Sunday, February 6, 2011

शब्द और उनके चित्र....



मैं तुम्हारा नाम लिखना चाहता था पर मैंने लिखा ’आशा’... फिर तुम्हें ढ़ूढना शुरु किया...। तुम्हारा चित्र ’आशा’ के भीतर ही कहीं था। ’आशा’ मैंने धीरे से कहा..कहा नहीं, अपना लिखा हुआ पढ़ा....’आशा’
दूर कथई रंग के कपड़ो में मुझे तुम आती हुई दिखाई दी...। पास आते-आते उस कथई कपड़े में सूरजमुखी के बड़े-बड़े फूल उग आए थे... कुछ मुर्झाए कुछ खिले हुए। पूरा लेंडस्केप भी पीलापन लिए था। तुम्हारा आना किसी चीज़ का उड़ जाना सा लग रहा था... तुम चल नहीं रही थी.. तुम भाग रही थी। वह उड़ना चाहती है पर ज़मीन में कहीं फंसी हुई है। मैंने फिर एक शब्द कहा..”तितली” और तुम मेरे करीब आ गई।
’कहा गई थी?’ मैंने पूछा
’पानी खोजने।’ तुमने पसीना पोंछते हुए जवाब दिया...
’पानी?’
’हाँ... पानी।’
’तो कहाँ है पानी?’
’मैंने पी लिया।’ तुमने सहजता से कहा और आगे बढ़ गई।
मैं नहीं जानता कि उसे पता है कि नहीं... कि मैं उसका इंतज़ार कर रहा था? मैं पीछे हो लिया। कुछ देर चलने के बाद मैंने फिर एक शब्द कहा..’निर्मल’ और वह रुक गई। मैं भी प्यासा हूँ यह कहने की हिम्मत मुझमें नहीं थी। सो मैंने पूछा...
’कहाँ जा रही हो?’
’सामने पहाड़ों की तरफ...’
और मुझे रेगिस्तान का छोर दिखने लगा। रेगिस्तान के छोर से पहाड़ों का विस्तार फैला हुआ था।
’तो पानी ढूढ़ने तुम इस तरफ क्यों नहीं चली आई?’
’यह दिशा अलग है।’
’हाँ पर जब तुम्हें यहाँ आना ही था तो इस तरफ ही चलतीं....।’
’यह दिशा अलग है।’
मैंने दिशा कभी भी नहीं बदली थी। मेरे लिए बस एक दिशा थी जिसमें चलना था... उसी चाल में जो भी आता गया मैं बटोरता रहा। प्यास और पानी की अलग-अलग दिशाएं कैसे हो सकती हैं? क्यों हो? मेरी कभी समझ में नहीं आया। प्यास की दिशा का रेगिस्तान से क्या संबंध है?
तुम चुप मेरे सामने खड़ी थी। तुम शायद पढ़ रही थी मेरा द्वंद...। मैं प्यासा था... मेरा कंठ सूख चुका था... मेरे सवाल नुकीले थे.. मैं चुप रहा। उसकी आँखों में किसी एक शब्द की अपेक्षा थी। प्रश्नवाचक चिन्ह लिए कोई भी शब्द का निकलना असंभव था सो मैंने एक शब्द कहा...’पहाड़’ और हम मुक्तेश्वर के आस-पास कहीं पहुंच गए। वह किसी की तलाश में पहाड़ के पहाड़ चढ़े जा रही थी। मैं पीछे रह गया था। जब मेरे हाफ़ने की आवाज़ पहाड़ों की शांति भंग करने लगी तो वह किसी देवदार के नीचे बैठ गई....। मैं रेंगता हुआ जैसे-तैसे उस तक पहुंचा और पसर गया। वह हंसी। नहीं, यह उसकी हंसी नहीं थी, यह पहाड़ों की हंसी थी... शायद यह देवदार हंस रहा था। मैंने पलटकर उसे देखा... उसके होठों से हंसी गायब थी... पर हंसी मैं अभी भी सुन सकता था। मेरे आश्चर्य पर उसने कहाँ ’पहाड़ो में आवाज़ गूंजती है... आपका कहा.. बार-बार पलटकर आपके पास आता है।’ मैंने देखा उसने क़ाजल लगाया हुआ है... क़ाजल के अंधेरे में हंसी के छोटे-छोटे टुकड़े खेल रहे थे। मैंने फिर एक शब्द कहा....’चंचल’...
तभी उसे कुछ याद आया...। उसने बताया कि यहीं इन्हीं पहाड़ों के आस-पास उसका स्कूल था। स्कूल में एक बार वृक्षा-रोपण का कार्यक्रम हुआ। सभी बच्चों को पेड़ लगाने थे... जब तक उसका मौंका आया सारे पेड़ खत्म हो चुके थे। बहुत देर ख़ोजने के बाद उसे कोने में पड़ा एक देवदार का छोटा पौधा दिखा। वह देवदार को लिए जगह तलाशती रही... जगह कहीं नहीं बची थी। स्कूल के प्रांगण की सारी जगह छोटे-छोटे पेड़ों ने ले ली थी। टीचर ने उसे बताया कि देवदार बहुत धीरे उगता है... पंद्रह-बीस सालों में वह तुम्हारे जितना बड़ा होगा। उसने कहा कि उसे यही बात देवदार की बहुत सुंदर लगती है कि वह अपना पूरा समय लेता है। जब जहग नहीं मिली तो वह देवदार को लिए अपने घर की ओर चल दी। बीच जंगल में पहाड़ों के एक छोर पर उसे एक जगह दिखी... अगल-बगल कोई पेड़ नहीं था। उसने वह देवदार वहाँ लगा दिया।
वह शायद अपना देवदार खोजने आई थी।
उसने कहा...
’मुझे देवदार पिता जैसे लगते हैं... उनके पास बैठकर मैं वापिस बच्ची हो जाती हूँ। कोई भी शिक़ायत मन में नहीं रहती।’
’हाँ तुमने यह बात मुझे बताई थी।’
’कब?’
’जब हम तुम्हारी नीली खिड़की पर बैठे चाय पी रहे थे। उस खिड़की में पीले रंग के पर्दे बार-बार बाहर की तरफ उड़ जाया करते थे।’
’मुझे बिलकुल याद नहीं है।’
वह सच कह रही है.. उसे बिलकुल याद नहीं है। क्योंकि ऎसा हुआ ही नहीं था....हमने कभी उस नीली खिड़की और पीले पर्दों के बीच चाय नहीं पी थी। नीली खिड़की और पीले पर्दों के बीच मैं हमेशा से उसके साथ बैठना चाहता था... लंबे समय तक... निढ़ाल सा। मेरा देवदार नीला था... पीले पत्ते लिए.. जिसके नीचे बैठकर मैं वापिस बच्चा हो सकता था.. बिना किसी भी शिक़ायत के...।
हम दोनॊं अब कुछ भी खोज नहीं रहे थे। जिस देवदार के नीचे हम बैठे थे, उसे उसने उसका और मैंने अपना देवदार मान लिया था। वह वहाँ बैठे हुए सारा कुछ बीता हुआ चुग रही थी। हाँ वह चुग रही थी... हर कुछ समय में वह अपनी चोंच से मेरी पीठ पर वार कर रही थी। मैं उन कच्चे रंगों के बारे में सोच रहा था जिन्हें बटोरना अब मेरा शौक़ था। बने-बनाए पके हुए रंग मुजे बोर करते थे। मैं उससे सटा हुआ बैठा था फिर भी हमारे बीच कुछ जगह खाली थी। उसके चोंच के वार और अपने कच्चे रंगों के बारे में सोचते हुए, उस खाली जगह में मैंने पहली बार ईश्वर को महसूस किया।
’तुम्हारी पीठ में एक छेद है।’
अपनी चोंच से एक ओर वार करते हुए उसने कहा...। ’घोंसले बनाने का संसकार मेरे खून में है।’ मैंने उससे नहीं कहा...। वह अपने अगले वार ले लिए तैयार थी तभी मैंने एक शब्द कहा ’ईश्वर’.....
और हम एक यात्रा पर निकल लिए।
बहुत सारी भीड़ के जनरल कम्पार्टमेंट में हम ट्रेन के दरवाज़े पर खड़े थे। जब भी लोग बाथरुम जाते पिशाब की बदबू का एक भपका वहाँ से पूरी गाड़ी में भर जाता। वह अपना मुँह सिकोड़ लेती, नाक पर रुमाल रख लेती। वह धीरे से मेरे करीब आ गई... कमर से उसने मेरे स्वेटर को पकड़ा हुआ था। मैं बाहर भागते हुए दृश्य को देख लेता। वह शायद खड़े-खड़े थक चुकी थी...
’कितनी दूर है अब?’
’अभी समय है।’
अभी बहुत समय था.... कुछ लोगों ने उसे बैठने की जगह दी पर उसने मना कर दिया। एक स्टेशन पर ट्रेन रुकी...। हम लगभग हर स्टेशन पर उतर जाते थे। वह स्टेशन पर उतरते ही किसी बेंच पर बैठ जाती। थकान उसके पूरे शरीर से बह रही थी। ट्रेन अपने समय से कुछ ज़्यादा देर तक यहाँ खड़ी रही।
’कौन सा स्टेशन है।’
उसने कुछ विस्मय से पूछा।
’बुधनी लिखा है। तुम कभी यहाँ आई हो?’
’ना, मैंने तो पहली बार यह नाम सुना है।.. तुम...’
’मैने नाम सुना है...। यहाँ जंगल है... शायद सतपुड़ा के जंगल.. जिसपर भवानी भाई ने कविता भी लिखी है।’
’भवानी भाई को तुम जानते हो?’
’वह कवी हैं। मैंने उन्हें पढ़ा है। सो जानता ही हूँ।’
’तुमने ’भाई’ तो उनके आगे ऎसे लगाया जैसे तुम सालों उनके साथ रहे हो...।’
’तुम्हें बुधनी नाम कैसा लगा?’
’कैसा लगेगा? अजीब है।’
’तुम्हें इस नाम में रहस्य नहीं लगता?’
’शायद जंगल के पास है इसीलिए।’
’तुम्हें लगता है कि तुम यहाँ कभी आओगी?’
’पता नहीं, ऎसी बहुत सी जगह है जहाँ शायद मैं कभी भी जा नहीं पाऊंगी...।’
’कुछ देर में ट्रेन चल देगी.. हम बुधनी को बहुत पीछे छोड़ देगें... शायद मैं सोचूगां कि उस रहस्य में कूदा जा सकता था.. हम उस रहस्य में एक साथ कूद सकते थे?’
तभी उसने एक शब्द कहा... ’काश...’
और हम दोनों, बुधनी के... तेंदुपत्ते के जंगल में पैदल भटक लगे। दूर ऊपर पहाड़ पर एक मंदिर दिख रहा था। हम दोनों उस ओर चलने लगे।
’तुमने मुझसे झूठ क्यों बोला?’
उसने पूछा।
’किस बारे में..?’
मैं चलते-चलते सचेत हो गया।
’नीली खिड़की और पीले पर्दों के बारे में...?’
’अच्छा वो... नीली खिड़की और पीले पर्दे ’काश...’ शब्द के चित्र हैं।’
’उनके बीच मैं भी ’काश...’ थी?’
’नहीं... तुम उनके बीच नहीं थीं।’
’तब मैं कहाँ थी?’
’तुम भीतर कमरे में थीं... और मैं भी वहाँ नहीं था... मैं नीचे सड़क पर खड़े हुए... तीसरे माले की तुम्हारी खिड़की को देख रहा था। जो नीले रंग की थी और उसमें पीले पर्दे उड़ रहे थे.. बाहर की ओर...।’
’यह कब की बात है?’
’यह भविष्य है.. जिसकी मैंने कल्पना की थी।’
’उसमें क्या होता है?’
’वह हमारी आखिरी मुलाकात की कल्पना है.... रुको मैं एक कहानी की तरह सुनाता हूँ.. शुरु से....’
हम दोनों चलते-चलते पहाड़ पर पहुँच चुके थे...। एक छोटा सा मंदिर था जिसे हमने नीचे से देखा था। मंदिर में कोई भी नहीं था...। एक छोटी सी शिव की मूर्ती रखी हुई थी। उसने चुनरी अपने सिर पर ओढ़ी और प्रणाम किया... मैं मंदिर की दीवार से टिक्कर बैठ गया...। कुछ देर में वह भी मेरे बग़ल में आकर बैठ गई।
’हाँ सुनाओ...?’
और तब मैंने एक शब्द कहा... ’पीड़ा’.... और वह पीड़ा सुनने लगी..... मैंने किस्सा शुरु से शुरु किया, मानों मैं किस्सा पढ़ रहा हूँ-कह नहीं रहा.....
बहुत भीड़ भरे बाज़ार से जब भी वह गुज़रता था तो शांत हो जाता था। ऎसे क्षणों में वह हमेशा प्रेम के बारे में सोचा करता था। संबंधों के बारे में... लड़कियों से। ख़ासकर उन लड़कियों के बारे में सोचता था जिन लड़कियों से ’संबंध बचाया जा सकता था’ का दर्द भी अब मिट चुका है। अब सिर्फ धुंधले चहरे बचे है, और बची है झुरझुरी उनके साथ बिताए कुछ खूबसूरत पलों की। इन संबंधों के बारे में सोचकर वह हमेशा मुस्कुरा दिया करता था.. ठीक मुस्कुराहट के बाद एक टीस उठती थी.. पुराने संबंधों में अब सब कुछ इतना धुंधला पड़ चुका था कि वहाँ पर टीस अपने मानी खो चुकी थी...पर यह टीस उन संबंधों की थी जो अभी पूरी तरह बुझे नहीं थे। वह रुक जाता और उसकी चाय पीने की इच्छा करती।
चाय के साथ उसका अजीब संबंध था। जब वह पैदा हुआ था तो बहुत गोरा था। घर में सबको लगा कि यह बहुत विशेष चीज़ हमारे घर आई है। सो उस विशेष चीज़, याने उसका बहुत ख़्याल रखा जाता। चाय पीने की आदत उसे बचपन से ही थी... उसकी वजह थी चाय का ना मिलना। उसका बाप चाय का शौक़ीन आदमी था। कई दिनों रोने गिड़्गिडाने के बाद बाप ने उसके लिए हर रोज़ चार बजे एक कप चाय मुक्कर्र कर दी। सुबह उठते ही वह चार बजे का इंतज़ार करना शुरु कर देता। ठीक चार बजे उसे चाय मिलती। चाय की आखिरी चुस्की लेते ही वह अगले दिन की चाय इंतज़ार शुरु कर देता।
वह चाय की टपरी में जाकर बैठ गया।
’एक कट चाय देना।’
उसे यह पूरा रिचुअल बहुत पसंद था, चाय की फर्माइश करने के बाद से चाय का उसके सामने आ जाने तक का। यह प्रक्रिया उसे चाय पीने से भी ज़्यादा पसंद थी।
’किसी का आपको प्रेम करना...’ being loved कितनी सुंदर अवस्था होती है। चाहे वह कुछ क्षणों के लिये ही क्यों ना हो। वह ऎसे समय मूर्छित सा पड़ा रहता... अपनी पीड़ाओं के बारे में सोचता हुआ सा। उन क्षणों में वह गिड़गिड़ाना चाहता कि मैं कभी भी विशेष नहीं था।
भीड़ एक अजीब सा चित्र ख़ीचती है जिसमें वह खुद को इस तरह से सहज महसूस करता था मानों वीराने में टहल रहा हो। तभी उसे उसका ख़्याल हो आया जिसके साथ उसने बहुत से वीराने जीये थे। यह वह लड़की थी जिसके साथ ’संबंध बचाया जा सकता है’ की गरमाहट अभी पूरी तरह ख़त्म नहीं हुई थी।
वह चाय की दुकान से घर की ओर चलने लगा। कुछ ही दूरी पर उसने अपना घर का रास्ता छोड़ दिया और दाए मुड गया। दाए मुड़ जाना उसे बहुत देर से भीतर छील रहा था...। चाय की दुकान में भी दाए मुड़ जाने के ख्याल- उबाल मार रहे थे। दाए क्या है? दाए कुछ बचा नहीं है, बस हल्की गरमाहट थी ओर कुछ भी नहीं... घाव भी अब भर चुके हैं... पर उस सूखे से खुरदुरे में हल्की खुजली हमेशा बनी रहती है। बहुत दिनों से उसने उस घाव को खुजलाया नहीं था... आज वह खुजलाने दांए मुड़ गया।
कुछ दूर चलने पर उस लड़की का घर आ गया। वह तीसरी मंज़िल पर रहती थी। हरी खिड़की पर पीले पर्दे, बाहर सूखा गमला। वह घर को बहुत सुंदर रखती थी, फिर यह गमला कैसे सूख गया? वह बिल्डिंग के भीतर घुसा पर सीड़ियों पर रुक गया.... उसके पास उसके घर जाने का कोई कारण नहीं था। बहुत देर की खोज के बाद वह सीड़ी चढ़ने लगा। इससे पहले कि उसके विचार उसे वापिस जाने के लिए मजबूर कर दें उसने जल्दी-जल्दी सीड़ियां चढ़कर घंटी बजा दी। दरवाज़ा उसकी बाई ने खोला। बाई शायद खाना बना रही थी, उसके हाथ में कड़ची थी।
’रुको मैं बेबी को पूछती हूँ?’
पहले बाई उसका स्वागत कर देती थी पर अब उसे बाहर ही इंतज़ार करना होगा। दरवाज़ा आधा खुला हुआ था और वह बाहर खड़ा था। उसने सोचा कि जूते उतार दूं पर उसे यक़ीन नहीं था कि वह क्या कहेगी। वह फिर कारणों को टटोलने लगा। बहुत देर तक ना तो बाई दिखी न वह बाहर आई। वह दरवाज़े से टिककर खड़ा हो गया जिससे दरवाज़ा थोड़ा ज़्यादा खुल गया... पर कहीं अटक गया... शायद दरवाज़े के पीछे बहुत से जूते-चप्पल रखे होगें।
तभी वह बाहर आई।
उसने बालों को पेंसिल से फसा रखा था, सफेद आदमीयों की बुशर्ट पहने हुए थी। नीचे पेजामा जैसा कुछ था लाल रंग का। शर्ट बहुत ही बेतरतीबी से जल्दबाज़ी में पहनी हुई लग रही थी। पैरों में अंगूठी नुमा बिछिये पहने हुए थे। एक पैर में दो और दूसरे पैर में एक, और वह एक पैर को दूसरे के ऊपर चढ़ाए हुए खड़ी थी। दाहिने हाथ को पीछे रखे हुए थी जिससे शायद वह अपने पीछे की दीवार पकड़े हुए थी।
वह उसे चूमना चाहता था। उसे इस बेपरवाही-बेतरतीबी से प्रेम था। शायद दाए मुड़ जाने का बड़ा कारण यही था।
’क्यों आए हो?’
इसका कोई जवाब नहीं था उसके पास...। कारणों की फेहरिस्त इस बेपरवाही के सामने बचकानी थी। वह चुप ही रहा।
’क्यों आए हो?’
‘तुम्हारे साथ एक चाय पीने की इच्छा थी।’
बेपरवाही के अभिनय में उसने जवाब दिया।
’मेरी इच्छा नहीं है.....’
कुछ खामोशी के बाद उसने आगे जोड़ा...
’”तुम्हारे” साथ चाय पीने की...’
वह दो टूक बात करके चुप हो गई। अब इसकी बारी थी जो बारी से हमेशा बचता रहा था। ऎसा नहीं था कि ’बारी’ से बचना उसने बड़े होने पर सीख़ा था। ज़िम्मेदारीयों से बचना वह बचपन से जानता था। लुका-छिपी के खेल में वह कभी अकेले जगह ढ़ूढ़कर नहीं छुपता था वह किसी अच्छे छुपने वाले के पीछे छुप जाता था जिससे कभी वह अच्छा छुपने वाला लड़का पकड़ा भी जाए तो पहले वह पकड़ाए। दाम उसपर न आए। वह बच जाए। उसे बचना पता था। वह अभी तक बचता आया था। बचपन के खेल महज़ खेल नहीं होते हैं... आपकी बचपन के खेलों में भागीदारी, जीवन में आपकी भागीदारी तय करती है।
’अगर कुछ कहने को नहीं है तो तुम जा सकते हो।’
आखिर लड़की ने ही शांति भंग की।
’मैं कुछ कहने ही आया था...’
पर वह कुछ भी कहने नहीं आया था।
‘तो बोलो?’
कुछ शांति के बाद उसे पता नहीं क्या हुआ और उसके मुँह से निकल गया।
’मैं जो हूँ उसकी भूमिका बचपन में हैं.... जो मैंने नहीं लिखी..। वह जैसी मुझे मिली मैंने उसे उसकी पूरी इंमानदारी से जीता गया।’
एक बोझ की तरह उसने इस वाक्य को अपने भीतर से जाने दिया। पर यह किसी अपने की मृत्यु की बात नहीं थी... जिसे कह देने से आप हल्का महसूस करें...। शायद यह वासना थी जो वह उस लड़की के प्रति अभी महसूस कर रहा था जिसकी वजह से वह यह कह पाया।
’बहुत देर हो चुकी है तुम्हें यह सब कहने की अब कोई ज़रुरत नहीं है...।’
उसके पास और कुछ भी कहने को नहीं था। उसने कुछ देर बातचीत के सिरे को हवा में पकड़ने की कोशिश की... पर वह इतनी ठंड़ी-सीधी बातों पर थी कि वह एक सिरे से दूसरे सिरे को मिलाने में छिछलापन महसूस करने लगा। उस लड़की का कुछ बोलने का इरादा नहीं दिख रहा था। यह आखिरी वाक्य कह चुका था, जिस वाक्य के कारण वह खुद आश्चर्य में था, इसके बाद कुछ भी कहने की गुंजाईश नहीं थी। वह पलट गया और सीड़ियाँ उतरने लगा... दूसरे मंज़िल की सीड़ियों पर पहुचते ही उसे दरवाज़ा बंद करने की आवाज़ आई। ठीक इस वक़्त से उसे वह पीड़ा भीतर महसूस होने लगी जिसके लिए वह तीन मंज़िल सीड़ी चढ़ा था। किसी के हमेशा के लिए छूट जाने की पीड़ा… अब संबंध को ना बचाए जा सकने की पीड़ा… बहुत तेज़ी से भीतर रिस रही थी।
वह तेज़ कदमों से चलता हुआ उस बिल्डिंग के बाहर निकला… गली के कोने पर, मुड़ने से ठीक पहले उसने पलटकर देखा... वह अपनी खिड़की पर नहीं खड़ी थी। हरी खिड़की से पीला पर्दा बाहर की ओर उड़ रहा था… नीचे सूखा हुआ गमला उसे बहुत सुंदर जान पड़ा और वह मुड़ गया।
ज़िदा हूँ -के प्रमाण की तरह वह पीड़ा थी... यह नशा था... नशे की पुनर्रावृत्ति जीवित हूँ के रहस्यों का ताना-बाना बुनती है। जिसमें कुछ भी ठोस टिकता नहीं है। उस ताने-बाने में अकेलेपन का एक जाल बिछा होता है... पीड़ा के छोटे-छोटे कीड़ों को अपने में फसाए हुए। अकेलेपन का जाल पिंजरे की तरह काम करता था, जिसमें पीड़ा के कीड़े पल रहे होते हैं।
उसे मकड़ीयों से बहुत डर लगता था। अपने कमरे में घुसने के पहले उसकी सारी सतर्कता मड़की से बचने का भय होती। अगर मकड़ी दिख जाती तो चीख़ता हुआ अपनी बहन के पास जाता...। बहन झाड़ू से मकड़ी को मार देती। उसकी बहन उस मकड़ी की लाश उसे दिखाती तब जाकर वह अपने कमरे में प्रवेश करता।
इस बार उसने मकड़ी के बारे में नहीं सोचा। उसने एक मार्कर पेन निकाला और सफेद फ्रिज के ऊपर लिख दिया....
“मैं जो हूँ उसकी भूमिका बचपन में हैं.... जो मैंने नहीं लिखी..।“

’बस... बस... ’
उसने मुझे चुप करा दिया.... वह खड़ी हो गई...। मैं वहीं बैठा रहा, मंदिर के पास... वह बुधनी के तेंदुपत्ते के जंगलों में कुछ देर अकेली टहलने लगी। मैं उसे यहाँ से देख सकता था। कथई रंग, पेड़ों के बीच कभी छुपता कभी दिख जाता... सुरजमुखी के लगभग सारे फूल यहाँ से मुर्झाए हुए लग रहे थे। मैं उससे प्रेम करता था.. इतना कि उसे छोड़ना चाहता था। उससे दूर रहकर उससे प्रेम की आंच अपने भीतर महसूस करना चाहता था। अभी सब कुछ बाहर था.. वह बाहर थी, मेरा प्रेम सूरजमुखी के फूल की तरह कभी मुर्झाया तो कभी खिला हुआ उससे चिपका दिखता था। मैं इन सबको अपने भीतर कहीं, नाभी के पास, बो देना चाहता था।
कुछ देर में वह वापिस आई... मेरे सामने खड़े होकर उसने एक शब्द कहा... ’वापसी...’
वह अपनी बालकनी में खड़ी थी। शाम का समय बगुलों के वापिस आने का समय होता था। सामने के पेड़ पर बगुलों का घर था। यह समय, शाम होने के ठीक पहले का समय था जो नीरस समय था... उसे पता था सामने दिखने वाला पेड़ कुछ ही देर में सफेद बल्ब जैसे बगुलों से भर जाएगा। यह शायद उसका समय था। समय के इस हिस्से का वह उत्सव मनाती थी जिसमें किसी दूसरे की शिरकत की गुंजाईश नहीं थी। तभी दरवाज़े की घंटी बजी और मैं अपनी पूरी थकान के साथ उसके सामने खड़ा था। उसने मुझे अंदर आने को नहीं कहा, ना ही उसने दरवाज़ा बंद किया। वह मुझे देखते ही पलट गई मानों मुझे जानती ही ना हो, या इतना ज़्यादा जानती हो कि अब कुछ भी फर्क नहीं पड़ता।
उसके और मेरे बीच एक पूरी व्यवस्था थी। हम दोनों ने संबंध के शुरुआती दौर में कुछ अलिखित नियम से बनाए थे। उन नियमों की वजह से, संबंध में रहते हुए भी, हमारी व्यक्तिगत जगह में हम अकेले थे। इस अकेलेपन की वजह के दो टापू उग आए थे... हम दोनों का ज़्यादतर समय अपने-अपने बनाए हुए टापूओं पर ही गुज़रता था। अब संबंध को सिर्फ दूर से ही देखा जा सकता था।
वह बालकनी पर खड़ी थी, अपने टापू पर...। मैं पीछे, तैरता हुआ उसके टापू पर पहुंचना चाह रहा था जो हमारे बनाए नियमों के बिलकुल खिलाफ था।
’तुम खाना खा लो भीतर रखा है तुम्हारे लिए।’
उसने बिना मेरी तरफ देखे यह बात कहीं...। मैं वापिस अपने टापू पर आ चुका था, मेरा सारा तैरना व्यर्थ गया। मैं फिर पानी में कूदा....
’नहीं मुझे भूख नहीं है।“
कहकर मैं भी बालकनी में उसके बगल में आकर खड़ा हो गया। नहीं यह उसका टापू नहीं था। मैं उससे बहुत दूर था। मुझे लगा मैं तैरते-तैरते उससे दूर ही जाता जा रहा हूँ। वह अपनी शांति में बगुले गिन रही थी। लगभग पेड़ बगुलों से भर चुका था। तभी मेरी निग़ाह नीचे सड़क पर पड़ी और मैंने खुद को सड़क पर खड़ा पाया...। मैं सड़क पर खड़े हुए उसकी तरफ बालकनी में देख रहा था। मैं तुरंत भीतर कमरे में आ गया।
कुछ देर में वह भीतर आई... और उसने मेरे पास आकर एक शब्द कहा.... ’अंत...।’
और मुझे इस कहानी की शुरुआत दिखाई देने लगी।

15 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

कभी कभी अन्त में ही नयी प्रारम्भ दिखायी दे जाता है।

Pratibha Katiyar said...

एक सांस में पढ़ गई हूं पूरी कहानी. कई बार पढ़ूंगी अभी. प्रतिक्रया उधार रही.

Pratibha Katiyar said...
This comment has been removed by the author.
अपूर्व said...

एकदम शुद्ध क्वालिटी का ऑसम!!
..तुस्सी तोप हो सर जी!!! :-)

दर्पण साह said...

Can't ask for more tonight !

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

फ़िर उसने लिखा ’मौन’.. और मैं एक एकांत में पहुँच गया..

प्योर ऑसमनेस.. वंडरफ़ुल!

दीपक 'मशाल' said...

कहानी तो बाद की बात है मैं पहले तो शैली पर मुग्ध हूँ..

Pratibha Katiyar said...

'मैं उससे प्रेम करता था.. इतना कि उसे छोड़ना चाहता था। उससे दूर रहकर उससे प्रेम की आंच अपने भीतर महसूस करना चाहता था।'


यह कहानी पिछली कहानियों से आगे बढ़ी है. कथा तत्व ज्यादा सघन और असरदार हुए हैं. कहानी में अमूर्त के जो स्ट्रोक्स हैं वो लाजवाब हैं. बार बार अपनी ओर खींचते हैं. आपकी शैली के तो हम पहले ही कायल हैं. बधाई!

@ngel ~ said...

... Speechless I am!

डॉ .अनुराग said...

अंत बेहद खूबसूरत है ........अमूमन लोग ब्लॉग पर लम्बी पोस्ट लिखने में हिचकिचाते है .........पर जो लिखते है वो अक्सर मेरे पसंदीदा शख्स है ..

ZEAL said...

very appealing story !

Arvind Mishra said...

अद्भुत शिल्प की मौलिकता से सुवासित कहानी -मैंने कहा अद्भुत और वह एक अद्भुत कालजयी कथा बन गयी :)

डिम्पल मल्होत्रा said...

like का option नहीं है यहाँ पे?

Daksha said...

I love the cyclicity in the structure. Everytime i thought you were digressing, you went on to illustrate a point with very apt imagery.

Hindi keyboard Nahi hai mere paas (does everyone else use google translator or something?), and I don't like typing Hindi in this script. Forgive the 'blasphemy'.

Love your blog already- plan to follow it regularly now!

Anonymous said...

pani aur pyas ka rasta alag alag kaise ho sakta haiKYA LAJAVAB bat hai.mugdha kar diya-ma

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परिचय

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल