Wednesday, April 7, 2010

निर्मल और मैं....


04/03/10….CALCUTTA…
निर्मल और मैं...
निर्मल- बड़े दिनों बाद लिखने बैठे हो?
मैं- बहुत पीड़ा में था। आपको बहुत याद किया।
निर्मल- तो अब कैसी हालत है?
मैं- ठीक है... पर बहुत अच्छी नहीं।
निर्मल- हम अपने कमीनेपन को उस वक़्त कभी याद नहीं करते जब हम पीड़ा में बहते हैं।
मैं- मैंने बहुत याद किया था... पर मुझे लगता है जो आपको जीना है वह जीना ही है... उसका कुछ भी नहीं किया जा सकता। चाहे वह पीड़ा हो... प्राश्चित हो... या पाप हो... उससे कुछ भी छुटकारा नहीं है। सारी की सारी किताबें, फलसफे, बातें धरी की धरी रह जाती हैं।
निर्मल- फलसफे, किताबें... इन ओछी समस्याओं के लिए नहीं है।
मैं- यह निर्मल जी... यह बात भी उस वक़्त काम नहीं आती।
निर्मल- तो अंत में क्या काम आया।
मैं- उसे उसकी पूरी निर्ममता के साथ जीना.... बस यह.., और कुछ भी नहीं।
निर्मल- अभी अगर उसे ही जी रहे हो तो मैं चलता हूँ? क्यों कि मैं तो आया था कि तुम बहुत दिनों बाद कुछ लिखने लगे हो... सो उसपर कुछ बात की जाए।
मैं- बैठिये... मैं भी बात ही करना चाहता हूँ।
निर्मल- मुझे अपना डॉक्टर मत समझने लगना... कि सब कुछ कह दूंगा और अच्छा लगने लगेगा... मैं तुमसे पहले भी कह चुका हूँ कि मेरा तुम्हारा संबंध सिर्फ लेखन का है... उससे ज़्यादा कुछ भी नहीं।
मैं- आपको हर बार यह बात इतनी ही क्रुरता से क्यों कहनी होती है।
निर्मल- मुख्य बातें जितनी कड़वी होती है वह उतनी ही ज़्यादा अच्छे से याद रहती हैं।... तो बताओ क्या लिखा?
मैं- एक कहानी ’नक़ल नवीस’ और दूसरी आधी है ’मुमताज़ भाई पतंगवाले...’ आपके आने के ठीक पहले नए नाटक पर भी कुछ काम कर रहा था... पर कविता आ ही नहीं रही है।
निर्मल- अच्छा है... ज़बर्दस्ती की कविताए झूठा संसार पैदा करती है...। पर.... मैं खुद नहीं जानता कि तुम वह एकांत कब पाओगे जिसमें तुम जो लिखते हो वह देख सको... उसे छू सको... उसे चख़ सको। तुम समझ रहे हो.... तुम अभी अपने आपको वेस्ट कर रहे हो।
मैं- मैं जानता हूँ... मैं उन शब्दों तक पहुंच भी जाता हूँ कभी-कभी उन्हें छू भी लेता हूँ पर चख़ने के ठीक पहले विचार कहीं ओर भागने लगते हैं... कुछ छिछली बातें दिमाग़ में घर कर जाती है और मुझे उठ जाना पड़ता है। कैसे मैं उस सन्नाटे को उगल डालू जिसे मैं जानता हूँ... जिसे मैंने भीतर कई बार महसूस किया है। मैं जानता हूँ उपन्यास लिखने के लिए अभी मैं तैयार नहीं हूँ...। लंबी यात्राओं का एक डर है मेरे अंदर... वह समय रहते ही जाएगा... पर छोटी यात्राएँ... कहानिया...वह... उन्हें तो मैं अपनी पूरी इंमानदारी से छूना चाहता हूँ... वह मेरे साथ क्यों लुका-छिपि का खेल खेलती रहती हैं?
निर्मल- खेल तो किसी भी एकांत में खत्म नहीं होगा.... वह तो रहेगा ही... पर तुम्हें वह खेल तब तक खेलते रहना पड़ेगा जब तक तुम थककर ढूढ़ना बंद ना कर दो... फिर वह कहानी खुद तुम्हारी पूरी थकान में तुमसे मिलने आएगी... पर जब तक खेल रहे हो एक भी शब्द मत लिखो।
मैं- आज फिर आपको पढ़ रहा था... अच्छा लगा। बहुत सी किताबें भी खरीदी... धीरे-धीरे पूरा करुगाँ... बहुत छोटी बातों की लंबी यात्राए मुझे बहुत पसंद हैं.... मैं तैयारी करना चाहता हूँ...। यह पूरा महीना मेरे पास है हो सकेगा तो इस महीने बहुत कुछ लिख पाऊगाँ।
निर्मल- मुझे तुम्हारी चिंता लगी रहती है.... तुम बहुत बच्चे हो इस संसार के लिए जिसे तुमने चुना है। पर मैं क्या कहुं... अब इसे छोड़ना तुम्हारे हाथ में भी नहीं है। कैसे करोगे?
मैं- जैसे तैसे कर लूगां।
निर्मल- मृत्यु के बारे में फिर कभी मत सोचना... वह तुम्हारी तरफ खुद आएगी जब उसे आना होगा... उसके पास कूदकर जाना... या उसके बारे में सोचना भी कायरता है... फिर नहीं...। दुख है... तक़लीफ है... तो वह रहेगी... हमेशा... जो नहीं है उसके बारे में सोचकर खुदको वेस्ट मत करो... वह करो जिसके लिए तुम पैदा हुए हो। अच्छा हुआ तुम कलकत्ते आ गए... तुम्हें भी अच्छा लग रहा होगा?
मैं- हाँ... आज मैं बहुत शांत था। Indian coffee house गया... बहुत अच्छा लगा...।
निर्मल- चलो चलता हूँ... सुनकर अच्छा लगा कि तुम अब ठीक हो... जल्द मिलना होगा.... !!!!

2 comments:

L.Goswami said...

अर्शे बाद नजर आये हैं आप ...

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

इस सीरीज का तो मै कायल हो गया हू... बस इतना और जानना है कि ये सच मे ’उनसे’ ही की गयी बाते है या खुद से उनके तरीके से की गयी बाते..

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल