गड़ा लेना... वह खुश था..। उसे भी पता था कि इस पीड़ा से हास्य उभरेगा... वह हास्य लिखेगा...।
यह कई साल पुरानी बात है...। आज वह नाटक कई जगह खेला जा रहा है... पर आज भी जब कभी वह अपने नाटक के कुछ वाक़्य सुनता है तो उसे उस सघन शांम की याद हो आती है.. जब एक झटके में सन्नाटा छा गया था। ऎसे दिनों में जब भी वह घर वापिस जाता है तो घर में घुसते ही वह एक छोटा लाल रंग का लेंप जलाता है...। पूरे घर में बिखरा उजाला उससे सहन नहीं होता...। वह घर के कोनों को अंधेरे में ही रहने देता है..। उन कोनों की बैचेनी अभी भी उसका उसी शिद्दत से इंतज़ार कर रही हैं.... पर वह बदला लेने जैसे वाक्य के बिना किसी भी खाली पन्ने के करीब नहीं जाना चाहता है...। उसकी व्यस्तता उसका हथियार है... दिन में सूरज की रोशनी में जब सब कुछ साफ दिखता है तब वह बहुत से कामों का सिलसिला अपने आस पास उगाए रखता है...। वह सारे कामों के सिलसिले शाम तक पेड़ बन जाते हैं जिनमें कोई भी फल नहीं उगता...। बस उसकी समस्या शाम से शुरु होती है.. जब बिना फल के पेड़ उसकी भूख को चिढ़ाने लगते हैं...। तब ऎसे कई क्षणों में वह अपने लिखे हुए हास्य पर बात करने लगता है...बिना रुके.. बड़बड़ाता हुआ सा... तेज़ गवार हसी हंसता हुआ...।

5 comments:

अनुपमा पाठक said...

पीड़ा से हास्य उभरेगा... वह हास्य लिखेगा...।
a beautiful possibility!

It is always wonderful to read you!!!
regards,

प्रवीण पाण्डेय said...

दिन बढ़ता है और लड़ाई सूरज से होने लगती

वाणी गीत said...

यह लेखक का कमीनापन है... जब कोई एक बात अपनी पूरी छटपटाहट पर होती है तो वह ठीक उसके उलट बात लिखना शुरु कर देता है... इस तरह वह बदला लेता है... पर किससे?
गहन दृष्टि है लेखकीय मनोविज्ञान पर !

Pratibha Katiyar said...

उसकी व्यस्तता उसका हथियार है...

डॉ .अनुराग said...

ओर जीना जैसे एक तय वक़्त पर किया गया काम ..वो भी सलीके से

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल