Saturday, May 30, 2009

सतोहल डायरी...


हर बात पर बिखर सा जाने वाला वह पात्र कहीं दूर पहाड़ पर, एक बल्ब सा चमकता दिखाई देता है। शरीर पर बहुत चर्बी चढ़ चुकी है, वज़न शरीर का बैठे-बैठे मिली वस्तुओं के कारण बढ़ता ही गया है। एक आराम दायक़ बिस्तर भी तैयार कर लिया है जिसपर बहुत से कारणों से भरे हुए... नर्म-गर्म तक़िये जमा कर रख्खे हैं। जब भी ’टीस...’ जैसी कोई चीज़ महसूस होती है अपने तक़ियों के भीतर मुँह छुपाकर मैं बहुत देर पड़ा रहता हूँ.. ’टीस...’, ’हिचकी..’ में बदल जाती है... और हिचकी को दूर करने के बहुत से नुस्ख़े मेरे दोस्त मुझे बता चुके हैं। छोटे-छोटे सच जैसे बहुत से चाय के प्याले हाथों से छलकते रहते हैं, बहुत सी मक्खियाँ सच को चाटने अगल-बगल धूमती रहती है। मक्खियों से परेशान हो मैं महिने में एक बार... एक बड़े सच का पोछा लगाकर वापिस पलंग पर बैठ जाता हूँ। पर छोटे-छोटे सच को चाटने वाली मक्खियाँ, अगल-बगल मंड़राती रहती हैं। मक्खियों से परेशान होकर मैं सांप के बारे में सोचना शुरु करता हूँ। जंगलों में कहीं सांप दिख जाते है जैसी बातों के साथ धूमने निकलता हूँ। सांप कहीं नज़र नहीं आता... अलग-अलग पहाड़ पर खड़े होकर मैं, ’हर बात पर बिखर जाने वाले उस पात्र को दूर पहाड़ पर, एक बल्ब-सा चमकता हुआ देखता हूँ।’

1 comment:

ravindra vyas said...

दो पहले एक वर्कशाप के लिए अभिनेता चेतन पंडित इंदौर आए थे। मैंने उनसे एक छोटी सी बातचीत की थी। इसी दौरान उन्होंने आपका जिक्र किया था कि आप अच्छा काम कर रहे हैं।

मैंने बहुत पहले वेबदुनिया पोर्टल पर आपके ब्लॉग पर अपने कॉलम में लिखा था। मैंने आपको ईमेल के जरिये उसकी लिंक भी भेजी थी। आप का जवाब नहीं मिला था। खैर।

आज ब्लॉगवाणी के जरिये यह ब्लॉग फिर देखा तो यह लिखा दिया।
शुभकामनाएं।

क्या ईमेल के जरिये आपसे बातचीत संभव है?

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल