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सब कुछ हो रहा है,
हर शाम एक टीस का उठना,
सब कुछ होने मैं शामिल रहता है।
किस्म-किस्म की कहानिया, आखो के सामने चलती रहती है।
कुछ पड़ता हूँ ... कुछ गढ़ता रहता हूँ।
दिन में आसमान दखता हूँ,
जो तारा रात में दखते हूए छोडा था...वो दिन में ढूँढता हूँ।
सपने दिन के तारो जैसे है॥
जो दिखते नही हैं... ढूढने पड़ते हैं।
रात में सपने नही आते....
सपनो की शक्ल का एक आदमी आता है।
ये बचा हुआ आदमी हैं।
जो दिन के सब कुछ होने में सरकता रहता है,
और शाम की टीस के साथ अंदर आता हैं।
ये दिन की कहानी में शामिल नही होता....
इसकी अपनी अलग कहानी हैं...
जिसे जीना बाकी हैं....
...मानव
3 comments:
मानव जी आपकी यह कविता मुझे अच्छी लगी. इसमें गहरे अर्थ निहित हैं. मेरी बधाई स्वीकार करें.
इस कविता की तारीफ़ तब भी की थी जब पहले दफ़े तुम ने मुझे सुनाई थी.. और आज भी मैं उस तारीफ़ के साथ डट कर खड़ा हूँ..
ब्लॉग खोलने की बहुत बधाई.. तुम्हारे लिखे हुए को पढ़ना अच्छा लगता है..
सर 👌
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