Friday, August 28, 2009

अलस्य सुबह... (डायरी....)

2nd August 2009... sona pani...

       अलस्य सुबह, बंदरों का एक झुंड़ नास्पाती खाने आया, मैं नास्पाती के पेड़ के नीचे बैठा था। हर तरह से वह मुझे इशारा कर रहे थे कि मैं उनके खाने के बीच के दीवार हूँ... कृप्या हट जाऊँ। मैं वहीं बैठा रहा, उन्होंने लगभग मुझे चारों तरफ से घेर रक्खा था। फिर मैं धीरे से उठा, उनसे कहाँ कि ठीक है मैं थोड़ा ऊपर तक घूमकर आता हूँ, तुम लोग अपना खाना जल्दी निपटा लो। यह कहकर मैं ऊपर की और निकल गया। वापसी पर सभी बंदर उस पेड़ के चारों तरफ थे मेरे आते ही भाग निकले। अभी ठीक इसी वक्त वह सारे के सारे मेरे अगल बगल के पेड़ों पर यहाँ से वहाँ उछल रहे हैं। यह बंदरों का झुंड़ हमेशा छोटे बंदरों को आगे भेजता है, मुआएना करने के लिए। मैं नहीं हटूगाँ... की कसम खाकर मैं यही जमा हुआ हूँ।

       अलस्य सुबह किसी की ज़रुरत है जैसा विचार कौतुहल मचाने लगा। वीराना ओढ़े बिसतर पर मैं चित्त पड़ा रहा। सिगरेट के धुंए में चहरे बनते बिगड़ते रहे। जाने किस-किससे बात करने की टीस शरीर में यहाँ वहाँ खुजाती रही, बासी टेलिफोन के स्वर की नीरसता करवटें बदलती रही। वही-वही बातों की सलवटे चद्दर पर बिखरी रही। पता नही कौन-कौन है वहाँ उस तरफ, अंधेरे में टार्च की रोशनी जैसा जिसके पास मैं जाना चाहता हूँ। किसी चीज़ के मिल जाने में कितनी नीरसता है। किसी चीज़ का बन जाना कितना बोरिंग है। अकेले पड़े रहने के भजन में कोई राम नहीं है, कृष्ण भी नदारद है.... Thank GoodJ| भजन के स्वरों में शब्द गायब है, शब्दों के बदले बचपन के चित्र है। तेज़ घूप में, पतंग उड़ाने जैसे लाल पीले रंग है। गई रात काश जैसी बातों की सिग्रेट एशट्रे में पड़ी दिखी। डस्ट बिन की भूख दूर पड़ी ताक़ती रही। मैं कूंए में गेंद की तरह डस्ट बिन में कूद पड़ा। डस्ट बिन में खुद के बचे हुए हिस्से पड़े दिखे, बाहर सब झूठ और मृत पड़ा था।

 

3rd August 2009.....

अलस्य सुबह, सब शांत है... निर्जीव इच्छा से भरी एक चाय, घूंट-घूंट पी रहा था। सामने चुप खड़े, स्थिर पेड़ो पर चिड़ियाँ आने वाली बारिश का डर लिए बोल रही थी। हवा में हल्की ठंड़ थी... सामने के सारे पहाड़ धुंध की आड़ में कहीं टहलने निकल गए थे। पक्षियों की आवाज़ आना अचानक बंद हो गई.... मैं थोड़ी देर तक शांत सुनता रहा... पर आवाज़ सच में बंद हो चुकी थी... सन्नाटा रात की याद दिला रहा था। मैं अपने कमरे से उठकर बाहर निकला.... देखा बाहर रखी कुर्सी पर निर्मल बैठे हुए थे।

मैं-     आप.... आप यहाँ?

निर्मल- क्यों भाई, मैं यहाँ नहीं सकता? मुझे भी पहाड़ अच्छे लगते हैं, तुम जानते हो।

मैं-     हाँ, आप यहाँ कब से बैठे हैं?

निर्मल- पक्षियों के चहकने और चुप हो जाने के बीच ही करीब मैं यहाँ आया था।

मैं-     कुछ विशेष???

निर्मल- तुमसे बात करने की इच्छा थी। तुम्हारे लिखने में तो मैंने कोई विघ्न नहीं डाला ना?

       यह कहते ही वह ज़ोर से हँसने लगे। उनकी हँसी सुनकर, जो एक दो पक्षी अभी बोलने लगे थे वह भी चुप हो गए।

मैं-     आप बहुत अच्छे मूड़ में दिख रहे है आज।

       मैंने अपनी बात में हल्का सा तंज़ रखा।

निर्मल- यह बनावटी है, मैं कभी इतनी ज़ोर से नहीं हसता हूँ।

मैं-     यह बनावटी व्यवहार की आपको क्या ज़रुरत???

निर्मल- और यह बनावटी लेखन की तुम्हें क्या ज़रुरत???

       और वह फिर वैसे ही बनावटी पन से हँसने लगे। अचानक मेरा गिरा हुआ चहरा देखकर चुप हो गए।

निर्मल- मैं फिर क्यों हँसा, मैंने ऎसा क्यों किया??? तुम बता सकते हो?

मैं-     आपको शायद सच में कुछ मज़ाकियाँ लगा हो?

निर्मल- हाँ...तुम मज़ाकियाँ बातें लिखना चाहते हो?

मैं-     मुझे नहीं पता मैं क्या लिख रहा हूँ?

निर्मल- अभी तुम Charles bukowski पढ़ रहे हो, और उसकी तारीफ भी कर रहे हो इसलिए पूछा।

मैं-     आपको जलन हो रही है???

निर्मल- इस जवाब में, bukowski का असर है।

मैं-     मैं देर तक खुद को सिरहाने रखकर नहीं बैठ सकता हूँ। मुझे एक अजीब सी चीज़ की ज़रुरत होती है     जो चुभे... जिससे तक़लीफ हो।

निर्मल- यह मैं पहले भी सुन चुका हूँ। असल बात यह है कि तुम कायर हो।

मैं-     हाँ मैं कायर हूँ।

निर्मल- नहीं मैं तुम्हारे जीवन की बात नहीं कर रहा हूँ, मुझे उससे कोई मतलब नहीं है, तुम कायर हो अपने लेखन में, तुममे वह धैर्य नहीं है जिससे तुम भीतर घुस सको, तुम बस ऊपर-ऊपर तैरकर पार लग जाना चाहते है। और अगर यही हाल रहा तो इस मुलाक़ात को आख़िरी मुलाकात ही समझो।

मैं-     नहीं, मैं... मैं...

निर्मल- कायर।

       कायरकहते ही उन्होने अपने पहले ड्रिंग का आखिरी घूंट पिया और खाली गिलास मेरी तरफ बढ़ा दिया।

निर्मल- शुक्ला जी के बुक स्टोर गए थे?

मैं-     दिन भर मैं वहीं था। आपका ड्रिंक।

निर्मल- तुम्हारा?

मैं-     आप लीजिए मैं join करता हूँ।

1 comment:

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

आपकी ’निर्मल और मै’ श्रृंखला ने बहुत कुछ सिखाया है.. सबसे पहले तो एक ब्लोगर और एक राईटर मे ढेर सारे डिफ़ेरेन्सेस..

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल