Thursday, February 28, 2008

अपने से...



आज एक करीब बारह या पंद्रह साल की लड़की को सड़क पार करते हुए देखा, वो अपनी माँ के साथ थी... माँ उसका हाथ पकड़कर उसे सड़क पार करवा रही थी।जिस तरह से वो अपनी माँ के पीछे-पीछे चल रही थी... मुझे लगा शायद वो लड़की विक्लांग है.. पर नहीं वो बस डरी हुई थी।... मैं रिक्शे में था.. सिग्नल पे, काफी देर तक उसे देखता रहा।
मैं अचानक उन सुरक्षाओं के बारे में सोचने लगा... जो लगातार मुझे मिलती रहीं और मैं हमेशा सुरक्षित महसूस करता रहा।माँ के हाथ सी सुरक्षा... माँ की कोख़ सी सुरक्षा... इस पृथ्वी पे रहने की सुरक्षा।
मुझे ये आदत हमेशा एक हिंसक विक्लांगता का रुप लेती सी जान पड़ती है... और हमें विकलंग होने का भ्रम देती सी भी। सुरक्षित होने की दौड़ में हमने हर असुरक्षित चीज़ को खत्म करना चाहा है।एक तरह का युद्ध हम हमेंशा उस डर के खिलाफ लड रहे होते हैं.. जो हमें हमारी सुरक्षित व्यवस्था को बिगाड़ने का भ्रम देता है।
इस सुरक्षित व्यवस्था,जिसमें हम लगातार सुरक्षित महसूस करते रहें, को कायम रखने के लिए शायद हमारे लिए ज़रुरी था कि हम लगातार एक तरह की सोच के लोगों को बनाते रहें।जिसमें हमारे धर्म और हमारी शिक्षा प्रणाली ने भारी योगदान दिया।इसमें किसी भी जीनियस या असामान्य सोच वाले व्यक्ति की जगह ही नहीं बची।
ये मुझे डरी हुई, ओढ़ी हुई सुरक्षित व्यवस्था लगती है,जिसे काय़म रखने की प्रवृत्ती ही हिंसक है,इसीलिए ऎसी किसी भी व्यवस्था ने हमें कभी भी सुरक्षित महसूस नहीं होने दिया।इस हमारी व्यवस्था ने हमेशा हमें एक बैसाख़ी के सहारे चलना सिखाया है।हमें कोई सहारा लगातार चाहिए... जीते रहने के लिए भी।
आदर्श समाज की कल्पना इस माइने में घोर हिंसक है।क्योंकि वो एक तरह के व्यवहार की लगातार अपेक्षा रखती है... जो नामुमकिन है।
इस व्यवस्था में जो चीज़ काम कर रही होती है वो है डर..., असुरक्षित हो जाने का डर।बैसाख़ीयाँ, जो इसी व्यवस्था ने हमें दी है, उनके छिन जाने का डर।लुट जाने का डर... पिट जाने का डर... वगैरा वगैरा।
वो लड़की जब अपनी माँ के साथ सड़क पार कर रही थी तो लगा अगर उसकी माँ नहीं होती तो वो शायद पूरा दिन सड़क के किनारे ही खड़ी... कभी सड़क पार ही नहीं कर पाती। या शायद एक बार हिम्मत करके सड़क पार कर ही लेती... और फिर उसे माँ के सहारे की कभी ज़रुरत ही न पड़ती... क्या पता।
'एक दिन बाढ़ आएगी और हम सब बह जाएगें...' इस डर से हम पूरी ज़िदगी एक नाव बना रहे होते है...खुद की नाव.. हमें बचा ले जाएगी... इक ऎसी आदर्श नाव। उस... एक दिन बाढ़ आएगी के डर से हम पूरी ज़िदगी नाव बनाने के काम में लगे रहते हैं।
यहां नाव बनाने में पूरी ज़िदगी कुछ कर रहें हैं का भ्रम देती हुई कट जाती है और वहां बाढ़ कभी आती नहीं।

4 comments:

ghughutibasuti said...

बात सोचने की है ।
घुघूती बासूती

anuradha srivastav said...

इस दृष्टिकोण से तो ना देखा ,ना सोचा।

saurabh said...

भई बढ़िया है -बाढ़ आने के डर से पूरी जिन्दी नाव बनाने में लगा दी और बाढ़ आई ही नहीं.

PD said...

एक नाव बनाने कि जद्दोजहद इधर भी चल रही है दोस्त..

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल