Sunday, April 18, 2010
ऊब से सुलह....
दिनचर्या को खगालने लगा। पड़े-पड़े घर में विचरण.. और क्या कह सकता हूँ इसे मैं? घर के मेरे कई ठिये बन गए हैं, (यूं एक कमरे के घर में बहुत गुंजाइश नहीं होती।) यह विचारबद्ध तय नहीं हुए... यह रहते-रहते आदतन और आलस्य की खिचड़ी से पक के तैयार हुए हैं। सुबह मुझे किचिन की दिवार से टिक के बैठना ठीक लगता है। दोपहर होते ही बालकनी में कुर्सी डाल लेता हूँ, बिस्तरे और कुर्सी के बीच चहलकदमी में शाम हो जाती है। शाम होते ही कुर्सी खुद-ब-खुद भीतर चली आती है। इस सारी दिनचर्या में शाम को नीचे जाकर गोलगप्पे खाना, आजकल शामिल हो गया है। शाम वापसी कुर्सी से चिपकी होती है...। इन सबके बीच चाय का तारतम्य बना रहता है। सूरज ढ़लती चाय मुझे सबसे ज़्यादा पसंद है... उसे मैं अपनी बालकनी में चिड़ियों से संवाद करते हुए पीता हूँ। इस बीच कुछ चीज़े मैंने बंद कर दी है.. जैसे पंखा ताकते-ताकते दिवास्वपन देखना, टीवी को घूरते रहना, देर तक अखबार पढ़ना, किसी दोस्त के घर यूं ही चले जाना... आदि आदि।
इस सारी मेरी दिनचर्या में जब कभी मेरा फोन बजता है तो मैं उत्साहित हो जाता हूँ। पर फोन पर बात करते ही एक तरह की ऊब मुझे घेर लेती है। तुरंत मैं ’अच्छा फिर... ठीक है.. चलो... ओके... ’ जैसे शब्दों को थूकने लगता हूँ। इस बीच अगर मेरा कोई दोस्त मुझसे कहता है कि ’अगर आप व्यस्त नहीं है तो मैं घर आ जाता हूँ’, तो मैं बड़े उत्साह से जवाब देता हूँ ’अरे.. क्यों नहीं आओ भई... गरमा-गरम चाय पिलाता हूँ।’ फिर मेरी चहल कदमी शरु हो जाती है। मैं इंतज़ार का स्नान कर लेता हूँ, इंतज़ार के कपड़े बदल लेता हूँ, इंतज़ार का घर जमने लग जाता हूँ.... इंतज़ार के बर्तन मांझ देता हूँ...। फिर इसी बीच मेरी बच्चों की सी इच्छा होती है कि कुछ लिख लूं... कुछ ज़रुरी बात, महत्वपूर्ण शब्द, एक वाक्य, आधे संवाद... हाथी, घोड़ा, मानुष, आचार...। मैं तुरंत अपना यंत्र खोलने में लग जाता हूँ... । कुछ देर में दोस्त का आगमन होता है...मैं यंत्र बंद कर देता हूँ...। अगर एक वाक्य भी लिख गया तो मैं बच्चों का सा उछलकर उसका स्वागत करता हूँ। यूं लगने लगता है कि मैंने चोरी की और पकड़ी भी नहीं गई...। मैं चालाक-चालाक सा घर में मंड़राने लगता। मुझे चालाक होना शुरु से पसंद है..। बचपन में मेरे पिता कहते थे... बुद्धु कहीं का चालाक बन.... सो जब भी कोई मुझसे पूछता कि तू बड़ा होकर क्या बनेगा रे.... मैं कह देता मैं बड़ा होकर चालाक बनूगाँ। इस चालाकी से खुश मैं अपने दोस्त के लिए तुरंत चाय चड़ा देता। यहाँ चाय की चुस्की शुरु ही हुई होती कि मैं फिर वही... उसी ऊब का शिकार होने लगता। मैं इस ऊब से छुटकारा पाने के लिए तरह-तरह की बातें करता, छिछोरी निंदाओं पर उतर आता, मायापुरी जैसी बातें करने लगता पर सब कुछ धूम फिर कर वही ऊब में मिल जाता। क्या करें इसका....?
मैं बहानों के पैबंद में उस दोस्त को धीरे से चलता करता। कुछ दोस्त समझ जाते, कुछ समझते हुए भी मेरी सनक मानकर मुस्कुरा देते। उनके जाते ही मैं आत्मग्लानी में घुस जाता। पछताया सा एक ख़राब किताब उठाकर पढ़ना शुरु कर देता... फिर अपना गुस्सा उस झूठे लेखक पर निकालता। किताब को दीवार पर फेंक कर मारता और टहलने लगता।
धीरे-धीरे यह ऊब खिसककर किताबों, कहानियों, कविताओं पर भी छाने लगी है। किताब उठाता हूँ उत्सुकता घिर आती है… पर लेखक की चालें जैसे ही दिखने लगती है ऊब… धीरे से मेरा टेटुआ खुजाने लगती है… मैं खखारता हूँ, फिर पानी ढ़ूढ़्ने उठता हूँ… और वापिस उस किताब पर कभी भी नहीं लौटता। एकांत से बहुत ऊब नहीं होती… या ऊब एकांत का ही हिस्सा है… यह मालूम नहीं।
मैंने एक बार इस ऊब के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया… गहन, घनघोर युद्ध। कई बार उस युद्ध में मैं भीड़ में नाचता गाता पाया गया, कई बार गंदे भद्दे चुटकुलों पर हंसते-हंसते मेरे आंसू निकल आए, एक बार तो भीड़ में किसी छिछली बात पर मेरी आह निकल आई थी। ऊब से युद्ध मेहगा पड़ता जा रहा था। सो मैंने उससे सुलह करनी चाही।
बहुत मान मनऊअल के बाद इस ऊब से सुलह हो गई…… सुलह कुछ यूं है कि…ऊब ने मुझे सुलह का लोन दिया है। मुझे लगातार ऊब को किस्ते चुकानी होती है… लगभग हर रोज़। यह किस्ते गंभीर रुम से निजी है… सो मुँह से उगला नहीं जाएगा। बस इतना ही कह सकता हूँ कि कई सालों बाद आप मुझे जैसा देखियेगा… यह उन किस्तों का ही परिणाम होगा…।
ओह! लो, फिर मैं ऊबने लगा।
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मानव
परिचय
- मानव
- मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल
4 comments:
nice
इस बार बड़ी जल्दी उब गये...
बेहतरीन उहापोह भरा लेखन!
bahut acha lekh...
http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/
पढते पढते मै नही ऊबा...
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