Wednesday, February 6, 2013

NOTES FROM A SMALL ROOM.....

बहुत सुबह उठना मुझे हमेशा से पसंद है। मैं अपने कमरे में अंधेरा रखता हूँ और बहुत धीमी गति से रोशनी का कमरे में प्रवेश देखता हूँ.... यह हमेशा मुझे चमत्कार लगता है। शायद बहुत से छोटे कमरों में रहने के कारण मुझॆ हमेशा छोटी चीज़ों में दिलचस्पी रही है। मुझे सूर्य अस्त और सूर्य का उगना कभी बहुत पसंद नहीं आया.... वह मेरे लिये बहुत बड़ी चीज़ है... मुझे इन दोनों का असर बहुत छोटी चीज़ों पर महसूस करना बहुत पसंद है। जैसे बहुत पहले नैनीताल की सुबह देखी थी.... एक झाडू लगाता हुआ आदमी...चाय की दुकान का खुलना... दूर एक भजन की किसी मंदिर में शुरुआत... हरिओम शरण का वह भजन अभी भी याद है... वह बिल्कुल पूना में देखी सुबह जैसी थी पर फिर भी बहुत अलग... अखबार वालों का साईकल पर निकलना... दूधवाला... पहली चिड़िया की अलसाई पहली आवाज़... यह सब किसी नाटक के पैदा होने जैसा लगता है.. और यह सब सिर्फ सुबह के पात्र हैं... हर शहर में.. हर गांव में यह अपने नाटक की शुरुआत बिल्कुल अलग तरीक़े से करते हैं... नाटक एक ही है... पात्र भी लगभग वहीं हैं... पर फिर भी नाटक बिल्कुल अलग..। शुरुआत मुझे हमेशा बहुत पसंद है... किसी नाटक की शुरुआत के वक़्त मैं बहुत उत्साहित रहता हूँ चाहे फिर उसे मैं लिख रहा हूँ या देख रहा हूँ...। फिर मुझे दौपहरे भी बहुत पसंद है... मेरे गांव की दौपहरे मुझे बहुत याद आती है... बाड़े में हमेशा उत्सव का माहौल रहता था.. पर उत्सव मुझे कभी बहुत आकर्षित नहीं करते थे... मुझॆ उन दौपहरों के अंधेरे कोनों में खेले जा रहे खेल बहुत सुंदर लगते थे...। छोटे सीक्रेट... एक गुप्त कोना... एक बिल्ली जिससे देर तक बात करना... एक नदी... पर पूरी नदी नहीं उसका एक छोटा किनारा...। जब लिखना शुरु किया तब भी मुझे वह दौपहर बहुत अच्छी तरह याद है जिसमें मैंने शक्कर के पांच दाने का पहला शब्द लिखा था.. “मैं लड़ रहा हूँ.....”। मेरे लगभग सारे नाटकों की शुरुआत दौपहर के ख़ालीपन में हुई है... और हर नाटक की शुरुआत का वक़्त मुझे बहुत अच्छी तरह याद है। उस वक़्त किस तरीक़े का संगीत बज रहा था वह भी मुझे याद है....। यह अजीब है मुझे सुबह होते देखना पसंद है... और मेरे लगभग सारे कामों की शुरुआत दौपहरों में हुई है। मैं अपने खुद के साथ बहुत व्यस्त रहता हूँ... मैं किसी भी एक बात पर पूरा दिन बिता सकता हूँ.. जैसे कल मुझे मेरी बाल्कने पर चींटियों की रेल दिखी.... अब उसकी शुरुआत और अंत देखने की उम्मीद इतने थी कि मैं अपने उत्साह को रोक नहीं सकता हूँ.... पर तुरंत मेरी दिलचस्पी बदल जाती है जब मैं उन चींटियों के बीच एक ऎसी चींटी को देख लेता हूँ जो पूरी तरह चींटियों के चलने के या काम करने के नीयमों का पालन नहीं कर रही होती है... किसी एक ही चींटी की चाल में मस्ती होती है। हम सब कितना डरते हैं कि कहीं हम चली आ रही लाईन से अलग ना हो जांए... या अलग ना कर दिये जाएं... एक अच्छे आदमी बने रहने के सारे नीयम हम कितनी संजीदग़ी से निभाते हैं... क्या हमारी चाल में मस्ती है..??? फिर शाम आती है...। इन शामों को मैं टहलना बहुत पसंद करता हूँ... शाम को मेरे संबंध हमेशा किसी ना किसी से बन जाते हैं... जैसे मेक्लॉडगंज में एक पेस्ट्री वाला था... कृष्ना.. मेरी शामें वहां उसके साथ बीतती थी... उत्तरांचल के पहाड़ों पर हंसा था... मेरी बिल्डिंग के नीचे एक गोलगप्पे वाल है जो मुझे बेकेट के एबसर्ड नाटकों का पात्र लगता है... मेरे और उसके संवादों में कोई भी तालमेल नहीं होता है... मैं अगर उससे कहूँ कि आज बहुत अकेलापन लग रहा है.. तो वह कहता है कि पानी में मिर्ची थोड़ी तेज़ है आज... मैं कहता हूँ... यह फिल्म देखी तुमने? वह कहता है कि कल बारिश की वजह से आ नहीं पाया.. आप कहीं मुझे ढ़ूंढ़ तो नहीं रहे थे?.... मुझे बहुत अच्छा लगता है उस गोलगप्पे वाले के साथ अपना वक़्त बिताना.... मैंने अपनी बहुत निजी तक़लीफों को उससे बिना हिचके कह दिया है.... और उसके दिये सारे जवाब राम बांड की तरह काम करते हैं। हर गोलगप्पे के बाद मेरे चहरे की मुस्कुराहट बढ़ती जाती है। शाम को हमेशा यूं ही किसी से देर तक बात कर लेने का बहुत सुख होता है.. मुझे लगता है कि एक पूरा दिन बिता लेने के बाद.. ठीक रात में घुसने के पहले लोग उस दिन के बारे में बात करना चाहते हैं...। इसलिए शायद वह शामें ही है जहां मैंने अपने बहुत सुंदर दोस्तों को पाया है....। टहलने के अलावा मुझे अपनी अकेली निजी शामें भी बहुत पसंद हैं.. जिनमें मैंने कुछ भी नहीं किया है.... उनमें ज़्यादा से ज़्यादा मैंने दीवारों में छुपे हुए चहरों को देखा है... उनका ज़िक्र रहने देते हैं। फिर रात होती है...। मैं इस वक़्त धीमी गति का संगीत रखता हूँ... और तब तक बल्ब नहीं जलाता हूँ जब तक कि रोशनी का आख़्ररी कतरे की विदाई ना कर दूं....। अपने कमरे से इस विशाल ब्रह्मांड का निकलना... पूरे दिन का जाना... किसी एक नाटक का अपने अंत पर पहुंचना... इसमें चुप्पी की ज़रुरत होती है... और उस चुप्पी में अगर एकदम सहीं संगीत को मिला दिया जाए तो वह दिल को छू देने वाला अंत हो सकता है...। ऎसे वक़्त मैं चाय नहीं कॉफी बनाता हूँ। मैंने अपनी अधीकतर पढी किताबों को ठीक इन्हीं शामों और रातों के बीच कॉफी पीते हुए खत्म किया है। किसी लंबे चली आ रही कहानी को खत्म करना... इससे सुंदर वक़्त कौन सा हो सकता है...। मेरे चहरे पर हमेशा एक मुस्कुराहट होती है... ऎसे वक़्त मैं अधिक्तर अपनी पढ़ी हुई किताबों को फिर से पढ़ने के लिए उठाता हूँ...। पूरे कमरे में टहलते हुए उस किताब को फिर से पढ़ता हूँ... पढ़ी हुई किताबों को फिर से पढ़ने में असल में पढ़ने का सुख है... वह दूसरी बार में आपकी अपनी हो जाती है... अपके अपने जिये हुए की खुशबू उस किताब के पन्नों से आने लगती है। मैं बहुत देर रात तक नहीं जगता हूँ...। सुबह होती देखने का उत्साह मुझे हमेशा जल्दी सुला देता है। एक ड्रिंक... हाथ में सिग्रेट... उल्टी पड़ी हुई कोई किताब और पीछॆ हल्के सुर में चलता हुआ संगीत... यह दृश्य को देखते हुए मैं कब सो जाता हूँ मुझे पता ही नहीं चलता। सो आज बहुत सुबह उठ गया हूँ....। अभी रोशनी ने कमरे में प्रवेश किया है.... कबूतरों चिड़ियों की आवाज़.... बाहर दो चील भी अपने करतब कर रहीं हैं... सामने के पेड़ पर नौ चिड़िया बैठी हुई हैं..। अब मैं लिखना बंद करता हूँ..... चाय पीने की इच्छा है...। जिस पढ़ी हुई किताब को फिर से पढ़ते हुए आज सुबह की शुरुआत हुई वह यह है.... HAPPINESS IS AS ELUSIVE AS BUTTERFLY, AND YOU MUST NEVER PURSUE IT. IF YOU STAY VERY STILL, IT MIGHT COME AND SETTLE ON YOUR HAND.BUT ONLY BRIEFLY. SAVOUR THOSE PRECIOUS MOMENTS, FOR THEY WILL NOT COME YOUR WAY VERY OFTEN. -RUSKIN BOND… कितनी सुंदर सुबह है यह....।

8 comments:

Shraddhanshu Shekhar said...

Sundar abhivyakti :)
good morning :)

Anonymous said...

परों की तरह,बहती नदी,खिलता आसमान,और गदराये बच्चों के गालों को हल्का सा छुलाता कमरा एहसास किताब और मानव |हम तो बहते ही चले गए और पहुँच गए बालकनी में|
माँ

रश्मि प्रभा... said...

सुबह का सौन्दर्य छोटे से कमरे में .... बहुत सुन्दर

प्रवीण पाण्डेय said...

आपका लेख छू गया, सुबह, दोपहर, शाम, रात..सब एक एक कर के अपना रंग दिखा रहे हैं आखों के सामने।

Pratibha Katiyar said...

अहा!

Mahi S said...

<3 keep blogging

Harihar (विकेश कुमार बडोला) said...

किताबी कीड़े को पहली बार सुबह जल्‍दी उठते और रात को जल्‍दी सोते सुन रहा हूं। वो भी उसी के मुख से। आपका आलेख विशेष भाव दर्शन का जीवंत उल्‍लेख है।

Shefali Tripathi Mehta said...

किसी एक ही चींटी की चाल में मस्ती होती है।
छोटी बातें, छोटी, छोटी बातों की हैं यादें बड़ी...

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल