Tuesday, January 29, 2008

अन्तिमा

मैं चाहता हूँ कि मैं अपने उपन्यास (अंतिमा) की यात्रा के दौरांन उसके अनुभवो को यहाँ लिखता चलूं....उसकी कहाँनी को बताए बिना...

एक अजीब सी पीडा, अजीब से अकेलेपन से होकर उपन्यास गुज़रता है। ठीक इस वक्त उपन्यास जिस छोर पर खड़ा है वहां अगर एक शब्द भी फेंको तो वो इतनी देर तक गूजता है कि लगता है जैसे, जल्द ही अगर उसे दूसरे शब्द का सहारा नही दिया गया, तो मेरे कान फट जायेंगे..ये अघिक्तर उन शब्दों के साथ होता है जो झूठे होते हैं, ज़बरदस्ति कहीं फसाए जाते है.. और जिन्हे मैंने अपनी पूरी ईमानदारी या पूरी सच्चाई के साथ नहीं लिखा होता है...। वक़्त उपन्यास को लिखने में उतना नहीं लग रहा है जितना वक़्त इन झूठे शब्दों को मिटाने.. अजीब बात है..:-).

Tuesday, January 22, 2008

abhi jeena baaki hai..


सब कुछ हो रहा है,

हर शाम एक टीस का उठना,

सब कुछ होने मैं शामिल रहता है।
किस्म-किस्म की कहानिया, आखो के सामने चलती रहती है।

कुछ पड़ता हूँ ... कुछ गढ़ता रहता हूँ।

दिन में आसमान दखता हूँ,

जो तारा रात में दखते हूए छोडा था...वो दिन में ढूँढता हूँ।

सपने दिन के तारो जैसे है॥

जो दिखते नही हैं... ढूढने पड़ते हैं।

रात में सपने नही आते....

सपनो की शक्ल का एक आदमी आता है।

ये बचा हुआ आदमी हैं।

जो दिन के सब कुछ होने में सरकता रहता है,

और शाम की टीस के साथ अंदर आता हैं।

ये दिन की कहानी में शामिल नही होता....

इसकी अपनी अलग कहानी हैं...

जिसे जीना बाकी हैं....


...मानव

क्या हमारा जीना,लगातार चमत्कारों का सामान्य होता जाना नही है.

LinkWithin

Related Posts with Thumbnails

मानव

मानव

परिचय

My photo
मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल