हमें हमेशा कहानी का अंत चाहिए, हम आधे वाक्यों... आधी बातों.. अधूरे संकेतों को कभी पचा नहीं पाते हमें चीज़ पूरी चाहीए। खत्म हुई बात का सुख लेकर हम निजाद पा लेते हैं। हम आराम से सो सकते है.. दिनों दिन, सालों साल।ये एक तरह का पर्दा है जिसे हम मूल समस्या पर औढ़कर सो जाते हैं।
हमें, बहुत सी एसी बातें हैं, जिसका अंत कभी भी नहीं मिलता है।
जैसे ये देश असल में किसका है?
हम, वो कौन सी एसी चीज़े हैं जिन्हें नहीं करके पूरी जिन्दगी सुरक्षित रह सकते हैं?
हर बड़ी या छोटी घटनाओं में असल में गलती किसकी थी?
कई साल पुरानी घटी घटनाओं पे हम अभी भी क्यों लड़ रहे होते हैं?
हमारी तीसरी दुनियाँ के सवालों के जवाबों की अपेक्षा, हम हमेशा पहली दुनियाँ के देशों से क्यों कर रहे होते हैं?
वो कौन सा इतिहास है जिसकी वजह से हम, आज हम हैं?
हम क्या दूसरे इन्सांन का खून करके बचे रह सकते हैं(या कुछ ज़्यादा पा सकते हैं)?
हमारा असल में दुश्मन कौन है?
जानवरों के (से) डर में और इन्सांनो के(से) डर में क्या अंतर है?
अंत में दोषी कौन है?
वगैराह.. वगैराह....
क्या हम दूसरों को मार कर बचे रह सकते हैं, इतिहास बताता है कि हमने हर बार दूसरी जाती को इसलिए मारा, खतम करना चाहा, क्योंकि हम बचे रह सकें (या ज़्यादा अच्छे से जी सकें), तो क्या हम बचे रहे उनके बिना ( ज़्यादा फाय़दे के साथ)? या दूसरी जाती का डर बहुत ही जल्द, दूसरे देश का डर बना और हमने उन्हें भी खत्म करना तय किया?क्या हम इस पूरी दूनियाँ में अकेले रहना चाहते हैं?
किसी विचारक ने कहा है कि 'ये दुनियाँ... एक दूसरे से डर की वजह से बची हुई है.. न कि शांति की वजह से।'
और हम हमारे अगल बगल घट रही घटनाओं में कितनी जल्दी अंत ढूंढ लेते है। ये इसलिए हुआ क्योंकि बला.. बला.. बला...।ये इन लोगों की वजह से हुआ बला.. बला... बला।
हम दूसरों पे इलज़ाम लगाकर अपना पलडा नहीं झाड़ सकते। कभी नहीं।अंत मिलने का सुख जैसे हमारी कहानीयों को बोरियत से भर रहा है, वैसे ही ये हमारे जीवन पर भी झूठे जवाबों का पर्दा डाले रखता हैं। उस पर्दे के पीछे असल में कौन है?, हम पूरी ज़िन्दगी इस बात की अट्कले लगाने में ही बिता देंगे।जबकी हर पर्दे के पीछे हमारा ही चहरा छिपा बैठा है।हर घटना के ज़िम्मेदार हम खुद है। ये हमारी कहानी है, जिसे हम लिख रहे हैं, हम जी रहे हैं, इसमें दूसरों की पीड़ा भी हमारी ही कहानी में घट रही, हमारी ही पीड़ा है। हमारा होना इस संसार का होना है, हमरे पहले या हमारे बाद, कुछ नहीं था और कुछ भी नहीं होगा।
हमें, बहुत सी एसी बातें हैं, जिसका अंत कभी भी नहीं मिलता है।
जैसे ये देश असल में किसका है?
हम, वो कौन सी एसी चीज़े हैं जिन्हें नहीं करके पूरी जिन्दगी सुरक्षित रह सकते हैं?
हर बड़ी या छोटी घटनाओं में असल में गलती किसकी थी?
कई साल पुरानी घटी घटनाओं पे हम अभी भी क्यों लड़ रहे होते हैं?
हमारी तीसरी दुनियाँ के सवालों के जवाबों की अपेक्षा, हम हमेशा पहली दुनियाँ के देशों से क्यों कर रहे होते हैं?
वो कौन सा इतिहास है जिसकी वजह से हम, आज हम हैं?
हम क्या दूसरे इन्सांन का खून करके बचे रह सकते हैं(या कुछ ज़्यादा पा सकते हैं)?
हमारा असल में दुश्मन कौन है?
जानवरों के (से) डर में और इन्सांनो के(से) डर में क्या अंतर है?
अंत में दोषी कौन है?
वगैराह.. वगैराह....
क्या हम दूसरों को मार कर बचे रह सकते हैं, इतिहास बताता है कि हमने हर बार दूसरी जाती को इसलिए मारा, खतम करना चाहा, क्योंकि हम बचे रह सकें (या ज़्यादा अच्छे से जी सकें), तो क्या हम बचे रहे उनके बिना ( ज़्यादा फाय़दे के साथ)? या दूसरी जाती का डर बहुत ही जल्द, दूसरे देश का डर बना और हमने उन्हें भी खत्म करना तय किया?क्या हम इस पूरी दूनियाँ में अकेले रहना चाहते हैं?
किसी विचारक ने कहा है कि 'ये दुनियाँ... एक दूसरे से डर की वजह से बची हुई है.. न कि शांति की वजह से।'
और हम हमारे अगल बगल घट रही घटनाओं में कितनी जल्दी अंत ढूंढ लेते है। ये इसलिए हुआ क्योंकि बला.. बला.. बला...।ये इन लोगों की वजह से हुआ बला.. बला... बला।
हम दूसरों पे इलज़ाम लगाकर अपना पलडा नहीं झाड़ सकते। कभी नहीं।अंत मिलने का सुख जैसे हमारी कहानीयों को बोरियत से भर रहा है, वैसे ही ये हमारे जीवन पर भी झूठे जवाबों का पर्दा डाले रखता हैं। उस पर्दे के पीछे असल में कौन है?, हम पूरी ज़िन्दगी इस बात की अट्कले लगाने में ही बिता देंगे।जबकी हर पर्दे के पीछे हमारा ही चहरा छिपा बैठा है।हर घटना के ज़िम्मेदार हम खुद है। ये हमारी कहानी है, जिसे हम लिख रहे हैं, हम जी रहे हैं, इसमें दूसरों की पीड़ा भी हमारी ही कहानी में घट रही, हमारी ही पीड़ा है। हमारा होना इस संसार का होना है, हमरे पहले या हमारे बाद, कुछ नहीं था और कुछ भी नहीं होगा।