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प्रिय दोस्त,
देर रात तुम्हें यह ख़त लिख रहा हूँ...। मैं हमेशा ऎसी अंधेरी घनी रातों में मौन हो जाता हूँ... या किताबों का सहारा ले लेता हूँ, पर किताबें कब तक हमारे उन बोझिल एकांतों का सहारा बनेगीं जिनसे हम लगातार लुका-छिपी का खेल खेलते रहते हैं। मैं उनका सामना भी नहीं करना चाहता हूँ... इस बीच तुम्हारा ख्याल आ गया सो लगा तुमसे ही बात कर ली जाए...।
आज दिन में मैं निर्मल वर्मा के पत्र पढ़ रहा था, उसमें उन्होंने एक बहुत ही सुंदर बात कही... “तीसरी दुनिया के लेखक का ’अकेलापन’ पश्चिमी मनुष्य के अकेलेपन से बहुत अलग है, वहाँ यह एक स्थिति है; यहाँ अकेलेपन को ’चुनना’ पड़ता है, जानबूझ कर आपको दूसरों से अलग होना पड़ता है, जिसके लिये ’दूसरे’ आपको कभी माफ़ नहीं करते; अकेलापन अहं जान पड़ता है, और अन्त तक एक stigma की तरह आदमी पर दग़ा रहता है।“
फिर कुछ karel chapek की कहानियाँ भी पढ़ी जो बहुत ही खूबसूरता लगीं।
एक भाग मेरा कहानियाँ लिखना चाहता है तो दूसरा नाटक के अधूरेपन से चिंताग्रस्त है और मैं एक अजीब से बदलाव का इंतज़ार कर रहा हूँ। मैं उस बदलाव को सूंघ सकता हूँ, वह बहुत आस-पास ही कहीं है। मैंने हमेशा, एक समय बिता लेने के बाद, कुछ चीज़ों को छोड़ा है। मुझे नहीं पता इस बहाव में क्या बह जाए और क्या रुका रहे।
दिन भर शरीर कुछ अजीब से आलस्य में उलझा रहा। शाम होने का बेसब्री से इंतज़ार करने लगा... पर शाम होते ही घर में नीरसता सी छा गई। सो बाहर निकल गया... बाहर बिना बात के समय काटता रहा, सोचा जब रात घर में पहुंच जाएगी तो मैं घर जाऊंगा। शाम ने रात होते-होते मुझे थका दिया। जब घर में घुसा तो घर अपनी नाराज़गी लिए हुए था। मैंने बत्तियाँ जलाकर, पंखा चालू करके उसे मनाने की कोशिश की पर वह नहीं माना... फिर एक चाय की बात पर कुछ बात बनी...।
शायद यह मेरे विचारों की उथल-पुथल ही है जो एक confusion का दायरा अपने चारों तरफ बनाए हुए है। इसमें कोई भी विचार अपने विराम तक नहीं पहुंच रहा है। बीच में कहानी भी वापिस शुरु करने की कोशिश की पर सारे पात्र इतने सारे प्रश्न लिए मेरे पास आते हैं कि उनके जवाब मैं इस मन:स्थिति में नहीं दे सकता हूँ। वह मुझे बेचारा समझते हैं और मैं उनसे माफी मांगे बिना विदा ले लेता हूँ।
अभी-अभी ELFRIEDE JELINEK का उपन्यास piano teacher शुरु किया है जो बहुत सुंदर है।
मेरे घर बहुत से पौधे आए हैं... सुबह उठा था तो एक गमले में फूल भी खिला हुआ था। मैंने आज तक कभी अपना कोई फूल नहीं देखा है... उसके सामने खड़े होकर इतना सुख मिला कि दोस्त बयान नहीं कर सकता। दोपहर होते-होते दूसरे गमले में भी कुछ छोटे फूल नज़र आए... और यह सब इस घर का हिस्सा हैं.. यह एहसास बहुत सुखद है।
आज बहुत दिनों बाद एक कविता भी लिखी है... इसी के साथ तुम्हें भेज रहा हूँ, आशा है पसंद आएगी।
बीच में कुछ नाटक देखे जिनका अनुभव बहुत सुखद नहीं था।
इस गढ़-मढ़ से खत के लिए माफी चाहता हूँ... पर इस घने-अंधकार में कुछ शब्दों का निकल जाना एक तरह की खाली जगह बनाता है... जिसमें ’नींद’ शायद आसानी से प्रवेश कर सकती है... वरना नींद की जगह शब्द होते हैं... शब्दों के अपने चित्र होते है... और उन चित्रों की अपनी पहेली.. जिनके जवाब न दे पाने पीड़ा आपको जगाए रखती हैं।
आशा है तुम स्वस्थ होगे।
बाक़ी अगले विचार पर....
मानव...