Wednesday, February 20, 2008

रात के साथ...



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जब घर से चला था तब सोचा नहीं था कि यंहा तक आ सकूंगा... करीब एक घंटा तो हो ही गया है चलते चलते...
इस बिमारी ने नौकरी भी छुडा ली..निकाल दिया गया की बजाय मैं, छोड दिया जाना ज़्यादा पसंद करता हूँ...। पता नहीं कब ठीक होऊंगा... और कब नई नौकरी लगेगी.... कुछ पैसे बचाए थे इतने सालों की नौकरी के, वो भी ये बीमारी ख़ा गयी....। अब उस तस्वीर का क्या करू जो मैंने, अपनी नौकरी करने के दौरांन बनाई थी... कुछ सालों में यह हो जाएगा... फिर वो हो जाएगा...।
मैंने स्कूल-कालेज में पढते हुए सोचा था कि मैं कुछ यायावर सी ज़िन्दगी बिताऊगा...पर बहुत अलग होते हुए भी मैंने एक पगड्डीं पकड ली, पगड्डीं धीरे धीरे सीधी चौडी सडक मैं जाकर मिल गई... मैं इक ढर्रे का हिस्सा बन गया... बिना जाने।
मैं कभी कभी अपनी उन जी जा सकने वाली.. जिद्दों के बारे में सोच रहा होता हूँ... जिन्हें काफी समय तक मैने अपनी जेंबों में रखकर घूमा था... कहा गई वो?, क्या हूआ उनका...?.. हमेशा उनके बारे में सोचकर मुझे अच्छा लगता हैं... मैं कभी एसा जी सकता था:-)..

1 comment:

Anonymous said...

kyon chinta karte ho dost, tum jo bhee kaho par mujhe lagta hai tum dusro se jyada jee rahe ho, har pal men dusron kee apeksha jyada samay bitate ho. log jin lamho se sataak se guzar jate hain unme tum kam se kam unse jyada parkh pate ho use achhi tarah dekh pate ho is baat ki tumhe khushi hona chahiye ke log 85 saal jiyenge aur tum 250 saal yakin nahin to baithkar ispar bhee socho.. shayad men bhi pagal jaisee bat kar raha hun "sorry" naa jaane men kya kah gaya.... hasna mat please, please

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल