Thursday, July 26, 2012

धुंध..

Sona pani.. फिर पहाड़ों पर... बहुत थका हुआ काठगोदाम से एक गाड़ी लेकर पहाड़ों पर निकल गया। ड्रायवर शांत था... मैं अपने सपनों से बाहर निकलकर हर कुछ देर में उससे एक सवाल पूछ लेता... वह छोटी सी आवाज़ में मेरे सवालों को खत्म कर देता..। मेरे सवाल इस डर से निकलते थे कि कहीं वह सो ना जाए..। भीम ताल से कुछ पहले ही धुंध भरी पेंटिग में हमारी गाड़ी प्रवेश कर गई। यह दुनिया जो अब तक सच में मेरे सामने थी गायब हो गई। मैं जिन भी सपनों में तिर रहा था सब खो गए। मैं उस चित्र में प्रवेश कर चुका था जो दिख नहीं रहा था। कार की गति बहुत धीमी हो गई... मैं कार की खिड़की से अपना सिर बाहर को निकाल लिया..। नमी... मेरी त्वचा बहुत दिनों बात नमी महसूस कर रही थी। भवाली में हम कुछ देर रुके... मैं हमेशा भवाली में रुक जाता हूँ.. ’कव्वे और काला पानी..’ कहानी को खोजने के लिए..। बहुत बार मैं महसूस करता हूँ कि उस कहानी का नायक (निर्मल वर्मा) खुद यहीं से गुज़रे होंगें। चाय पीते हुए अचानक बारिश होने लगी... मैं उस कहानी के बहुत करीब था। तभी फिर धुंध की परतों में सब कुछ खो गया। मैं बस अपने चाय के गिलास के साथ था... ड्रायवर चाय नहीं पीता था.. उसने पान की मांग की..। ’उड गया अचानक लो भूधर...’ पंत जी की कविता जो बचपन में पढ़ी थी, we live as if its real… Cohen की यह लाईन भी याद हो आई.. और फिर पहाड़ में बिताए दिनों की झड़ी लग गई। कुछ देर में सब कुछ धुंधलाने लगा.. मैं धुंध में दृश्य खोज रहा था। मैं टुकड़ों-टुकड़ों में यहां आता हूँ... पर जब यहां रहता हूँ तो लगता है कि मैं टुकड़ों-टुकड़ों में शहर जाता हूँ...। पहाड़ आपसे इतना दूर रहते हैं कि अपनापन देते हैं। ज़मीन मेरे रेंगते हुए जब सवालों से मैं भर जाता हूँ तो पहाड़ आ जाता हूँ.. पहाड़ में प्रवेश करते ही सब कुछ छिछला लगने लगता है..। भवाली से तल्ला, मल्ला होते हुए.. सोना-पानी के करीब पहुंच गए। कार को अलविदा कह दिय..। लंबी यात्रा का सामान कुछ ज़्यादा था... खुद को कोसते हुए.. मैं उसे सिर पे लादे चल दिया। बादल, धुंध.. पहाड़.. बिजली.. चहचहाहट..। कभी-कभी लगता है कि हज़ारों सालों से ज़िदा हूँ... बिना रुके जिये चला जा रहा हूँ। दृश्य बदल रहे हैं... लोगों के साथ संवाद बदल जाते है पर मैं वही हूँ.. सालों से एक सा...। अपनी बातें वैसी की वैसी दौहराता हुआ। मैं किससे क्या कह दूंगा..? और क्यों? मैं हर बिखराव को अपनी बातों से एक तारतम्य को देना चाहता हूँ.. मैं जो मुक्त (झूठ).. बिखराव पसंद करता हूँ (यह भी झूठ ही है)... वह हर चीज़ को सांचे में क्यों ढ़ालना चाहता है..? झूठ.. मैं चुप हूँ..। सुबह-सुबह भीतर जंगल में जाकर बैठ गया। सामने अलमौड़ा कभी दिखता कभी लगता कि वहां कुछ कभी था ही नहीं। अतीत मधुमक्खीयों के झुंड की तरह लगता है... जब तक चलते रहो तो वह पीछे रहता है. जैसे ही कहीं बैठ जाओ तो वह आपको धर दबोचता है..। मुझे बारिश में पहाड़ इसलिए बहुत खूबसूरत लगते है क्योंकि यहां अतीत की मधुमक्खीयां आपको परेशान नहीं करती। अतीत धुंध में भटक जाता है.. मैं आगे कहीं निकल जाता हूँ...। सामने बादल का एक टुकड़ा अलमौड़ा पर कुछ इस तरह टंगा है जैसे लगता है कि किसी ने रस्सी से इस बादल को सुखाने के लिए डाला हो..। मैं पर्यटक नहीं हूँ.. पर मैं दृश्य भी नहीं हूँ। मैं बीच में कहीं डोल रहा हूँ। मैं शांति के लिए लड़ाई नहीं करना चाहता सो हिंसा में गोबर लीप रहा हूँ। क्या मैं यहां हूँ? मैं कब दृश्य हूँ? और कब उसे महज़ दूर से देखता हूँ? तभी एक वह पीली चिडिया दिखी.. और मैं रुक गया।

2 comments:

Swapnrang said...

अतीत मधुमक्खीयों के झुंड की तरह लगता है... जब तक चलते रहो तो वह पीछे रहता है.vजैसे ही कहीं बैठ जाओ तो वह आपको धर दबोचता है

प्रवीण पाण्डेय said...

इस धुंध में न जाने कितना इतिहास छिपा है..

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल