Friday, February 15, 2013

धूप....

(अपनी लिखी जा रही कहानी का एक अंश...) धूप थी बहुत तेज़... आँखें बार-बार बंद हो जाती थीं। वह बादलों जैसे कभी आती तो हम अपने छोटे-छोटे बर्तन इक्कठे करने में लग जाते..। माना कि एक किचिन होगा हमारे भविष्य में... में हम उन छोटे बर्तनों से नाश्ता बनाने लगते... बचपन की जैसी बातों के बीच देर तक चहकते-रहते... ऎसे में पसीने की खुश्बू होती थी... कहीं से हवा चलती ....हवा वो कहती, जो हम इन सारी बातों के बीच नहीं कह पा रहे हो...। शब्द देर तक टटोलने पर अपना मतलब खो देते... मैं उसे बादल कहना चाहता था... पर बादल ज़बान तक आते-आते गीला हो जाता... लगता... यह नहीं है जो वह है... वह ठंडक भी है... वह हवा है.. मैं अब उसे हवा कहना चाहता.. पर हवा चहरे पर पड़ते ही मैं आँखे बंद कर लेता...। मेरे हाथ बार-बार उसके शरीर पर चिपक जाते... जैसे वह कोई चुंबक हो। वह बात बदलने में बार-बार वही बात कह रही होती... जिसे हम दोनों देर तक सुनना चाहते हो..। वह आम के पेड़ के नीचे जाने से डरती थी कहती थी कि ऊपर से लाल चींटिया बरसती हैं.... मैंने उससे कहता कि मुझे आम पसंद नहीं है... हम दोनों बहुत ख़ास है... आम तो बाक़ी लोग है जिन्हें हम दिखते नहीं है। उसे नहीं दिखने की बहुत उत्सुक्ता रहती थी... हम दोनों बार-बार बाहर जाते कि हम लोगों को ना दिखें.. और हम सच में नहीं दिखते थे..। देर तक बिस्तर पर लेटकर एक दूसरे का हाथ टटोलने की हमें आदत थी... वह मेरी भविष्य की रेखा पर अपनी उंग्लियां फैरती थी... मैं उसकी भाग्य रेखा बहुत पसंद करता था.. मेरी हथेली में भाग्य रेखा नहीं थी... यह बात मैंने कभी उसे नहीं बताई..। हम सारी बेमतलब की बातें एक दूसरे के कान में कहते जबकि सारी महत्वपूर्ण बातें मौन रह जाती। वह अच्छा खाना बनाती थी... उसे घर सुंदर रखना पसंद था... मैं उसे बहुत पसंद करता था.. वह मेरी ज़बान थी जो हमेशा उसे देखकर बाहर रह जाती थी... वह बाहर रह जाती थी... मैं भीतर सपने देखा करता था। एक सपना था कि किसी दिन लंबा चलेंगें और भटक जाएगें... हर वह रास्ता लेंगें जो हमारी वापसी को असंभव बना दे...। जब पानी दिखे तो रुक जाएं... और जब पहाड़ दिखे तो सांस ले लें... मैं तुम्हें इमली के पेड़ की कोपल चख़ाऊ...। किस कदर हम हंसेगें... हम कितना साथ हंसते थे... मैं जब भी पुराने दिनों को याद करता हूँ तो एक मुस्कुराहट याद आती हैं.. आँखों में.. होठो का धीरे से सरकना दिखता है... बालों का चहरे पर गिरना फिर संभलना.. सब धीमी गति से सरकता हुआ समय.. जैसे किसी फिल्म का धीमी गति का कोई सीन चल रहा हो। तुम्हारे साथ मैं धीरे-धीरे सरकता था.. बिना किसी प्रयास के... मानों नदी में बह रहे हो... तुम्हारे साथ मुझे कहीं भी पहुंचना नहीं होता था... और हम कहीं भी नहीं पहुंचे। अब इस तेज़ धूप में मैं ठंड़ी हवा की तरह तुम्हें लिखता हूँ... लिखते ही मुझे कश्मीर याद आता है। वह कोमल धूप जिसमें बैठे-बैठे दिन कट जाता था... हमारे बारामुल्ला के घर का आंगन... मुर्गिया नीचे और चील ऊपर... वह दौपहरें तुम्हें लिखते ही याद आ जाती हैं। और भी कुछ दिखता है... खिड़की... खिड़की से बाहर बर्फ ताकना... बुख़ारी का धुंआ.. कांगड़ी की आंच... पता नहीं क्यों हम साथ कश्मीर नहीं गए..। मैं असल में तुम्हें कश्मीर दिखाना चाहता था... खोजाबाग़... जहां मेरे बचपन के खेल.. गलियों में दबे छिपे पड़े हैं..। चलों एक दिन चलते हैं। दूर... बहुत दूर... बहुत दिनों से हमने मिलकर कोई सपना नहीं देखा... तुम्हें याद है ना सारे पुराने सपने... चलों अभी इसी वक़्त एक सपना बनाते हैं... नया... जिसमें खुश्बू हो... जिसमें तुम हो... जिसमें हम हो और एक कहानी... कहानी में हम भटक जांए.. और उसका कोई अंत ना हो... क्या कहती हो? शुरु करें..।

6 comments:

PRATISHTHA said...

gahre bhav me utar kar likha h apne...its amazing....

Harihar (विकेश कुमार बडोला) said...

साथी के साथ भी क्‍या दिन थे..... अनमोल।

Mahi S said...

Touched <3

Anonymous said...

कितना सही सुन्दर प्यारा सांसो से ज्यादा अपना

Anonymous said...

Kitna prem hai..aapki baaton main, aapki soch main, sapnon main..bauhaut sundar prem hai. Itni khoobsurti ke liye aap ka dil se shukriya..

Anonymous said...

सरस्वती का मश्तिशक और राँझा का दिल अज्ञेय की गहराई निर्मल वर्मा की मासूमियत,सोमरस के इस घोल का क्या कहना|

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल