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वजह ढूढ्ते-ढूढ्ते जब मैं थक गया तब... बेवजह घर से निकल पडा...। नींद थी जो बिस्तर पर जाते ही गायब हो जाती थी..पर बिस्तर से निकलते ही वो नींद मुझे पूरे शरीर में, शरीर के हर अंगों में कायम सी जान पडती..। 'पीडा'- इस शब्द को मैं उसकी सम्पूर्णता के साथ जीना चाह रहा था। इस लिये विरूद्द चल रहा था, बीमारी के, जो अब महीनो से साथ थी,घर के और अपनो की हिदायत के...। कभी सडक के इस तरफ चलता कभी सडक के उस तरफ..।
भीतर सब ख़ाली है, सब ख़ोखला सा, अंधकार... सो मैं उजाले की तरफ जाना चाहता हूँ...सडक उजली है, इस शहर में देर रात भी सब उजला रहता हैं.. कुछ चहरे सडक के उजाले में दीख जाते हैं.. रिक्शा बगल से गुज़रता है हसीं सुनाई दे जाती है..सडक के दूसरी तरफ दो लोग 'दुनिया बदल दूगा' - सी आवाज़ में, सामान्य बाते करते जा रहे थे। ये सब एक द्रृश्य जैसा था जिसका में दर्शक था...।दर्शक अग़र बीमार हो, तो उसे हर 'स्वस्थ' नाटक ही लगता है।
हम कितने ही एक दूसरे से अलग क्यों न हो, हम सब के पास गिन-चुन कर ८ या १० दुख है,पीडा है।जिन्हें अदल बदल कर हम जीते रह्ते है.। ये खेल जैसा भी हो जाता है... जिसकी आदत किसी नशे से कम नहीं है।
लगातार इन अजीब से विचारो के कारण ही मैं घर से निकला था,पर ये विचार थमने का नाम ही नहीं ले रहे हैं।अब क्या सोच रहा हूँ? क्यों सोच रहा हूँ?...मैं घर के विरुद्द भी इस लिये चल रहा था कि थक जाऊ.. इतना कि 'सांस लेना हैं' के सिवाय और कूछ भी याद न रहें।पसीना निकले इतना कि उसमे सब बह जाए... सब कुछ.. आंसु,बिमारी, विचार, मैं.. ।बिमारी का पसीना बह रहा था... दुख के आंसू जो पता नहीं शरीर में कहा फसे हुए थे, काश इस पसीने में बह जाते.. सालो की कैद से आज़ाद हो जाते..।
चक्कर आ रहा है.. बैठ जाता हूँ। घर बंद करके आया हूँ.. चाबी जेब में है.. पैसे?.. पैसे २० रू .. बस बीस रूपये.. अब अगर चाहूँ भी तो रिक्शे से घर नहीं जा सकता... यहां से मेरे घर का करीब चालीस रूपये होता है... night charge अलग। वापिस चलना शरू करता हूँ...खडे होने की भी हिम्मत नहीं है.. थोडी देर बैठा रहता हूँ..। ये झुरझुरी... ये सिहरन... बैठते ही जैसे इन्होने मुझे घैर लिया हो पूरी तरह..।
बैठना संभव नही है.. चलना ही पडेगा.. पर घर नहीं आगे... पता नहीं कब तक.. शायद जब तक गिर न जाऊ तब तक...
वजह ढूढ्ते-ढूढ्ते जब मैं थक गया तब... बेवजह घर से निकल पडा...। नींद थी जो बिस्तर पर जाते ही गायब हो जाती थी..पर बिस्तर से निकलते ही वो नींद मुझे पूरे शरीर में, शरीर के हर अंगों में कायम सी जान पडती..। 'पीडा'- इस शब्द को मैं उसकी सम्पूर्णता के साथ जीना चाह रहा था। इस लिये विरूद्द चल रहा था, बीमारी के, जो अब महीनो से साथ थी,घर के और अपनो की हिदायत के...। कभी सडक के इस तरफ चलता कभी सडक के उस तरफ..।
भीतर सब ख़ाली है, सब ख़ोखला सा, अंधकार... सो मैं उजाले की तरफ जाना चाहता हूँ...सडक उजली है, इस शहर में देर रात भी सब उजला रहता हैं.. कुछ चहरे सडक के उजाले में दीख जाते हैं.. रिक्शा बगल से गुज़रता है हसीं सुनाई दे जाती है..सडक के दूसरी तरफ दो लोग 'दुनिया बदल दूगा' - सी आवाज़ में, सामान्य बाते करते जा रहे थे। ये सब एक द्रृश्य जैसा था जिसका में दर्शक था...।दर्शक अग़र बीमार हो, तो उसे हर 'स्वस्थ' नाटक ही लगता है।
हम कितने ही एक दूसरे से अलग क्यों न हो, हम सब के पास गिन-चुन कर ८ या १० दुख है,पीडा है।जिन्हें अदल बदल कर हम जीते रह्ते है.। ये खेल जैसा भी हो जाता है... जिसकी आदत किसी नशे से कम नहीं है।
लगातार इन अजीब से विचारो के कारण ही मैं घर से निकला था,पर ये विचार थमने का नाम ही नहीं ले रहे हैं।अब क्या सोच रहा हूँ? क्यों सोच रहा हूँ?...मैं घर के विरुद्द भी इस लिये चल रहा था कि थक जाऊ.. इतना कि 'सांस लेना हैं' के सिवाय और कूछ भी याद न रहें।पसीना निकले इतना कि उसमे सब बह जाए... सब कुछ.. आंसु,बिमारी, विचार, मैं.. ।बिमारी का पसीना बह रहा था... दुख के आंसू जो पता नहीं शरीर में कहा फसे हुए थे, काश इस पसीने में बह जाते.. सालो की कैद से आज़ाद हो जाते..।
चक्कर आ रहा है.. बैठ जाता हूँ। घर बंद करके आया हूँ.. चाबी जेब में है.. पैसे?.. पैसे २० रू .. बस बीस रूपये.. अब अगर चाहूँ भी तो रिक्शे से घर नहीं जा सकता... यहां से मेरे घर का करीब चालीस रूपये होता है... night charge अलग। वापिस चलना शरू करता हूँ...खडे होने की भी हिम्मत नहीं है.. थोडी देर बैठा रहता हूँ..। ये झुरझुरी... ये सिहरन... बैठते ही जैसे इन्होने मुझे घैर लिया हो पूरी तरह..।
बैठना संभव नही है.. चलना ही पडेगा.. पर घर नहीं आगे... पता नहीं कब तक.. शायद जब तक गिर न जाऊ तब तक...
2 comments:
बिस्तर से बाहर देह पर पसरी नींद, उजली सङक, गिनती के दुख, भई वाह मजा आ गया क्या बिंब हैं। बहुत बढिया। लगे रहो बंधु बहुत आगे जाओगे।
yaar beemari ka ilaj kyon nahin karwalete
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