Tuesday, February 5, 2013

बिना वजह...

काम खत्म होता है... एक सपना जिसे बहुत मन से देखा गया था खत्म होता है... दिन, पूरा जी लेने के बाद अपने अंजाम पर पहुंच जाता है... शाम टहलते-टोहते काली होती जाती है... एक गोलाकार शुरु होता है और अपने ही उद्गम से अंत में चिपक जाता है। हम कहते हैं असल में हर चीज़ गोल है...। खेल है लुका छिपि का.. हम हर सपने में आँखों पर पट्टी बांध लेते हैं... फिर भटकते हैं.. लगता है इस पूरी दुनिया में कोई चीज़ है जो हमसे टकरा जाएगी जब आँखें बंद होंगी... हमें पता नहीं होगा और रात कट जाएगी... और अधिक्तर रात इसी तरह कट जाती हैं...। जब सुबह होती है तो चमत्कार लगता है... लगता है कि पट्टी उतर गई है... क्या पट्टी उतर गई है? क्या हम सुबह देख रहे हैं? शाम होते-होते लगता है कि सब छलावा है... हम बस.. कुछ कदम चलकर वापिस वहीं खड़े हैं। किन्हीं अच्छे क्षणों में हमें हमारे पद्दचिन्ह दिखते हैं.. लगता है कि कितनी लंबी यात्रा की है... पर असल में हमारे पैर एक कदम आगे चलकर चार कदम पीछे आते हैं। यह पीछे की यात्रा टोहना हैं... यह टटोलना है... हम चले कम थे भटके ज़्यादा... हम सुबह उठते हैं तो रात में देखे सपनों को टटोलने में लग जाते हैं...। मैंने एक नाटक देखा था... मैं प्रेम में था... किसी ने सपने में मुझसे कहा था कि यह काग़ज रख लो और इसपर वह लिखो जैसा तुम जीना चाहते हो... तुम बिल्कुल वैसे ही जियोगे... पर तुम्हारे पास सिर्फ यह रात है.... सुबह होते ही कागज़ गायब हो जाएगा..। मैं तुरंत लिखने बैठ गया.. मैं प्रेम में था और मैं प्रेम लिखना चाहता था... मैं पेन ढ़ूंढ़ने लगा... पूरा कमरा छान मारा पेन नहीं मिला... फिर एक कप में पेन पड़ा था मैं उसे लाया पर उसमें सियाही ख़त्म हो चुकी थी.. मैं हड़बड़ाने लगा... मैं अपने घर से निकल गया... कोई दुकान..? किसी इंसान के पास पेन मिल जाए...? कोई नहीं दिखा...। फिर अचानक वह दिखी... मैंने उससे पूछा ’क्या तुम्हारे पास पेन है.. मैं हमारे प्रेम के बारे में लिखना चाहता हूँ...’ उसने अपने पर्स में खोजा उसे लाल रंग का एक पेन दिखा... मैं उससे मांगना चाहता था.. पर वह अचानक भागने लगी... मैं उसके पीछे भागा... चिल्लाता रहा... ’मैं हमारी बात लिखूंगा... हमारा प्रेम... रुको.. सुनों.. रुको....’ वह नहीं रुकी... दूर जाकर वह खड़ी हो गई और उसने पेन तोड़ दिया....। मैं अपने कमरे में वापिस था... पेन ढूंढना मैंने त्याग दिया..तभी मुझे अपनी किताबों में छुपा हुआ पेन दिखा... मैं बहुत देर तक उस कोरे कागज़ के सामने बैठा रहा... पर कुछ लिखने की इच्छा नहीं हुई...। मैंने बिना किसी वजह के चित्र बनाने लगा... जो मेरी समझ से बाहर थे... पर मैं उन चित्रों में बहुत सी संभावनाए देख सकता था... तभी सुबह हो गई... और वह कागज़ गायब हो गया। मैं वापिस उद्गम पर खड़ा था...। मुझे बिना किसी वजह के चित्र याद रह गए... फिर लगा कि यह सही है... बिना किसी वजह के दिन.. साल... सब चीज़ सुलझने लगी...। फिर पद्चिन्ह को देखा... बिना किसी वजह का पहला कदम.. बस बात यहीं खत्म हो जानी चाहिए..। फिर भी जिस सपने ने यह बात बताई वह भी पीछे चलने पर मिला था... आगे चलना हमेशा सहमा सा अर्थ भीतर दबाए रहता है... बिना वजह की सीढ़ीयों पर काई के समान जमा वह सहमा अर्थ... जब उसपर पैर फिसलता है... तब वह जो चोट.. वह तकलीफ़ है पीड़ा है.. वही नाटक है,कहानियां है, कविताएं है.. और असल में कुछ भी नहीं है।

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

समय बीता,
हाथ रीता।

Pratibha Katiyar said...

ये असल में कुछ नहीं होना मैंने आपसे ही जाना है और इसके बाद कितना कुछ सुलझने लगा है। आपको पढना एक ट्रीट होता है। कलम का टूटना भी।

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल