Sunday, March 2, 2008

अपने से...


यहां दिल्ली में बैठे-बैठे नई इच्छा से भरे नाटक, कहानीयों और कविताओं के बारे में सोच रहा था।जिनके बारे में लगातार सोचते रहना एक तरह से विवाह के बाद के आपके नाजायज़ संबंधो जैसा होता है...आप शादी तो उस जीवन से कर चुके हैं जो जी रहे हैं... पर दिमाग़ लगातार उस जीवन को जी रहा होता है... जिसकी गुदगुदी आप शरीर में यहां वहां महसूस कर रहे होते हैं।कुछ समय के संधर्ष के बाद शादी वाला जीवन एक तरह से आपसे कन्नी सी काटने लगता है... छोटी-छोटी गुदगुदीयों की मनमानी पे हमारा कोई बस नहीं होता, बस जो बचा रह जाता है वो है खालीपन... अकेलापन, जिसे अकेले खुजाते रहने के भी अपने सुख हैं।पर अभी.. अभी क्या?

मुझे कहानी लिखना है, इन कहानियों की तलाश मेरा पूरा शरीर हर वक्त कर रहा होता है....जुगनू जैसी चमक, और उसकी चकाचौंध में रहकर मुझे कहानी नहीं लिखना है।
मुझे अच्छी कहानी भी नहीं लिखना है, अच्छी कहानियाँ मुझे बोर करती हैं।मेरी कहानी की तलाश जुगनू के चमकने में नहीं है, मेरी कहानी की खोज.. जुगनू के उस अंधेरे में है... जिसे वो अपने दो चमकने के बीच में जीता है।

ऎसी कहानी जिसमें कहानी कहने की पीड़ा न हो... उसमें वो आकर्षक शुरुआत... खूबसूरत मध्य.. और आश्चर्यचकित कर देने वाला अंत, लिखने का बोझ न हो।

1 comment:

दीपा पाठक said...

बहुत सुंदर, जुगनू की दो चमक के बीच के अंधेरे के बीच कहानी ढूंढने वाले बंधु तुम्हारी तलाश कामयाब हो। मानव बहुत अच्छा लिख रहे हो, बने रहो, लगे रहो।

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल