Friday, August 28, 2009

अलस्य सुबह... (डायरी...)

What ever I know is boring, what ever I do not know is life and its exciting. I don’t want to know or learn, can I do that…?

                                                             -manav kaul

 

 

06 Aug. 09,

 

अलस्य सुबह, रात चिपकी हुई थी। देर रात तक बारिश होती रही थी। पंजों में जकड़े जाने संभावना में उड़ते रहने के सपने आते रहे। उठते ही कुछ चीज़े साफ सी दिखने लगी थी। सामने पहाड़ पर धुंध तैरती हुई इस ओर बढ़ रही थी। सांस लेना और लेते रहना सुखद है। बैठना और बैठे रहना सुखद है। एक खाली कुर्सी सामने पड़ी हुई है, एक सांप अगल-बगल ही कहीं घूम रहा है, मुझे देखते ही एक जानवर भाग गया, कौन था की तलाश में वह वो ओझल हो चुका था, सामने खड़े सारे पेड़ शांत बुज़ुर्गवार थे जो किसी की शोक सभा में, दो मिनिट का मौन लिए स्थिर खड़े थे, ओस की बूंदे घांस के तिनको के ऊपर छोटे-छोटे सपनों जैसी चिपकी हुई थी, एक चिड़ियाँ मौन तोड़ने की असफल कोशिश में गा रही थी।

 

7th August.09,

अलस्य सुबह देर हो गई। नाटक का सिर पैर समझ में नहीं रहा है जैसे जीवन का सिर पैर मेरी समझ के बाहर है। भीतर सिर्फ एक भागते रहने जैसा एक आदमी है जिसने और कुछ भी नहीं सीखा। इमानदारी के नाम पर सब कह देता हूँ भीतर अपने लिए जब कुछ बचता ही नहीं है तो भागना शुरु कर देता हूँ। मैं बेईमान होना चाहता हूँ। लिखते रहने से कितना लिखा हर बार बचा रहता है, लिखना जब बंद कर देता हूँ तो लगता है कि लिख ही नहीं सकता हूँ।

 

8th August.09,

अलस्य सुबह कसम खाते हुए हुई, नाटक खत्म कर दूगाँ। बासवान्ना ठीक है, महादेवी अक्का मीरा की तरह है सो उनके प्रति भी कोई खिचाव नहीं है अब सिर्फ बचते है आलम्मा जो अदभुत है। रोस्कोलनिकोव का प्रवेश ना में हो चुका है, जिसे मैंने होने दिया। यह शायद एक और बात कह देना चाहता है। नाटक पीले स्कूटर वाले आदमी की राह पर चल रहा है। बुकोव्हस्की के pulp का भी इसपर असर है। कहाँ जाएगा क्या shape लेगा अल्ला मालिक है। इसमें कहानी लिखने का भी थोड़ा असर है जिसे मैं छोड़ नहीं रहा हूँ... देखते है... बकवास करते करते क्या किधर जाता है। चिंताओं से भरी हुई सुबह हुई, सपने में भाई से झगड़ा हुआ, माँ से छुपता फिरा, और अपनी लिखने की नई-नई जगह खोजता रहा। insecurity है जिसकी वजह से एक गुस्से का गुबार बार-बार फूट पड़ता है, खुद के प्रति ही। मैंने कभी भी secure life जैसी कल्पना नहीं की है, मेरे जीवन में इस शब्द की जगह नहीं है। पर फिर भी यह बार-बार कुछ इस तरह सामने आकर खड़ा हो जाता है कि लगता है यही है बस यही है जिसके लिए मैं जी रहा हूँ... secure होने के लिए। इस बात पर मुझे खुद से घृणा होने लगती है। मेरे बस में क्या है... शायद कुछ भी नहीं... जो चला रहा है मैं उसमें बह जाना चाहता हूँ। मैं कुछ भी नहीं जानता, और इस बात का मुझे सुख है... जीवन में छोटे-छोटे आश्चर्यों की जगह मैं हमेशा खाली रखना चाहता हूँ।  

1 comment:

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

अपनी डायरी याद आ गयी... काश आप पहले मिले होते अब तो ये कमबख्त भी सिक्यूरिटी के बारे मे सोचने लगा है.. :(

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल