Tuesday, January 3, 2012

खिड़्कियाँ....


इस तरह की अकेली दौपहरें... ना जाने कितनी खिड़कियों के साथ मैंने काटी हैं..। मेरा सबसे सुंदर वक़्त इन खिड़कियों से झांकते हुए ही बीता है...।
एक खिड़की मुझे याद आती है... शायद जीवन की पहली खिड़की... बारामुला, खोजाबाग़ (कश्मीर...)... जहाँ से मुझे अपने आंगन में उगे हुए पौधीना के पौधे दिखते थे...उनकी खुश्बू...। बर्फ गिरने पर बुखारी की गर्मी में रजाई में लिपटा हुआ मैं खिड़की से उन बर्फ के गोलों को देखता जिन्हें मेरे और मेरे भाई ने मिलकर बनाए थे..। एक बार वहां से मैंने अपने आंगन की दीवार पर से एक चोर को भी भागते हुए देखा था...। वह चोर दौपहर में बाहर सूख रहे कपड़े चोरी करता था। एक दिवार से दूसरी दीवार पर छलांग मारते वक़्त वह लड़खड़ा गया था... और तब उसने मेरी तरफ देखा था। मैं अपनी खिड़की में बैठा था... हम दोनों की आंखे कुछ देर के लिए फसी थी.. फिर वह भाग गया था। बरसों तक मैं उस चोर की शक्ल नहीं भूल पाया था...। वह भागते हुए बहुत बेचारा दिख रहा था... मुझे उस वक़्त तक पता था कि चोर खूंखार होते हैं.. पर वह बहुत बैचारा था.. दयनीय.. भूखा..। बाद में पता चला कि वह पकड़ा गया है...। मुझे उसके पकड़े जाने पर बहुत पचतावा हुआ था...। उस खिड़की से कुछ दूरी पर पहाड़ भी दिखता था... मैंने बड़े सपने देखे थे कि एक दिन उन पहाड़ों पर जाऊंगा पर हमें खोजाबाग़ छोड़ना पड़ा...। वहां के कौए मुझे बहुत याद आते हैं... एक कौओं का परिवार था... पापा कहते थे कि यह मेरे जासूस कौए हैं.. यह मुझे सारी रिपोर्ट देते हैं तुम्हारे बारे में...। आज भी कौओं को देखकर मैं सचेत हो जाता हूँ।
दूसरी खिड़की..... श्रीनगर की खड़की दूसरी मंज़िल पर थी... मैंने वहाँ से चीलों को देखा है...। कई लम्बीं दौपहरों में जब मैं शहतूत के पेड़ पर नहीं छुपा होता था तो मैं खिड़की से चीलों को देखा करता था। कुछ चींलो को मैं पहचानने भी लगा था। उसमें एक बूढ़ी चील थी... जिसके परों को झड़ते हुए मैंने देखा था... (मैं उस देयनीय चोर के बार में कभी नहीं लिख पाया.. पर बूढ़ी चील को मैं लिख चुका हूँ)। मैं वह दिन कभी भी भूल नहीं पाया हूँ.... आज भी जब कभी मैं चीलों को देखता हूँ तो मुझे श्रीनगर की वह खिड़की याद आती है..।... और याद आता है सुंदर नीला आकाश... सफेद रुई जैसे बादलों से सजा हुआ। चील की उड़ान में..उसके किसी पेड़ पर आकर बैठने में संगीत है.. मैं चील को देखते हुए कभी बोर नहीं हो सकता हूँ।
फिर चहल पहल से भरी हुई खिड़की जीवन में आई... होशंगाबाद की खिड़की...। यही वह जगह थीं जहां मुझे पहली बार चीलों-पहाड़ों से अलग... लोगों के मैले में मज़ा आने लगा...। मेरे घर की खिड़की से एक कुंआ दिखता था, जिसमें मेरी जाने कितनी गेंदें गुम चुकी हैं...। उस कुंए के ठीक बग़ल में मुझे मोहन का टप दिखता था... आह!!... गोली बिस्किट... खटाई, पोंगापंड़ित.. और जाने क्या-क्या उसकी छोटी सी दुकान में होता था। मैं अपने पैसे अपने जेब में नहीं.. बल्कि मुंह में लिए हुए घूमता था... एक दौपहर... दौपहर महत्वपूर्ण है क्योंकि दौपहर में ही उसकी दुकान पर बहुत कम लोग होते थे... सो एक दौपहर मैं उसकी दुकान में गटागट लेने गया.... जब मैंने उसे अपने मुंह से पैसे निकालकर दिये तो उसने मुझे गटागट की गोली देने से इंकार कर दिया... मैंने वह पचास पैसे का सिक्का उसके सामने अपनी शर्ट से साफ किया... पर ना!!! बाजू के नल से उसे धोया-सुखाया... पर वही.. ना!!! इतनी बड़ी बेईज़ती उस छोटी सी उम्र में मेरे बर्दाश्त के बाहर थी...। सो मैंने कसम खाई कि मैं कभी इसकी दुकान से कुछ भी नहीं खरीदूंगा.. और इसे बर्बाद करके दम लूंगा। बर्बाद कैसे किया जाता है.. उसका कोई भी सिर-पैर मुझे नहीं पता था... बस गुस्सा बहुत था...। अब आप ही बताओ कि... गटागट के लिए मुंह पानी से भरा था, जेब में पैसे थे.. पर गटागट नहीं मिली... ऊफ!!! कोई भी इस तक़लीफ को अब कैसे समझ सकता है? खैर मोहन को बर्बाद करना है इस बंदोबस्त में मैं लग गया.... सो मैं उसका पीछा करने लगा...। पीछा करते-करते मैंने जान लिया कि वह अपना सामान कहां से लाता है... सो एक दिन मैं उस थोक की दुकान पर गया... और पूरे तीस रुपये का माल वहां से उठा लिया... (मुझे आज तक नहीं पता कि वह तीस रुपये मेरे पास कहां से आए...।) अब मेरी खिड़की... जिसके ठीक सामने मोहन की दुकान थी... उसी खड़्की में मैंने मोहन के विरुद्ध गोली-बिस्कुट की दुकान खोल ली थी...। मैंने लगभग छ: महीने वह दुकान चलाई... मुझे याद नहीं कि मैंने कभी अपनी दुकान में गटागट खाई थी..। मैंने शायद उसके बाद कभी भी गटागट की गोली नहीं खाई...। अपनी दुकान चलाने की व्यस्तता में... मोहन से बदला लेने वाली बात भी मैं भूल गया..। उन छ: महिनों में मेरा पूरा मोह गोली-बिस्कुट से उठ चुका था.. मैं उन छ: महिने में बड़ा हो गया था.. शायद।
यह उस खिड़की की कहानी थी...। इसके अलावा मैने उस खिड़की से... अजीब-अजीब लोगों को देखा.. मृत्यु देखी.. जीवन देखा... और जो सबसे खूबसूरत चीज़ देखी.. जिसके प्रेम में मैं आज तक हूँ.. वह थी बारिश...। बादलों का धीरे-धीरे नमी भरे माहौल में आना.. तेज़ हवाओं का चलना.. और झर-झर... बारिश.. मिट्टी की खुश्बू... आह!!! पहली बारिश में भीगना अच्छा होता है.... (पता नहीं कहां यह बात सुनी थी।) हर पहली बारिश में मैं ज़ार-ज़ार भीगा हूँ...। मैंने देर रात भी बारिश देखी है... बल्ब की रोशनी खिड़की के आकार में बाहर पड़ जाती थी... उसमें मेरे होने की परछाई के अलावा... बाक़ी जगह में पानी का बहना देखना.. मुझे जादुई लगता था। मेरी बहुत इच्छा होती कि इस बहते पानी के पीछे-पीछे मैं उसके अंत तक जाऊं... उसका अंत देखूं... कहां जाकर यह पानी ठहर जाता है..?
मेरे बचपन की यह तीन खिड़कियां... मुझे सपनों के बायस्कोप जैसी लगती हैं..। पहली खिड़की से मैंने बर्फ देखी.. दूसरी से कश्मीर का नीला आसमान... तीसरी खिड़की से बरसात। इस उम्र तक आते-आते मैंने जाने कितने घर बदले हैं.. पर हर घर में घुसते ही मैं सबसे पहले उस घर की खिड़की देखता हूँ...। अगर वह एक नए मौसम की तरफ खुलती है तो मैं झट से उस घर में रहने लगता हूँ। इन्हीं खिड़कियों के कारण मुझे अकेली लंबी दौपहरे बहुत पसंद है... और मैं कभी इनसे बोर नहीं होता।

4 comments:

Pratibha Katiyar said...

और जो सबसे खूबसूरत चीज़ देखी.. जिसके प्रेम में मैं आज तक हूँ.. वह थी बारिश...। वो बारिश..अब भी हो रही है कहीं...

इतना भीगा हुआ कैसे लिखते हैं आप मानव.

प्रवीण पाण्डेय said...

एक जगत को दूसरे से अलग करती ये खिड़कियाँ।

अभय मिश्रा said...

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/8507-2012-01-09-05-06-57

सदा said...

अनुपम भाव संयोजन
कल 18/01/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्‍वागत है, जिन्‍दगी की बातें ... !

धन्यवाद!

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल