Friday, May 29, 2009

सतोहल डायरी... (मंण्ड़ी, हिमाचल)

 

       ’कल यहाँ से चले जाना है..’ की अंगड़ाई लेकर सुबह हुई....। चाय बनाते हुए भी एक खालीपन सा था। कुछ पढ़ते नहीं बना... सो मैंने पैदल जाना तय किया। चाय पीते हुए सेम भी उठ गया था... उसने कहाँ कि वह भी चलना चाहता है। हम दोनों के बीच बहुत देर तक संवाद शून्यता बनी रही। कुछ ही देर मे हम दोनों सड़क पर थे...। चलते हुए दोनों ने एक दो बातों का ज़िक्र छेड़ा पर संवादों का तारतम्य नहीं बना। सो दोनों ने ही शांत रहना ही उचित समझा। ’सतोहल’ हम कल छोड़ देगें। यह बात मेरे दिमाग़ में धूम रही थी... सोचा एक बार सेम से भी पूछ लू क्या वह भी यही सोच रहा है, पर मैं चुप रहा। हमारी इच्छा कुछ एक दो किलोमीटर पैदल चलने की थी... पर पैर रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे।

       यह शायद किसी जगह से आपके संबंध में ही ऎसा होता है... आप मूक चलते रहते हैं.... धीरे-धीरे बिना कुछ बोले... उस जगह की सुंदरता को निहारते हुए। क्या कर सकते हैं आप??? हम इंसानों को संबंधों पर इतना बात करना आता है... कि किसी भी संबंध का होने और नहीं होने की हम मोटी-मोटी किताबे लिख सकते हैं। पर यहाँ हमारे सारे तार्किक हथियार नाक़ाम सिद्ध होते हैं। कुछ दूर चलते हुए मैंने सेम से कहाँ...’मुझे लोगों के संबंध उतने परेशान नहीं करते जितना जगह से मेरे संबंध।’ मैंने परेशान शब्द इसलिए जोड़ा कि जब किसी संबंध में एक व्यक्ति मूक और तटस्थ हो... तो जो भी चंचल बचता है वह परेशान ही हो रहा होता है। सेम ने इस बात पर एक लकड़ी उठा ली.. और उससे खेलता हुआ आगे-आगे चलने लगा। कुछ देर में उसने कहाँ.. ’मेरी अभी भी बहुत इच्छा नहीं हो रही है वापिस बंबई जाने की...।’ शायद यह उसने मुझसे नहीं इस जगह से कहा था। एक मोड़ मुड़ते ही सतोहल से बड़ा गाँव दिखा.. सेम ने बताया कि यह साईगुली है... हम पाँच किलोमीटर चल चुके थे.. भूख भी ज़ोरो की लग रही थी...। सेम ने कहाँ कि अगर कोटली जाना है तो जो भी बस आएगी हम उसमें चढ़ जाएगें। मैंने हाँ कहाँ...। बस काफी देर तक नहीं आई। हम चलते रहे...।

       हिमाचल, उत्तरांचल से कहीं ज़्यादा खूबसूरत है। यहाँ पेड़ों की विविधता दिखाई देती है जिसके कारण यहाँ को पक्षी दिखाई देते है वह मैंने कभी उत्तरांचल में नहीं देखे। यहाँ पानी और बिजली की उस तरह की समस्या नहीं है। तभी बस आ गई और हम दोनों बस में चढ़ गए। उत्तरांचल में एक बात ज़्यादा अच्छी है कि वहाँ, कोई भी गाड़ी हो हर मोड़ पर वह हार्न ज़रुर बजाती है... पर यहाँ इतने खतरनाक़ मोड़ है पर कोई हार्न ही नहीं बजाता...। हम दोनों ड्राईवर के बग़ल वाली सीट पर बैठे थे.. हर मोड़ पर हम दोनों की आँखे फट जाते थी... पर ड्राईवर हार्न ही ना मारे। मैंने कहाँ कि भाई कल ही एक दुर्घटना हुई है आप मोड़ पर हार्न क्यों नहीं बजाते। तो उसने खिसियाते हुए कहाँ कि हार्न काम ही नहीं करता है। इस बात पर सेम और मैं हँस दिये और मोड़ों  की तरफ से अपना ध्यान हटा लिया...। हम अपने अगले ट्रिप के बारे में बात करने लगे...’केरल-बाईक पर’। हम दोनों को ही यह बहुत ही अच्छा लगता है... एक यात्रा के अंत तक आते-आते अगले यात्रा के बारे में बात करना। हम कोटली पहुँच गए थे... बड़ा बाज़ार था... वहाँ से तीन चार सड़के अगल बगल के गाँव के लिए कटती थी...। यहाँ से हमें खूबसूरत हिमालय भी दिखा। दोनों काफी देर तक उसे देखते रहे। एक दुकान मिली जिसपर लिखा था ’मछली ही मछली’, हम दोनों की आँखें फटी की फटी रह गई...। पिछले  बीस दिनों से नॉनवेज के नाम पर हम अण्डा ही सूत रहे थे। सो हम दोनों ने मछली और मटन पेट फटने की हद तक ठूसा। ज़्यादा खाने का दोनों को गिल्ट आने लगा तो हमने तय किया कि सईगुली तक दोनों पैदल चलेगें। कुछ ही दूर चलने पर पीछे से एक बस आई जो खुद ही हमारे बग़ल में आकर रुक गई। दोनों बिना कुछ बोले उसमें बैठ गए.. वह सतोहल नहीं जा रही थी.. वह सईगुली से किसी दूसरे गाँव मुड़ने वाली थी, सो हमने तय किया कि सईगुली तक जाएगें फिर वहाँ से पैदल। सईगुली पहुचकर मौसम बहुत ही सुंदर हो गया था। ठंड़ी हवा चलने लगी थी... बादल घिर आए थे और सईगुली का बस स्टाप लकड़ीयों से बना, पुराना सा बस स्टाप था, जिसमें अजीब सी ठंड़क थी। हम दोनों बहुत खाने के बाद वहीं पसर गए... करीब एक घंटे के बाद नींद टूटी। दोनों ने एक दूसरे को कोसा... और बस में बैठकर सतोहल आ गए।

       दिन जिस खालीपन से शुरु हुआ था... दोपहर होते-होते वह खालीपन दूर हो गया। हम दोनों आते ही अपने अपने कोनों में पढ़ने बैठ गए। 


 

1 comment:

Anonymous said...

सतोहल (मंण्ड़ी, हिमाचल).....मालूम होता है काफी खूबसूरत जगह है.......वैसे मेरे हिसाब से तो पहाड़ अपने आप में ही खूबसूरत होते है.....

साभार
हमसफ़र यादों का.......

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल