Friday, May 16, 2008

पं. सत्यदेव दुबे जी....


कुछ बातें जो दुबेजी के बारे में मुझे इस वक्त याद आती है, वो मैं लिख रहा हूँ।त्रुटियों की माफी।



मैं दुबेजी के साथ 1998 जुड़ा हूँ, एक बार हम लोग पूना गए थे 'इंशा अल्लाह' का शो करने वहाँ पर मुझॆ एक किताब मिली थी, धर्मवीर भारती की 'कुछ चहरे, कुछ चिन्तंन'.... उसमें भारती जी ने दुबेजी के बारे में एक chapter लिखा हैं।उसे पढ़्कर मुझे दुबेजी और इंशा अल्लाह दोनों थोड़े ज़्यादा समझ में आए।

मैं दुबेजी के साथ जब जुड़ा था तब तक वो (जैसा कि मैंने सुना हैं,और जैसा लोग कहते हैं।)अपना सारा बहतर काम कर चुके थे, फिर भी इशां अल्लाह मुझे उनका काफ़ी अच्छा काम लगता है।

उनकी अभिनय को लेकर समझ बहुत ही strong है, वो हर बार actor को उसके झूठे अभिनय से बचाते रहे हैं।हर actor को उन्होनें सबसे पहले उसकी ज़मीन पर ठीक से खड़े रहना सिखाया है, अगर वो ऎसा नहीं कर पाया है तो दुबेजी ने उसे डाट कर, गाली देकर... उसे ज़मीन पे लाकर खड़ा कर दिया है।

-- साफ बोलो।
-- वाक्य के अंत तक जाओ।
-- हर वाक्य के बाद सांस लो।

ये उनके अभिनय के तीन मूल मंत्र हैं।जो काफ़ी सटीक और सही हैं।



मैंने भोपाल में थियेटर करने के दौरांन दुबेजी का नाम सुन रखा था।इच्छा थी कि बंबई में इन्हीं के साथ काम करना है। पर दुबेजी के डरावने किससे, उनसे कहीं ज़्यादा पूरे थियेटर की दुनियाँ में मशहूर हैं, वो सारे किस्से मैं भी सुन रखे थे। पर मैं तय कर चुका था कि जब भी मैं दुबेजी से मिलूगाँ तो सीधा पैर छूकर कहूँगा कि आपके ही साथ काम करना है।सो एक दिन मैं prithvi theatre में दुबेजी को ढूढ ही रहा था कि एक आदमी की आवाज़ आई.. चिल्लाने की... मैंने देखा दुबेजी एक लड़के को बुरी तरह ड़ाट रहे हैं-"अबे... पेर पड़ लेने से तू actor नहीं हो जाएगा".,.." सारे मध्य प्रदेश का ज़िम्मा मैंने थोड़ी उठा रखा है।" वगैराह वगैराह।
मैंने दुबेजी को काफी समय तक नहीं बताया था कि मैं मध्य प्रदेश का हूँ... वो मुझे कश्मीरी समझते थे। सो मैं कई सालो तक 'बंसी कौल' के हिस्से की डाँट खाता रहा, जिनसे मेरा कोई सम्बंध नहीं है।


जिस वक्त दुबेजी एक के बाद एक बेहतरीन नाटक कर रहे थे, उस वक्त उनके साथ प्रो. वसंत देव, भारती जी, भवानीप्रसाद मिश्र जैसे लेखको का उठना बैठना था। भवानी भाई यूं भी एक आधुनिक कवि थे, वो नई तरह की कविताऎ लिख रहे थे।भारती जी का धर्मयुग उस वक्त देश की एक महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका थी। मेरे ख्याल से इसी वजह से दुबेजी की भाषा या आधुनिक हिन्दी पे पकड़ बहुत मज़बूत है जो उनके भाषा के रंगमंच में झलकती है।अब चूकि रंगमंच भाषा प्रधान है तो बाक़ी सारी चीज़े नगण्य हो जाती है। जब भी दुबेजी ने अपने नाटको में सेट लगाने की कोशिश की है, वो हर बार बचकाने लगे हैं।


दुबेजी ने अपने नाटक ईंशा अल्लाह में खुद कहा है कि मैं लेखक नहीं हूँ, वो थियेटर के amizing निर्देशक हैं।जिस तरह वो text को approch करते है उसे समझते है,और जिस तरह वो उसे actor के माध्यम से कहलवात हैं, वो काबिले तारीफ है।भारती जी ने एक जगह कहा है कि-' मैंने खुद अपने पात्रों को इस तरह नहीं समझा था जिस तरह दुबे ने उन्हें किया।'(लगभग ऎसा कुछ...)।
बतौर लेखक मैंने कभी दुबेजी को पसंद नहीं किया।एक लेखक का धैर्य उनके अंदर नहीं है।

दुबेजी यूं पूरी ज़िदगीं अकेले रहे हैं, पर मुझे लगता है कि वो कभी अकेले रहना सीख नहीं पाए।


दुबेजी के मूँह से 70's,80's के थियेटर के किस्से सुनना मुझे आज भी अच्छा लगता है। मैं उन्हें घंटो सुन सकता है। वो दुबेजी के जिये हुए अदभुत दिन थे।मुझे दुबेजी थियेटर की ‘नानी’ जैसे कुछ लगते हैं, जो कभी भी किसी भी बात पर आपको डाँटने का हक रखती है, जिसके पास किस्से हैं… कहानियाँ है और जो आज भी मीलों चलने का दम रखती है।

2 comments:

इरफ़ान said...

सत्यदेव दुबे को मंच पर देखे बहुत दिन हो गए अलबत्ता पिछले दो साल से बेनेगल के भारत एक खोज को कई बार देखने की कारोबारी ज़िम्मेदारी के तहत उन्हें चाणक्य और चंद्रगुप्त में चाणक्य की भूमिका में देखा और बार-बार देखा. दुबे जी थियेटर के उस दौर को रेप्रेज़ेंट करते हैं जब थियेटर वालों के अपने कनविक्शन हुआ करते थे.अब सही या ग़लत जो भी हों, उन्होंने जो ठीक समझा वही किया और अब भी कर रहे हैं.
"-- साफ बोलो।
-- वाक्य के अंत तक जाओ।
-- हर वाक्य के बाद सांस लो।""

देखने में भले ये महज़ तीन वाक्य लगें लेकिन कभी सोचिये तो "इतने भर का भी" आज कितना अभाव है.

आपने नानी कहकर एक हद तक अपनी राय भी ज़ाहिर की है जो एक अच्छी शुरुआत है.आगे भी अग्रजों और साथियों पर ऐसी टिप्पणियाँ लिखें तो अच्छा रहे.

प्रियंकर said...

यह संस्मरण पं.सत्यदेव दुबे जैसे महत्वपूर्ण नाट्य निर्देशक को समझने के लिए एक झरोखा उपलब्ध कराता है .

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल