Wednesday, September 5, 2012

तीसरा आदमी...

शायद शब्द लिखना आसान हो... मैं लिख देता हूँ..। हिचकिचाहट भरी हुई है... कि उस शब्द के मानी मैं जानता हूँ क्या? ’रचना...’ लो लिख दिया। मैं रच सकता हूँ... अगर एक दृश्य की बात करुं तो..। मैं दृश्य रच सकता हूँ... जैसे प्रेम के दृश्य... मैं इस शब्द के बहुत लंबे संवाद भी लिख सकता हूँ। पर क्या मैंने जिये हैं वह संवाद... जीने में मैं क्या कह रहा होता हूँ? जैसे मेरे बहुत अज़ीज़ दोस्त से संवाद... मैं महसूस कुछ दूसरा कर रहा होता हूँ जबकि मुँह से कुछ दूसरा ही व्यक्ति बोल रहा होता है। मेरे दोस्त कुछ बिदक जाते हैं... फिर मैं उनका मनोरंजन करने के लिए तीसरा व्यक्ति बन जाता हूँ... जो ना पहले को जानता है ना ही दूसरे को... यह तीसरा व्यक्ति है जो परिस्थिति से पैदा होता है..। मैं इस तीसरे व्यक्ति को जानता हूँ...। इस तीसरे व्यक्ति ने मेरी परिस्थिति को भी पहचानकर खुद को मेरे अनुसार ढ़ाल लिया है... यह लिजलिजा सा चापलूस व्यक्ति है.. जैसे चाहो वैसे घूम जाता है। मैं इसे अपने सारे उतार चढ़ाव पर साथ पाता हूँ..। यह आसानी से हस देता है.. दुखी होने पर चुप हो जाता है। बड़े होटलो के कमरों में रहते ही अमीर हो जाता है... अपने घर में दयनीय सा बना रहता है..। यह व्यक्ति साबित करना चाहता है कि जो भी अभी तक रचा था वह दुर्घटना नहीं थी.. वह एक सोची समझी संरचना थी। पर वह साबित करने में वह अपनी ही रचना को मनोरंजक बनाना चाहता है जो कि कतई मनोरंजक नहीं है। अर्थहीनता में अर्थ खोदता हुआ वह तीसरा व्यक्ति जो पहले दो को बिल्कुल नहीं जानता है। रचना... फिर मैं रचना के बारे में सोचने लगा। मुझे अपने सामने कुछ ख़ाली कुर्सीयाँ दिखती हैं... और दिखती है एक गुफा.. जिसमें एक साधु बैठा है। मैं हर बार साधु को दुनियां की तरफ भागता हुआ देखता हूँ। जैसे हम लोग जो समाज के ख़िलाफ संधर्ष करते हैं और अंत में समाज से ही चाहते हैं कि वह हमारी रचना को कबूल करें.... पूरी ज़िदगी जो लोग सरकार के विरुद्ध लिखते हैं अंत में वही सरकार उन्हें एक सम्मान दे देती है कि ’वाह बहुत अच्छा लिखा...’ तो कौन है जिसके लिए हम ’रचना’ जैसा शब्द इस्तेमाल कर रहे हैं। मैं बहक जाता हूँ...। रचना की बजाए तर्क पर आ जाता हूँ... कौन सही है कौन गलत की छिछली सी एक तस्वीर रचने लगता हूँ। उस तस्वीर में वही बंधे बधाए चहरे हैं... जिनके अगल बगल मैं खुद को सुरक्षित महसूस करता हूँ। झूठ बोलने की इच्छा होती है। बहुत तीव्रता से... इच्छा होती है कि साफ झूठ बोलूं.. कह दूं कि मैं लेखक हूँ.... और फिर हसू देर तक..। किसी किताब को अपने चहरे पर चिपका लूं... हर बार पन्ना पलटते ही मैं भी बदल जाऊं..। चश्में की बजाए किताबें पहना करुं...। रचना...। रचना कहते ही मेरे दिमाग़ में आसमान आता है। मैंने बहुत कोशिश की है नीला आसमान सफेद बादलों वाला पेंट करुं... फिर लगता है कि इस बात को मैं लिख अच्छा लूंगा.. सो लिखने बैठ जाता हूँ। नीला दरवाज़ा और सफेद दीवारें....लिखा जाता है...। यह एक नाटक था जो गुम गया था। मैंने लिखा था... नीला दरवाज़ा और सफेद दीवारें... एक आदमी था जो अपने ढूबते हुए गांव में आखरी बार आता है... आखरी बार अपना घर देखने... और एक लड़की जो अपने गांव के साथ ढ़ूबना चाहती है। मुझे अधिक्तर यह नाटक याद आता है क्योंकि यह गुम गया था... फिर कभी नहीं मिला..। मैं कभी किसी के लिए इसे पढ़ा नहीं... कभी किसी ने इसके बारे में सुना नहीं...। अगर वह खेला जाता तो मृत हो जाता.. अभी वह मृत नहीं है वह गुम गया है.. मैंने उसे कभी शिद्दत से ढ़ूढ़ा नहीं...। रचना... रचना कहते ही मैं सब कुछ करने लगता हूँ सिवाय रचना के... अभी एक किताब भी खोल ली है.. चाय की इच्छा भी ज़ोरों पर है। कहीं चले जाने के बारे में भी मन भटकने लगा है। रचना शब्द लिखते ही... वह तीसरा व्यक्ति टेक-ओवर कर लेता है...। वह मेरे जीने को मनोरंजन में बदल देता है। हेपोनेस की किताबें उसने पढ़ रखी है जैसे... वह मेरे सामने options रख देता है... बहुत सारी चीज़ों के... जिससे मैं अपने जीने को और मनोरंजक बना सकूं..। रचना शब्द कहने ही पहले दो व्यक्ति गंभीर हो जाते हैं..। गंभीरता में वह सुकड़ने लगते हैं.... यह तीसरा व्यक्ति... बाक़ी सारी बची हुई जगह ले लेता है। रचना... बदला है...। मैं यह शब्द बार-बार लिखकर उस तीसरे व्यक्ति से बदला ले रहा हूँ। मैं फिर लिखता हूँ... रच... रचना..।

6 comments:

Pratibha Katiyar said...

रचना... रचना कहते ही मैं सब कुछ करने लगता हूँ सिवाय रचना के...

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल