Sunday, May 24, 2009

सतोहल डायरी... (मंण्ड़ी, हिमाचल)



(करीब बीस दिनों के लिए यहाँ हूँ... जगह सतोहल है.. कुल आबादी ४२१...। कुछ कविताएँ लि्खीं जिन्हें आप ’मेरी कविताएँ..” पर जाकर पढ़ सकते हैं....। कुछ दिनों से लिखीं बातों को चिपका रहा हूँ... बिना कांट छांट... धन्यवाद।:-))

देर रात तक जगता हूँ, सुबह जल्दी उठूगाँ की कसम खाकर सोने की कोशिश करता हूँ। सुबह आँखें खुलती है तो गई रात की बातों के बारे में सोचता रहता हूँ.. एक चक्र पर गोल-गोल घूमते हुए... जब भी छिटककर कहीं दूर गिरता हूँ तो रेंगने लगता हूँ। आत्मविश्वास को अपने काम में ढ़ढ़ने की कोशिश करता हूँ। कसमों का हिसाब कभी भी नहीं रख पाता हूँ... सो जो सबसे पुरानी कसम थी उसे याद करने की कोशिश करता हूँ। बहुत पुरानी चीज़ो को सोचना भी अजीब सुख देता है.... जैसे अभी-अभी घटे ग़म को मैं उतना महत्व नहीं देता हूँ... क्योंकि इसके बारे में मैं कई सालों बाद सोचूगाँ और पीड़ा महसूस करुगाँ। अभी-अभी लिखी हुई कविता भी मुझे ज़्यादा सुख नहीं देती... उस सुख के लिए मुझे बहुत पुरानी लिखी किसी कविता का सहारा लेना पड़ता है। तृप्ती की नींद का सहारा अभी तक पास में है... गहरे अधेरें में सोने की आदत पिछले कुछ समय से डाल ली है... बीच में कभी आँखें खुलती है तो सब तरफ गहरा अंधकार दिखता है तो नींद का खुलना भी सपना ही लगता है और मैं सोया रहता हूँ। कुछ दुख जो मैं बीते दिनों में जिए है उन्हें सोचकर भी डर लगता है... कई सालों बाद जब इन्हें जीने का समय आएगा तो कैसे जी पाऊगाँ इस पीड़ा को...????

      आज बहुत आंधी तूफान और बारिश बनी रही शाम के वक़्त... अच्छा है बहुत ठंड़क आ गई है। इस तूफान में सहसा: उन चिड़ियों का ख्याल हो आया जिन्हें देखते हुए मैं अभी तक आहे भर रहा था। हवा बहुत तेज़ चल रही थी.... कहाँ छिपी होगीं यह चिड़ियाएँ??? पिछले दो दिनों से काफी गर्मी थी... काफी मतलब पहाड़ के हिसाब से गर्मी... बारिश आते ही ठंड़क आ गई है। बहुत सुंदर रात है। इच्छा है कि बस बाहर ही घूमते रहो। वापिस जाने के दिन पास आ रहे हैं.. अकेलेपन की कमी महसूस कर रहा हूँ.. सच में मैं एक चुप और शांत जगह पर खो जाना चाहता हूँ.. बिना किसी काम या कुछ करने की इच्छा का खोना। अपने लिखे के जितने भी चहरे हैं वह बोर करने लगे हैं। नए चहरों की तलाश जीवन में उथल-पुथल लाएगीं... फिर जब पुराने चहरों की तरफ लौटने की इच्छा जागेगी तो वह वहाँ नहीं होगें। गुणा भाग है..... you lose some, you win some... 


यहाँ वहाँ धूमते हुए... भटकते-भटकते... जितने भी लोग मुझे दिखते है.. वह सब मुझे नाटक का हिस्सा लगते है.. पात्र... मेरे नाटको.. कहानियों... कविता या उपन्यास के पात्र...। यहाँ दर्शक की तरह मैं... शांत नहीं रहता... मैं बात करता पाया जाता हूँ, अपने पात्रों से... बात करते हुए भी मैं दर्शक ही रहता हूँ। शांति में चुप, दृश्य का बदलना... पात्र का चले जाना.. प्रवेश करना मैं घंटों देख सकता हूँ। और शायद इसीलिए पीछे के बेकड्राप को बदलने के लिए मैं यहाँ वहाँ भटकता फिरता हूँ।

आज सुबह बहुत जल्दी नींद खुल गई, बिस्तर काटने को दौड़ने लगा। एक अजीब सा खालीपन घर करने लगा। इससे पहले कि खालीपन मेरे ऊपर पूरी तरह हावी हो जाए और मेरा पूरा दिन घेर ले... मैंने बिस्तर छोड़ा और धूमने निकल गया। यह गाँव (सतोहल, मंण्डी) बहुत छोटा... कुछ कदम चलते ही खत्म हो जाता है। गाँव खत्म होते ही चिड़ियों की आवाज़े तज़ हो गई.... दूर कहीं एक मोर भी बोल रहा था। रात भार सांप के सपने आते रहे... सो जंगल में इधर-उधर निगाह सांप को ढूढ़ती रही। इक्का दुक्का घर बीच में आए... लगभग सभी बंद थे। कुछ घरों के सामने... उन घरों की ही उम्र के बूढ़े लोग बैठे हुए थे। वह मुझे, अजीब से आश्चर्य से देखते....और आपकी निग़ाह उनसे मिलते ही वह नज़रे आप पर से हटाते नहीं है... बल्कि कुछ देर में आपको ही अपनी नग़ाहे घुमानी पड़ती हैं... शायद यही गांव के और शहर के लोगों में अंतर है, वह आपको देखते रहते है... बिना किसी.. छल या मतलब के... आपको इसकी आदत नहीं होती और आप नज़रे हटा लेते हैं। पर वह चहरे बहुत देर तक मेरे आँखों के सामने धूमते रहे... मैं पहाड़ के एक छोर पर आकर खड़ा हो गया। नीचे बहुत सुंदर, पाँच घरों का एक गाँव को देखता रहा। कहाँ-कहाँ लोग रहते है.....। यह सब सोचते हुए भी वह चेहरे मेरी आँखों के सामने घूमते रहे। कुछ अजीब सा खालीपन है उनमें.... बहुत शांति की थकान सा कुछ, इतने ऊँचे पहाड़ों के सामने नगण्यता का एहसास लिए कुछ। उन चहरों में, इस पहाड़ में बिताए हर दिन... हर हफ्ते... हर महीने की गवाही देती रेखाएँ थी...। उन रेखाओं का बोझ ढोते बूढ़े लोग... झुके हुए... धीरे-धीरे... बिना आहट सा चलते हुए...। पता नहीं शायद यह मेरा ही सुबह का खालीपन हो जिससे बचने के लिए मैं.. यहाँ आ गया... पर वह खालीपन अभी भी मेरे बदन पर चिपका ही रह गया हो। देर तक चलते रहने से... चाय की इच्छा बढ़ने लगी थी... मैं सुबह-सुबह पैसे रखना भी भूल गया....नहीं चाय नहीं कुछ और था.. जिसने मुझे आगे जाने से रोक लिया... थकान नहीं...पता नहीं क्या??? मैं वापिस चलने लगा। वापिस अपने कमरे में पहुँचा तो खालीपन, पूरे कमरे में बिखरा पड़ा था। शहर की नीरसता से बचने के लिए यहाँ आया... यहाँ के खालीपन से बचने के लिए... सुबह धूमने चला गया... और वहाँ... वहाँ से क्यों वापिस आ गया?... नहीं महज़ चाय कारण नहीं हो सकता.. कारण कुछ और है। कारण शायद वह आँखे है... जिन्हें बहुत देर तक मैं देख नहीं पाया... कारण शायद वह चहरे पर जीवन उतर आया सी रेखाएँ है... कारण मेरी कमज़ोरियाँ है... कारण मेरा भागते रहना है। कारण ... कारण कुछ भी नहीं है।

3 comments:

निर्मला कपिला said...

aapane to hame bhi bhula dia ki is blog par kyon aaye kya comment dene ko nahin ye kaaran nahin ho sakta karan hai dev bhoomi ko naman karne sunder abhivyakti ke liye aabhaar

Malay M. said...

Agar pataa hota ki 'Sooar' se nijaat aapke Sathol pahunchane par milegee to shaayad teen maah pehle aapko sathol ki oar vidaa kar detaa ... chalo , der aayad durust aayad ... aapki shaili kuch alag hai jiska chaska pad chuka hai ... kuch alag ( 'Sooar' sa ) parosaa jaata hai toh zaayka toh ajeeb hota hi hai , saath main dar bhi lagane lagataa hai ki arre , isme maanav kahaan hain ... khair ...

'Sathol Diary' padh ke khushi hui , khoye khoye se maanav phir se in panno pe milne lage hain , swaagat ... pataa nahi kyon , aapke vritaant padh ke aisa lagataa hai ki mere khud ke antar ki awaaz shabdon main piro kar panno par rakh di gayi hai ... ek ek bhaav yun lagataa hai ki jaise vritaant aap nahi , main khud jee rahaa hoon ... shaayad ek safal lekhak ki yahi pehchaan hai , voh paathak ke andar paith jaata hai ...

Pahaad ki subah ka soundarya toh kehna hi kya ... main khud uttaranchal aur himachal ghoom chuka hoon isliye kuch jyada pehchaan jagi ... akele , iske saundrya ko jeena , pahad ke jeevan ko dekhna , ped , pattion , chidion se baaten karanaa , yeh sab shahar ki hai-tauba se trast , paalaa pad gaye se murjhaaye insaan ko bhi dobaara jeevit karne ki saamarthya rakhte hain ... yeh sundar ekaantvaas v' isme kiyaa aatmavlokan , kisi bhi lekhak ke liye sanjivani sa ho saktaa hai ... rahi baat akelepan ki , toh yeh naa to chubhati prashnvaachak nigaahon se phirnaa hai , naa hi jeevan se palaayanvaad hai ... darasal , yeh ahsaas hai insaan ke astitava ke ekaaki hone kaa jise insaan har kshan bhulanaa chaahtaa hai , koi naa koi bandhan jod ke is ehsaas ko todnaa chaahtaa hai... ehsaas ek atal satya kaa ki ham akele hi aaye hain aur akele hi jaayenge ... sansaar matr ek manch ki tarah hai , apna role bakhoobi nibhaaiye aur chalte baniye ... halanki jis tarah ek abhineta mohvash stage kabhi bhi chhodnaa nahi chaahtaa , ham bhi jeevan main perform karte karte akele nahi chhoot jaana chahte ... ek lekhak ki raah toh aur bhi katthin hoti hai - use sabke saath bhi ona padataa hai ( jahaan se use anubhav v' 'paatr' milte hain ) aur akele bhi hona padataa hai ( jo use chintan v' lekhan dete hain )... inhi ka safal saamya ek lekhak ko oonchaion par le jaataa hai ... swaagat phir se , ahsaason ke asli jeevan ki or mod lene ke liye aur umr ke ek naye sopaan main pravesh ke liye ...

Toh phir ... kshan hain khund ko jeevant kar lene ke ... kuch aisa likh dene ke ki barason baad padh ke , for a change , peedaa nahin balki swayam par garv ho utthe ... kshan hain , in das dino main ek jeevan jee lene ke ... ek apoorv alhaad ko antar main bhar lene ke ...

Unknown said...

Bhaagte bhaagte main yahan tak pahunchi hun...pata nahi aur kahan tak jaana hai...
It seems you gave expression to my feelings...

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल