Wednesday, April 14, 2010

बेचारा बनना सीखो....


April 14, 2010
मेरे घर के सामने (मैं घर के पीछे वाले हिस्से को घर का सामने वाला हिस्सा मानता हूँ) बहुत से बगुले, छोटी चिड़िया, किंगफिशर आदि आकर पेड़ पर बैठते हैं। इस बात से बिलकुल अंजान कि दुनिया बदल रही है। मैं कभी-कभी इन्हें चिल्लकर कहता हूँ... ’अरे दोस्तों दुनिया बदल रही है।’ पर यह मेरी तरफ देखते तक नहीं है। इन बिचारों को कुछ नहीं पता.... उनको ’बिचारा’ कहकर मैं बड़ी सांत्वना भरी नज़रों से उन्हें देखता हूँ। अरे 2050 तक इस देश में माओवादी राज करेगें... एक किताबी समाज की परिकल्पना साकार करने पर तुले हुए है वह लोग। कुछ बगुले इस बात पर पेड़ से उड़ गए। पर एक चिड़िया आकर मेरी बालकनी की मुड़ेर पर बैठ गई। मुझे लगा चलो इसे तो इस बात में दिलचस्पी है कि दुनिया बदल रही है। मैंने धीरे से उससे कहाँ कि ’सुनों और अपने साथियों को भी बता देना कि सिर्फ धमाकों की आवाज़ भर से तुरंत उड़ जाने वाली कला अब तुम लोगों के लिए काफी नहीं होगी। तुम्हें और भी गुण सीखने होगें...। पहले तो मेरे जैसे बहुत कम लोग है जो तुम्हें बेचारा समझते हैं... तुम्हें यूं इठलाते हुए उड़ने की बजाए.. बेचारा दिखने का अभ्यास करना होगा। अगर मनुष्य को तुमपर दया नहीं आई तो तुम लोगों का जीवित रहना एक सभ्य समाज में नामुम्किन है।’ तभी वह चिड़िया मुड़कर दूसरी तरफ देखने लगी...मुझे लगा नाराज़ हो गई है। मैंने होले से कहा कि ’तुम्हें शायद पता नहीं है... कि मनुष्य ने तुम सब लोगों और तुम्हारे जैसे जितने भी इस पृथ्वी पर मौजूद हो.... की छान बीन कर चुका है। अब अगर तुम अपने आपको लुप्तप्राय प्रजाती में शामिल कर लोगे तो मनुष्य तुम्हारी मदद करेगा।’ इस बात पर वह उड़ गई... मैं अपने कंधों को उचकाया और सोचा... मरेगीं यह भी...। तभी मैंने देखा कि मेरी बालकनी की मुड़ेर पर दो चिड़िया आकर बैठ गई। शायद यह पहली चिड़िया को लगा होगा कि मैं कोई महत्वपूर्ण बात कह रहा हूँ जो उसकी समझ में नहीं आ रही है सो वह अपने बीच की एक समझदार चिड़िया को साथ लेकर आ गई है। मुझे ऎसा लगा...मैं ठीक-ठीक कुछ भी नहीं कह सकता। ’मैं ठीक-ठीक कुछ भी नहीं कह सकता हूँ” मुझे यह वाक्य बहुत अच्छा लगा.. सो उन चिड़ियाओं से बातचीत मैंने यहीं से शुरु की.... मैंने कहा.... ’देखों मनुष्य कभी भी ठीक-ठीक कुछ भी नहीं कह सकता है। पर वह ऎसा मानता है कि दुनिया जो चल रही है वह ग़लत है... जिस दुनिया की कल्पना उनके दिमाग़ में है वह बहुत उमदा है... एक विचित्र आदमी हुआ था उसने एक आदर्श दुनिया को किताब में भी उतार दिया था। कुछ लोगों का तो यह भी मानना था कि देखों किताब पर कितनी सुंदर लगती है.. तो सच में भी यह इतनी ही सुंदर होगी... फिर इन मानने वालों ने सबको मनवाने के लिए... सारे प्रयत्न किये.. । अब कुछ लोग इस काल्पनिक दुनिया को जल्द से जल्द व्यवहार में लाना चाहते है... इसके लिए उन्होंने उन सब लोगों को मारने की ठान ली है जो उनकी दुनिया का हिस्सा नहीं होना चाहते हैं।’ मैंन देखा दोनों चिड़ियाओं ने मेरे सामने shit कर दिया... एक बार मुझे देखा और उड़ गई। मैं पीछे से चिल्लने लगा... ’अच्छा तुम्हें यह सब मज़ाक लगता है... दुनिया सच में बदल रही है.... यह तो मैंने सिर्फ एक बात कहीं है ऎसे कई समुह है... यह दुनिया नहीं रहेगी कहे देता हूँ... या तो हिंदु राष्ट्र होगा... या इस्लाम सब को निग़ल जाएगा.... या तो माओवादी आदर्श समाज बनेगा... या तो ईसा मसीह सबको अपनी ओर कर लेगें और अपने पापों के प्राश्चित के लिए चर्च में बंद करके सबको खूब रुलाएगें....’ भाई सब कुछ होगा... पर यह दुनिया वैसी नहीं रहेगी जैसी यह दिख रही है सो मेरे प्यारे पक्षियों तैयारी कर लो... कुछ ओर होने की...। इस बदलाव की आंधी में ’बेचारे’ ही बचेगें... ’बेचारा’ बनना सीखों... ।

6 comments:

Jandunia said...

अच्छी पोस्ट है।

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

:) बहुत ही प्यारी पोस्ट..
मेरे रीडर से जुड गया है आपका ब्लाग और अब ये रिश्ता चलता रहेगा..

रवि कुमार, रावतभाटा said...

बेचारा बनना बड़ा ही मुश्किल काम है...

प्रवीण पाण्डेय said...

अच्छी पोस्ट है ।

@ngel ~ said...

very impressive... but i had a question... "kya beechare dikhne per log bach jaayenge?" "actualy mein yahan per beechare dikhane ka kya matlab hai?"
I am not able to understand it properly... mujhey mere samajhne me kuch kami lag rahi hai...

@ngel ~ said...

and yeah... Thanks To Pankaj's Google reader... I happen to read so much good stuff ... n I came on urs from dere nly :)

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल