5th August 2009..
अलस्य सुबह सब झूठ था। मैं झूठ, व्यवहार झूठ, लिखा झूठ, अगल-बगल रचा संसार झूठ, मन झूठ, आत्मा झूठ... सच दूर हिमालय सा कहीं खड़ा है, इस बारिश के मौसम में वह धुंध और बादल में कहीं खो गया है। सच तक पहुँचना कितना कठिन है। सब पता होने के बाद भी, मुँह मोड़ लेना। हम क्यों वहीं वैसे के वैसे दुख बार बार अनुभव करना चाहते है। क्यों वैसी की वैसी पीड़ा जिसका कोई अंत नहीं... और जो निरिह कल्पना मात्र है। क्यों सब कुछ झाड़कर मैं एक दिन खड़ा नहीं हो जाता और कह देता कि बस। इस धूल से अब मैं वापिस नहीं खेलूगाँ। लिखने के लिए मुझे वापिस वही ज़मीन क्यों चाहिए जिस ज़मीन में सारा झूठ उगा हुआ है। अभी इस वक़्त यहाँ बैठा हूँ और मैं यहाँ नहीं हूँ यह मुझे सबसे दुखद लगता है... त्रासदी...त्रासदी... त्रासदी।
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