Friday, February 29, 2008

'book'




The HOPI, an Indian tribe, have a language as sophisticated as ours, but no tenses for past, present and future. The division does not exist. What does this say about time?
Matter, that thing the most solid and the well-known, which you are holding in your hands and which makes up your body, is now known to be mostly empty space. Empty space and points of light. What does this say about the reality of the world?

'इल्हाम'

'इल्हाम' नाटक का प्रयोग है, दिल्ली में.. श्रीराम सेंटर, मंडि हाऊस, २ मार्च... ७.३० बजे, शाम को..
अगर आप दिल्ली में हैं तो कृप्या ये प्रयोग देखने ज़रुर आए... और आप अपने दोस्तों को भी कह सकते हैं।में ७ तारीख़ तक दिल्ली में हूँ.. आशा है अच्छा समय बीतेगा।धन्यवाद:-).

अगर आपको 'इरफान भाई' की 'इल्हाम' नाटक पे प्रतिक्रया पढ़ना है, तो कृपया नीचे दिए गए लिंक पे जाए... ।
http://tooteehueebikhreehuee.blogspot.com/2008/01/blog-post_16.html

Thursday, February 28, 2008

अपने से...



आज एक करीब बारह या पंद्रह साल की लड़की को सड़क पार करते हुए देखा, वो अपनी माँ के साथ थी... माँ उसका हाथ पकड़कर उसे सड़क पार करवा रही थी।जिस तरह से वो अपनी माँ के पीछे-पीछे चल रही थी... मुझे लगा शायद वो लड़की विक्लांग है.. पर नहीं वो बस डरी हुई थी।... मैं रिक्शे में था.. सिग्नल पे, काफी देर तक उसे देखता रहा।
मैं अचानक उन सुरक्षाओं के बारे में सोचने लगा... जो लगातार मुझे मिलती रहीं और मैं हमेशा सुरक्षित महसूस करता रहा।माँ के हाथ सी सुरक्षा... माँ की कोख़ सी सुरक्षा... इस पृथ्वी पे रहने की सुरक्षा।
मुझे ये आदत हमेशा एक हिंसक विक्लांगता का रुप लेती सी जान पड़ती है... और हमें विकलंग होने का भ्रम देती सी भी। सुरक्षित होने की दौड़ में हमने हर असुरक्षित चीज़ को खत्म करना चाहा है।एक तरह का युद्ध हम हमेंशा उस डर के खिलाफ लड रहे होते हैं.. जो हमें हमारी सुरक्षित व्यवस्था को बिगाड़ने का भ्रम देता है।
इस सुरक्षित व्यवस्था,जिसमें हम लगातार सुरक्षित महसूस करते रहें, को कायम रखने के लिए शायद हमारे लिए ज़रुरी था कि हम लगातार एक तरह की सोच के लोगों को बनाते रहें।जिसमें हमारे धर्म और हमारी शिक्षा प्रणाली ने भारी योगदान दिया।इसमें किसी भी जीनियस या असामान्य सोच वाले व्यक्ति की जगह ही नहीं बची।
ये मुझे डरी हुई, ओढ़ी हुई सुरक्षित व्यवस्था लगती है,जिसे काय़म रखने की प्रवृत्ती ही हिंसक है,इसीलिए ऎसी किसी भी व्यवस्था ने हमें कभी भी सुरक्षित महसूस नहीं होने दिया।इस हमारी व्यवस्था ने हमेशा हमें एक बैसाख़ी के सहारे चलना सिखाया है।हमें कोई सहारा लगातार चाहिए... जीते रहने के लिए भी।
आदर्श समाज की कल्पना इस माइने में घोर हिंसक है।क्योंकि वो एक तरह के व्यवहार की लगातार अपेक्षा रखती है... जो नामुमकिन है।
इस व्यवस्था में जो चीज़ काम कर रही होती है वो है डर..., असुरक्षित हो जाने का डर।बैसाख़ीयाँ, जो इसी व्यवस्था ने हमें दी है, उनके छिन जाने का डर।लुट जाने का डर... पिट जाने का डर... वगैरा वगैरा।
वो लड़की जब अपनी माँ के साथ सड़क पार कर रही थी तो लगा अगर उसकी माँ नहीं होती तो वो शायद पूरा दिन सड़क के किनारे ही खड़ी... कभी सड़क पार ही नहीं कर पाती। या शायद एक बार हिम्मत करके सड़क पार कर ही लेती... और फिर उसे माँ के सहारे की कभी ज़रुरत ही न पड़ती... क्या पता।
'एक दिन बाढ़ आएगी और हम सब बह जाएगें...' इस डर से हम पूरी ज़िदगी एक नाव बना रहे होते है...खुद की नाव.. हमें बचा ले जाएगी... इक ऎसी आदर्श नाव। उस... एक दिन बाढ़ आएगी के डर से हम पूरी ज़िदगी नाव बनाने के काम में लगे रहते हैं।
यहां नाव बनाने में पूरी ज़िदगी कुछ कर रहें हैं का भ्रम देती हुई कट जाती है और वहां बाढ़ कभी आती नहीं।

Tuesday, February 26, 2008

अपने से...



कल रात नींद आँखो में आ जा रही थी, बाकी बची देह सो चुकी थी। मैं अपने आज के बीते हुए दिन के बारे में सोच रहा था।थोड़ा कहीं बीच में जी लिया, कहीं बीच में रह गया.. कहीं कुछ छूटते-छूटते पकड़ लिया। इस तरह से दिन तमाम हुआ।
इन बहुत सारे ऎसे बीत दिनों में, मुझे कितने दिन याद हैं ???... अगर इसमें सिर्फ जिए हुए को हिस्साब में रखूं... तो हमारी उम्र कितनी कम हुई !!! बहुत कम..। मैं शायद महीना भर पहले ही पैदा हुआ हूँ... नहीं पर मेरे पैदा होने की ' जी हुई याद' किसी और की है.. उसे मैं अपने दिनों में शामिल नहीं कर सकता।सो हमने कब से,कहां से जीना शुरु किया इसका हिसाब बहुत कठिन है , और उम्र कम होने की खुशी भी नहीं हैं।:-)

नींद का एक झोंका आया.. पता नहीं कितनी देर मैं सोया था... फिर आँखे काफी समय तक खुली ही थी,मैं अचानक उन दिनों के बारे में सोचने लगा जो पकड़ में रहते थे।मिट्टी में, धूल में सने हुए दिन...।पलक झपकती थी और बीत जाते थे...। उन्हीं दिनों के ढे़रों छोटे-छोटे मक़सद हुआ करते थे। वो सारे मक़सद उसी दिन शुरु हो्ते और उसी दिन खत्म भी हो जाते। कल आएगा कि नहीं, ये कभी सोचा नहीं। 'कल' को हमारी जितनी चितां थी, उतनी ही हमें कल की। साफ-साफ सा जीते थे.. और खुद पूरे गंदे रहते थे।
अब हमने खुद को पूरा साफ करके रखा है...एकदम चकाचक। सामने गंद्ले से दिन पड़े दिखते है... जिन्हें हम कल्पना के साफ कल में धकेल देते हैं।
'खुद गंदे हो जाएगें' के डर से हम आज जी नहीं पाते... और कल, कल है कि साला कभी आता ही नहीं।:-).

Monday, February 25, 2008

रात के साथ...


page-4

जब मैं अपने उन दिनों के बारे में कभी-कभी सोचता हूँ, जब मैं बीमार नहीं था, तो काफी अजीब लगता है... अब तो ये भी लगने लगा है कि जैसे मैं कभी ठीक ही नहीं था, मै बीमार ही पैदा हुआ था और इस बीमारी के साथ ही मर जाऊंगा। पर बीमारी के उन शुरुआती दिनों में कई लोग मुझे देखने आते थे...घर मे मानो शादी सा माहौल बना रहता। धीरे-धीरे लोग आने कम होने लगे... फिर लगभग बंद...। कैसे कोई असामान्य बात अचानक से लोगों के लिए सामान्य होती गई। अब दिन में मैं कभी कभी लोगों को बाहर दिखता हूँ तो लोग आश्चर्य से पूछते- ' अरे आज बाहर कैसे?'।
सीधा चलते-चलते मैं थक गया, किनारे लगने की इच्छा है..।
समुद्र पास है, समुद्र किनारे चलता हूँ।
थकान बढ़्ती ही जा रही है, रुकते ही, ठंडी देह पे गरम पसीना या गरम देह पे ठंडा पसीना,जो भी है, बहते ही एक सीहरन उठा देता है... जो चलते रहने की थकान से ज्यादा असहनीय है।
पर मैं रुका था, अपने सामने पडे मौड़ को देखकर...।
ये शायद हमारे जीते रहने के इतिहास का हिस्सा है, कि मौड़ को दिखते ही, हमारी देह के भीतर, कोने में छुपा हुआ कोई आदमी , उस चमत्कार या आश्चर्य की उत्सुकता को लिए तैयार हो जाता है,जो शायद हमारे इंतज़ार में मोड़ के उस तरफ काफी समय से पड़ी थी। मैंने मुडने के पहले एक लंबी सांस भीतर ली, वो 'चमत्कार के इंतज़ार, वाला आदमी अपनी पूरी उत्सुकता से मेरे साथ चलने लगा। मैं मुडा!!
एक बार फिर वो ही अंधेरी लंम्बी गली, लेम्पोस्ट की रौशनी में,छोटे-छोटे पीले धब्बों में पुती हुई सड़क। अगल बगल के अंधेरे फैले मकानों में, ढैरों सपनों सने, सोते हुए लोग। मैंने 'चमत्कार के इंतज़ार' वाले आदमी को देखना चाहा, पर वो वापिस देह के भीतर के किसी कोने मे दुबक गया था। अगले मोड़ या चमत्कार के इंतज़ार मैं।
अब ये सड़क सीधे समुद्र की और जाएगी 'बांद्रा' । उसके बाद.. पता नहीं उसके बाद क्या?

Saturday, February 23, 2008

रात के साथ...


page-3

अभी तक कोई coffee वाला नहीं दिखा... खार स्टेशन पास ही है.. चाय पी लू जाकर.. नहीं।पीडा को अगर उसकी पूरी सम्पूर्णता से जीना है तो रुकना कायरता होगी।
वैसे मुझे़ इस शहर की ये सड़क काफी़ अच्छी लगती है... कोई ठोस कारण नहीं... बस.. एक बार मैं देर रात, फ़िल्म देखने के बाद, कुछ दूर तक, अपना रिक्शे का किराया बचाने के इरादे से पैदल चल रहा था... ये शायद मेरी बीमारी के शुरुआती दिन थे...थकान काफी हो रही थी, तभी मुझे सामने के बस स्टाप पर एक लड्की खडी दिखी,वो रिक्शे में बैठे आदमी से बहस कर रही थी... रात में, इस शहर में इस तरह की गतिविधी का में आदि हो चुका था। जैसे ही मैं पास पहु़चा उस लड़की की निगाह मुझसे मिल गई, में कुछ झेंप सा गया, और ये मेरी गलती थी। सभ्य समाज का तमगा जो हम सब ऎसे समय अपने मूंह पे चिपका लेते है, मैं भी चिपका चुका था। लड़की ने तुरंत अपनी आँखे नीचे कर ली... शायद वो इस धंधे में अभी नई थी, इसलिये उसने अभी तक लज्जा का रुमाल अपनी उगंलियों दबाए रखा था। ये मेरी ही गलती थी... मैं ही वो तमगा अपने चेहरे से जल्दी हटा न सका...फिर देर हो गई और मैं उसे हटा भी नहीं पाया...। मुझसे निगाह मिलते ही, वो अपने ग्राहक से बहस करते-करते चुप हो गई थी। मैं अब उस बस स्टाप को क्रास कर रहा था...उसे देखते हुए। पर उसकी आँखे नीचे थी, शायद वो अपने लज्जा के रुमाल को ताक रही थी। वो चुप थी, रिक्शे में बैठा आदमी अभी भी ऊचें स्वर में बोले जा रहा था। मैं शायद अभी भी सिर्फ इसीलिये उसे देख रहा था कि माफी मांग सकूं... पता नहीं।
अचानक उसकी आँखे मुझसे मिली, मुझे लगा वो अपनी निगाह तुरंत हटा लेगी पर नहीं... वो मुझे देखती रही, मैं अपनी निगाह हटाना चाहता था, पर लाख कोशिश के बाद भी मैं हटा नहीं पाया। मैं उस बस स्टाप को, उस रिक्शे को, उस लड़की को क्रास कर रहा था... मुझे लगा मैं एक घंटे से उसे क्रास ही कर रहा हूँ, पर क्रास नहीं कर पा रहा हूँ। अंत में मैं वहां से आगे निकल आया। पर उस लड़की की आँखे अभी तक मैं भूला नहीं हूँ, या शायद सभ्य समाज का तमगा दिखाने का गुस्सा है... जो वो निगाह याद रह गई।
इसिलिये जब भी में इस सड़क पे चलता हूँ... मुझे वो लडकी, उसकी आँखे... और अभी तक ज़िदा मेरी माफ मांगने की इच्छा, सब याद आ जाते हैं।और ये सड़क मुझे, इस शहर की बाक़ी सड़को की बजाए, थोड़ी ज्यादा अपनी लगने लगती है।
खैर वो बस स्टाप जिसपे वो लड़की खडी थी, अभी खाली पड़ा है। इच्छा थी यहां थोडी देर बैठ जाऊ... पर अगर मैं बैठ गया तो उठ नहीं पाऊगां, सो मैं उस लडकी की निगाह साथ में लिये आगे चल दिया।...

Friday, February 22, 2008

अंतिमा...

मैंने अपने उपन्यास में कहीं लिखा है..

'बचपन के खेल से लेकर बडे़ होने के दुख तक'

...उपन्यास की reading के दौरांन मैंने ये वाक्य पढा और पता नहीं क्या हुआ, मैं आगे बढ ही नहीं पाया ...मैं रुक गया..मैंने इसे फिर पढा़... और मैं चुप हो गया। कुछ साल पहले लिखे इस वाक्य ने जैसे मुझे झंझोड के रख दिया।फिर मुझे अचानक अपनी लिखी कविता का एक वाक्य याद आ गया...


कुछ चेहरे थे, जो इसीलिये धुंध में ख़ो गये थे, कि हम बडे हो सकें,
और हम बडे होते गये।


मैं काफ़ी देर तक चुप रहा, मुझसे आगे उपन्यास नहीं पढा जा रहा था।
पर मैं पढता गया...

Thursday, February 21, 2008

शब्द संगीत...


किसी ने कहा है- 'रंगमंच की शुरुआत, शायद किसी आदमी के पहली बार, कविता पढने से ही हुई होगी।'

फाँक्नर ने कहीं लिखा है कि- 'हर लेखक शुरु में कविताएँ लिखने की कोशिश करता है, जब वो उसमें असफल होता है, तो कहानियाँ लिखता है, उसमें असफल होने पर उपन्यास...।'
मुझे एसा लगता है... हर आदमी अपने जीवन की पहली कविता, अपने पहले प्रेम की तरह- अंत तक याद रखता है।

अब इसमें ये प्रश्न भी पूछा जाता है कि- 'कविता क्या है?' ये पूछना वैसा ही है, जैसे ये पूछना कि संगीत क्या है।...अपने पूरे एकांत में हम जैसा संगीत सुनने की इच्छा रखते हैं.... शायद वो ही हमारा संगीत हैं... और वैसी ही कविता।

'कहने की आज़ादी'- होने के बावजूद भी...'कुछ जिया हुआ'.. 'महसूस किया हुआ'- जो हमारे लिए बहुत मह्त्वपूर्ण होता है... पर हम उसे किसी से कभी कह नहीं पाते...कविता शायद ऎसे ही एकांत को 'शब्द' देती है।

अन्तिमा

बहुत समय हो गया उपन्यास वहीं पे है... रुका हुआ। 'उपन्यास की अपनी नि्यति है...'- ऎसा कुछ सोच लेता हूँ, 'जब नहीं लिख रहा हूँ'.. का गिल्ट होता है...।वो कोई और है, जो उपन्यास लिखता है...कोई और है, जो नाटक, कविताएँ या कहानी लिख रहा होता है....। जो अभी तक उपन्यास लिख रहा था, वो लिखने के पहाड की चोटी पर नहीं है, इस चोटी पे इस वक्त कहानी लिखने वाला बैठा है.....उपन्यास लिखने वाला नीचे,..पहाड के गहरे अंधेरे में..... अंधेरे की बहती नदी में, अपना चहरा धोने गया है...:-)..

Wednesday, February 20, 2008

रात के साथ...



page-2

जब घर से चला था तब सोचा नहीं था कि यंहा तक आ सकूंगा... करीब एक घंटा तो हो ही गया है चलते चलते...
इस बिमारी ने नौकरी भी छुडा ली..निकाल दिया गया की बजाय मैं, छोड दिया जाना ज़्यादा पसंद करता हूँ...। पता नहीं कब ठीक होऊंगा... और कब नई नौकरी लगेगी.... कुछ पैसे बचाए थे इतने सालों की नौकरी के, वो भी ये बीमारी ख़ा गयी....। अब उस तस्वीर का क्या करू जो मैंने, अपनी नौकरी करने के दौरांन बनाई थी... कुछ सालों में यह हो जाएगा... फिर वो हो जाएगा...।
मैंने स्कूल-कालेज में पढते हुए सोचा था कि मैं कुछ यायावर सी ज़िन्दगी बिताऊगा...पर बहुत अलग होते हुए भी मैंने एक पगड्डीं पकड ली, पगड्डीं धीरे धीरे सीधी चौडी सडक मैं जाकर मिल गई... मैं इक ढर्रे का हिस्सा बन गया... बिना जाने।
मैं कभी कभी अपनी उन जी जा सकने वाली.. जिद्दों के बारे में सोच रहा होता हूँ... जिन्हें काफी समय तक मैने अपनी जेंबों में रखकर घूमा था... कहा गई वो?, क्या हूआ उनका...?.. हमेशा उनके बारे में सोचकर मुझे अच्छा लगता हैं... मैं कभी एसा जी सकता था:-)..

Wednesday, February 13, 2008

रात के साथ...


page-1

वजह ढूढ्ते-ढूढ्ते जब मैं थक गया तब... बेवजह घर से निकल पडा...। नींद थी जो बिस्तर पर जाते ही गायब हो जाती थी..पर बिस्तर से निकलते ही वो नींद मुझे पूरे शरीर में, शरीर के हर अंगों में कायम सी जान पडती..। 'पीडा'- इस शब्द को मैं उसकी सम्पूर्णता के साथ जीना चाह रहा था। इस लिये विरूद्द चल रहा था, बीमारी के, जो अब महीनो से साथ थी,घर के और अपनो की हिदायत के...। कभी सडक के इस तरफ चलता कभी सडक के उस तरफ..।
भीतर सब ख़ाली है, सब ख़ोखला सा, अंधकार... सो मैं उजाले की तरफ जाना चाहता हूँ...सडक उजली है, इस शहर में देर रात भी सब उजला रहता हैं.. कुछ चहरे सडक के उजाले में दीख जाते हैं.. रिक्शा बगल से गुज़रता है हसीं सुनाई दे जाती है..सडक के दूसरी तरफ दो लोग 'दुनिया बदल दूगा' - सी आवाज़ में, सामान्य बाते करते जा रहे थे। ये सब एक द्रृश्य जैसा था जिसका में दर्शक था...।दर्शक अग़र बीमार हो, तो उसे हर 'स्वस्थ' नाटक ही लगता है।
हम कितने ही एक दूसरे से अलग क्यों न हो, हम सब के पास गिन-चुन कर ८ या १० दुख है,पीडा है।जिन्हें अदल बदल कर हम जीते रह्ते है.। ये खेल जैसा भी हो जाता है... जिसकी आदत किसी नशे से कम नहीं है।
लगातार इन अजीब से विचारो के कारण ही मैं घर से निकला था,पर ये विचार थमने का नाम ही नहीं ले रहे हैं।अब क्या सोच रहा हूँ? क्यों सोच रहा हूँ?...मैं घर के विरुद्द भी इस लिये चल रहा था कि थक जाऊ.. इतना कि 'सांस लेना हैं' के सिवाय और कूछ भी याद न रहें।पसीना निकले इतना कि उसमे सब बह जाए... सब कुछ.. आंसु,बिमारी, विचार, मैं.. ।बिमारी का पसीना बह रहा था... दुख के आंसू जो पता नहीं शरीर में कहा फसे हुए थे, काश इस पसीने में बह जाते.. सालो की कैद से आज़ाद हो जाते..।
चक्कर आ रहा है.. बैठ जाता हूँ। घर बंद करके आया हूँ.. चाबी जेब में है.. पैसे?.. पैसे २० रू .. बस बीस रूपये.. अब अगर चाहूँ भी तो रिक्शे से घर नहीं जा सकता... यहां से मेरे घर का करीब चालीस रूपये होता है... night charge अलग। वापिस चलना शरू करता हूँ...खडे होने की भी हिम्मत नहीं है.. थोडी देर बैठा रहता हूँ..। ये झुरझुरी... ये सिहरन... बैठते ही जैसे इन्होने मुझे घैर लिया हो पूरी तरह..।
बैठना संभव नही है.. चलना ही पडेगा.. पर घर नहीं आगे... पता नहीं कब तक.. शायद जब तक गिर न जाऊ तब तक...

Tuesday, February 12, 2008

अपने से...




'नया जीना है, भीतर से इच्छा काफ़ी तेज़ हैं... पर पुरान कचरा इतना भरा पड़ा है, कि उसे बुहारने में इतना समय खर्च हो जाता है कि जब कमरा साफ़ हो जाता है तो जीना भूल जाता हूँ।'


'सर्दियाँ उन सभी बातों की ठंड़ करीब लाती है, जिन बातों को भुलाने के लिये मैंने पसीने बहाएं हैं।'

'मैं कभी-कभी उस वजह के बारे में सोचता हूँ जिसकी वजह से हम बाहर चले जाते है। अपने से, घर से, शहर से...। शायद हम अपने को ही.. खुद को ही थोडा दूर जाकर देखने की कोशिश कर रहे होते हैं'

अपने से...



उगलियां नहीं चल रहीं हैं।हाथ किसी दोग्लेपन की वज़ह से साथ छोड़ रहे हैं।
जब तबियत खराब जैसी होती हैं-तो पेन और डायरी ढूढ्ने की तलाश- तबियत

ठीक कर देती हैं। दिमाग़ लिख़ने की पीड़ा से भटक जाता हैं।
अब सोचता हूँ.. कि अब नया क्या लिखूँगां... या कैसा लिखूँगा? बहुत सी
images हैं.. पर इच्छा है कि-- मैं तीसरी बात कहूँ.. पर पहली बात पर रहकर ही।जब
नदी- की जैसी बात कर रहा हूँ तो रेगिस्तान में खड़ा हूँ... जब पीड़ा की बात करु तो...
हसतें हसतें आँखों में पानी आ जाएं...।

अब पहला सीन क्या होगा, पहला पाञ, पहली बार मंच पर आकर पहला शब्द क्या कहेगा,

फिर उस शब्द का पहला वाक्य क्या होगा।'नींद... नींद आ रही हैं'...हाँ ये ठीक है..' और फणिश्वर नाथ रेणु पानी लेकर आते हैं'... क्या.. क्या.. shut up.. :-).

LinkWithin

Related Posts with Thumbnails

मानव

मानव

परिचय

My photo
मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल