Tuesday, February 12, 2008

अपने से...



उगलियां नहीं चल रहीं हैं।हाथ किसी दोग्लेपन की वज़ह से साथ छोड़ रहे हैं।
जब तबियत खराब जैसी होती हैं-तो पेन और डायरी ढूढ्ने की तलाश- तबियत

ठीक कर देती हैं। दिमाग़ लिख़ने की पीड़ा से भटक जाता हैं।
अब सोचता हूँ.. कि अब नया क्या लिखूँगां... या कैसा लिखूँगा? बहुत सी
images हैं.. पर इच्छा है कि-- मैं तीसरी बात कहूँ.. पर पहली बात पर रहकर ही।जब
नदी- की जैसी बात कर रहा हूँ तो रेगिस्तान में खड़ा हूँ... जब पीड़ा की बात करु तो...
हसतें हसतें आँखों में पानी आ जाएं...।

अब पहला सीन क्या होगा, पहला पाञ, पहली बार मंच पर आकर पहला शब्द क्या कहेगा,

फिर उस शब्द का पहला वाक्य क्या होगा।'नींद... नींद आ रही हैं'...हाँ ये ठीक है..' और फणिश्वर नाथ रेणु पानी लेकर आते हैं'... क्या.. क्या.. shut up.. :-).

1 comment:

आनंद said...

बड़ी उलझन से गुजर रहे हो गुरू ! कहीं से भी स्‍टार्ट कर दो। कहीं भी खत्‍म कर दो। घर का माल है :)

अच्‍छा हुआ जो मैं भटकता हुआ आज आपके ब्‍लॉग पर आ गया, और फिर यहीं का हो गया। आज की शाम आपकी पोस्‍टों के नाम।

- आनंद

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मानव

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परिचय

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल