खुला हुआ कुछ नहीं है सामने, एक बंधे हुए से कमरे में बैठा हूँ... बाहर धूमकर आता हूँ... फिर बैठा रहता हूँ... शहर एक अजनबीपन की चादर ओढ़े रहता है... बाहर जाते ही पर्यटक सा महसूस करता हूँ सो भागकर वापिस अपने दड़बे में धुस आता हूँ...। बिखरा हुआ सा जीवन सामने पड़ा दिखता है.. इसमें तरतीब या व्यवस्था ढूढ़ना भी धोखा देना सा लगता है...धोखा मैं किसको दे रहा हूँ... पता नहीं...। जो सोचता हूँ उसे लिखने से डर लगता है... जो लिखता हूँ वह दूसरो की कही हुई बातें सी सुनाई देती है। ’आज बहुत ठंड़ है” जैसी छोटी बातों से अपनी बात कहना चाहता हूँ... और उसी पर रहना चाहता हूँ... बस, बाक़ी सारा बेईमानी सा लगता है... जो महसूस कर रहा हूँ भीतर वह है ठंड़ बस ना उससे ज़्यादा कुछ और ना ही कम... जो महसूस कर रहा हूँ बस उसी पर रहना चाहता हूँ। ठंड़ की कोई कहानी नहीं बनाना चाहता...। जो भी किताबें इस वक़्त पढ़ रहा हूँ उनमें भी यही ढ़ूढ रहा हूँ... ठंड़। ठंड़ महसूस करता हूँ... एक शब्द ठंड़ लिखता हूँ और बाहर निकल जाता हूँ।
दूर एक आदमी चिल्लाता हुआ जाता है... मैं उसे देखकर चुप हो जाता हूँ... भीतर मैं भी चिल्लाना चाहता हूँ...। उसपर लोग हँस रहे है.. सो मैं अपना चिल्लाना स्थगित करता हूँ। एक अंजान लड़की रिक्शे में गुज़र रही होती है... उसे चूम लेने की इच्छा होती है...। बगल में एक चर्च दिखता है वहाँ चला जाता हूँ... प्रेयर हो रही है... यीशू की तक़लीफ और पाप ना करने की कसमों के बीच हँसी आती है... हँसी सुनकर एक बच्चा पास में आता है, मैं che की टीशर्ट पहना हूँ, वह पूछता है यह कौन है...? मैं कहता हूँ... बाप... पापा... यीशू का बाप...। बच्चा चर्च में चिल्लाने लगता है ’यीशू का बाप..” सभी उसे धूमकर देखते है... उसका बाप आकर बच्चे को मेरे बगल से उठाकर ले जाता है ... कुछ देर बाद में वापिस अपने दड़बे में आकर बैठ जाता हूँ।
3 comments:
bahut adhiya sanchipt lekh
जो लिखता हूँ दूसरो की कही बात लगती है. ये अनुभव ही बहुत है.
O it got to be in my blog list ! Have u posted the account of ur motorcycle journey?
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