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(करीब बीस दिनों के लिए यहाँ हूँ... जगह सतोहल है.. कुल आबादी ४२१...। कुछ कविताएँ लि्खीं जिन्हें आप ’मेरी कविताएँ..” पर जाकर पढ़ सकते हैं....। कुछ दिनों से लिखीं बातों को चिपका रहा हूँ... बिना कांट छांट... धन्यवाद।:-))
देर रात तक जगता हूँ, सुबह जल्दी उठूगाँ की कसम खाकर सोने की कोशिश करता हूँ। सुबह आँखें खुलती है तो गई रात की बातों के बारे में सोचता रहता हूँ.. एक चक्र पर गोल-गोल घूमते हुए... जब भी छिटककर कहीं दूर गिरता हूँ तो रेंगने लगता हूँ। आत्मविश्वास को अपने काम में ढ़ढ़ने की कोशिश करता हूँ। कसमों का हिसाब कभी भी नहीं रख पाता हूँ... सो जो सबसे पुरानी कसम थी उसे याद करने की कोशिश करता हूँ। बहुत पुरानी चीज़ो को सोचना भी अजीब सुख देता है.... जैसे अभी-अभी घटे ग़म को मैं उतना महत्व नहीं देता हूँ... क्योंकि इसके बारे में मैं कई सालों बाद सोचूगाँ और पीड़ा महसूस करुगाँ। अभी-अभी लिखी हुई कविता भी मुझे ज़्यादा सुख नहीं देती... उस सुख के लिए मुझे बहुत पुरानी लिखी किसी कविता का सहारा लेना पड़ता है। तृप्ती की नींद का सहारा अभी तक पास में है... गहरे अधेरें में सोने की आदत पिछले कुछ समय से डाल ली है... बीच में कभी आँखें खुलती है तो सब तरफ गहरा अंधकार दिखता है तो नींद का खुलना भी सपना ही लगता है और मैं सोया रहता हूँ। कुछ दुख जो मैं बीते दिनों में जिए है उन्हें सोचकर भी डर लगता है... कई सालों बाद जब इन्हें जीने का समय आएगा तो कैसे जी पाऊगाँ इस पीड़ा को...????
आज बहुत आंधी तूफान और बारिश बनी रही शाम के वक़्त... अच्छा है बहुत ठंड़क आ गई है। इस तूफान में सहसा: उन चिड़ियों का ख्याल हो आया जिन्हें देखते हुए मैं अभी तक आहे भर रहा था। हवा बहुत तेज़ चल रही थी.... कहाँ छिपी होगीं यह चिड़ियाएँ??? पिछले दो दिनों से काफी गर्मी थी... काफी मतलब पहाड़ के हिसाब से गर्मी... बारिश आते ही ठंड़क आ गई है। बहुत सुंदर रात है। इच्छा है कि बस बाहर ही घूमते रहो। वापिस जाने के दिन पास आ रहे हैं.. अकेलेपन की कमी महसूस कर रहा हूँ.. सच में मैं एक चुप और शांत जगह पर खो जाना चाहता हूँ.. बिना किसी काम या कुछ करने की इच्छा का खोना। अपने लिखे के जितने भी चहरे हैं वह बोर करने लगे हैं। नए चहरों की तलाश जीवन में उथल-पुथल लाएगीं... फिर जब पुराने चहरों की तरफ लौटने की इच्छा जागेगी तो वह वहाँ नहीं होगें। गुणा भाग है..... you lose some, you win some...
यहाँ वहाँ धूमते हुए... भटकते-भटकते... जितने भी लोग मुझे दिखते है.. वह सब मुझे नाटक का हिस्सा लगते है.. पात्र... मेरे नाटको.. कहानियों... कविता या उपन्यास के पात्र...। यहाँ दर्शक की तरह मैं... शांत नहीं रहता... मैं बात करता पाया जाता हूँ, अपने पात्रों से... बात करते हुए भी मैं दर्शक ही रहता हूँ। शांति में चुप, दृश्य का बदलना... पात्र का चले जाना.. प्रवेश करना मैं घंटों देख सकता हूँ। और शायद इसीलिए पीछे के बेकड्राप को बदलने के लिए मैं यहाँ वहाँ भटकता फिरता हूँ।
आज सुबह बहुत जल्दी नींद खुल गई, बिस्तर काटने को दौड़ने लगा। एक अजीब सा खालीपन घर करने लगा। इससे पहले कि खालीपन मेरे ऊपर पूरी तरह हावी हो जाए और मेरा पूरा दिन घेर ले... मैंने बिस्तर छोड़ा और धूमने निकल गया। यह गाँव (सतोहल, मंण्डी) बहुत छोटा... कुछ कदम चलते ही खत्म हो जाता है। गाँव खत्म होते ही चिड़ियों की आवाज़े तज़ हो गई.... दूर कहीं एक मोर भी बोल रहा था। रात भार सांप के सपने आते रहे... सो जंगल में इधर-उधर निगाह सांप को ढूढ़ती रही। इक्का दुक्का घर बीच में आए... लगभग सभी बंद थे। कुछ घरों के सामने... उन घरों की ही उम्र के बूढ़े लोग बैठे हुए थे। वह मुझे, अजीब से आश्चर्य से देखते....और आपकी निग़ाह उनसे मिलते ही वह नज़रे आप पर से हटाते नहीं है... बल्कि कुछ देर में आपको ही अपनी नग़ाहे घुमानी पड़ती हैं... शायद यही गांव के और शहर के लोगों में अंतर है, वह आपको देखते रहते है... बिना किसी.. छल या मतलब के... आपको इसकी आदत नहीं होती और आप नज़रे हटा लेते हैं। पर वह चहरे बहुत देर तक मेरे आँखों के सामने धूमते रहे... मैं पहाड़ के एक छोर पर आकर खड़ा हो गया। नीचे बहुत सुंदर, पाँच घरों का एक गाँव को देखता रहा। कहाँ-कहाँ लोग रहते है.....। यह सब सोचते हुए भी वह चेहरे मेरी आँखों के सामने घूमते रहे। कुछ अजीब सा खालीपन है उनमें.... बहुत शांति की थकान सा कुछ, इतने ऊँचे पहाड़ों के सामने नगण्यता का एहसास लिए कुछ। उन चहरों में, इस पहाड़ में बिताए हर दिन... हर हफ्ते... हर महीने की गवाही देती रेखाएँ थी...। उन रेखाओं का बोझ ढोते बूढ़े लोग... झुके हुए... धीरे-धीरे... बिना आहट सा चलते हुए...। पता नहीं शायद यह मेरा ही सुबह का खालीपन हो जिससे बचने के लिए मैं.. यहाँ आ गया... पर वह खालीपन अभी भी मेरे बदन पर चिपका ही रह गया हो। देर तक चलते रहने से... चाय की इच्छा बढ़ने लगी थी... मैं सुबह-सुबह पैसे रखना भी भूल गया....नहीं चाय नहीं कुछ और था.. जिसने मुझे आगे जाने से रोक लिया... थकान नहीं...पता नहीं क्या??? मैं वापिस चलने लगा। वापिस अपने कमरे में पहुँचा तो खालीपन, पूरे कमरे में बिखरा पड़ा था। शहर की नीरसता से बचने के लिए यहाँ आया... यहाँ के खालीपन से बचने के लिए... सुबह धूमने चला गया... और वहाँ... वहाँ से क्यों वापिस आ गया?... नहीं महज़ चाय कारण नहीं हो सकता.. कारण कुछ और है। कारण शायद वह आँखे है... जिन्हें बहुत देर तक मैं देख नहीं पाया... कारण शायद वह चहरे पर जीवन उतर आया सी रेखाएँ है... कारण मेरी कमज़ोरियाँ है... कारण मेरा भागते रहना है। कारण ... कारण कुछ भी नहीं है।