Saturday, August 21, 2010
मेरे प्रिय दोस्त... (3..)
प्रिय दोस्त,
देर रात तुम्हें यह ख़त लिख रहा हूँ...। मैं हमेशा ऎसी अंधेरी घनी रातों में मौन हो जाता हूँ... या किताबों का सहारा ले लेता हूँ, पर किताबें कब तक हमारे उन बोझिल एकांतों का सहारा बनेगीं जिनसे हम लगातार लुका-छिपी का खेल खेलते रहते हैं। मैं उनका सामना भी नहीं करना चाहता हूँ... इस बीच तुम्हारा ख्याल आ गया सो लगा तुमसे ही बात कर ली जाए...।
आज दिन में मैं निर्मल वर्मा के पत्र पढ़ रहा था, उसमें उन्होंने एक बहुत ही सुंदर बात कही... “तीसरी दुनिया के लेखक का ’अकेलापन’ पश्चिमी मनुष्य के अकेलेपन से बहुत अलग है, वहाँ यह एक स्थिति है; यहाँ अकेलेपन को ’चुनना’ पड़ता है, जानबूझ कर आपको दूसरों से अलग होना पड़ता है, जिसके लिये ’दूसरे’ आपको कभी माफ़ नहीं करते; अकेलापन अहं जान पड़ता है, और अन्त तक एक stigma की तरह आदमी पर दग़ा रहता है।“
फिर कुछ karel chapek की कहानियाँ भी पढ़ी जो बहुत ही खूबसूरता लगीं।
एक भाग मेरा कहानियाँ लिखना चाहता है तो दूसरा नाटक के अधूरेपन से चिंताग्रस्त है और मैं एक अजीब से बदलाव का इंतज़ार कर रहा हूँ। मैं उस बदलाव को सूंघ सकता हूँ, वह बहुत आस-पास ही कहीं है। मैंने हमेशा, एक समय बिता लेने के बाद, कुछ चीज़ों को छोड़ा है। मुझे नहीं पता इस बहाव में क्या बह जाए और क्या रुका रहे।
दिन भर शरीर कुछ अजीब से आलस्य में उलझा रहा। शाम होने का बेसब्री से इंतज़ार करने लगा... पर शाम होते ही घर में नीरसता सी छा गई। सो बाहर निकल गया... बाहर बिना बात के समय काटता रहा, सोचा जब रात घर में पहुंच जाएगी तो मैं घर जाऊंगा। शाम ने रात होते-होते मुझे थका दिया। जब घर में घुसा तो घर अपनी नाराज़गी लिए हुए था। मैंने बत्तियाँ जलाकर, पंखा चालू करके उसे मनाने की कोशिश की पर वह नहीं माना... फिर एक चाय की बात पर कुछ बात बनी...।
शायद यह मेरे विचारों की उथल-पुथल ही है जो एक confusion का दायरा अपने चारों तरफ बनाए हुए है। इसमें कोई भी विचार अपने विराम तक नहीं पहुंच रहा है। बीच में कहानी भी वापिस शुरु करने की कोशिश की पर सारे पात्र इतने सारे प्रश्न लिए मेरे पास आते हैं कि उनके जवाब मैं इस मन:स्थिति में नहीं दे सकता हूँ। वह मुझे बेचारा समझते हैं और मैं उनसे माफी मांगे बिना विदा ले लेता हूँ।
अभी-अभी ELFRIEDE JELINEK का उपन्यास piano teacher शुरु किया है जो बहुत सुंदर है।
मेरे घर बहुत से पौधे आए हैं... सुबह उठा था तो एक गमले में फूल भी खिला हुआ था। मैंने आज तक कभी अपना कोई फूल नहीं देखा है... उसके सामने खड़े होकर इतना सुख मिला कि दोस्त बयान नहीं कर सकता। दोपहर होते-होते दूसरे गमले में भी कुछ छोटे फूल नज़र आए... और यह सब इस घर का हिस्सा हैं.. यह एहसास बहुत सुखद है।
आज बहुत दिनों बाद एक कविता भी लिखी है... इसी के साथ तुम्हें भेज रहा हूँ, आशा है पसंद आएगी।
बीच में कुछ नाटक देखे जिनका अनुभव बहुत सुखद नहीं था।
इस गढ़-मढ़ से खत के लिए माफी चाहता हूँ... पर इस घने-अंधकार में कुछ शब्दों का निकल जाना एक तरह की खाली जगह बनाता है... जिसमें ’नींद’ शायद आसानी से प्रवेश कर सकती है... वरना नींद की जगह शब्द होते हैं... शब्दों के अपने चित्र होते है... और उन चित्रों की अपनी पहेली.. जिनके जवाब न दे पाने पीड़ा आपको जगाए रखती हैं।
आशा है तुम स्वस्थ होगे।
बाक़ी अगले विचार पर....
मानव...
Tuesday, August 17, 2010
मेरे प्रिय दोस्त... (दो..)
प्रिय दोस्त,
हर कुछ समय में हम सब एक ऎसी स्थिति में पहुंच जाते है कि हमें दुनियाँ का अर्थ बूझे नहीं बूझता है। सारे जवाब GOOGLE भगवान के पास मौजूद होने के बावजूद।
मैं इस संबंध मे कई दिनों से विचार कर रहा था कि इतनी सारी information का हम क्या कर सकते हैं? इतिहास मेरा प्रिय विषय होने के बावजूद मुझे कभी सन याद नहीं रहते थे। मुझे किसी के जन्म दिन याद नहीं रहते। मेरा अपना मोबाईल नम्बर याद करने में मुझे बहुत परेशानी होती है।
मैं जब new York के म्युज़ियम में धूम रहा था तो यह बात मुझे सबसे ज़्यादा अखरती थी। इतनी सारी information ... मुझे पता था कि मैं म्युज़ियम से बाहर निकलते ही यह सब भूल जाऊंगा फिर मैं क्यों यह सब सुन रहा हूँ।... फिर मुझे लगने लगा कि यह सारी information मुझसे चख़ने का हक़ छीन रही है। मैं किसी भी चीज़ का स्वाद ही नहीं ले पा रहा हूँ। मैं सारी information’s को दरकिनार करके वापिस म्युज़ियम घुसा... ओह!!!
Information एक तरीके से मेरे लिए हर चीज़ को मृत कर देती है। “यह था.....इस वक़्त.. ऎसे... “ – जैसे वाक़्य कला को मेरे लिए बिल्कुल ही निर्जीव चीज़ बना देते थे। मेरा उससे संबंध बनाए नहीं बनता।
प्रिय दोस्त, सीधे शब्दों में, मुझे हमेशा लगता है कि मेरे पहले एक दुनियाँ थी... जो चली आ रही थी लगातार... कुछ उसकी सूचना “Bill Bryson की खूबसूरत किताब- a short History of nearly everything से मिली... मेरा इसमें प्रवेश 1974 में हुआ.. उसके बाद से मैं दुनियाँ को, जैसी वह मेरे सामने आती है, जीना शरु कर दिया।
यह आसान नहीं है... इस जीने की प्रक्रिया के बहुत से नियम है जो एक सामाजिक ढ़ांचे के रुप में हमारे पुराने लोगों ने बनाए है... जिससे हम इस दुनियाँ में एक क़ायदे से जी सके। उन नियमों को जानने समझने और फिर अमल करने में (नियमों का उलंघन करने में भी...) आप खुद को एक ऎसी जगह पाते है जहाँ से आप एक तरीके की दुनियाँ देख रहे होते है (आपका point of view जैसा कुछ..)। फिर जिस दुनियाँ के इतिहास को आपने जीते-जी बटोरा था वह इतिहास और आपकी जगह से देखी जा रही दुनियाँ, आपस में मेल नहीं खाती। तब आप अपने तरीके से इस दुनियां को interpret करना शरु करते हैं.. जिससे कला, धर्म, अतंकवाद, नकसलवाद... आदि आदि शुरु होते हैं।
पर जब पहली बार आपको वह जगह मिली थी जिसे आप अपनी ज़मीन कह सकते थे... जहाँ से आप एक अलग तरीक़े की दुनियाँ देख रहे थे... तब आप अकेले थे...। उस वक़्त की खुजली कि- मैं बता दूं कि जो दुनियाँ मैं यहाँ से खड़े होकर देख रहा हूँ वह अलग है... ने सारा संधर्ष शुरु किया। जबकि सब अपनी अलग जगह से दुनियाँ देख रहे थे... और सभी अपनी-अपनी जगह बिलकुल अकेले हैं। इसमें हिंसा वहाँ शुरु होती है जब आप अपनी दुनियाँ को पूर्ण सत्य के रुप में स्थापित करना चाहते हो...। इसमें कुछ लोग आपके साथ हो जाते है जिनको अपनी ही जी हुई दुनियाँ पर थोड़ा कम भरोसा था। अब चूंकि वह अपनी ज़मीन और जहाँ से वह अपनी अलग दुनियाँ देख रहे थे, खो चुके होते है तो उन लोगों में हिंसक प्रवृति ज़्यादा होती है।
अब इसमें इतिहास इतना सारा और अनंत है कि वह काल्पनिक मौखिक उपन्यास जैसा हो जाता है। (जैसे war and peace लिखित न होकर एक मौखिक कथा हो।) अनंत इतिहास के कारण शब्दों पर भी विश्वास करने से डर लगता है। जैसे एक शब्द ’मन...’ है... बचपन से ’मन..’ से संबंधित मैंने इतना कुछ पढ़ा और सुना है कि वह एक व्यक्ति सा जान पड़त है जिसे मैं जानता था... जबकि मन कहीं नहीं है... भगवान भी मन के बहुत करीब आता है। खेर मेरे प्रिय दोस्त शब्दों को लेकर मेरी अपनी एक अलग कहानी है जिसका ज़िक्र मैं अभी नहीं करना चाहता हूँ।
प्रिय दोस्त यह सब शायद मैं अपनी ज़मीन पर खड़े होकर देख रहा हूँ, यह मेरी सुविधा की ज़मीन है जिससे मुझे थोड़ा जीने में आसानी सी लगती है। इस पूरी उथल-पुथल में मैं अपना मतलब निकाल कर किनारा नही कर रहा हूँ बल्कि अपने मतलबों को थोड़ा उल्टा-पल्टाकर देख रहा हूँ। दोस्त यह बात तुमसे कहते हुए भी मैंने ना जाने कितने वाक्य काटे और कितने वापिस जोड़ दिये... इस ख़त को लिखने में ही मेरे भीतर मानों कुछ सफाई सी हो गई... या कुछ कचरा स्थाई हो गया कौन जाने।
तुमसे संवाद करके अच्छा लगा। आशा है तुम्हें भी प्रसन्नता हुई होगी।
आपना ख्याल रखना।
बाक़ी अगले विचार पर...
तुम्हारा..
मानव
Monday, August 16, 2010
मेरे प्रिय दोस्त...
प्रिय दोस्त,
आज सुबह एक अजीब बोझ लिए उठा...। उठते ही कुछ हल्का होने के लिए मैं Ruskin Bond पढ़ने लगा। अजीब था कि Ruskin bond के बगल में van gogh की किताब रखी हुई थी। कुछ कहानियाँ खत्म करने के बाद मैंने सीधा van gogh उठा लिया।
कल मैंने Gandhi और godfather एक साथ देखी थी।
कल ही एक दोस्त ने मुझसे पूछा था कि ’अमर होने का क्या मतलब है?’
मेरे प्रिय दोस्त जब मैं उसे इस बात का जवाब सा दे रहा था तो खुद भीतर अजीब सी उलझन महसूस कर रहा था। मुझे कुछ बहुत से चित्र याद आए.... जैसे एक बच्चा पेड़ पर अपना नाम गोद रहा है। किसी मंदिर में एक सेठ का शिलालेख लगा हुआ है। फिर कुछ वह लोग याद आए जो ऎसे जीते है मानो इन्वेस्ट कर रहे हो। उन लोगों के बीच बैठे हुए किसी ने मरने की बात छेड़ दी तो लगभग सब लोगों का जवाब था कि ’अरे ऎसे कैसे मर सकते हैं... भाई इतना किया है... अभी इसे भोगना तो बचा ही है। बिना भोगे थोड़ी मरेगें।’
फिर कुछ और लोग याद आए जो किसी मकसद से जीते है... जो ओर भी असहनीय है। यह....हम यूं ही पैदा नहीं हुए हैं से लेकर हम यूं ही नहीं जी रहे है... इस की लड़ाई है। बचपन की इच्छा कि मैं अब बच्चा नहीं हूँ... लोग मुझे गंभीता से ले... के बड़े रुप हम सब देखते रहते हैं।
अब इसमें अमर होने की इच्छा मुझे बहुत ही सहज बहती हुई दिखती है।
मेरे प्रीय दोस्त मेरी उलझन वहाँ शुरु हुई जब इन सारी बातों के बीच मैं खुद अपना उद्धाहरण पेश करने लगा। जिसका मुख्य बिंदु ’निरंतरता’ था।
मैंने शुरु किया था कि जब मैंने अपना पहला नाटक प्रस्तुत किया था... उसकी मुझे जो याद है वह है नाटक के बाद मिली वाह वाही... मुझे तो कुछ संवाद अभी भी याद है जो लोगों ने नाटक देखने के बाद मुझसे कहे थे।
मेरे प्रिय दोस्त तभी मैंने अपने दोस्त से पूछा कि फिर उसके बाद मैंने इतने और नाटक क्यों लिखे? क्यों किये?... जवाब बहुत से थे पर उस वक्त जो जवाब मैंने कहा था वह था... शायद यह उस वाह वाही की याद थी जो मैं फिर से बार-बार जीना चाहता था। उस एक बात की निरंतरता मैं बनाए रखना चाहता था... ।
विचार एक अजीब सी निरंतरता की प्रक्रिया है। बिना विचार का कोई क्षण नहीं होता है। silent mind जैसी कोई चीज़ नहीं होती है। यह विचार अपने आश्चर्यों की निरंतरता बनाए रखना चाहते हैं। हमें हर आश्चर्य जीते ही सामान्य लगने लगते हैं... हम उन आश्चर्यों को तुरंत अपने जीने का हिस्सा बना लेते हैं..। पर उस आश्चर्य को जीते हुए जो अनुभव हुए थे उसकी निरंतरता की भूख कभी खत्म नहीं होती। जिसकी वजह से हम ईंट पर ईंट रखते जाते हैं... इसका कोई अंत नहीं है।
इन सब बातों के बीच में ही कहीं मैं चुप हो गया था। फिर बहुत लंबी ख़ामोशी के बाद हमने बातें बदलने की बहुत कोशिश की पर हम असफल रहे।
बहुत समय से मेरी इच्छा बढ़ती चली जा रही है कि मैं किसी पाहड़ पर एक गांव में चला जाऊं... जहाँ कुछ चार-पाँच अभिनेताओ की एक रेपेट्री खोल दूं। वहीं एक छोटा सा थियेटर बनाऊं.. और वहीं रहकर नए किस्म के प्रयोग करुं...। यह इच्छा दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही चली जा रही है। मुझे हमेशा से लगता रहा है कि नए प्रयोग... या नाटक की नई भाषा की शुरुआत कुछ इसी तरह की जा सकती है।
अभी तो नए नाटक के गुणा-भाग में लगा हूँ... “हाथ का आया?...शून्य” यह नाटक का नाम है।
प्रिय दोस्त इस नए नाटक को लेकर मैं काफी उत्साहित हूँ... आशा करता हूँ जो सोच रहा हूँ उसके अगल-बगल कहीं पहुंच जाऊंगा।
आशा है तुम अच्छे होगे...
बाक़ी नए विचार पर....
तुम्हारा
मानव
Thursday, August 5, 2010
New york, New york...
न्युयार्क के महीने भर के मेरे प्रवास की जितनी बातें मुझे अभी याद हैं उसका ब्यौरा कुछ इस प्रकार है।
मैं जब न्युयार्क से वापिस लौटा और पहली बार Jet lag जैसी चीज़ का शिक़ार हुआ तो अपने ही नाटक का एक वाक्य याद आ गया कि “दुनियाँ बहुत बड़ी है, बहुत बड़ी, उड़ते-उड़ते वाट लग गई।“
जब मुझे कुछ दिन न्युयार्क में हो गए तो एक शाम मैं अपने दोस्त Aris के साथ हडसन नदी के किनारे बीयर पी रहा था, हम दोनों अपने-अपने देश के थियेटर के बारे में बातें कर रहे थे... तभी कुछ असहज सी चुप्पी के बीच मैंने Aris से कहा कि ’मैं असल में एक बहुत ही छोटे से गांव में पला बढ़ा हूँ।’ मुझे नहीं पता कि मैंने ऎसा क्यों कहा और उसने इसका क्या अर्थ समझा होगा... पर वह मुझे देखकर मुस्कुरा दिया, हम काफी देर तक उसी असहज सी चुप्पी के बीच शांत बैठे रहे।
यह बहुत ही सहज था कि गैर-अंग्रेज़ी देशों के लोग आपस में काफी अच्छे दोस्त बन गए...। मेरे कुछ करीबी दोस्तों में Orly Rabinyan (Israel) , Aris Troupakis (Athens, Greece), Xavier Gallais (France), Laura Caparrotti (Italy) थे। इन कुछ लोगों की ख़ास बात यह भी थी कि यह उस किस्म का थियेटर ज़्यादा पसंद करते थे जिसकी तरफ मैं शुरु के आकर्षित रहा हूँ।
न्युयार्क शहर बहुत ही खुबसूरत और अतिव्यवस्थित शहर है। उस सामजिक ढ़ाजे के नियमों का लोग बहुत ही अनुशासन से पालन करते है और यही बात उनकी कला में भी नज़र आती है। उनके नाटक (जो मैंने देखे और समझ पाया...) एक बने बनाए मनोरंजन के नियमों का पालन करते हैं, इसलिए हमसे बहुत दूर दिखते है। म्युज़िकल नाटक का हर गीत.. कहीं सुना हुआ गाना लगता है। कुछ broadway के नाटक देखने के बाद मैं कुछ निराश सा हो गया। फिर मैंने एक 0ff broadway नाटक देखा OUR TOWN (Thornton Wilder) जो मुझॆ बहुत पसंद आया।
Lincoln Center Directors lab में तीन हफ़्ते बहुत ही उम्दा बीते। ’शक्कर के पाँच दाने’ (अंग्रेज़ी मे) के दो Presentations हुए, पहला जो मैंने present कीया और दूसरा presentation एक अमेरिकन director, Andrew ने किया जो बहुत ही अच्छा अनुभव रहा। कुल सत्तर निर्देशक सारी दुनियाँ से आए थे, लगभग सबका काम करने का तरीका और काम देखना बहोत ही रोमांचक अनुभव रहा। इस बार लेब का विषय “धर्म..” था... सो एक तरीके की बहस हर बात-चीत में छिड़ जाती... सबके अपने सिद्धांत थे, अलग-अलग आस्थाएं थी.... इन बहसों से मेरी थोड़ी दूरी रहती थी क्योंकि हमारे देश के चीख़ते चिल्लाते धर्म की थकान मेरे भीतर इतनी है कि मैं ऎसी बहसों में मौन ही रहता हूँ। इन सारी बहसों के करण कुछ लोगों की आपस में दूरीयाँ बढ़ गई और कुछ करीब आ गए। तीसरे हफ्ते अलग-अलग समूह साफ नज़र आने लगे थे। सभी लोगों ने अपने तरीक़े के लोग ढ़ूढ़ निकाले थे। धार्मिक बहसों के बीच मौन के कारण मैं लगभग हर समूह में भटकता रहा। जिन भी लोगों के साथ थोड़ी गहराई से जुड़ा उसका कारण सिर्फ थियेटर था.... धर्म नहीं।
इसके अलावा वह क्षण जिनका गहरा असर मेरे ऊपर अभी भी है वह हैं... JEAN-PAUL SARTRE और ALBERT CAMUS के PORTRAITS के सामने मंत्र मुग्ध सा खड़े रहना( CARTIER BRESSON की प्रदर्शनी में), VAN GOGH की पेंटिंग CYPRESSES AND STARS को घंटो अपलक ताकना, Aris के साथ थियेटर की बहसों में राते धुंआ करना, Orly के साथ बिताए कुछ पल... निम्रत के साथ पैदल न्युयार्क नापना.. और जो क्षण बुरी तरह याद है वह है उस अथाह शहर मैं धंटों अकेले धूमना... जहां आप किसीको नहीं जानते और आपको कोई नहीं जानता... कोई आपकी परवाह नहीं करता और आप किसी की परवाह नहीं करते और यह बात एक अजीब सी मुक्ति से आपको भर देती है। उस मुक्ति के क्षण में आप एक सच कहना चाहते हो, उसे लिख देना चाहते हो पर ऎसा नहीं करते और ‘ऎसा नहीं’ करना आपको खुशी से भर देता है... जिस खुशी के क्षण मैंने वहां खूब बटोरे हैं।
एक बड़ी समस्या अमरीकी थियेटर की है कि वहाँ जवान दर्शक नहीं है। सारे बूढ़े श्वेत अमीर अमेरीकन… महगें टिकिट खरीदकर नाटक देखते हैं और पूरा broadway थियेटर उनकी NOSTALGIA की भूख मिटाता है। वहां नाटको की अर्थव्यवस्था इतनी बड़ी है कि ’प्रयोग..’ जैसे शब्द की वहां कोई जगह नहीं है। पर off broadway और off off broadway में कुछ प्रयोग धर्मी नज़र आते हैं। अभिनेताओं और playwrights की बहुत इज़्ज़त है , जो जायज़ भी है, पर मेरे हिसाब से playwrights को थोड़ा ज़्यादा महत्व मिलता है... सो “Copy Left...” पर मैंने लिंकन सेन्टर में बात की जो सभी लोगों ने बड़े उत्साह से सुनी क्योंकि उन लोगों के लिए यह पहली बार सुना गया शब्द था।
एक भूखे बच्चे सा कोतुहल पूरे समय था कि सारा खाना खा जाऊं और फिर बाद में गाय जैसा सालों तक जुगाली करता रहूं..। मेरे एक अमेरिकन मित्र MARK जब मुझसे विदा ले रहा था तो उसने पूछा था कि ’इतना खूबसूरत समय.. इतने सारे लोग.. पता नहीं ज़िन्दग़ी में फिर इनसे कभी मुलाक़ात होगी भी कि नहीं...?’ मैंने कहां कि ’पता नहीं...’ बाद में मैंने जोड़ा ’वैसे... किसी बहुत खूबसूरत किताब को पढ़ने लेने के बाद हम कितनी बार उस किताब पर वापिस जाते हैं?’
अभी मैं कई लोगों के नाम भूल चुका हूँ, शायद कुछ समय में सब के चहरे भी खो जाए!! कुछ सालों बाद शहर याद रहे पर गलियाँ भूल जाऊं। बात याद रहे पर किसने कहीं थी यह भूल जाऊं। क्या छूट गया याद रहे पर क्या पाया था यह भूल जाऊं... मुझे नहीं पता। मेरे हिसाब से इन सबका मेरे अवचेतन पर जो असर हुआ है उसके निशान बहुत समय तक मेरे नाटको में नज़र आते रहेगें।
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मानव
परिचय
- मानव
- मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल