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जब मैं अपने उन दिनों के बारे में कभी-कभी सोचता हूँ, जब मैं बीमार नहीं था, तो काफी अजीब लगता है... अब तो ये भी लगने लगा है कि जैसे मैं कभी ठीक ही नहीं था, मै बीमार ही पैदा हुआ था और इस बीमारी के साथ ही मर जाऊंगा। पर बीमारी के उन शुरुआती दिनों में कई लोग मुझे देखने आते थे...घर मे मानो शादी सा माहौल बना रहता। धीरे-धीरे लोग आने कम होने लगे... फिर लगभग बंद...। कैसे कोई असामान्य बात अचानक से लोगों के लिए सामान्य होती गई। अब दिन में मैं कभी कभी लोगों को बाहर दिखता हूँ तो लोग आश्चर्य से पूछते- ' अरे आज बाहर कैसे?'।
सीधा चलते-चलते मैं थक गया, किनारे लगने की इच्छा है..।
समुद्र पास है, समुद्र किनारे चलता हूँ।
थकान बढ़्ती ही जा रही है, रुकते ही, ठंडी देह पे गरम पसीना या गरम देह पे ठंडा पसीना,जो भी है, बहते ही एक सीहरन उठा देता है... जो चलते रहने की थकान से ज्यादा असहनीय है।
पर मैं रुका था, अपने सामने पडे मौड़ को देखकर...।
ये शायद हमारे जीते रहने के इतिहास का हिस्सा है, कि मौड़ को दिखते ही, हमारी देह के भीतर, कोने में छुपा हुआ कोई आदमी , उस चमत्कार या आश्चर्य की उत्सुकता को लिए तैयार हो जाता है,जो शायद हमारे इंतज़ार में मोड़ के उस तरफ काफी समय से पड़ी थी। मैंने मुडने के पहले एक लंबी सांस भीतर ली, वो 'चमत्कार के इंतज़ार, वाला आदमी अपनी पूरी उत्सुकता से मेरे साथ चलने लगा। मैं मुडा!!
एक बार फिर वो ही अंधेरी लंम्बी गली, लेम्पोस्ट की रौशनी में,छोटे-छोटे पीले धब्बों में पुती हुई सड़क। अगल बगल के अंधेरे फैले मकानों में, ढैरों सपनों सने, सोते हुए लोग। मैंने 'चमत्कार के इंतज़ार' वाले आदमी को देखना चाहा, पर वो वापिस देह के भीतर के किसी कोने मे दुबक गया था। अगले मोड़ या चमत्कार के इंतज़ार मैं।
अब ये सड़क सीधे समुद्र की और जाएगी 'बांद्रा' । उसके बाद.. पता नहीं उसके बाद क्या?