Saturday, March 8, 2008

अपने से...


कुछ अलग कर दिखाने की उम्र, हम सबने जी है, जी रहे हैं, या अभी जीएगें।
मुझे हमेशा लगता है, ये ही वो उम्र होती है... जब हम सामान्य से अलग दिखने की कोशिश में, खुद को पूरा का पूरा बदल देते हैं। इसी समय खुद के अस्तित्व को मध्य में रखते ही हमें दुनिया गोल नज़र आने लगती है, और 'पृथ्वी गोल ही है'- में -'पृथ्वी ध्रुवों पर से चपटी है' की जानकारी हमें हमेशा बोर करती है। 'पृथ्वी गोल है' में एक ज़िद दिखती है... एक बात जिसपर फिर से लड़ा जा सकता है।
अभी कुछ समय पहले मैं 'नक्सल' पर कुछ लिखना चाह रहा था। उसके बारे में पढ़ना शुरु किया तो पता नहीं क्यों मुझे कुछ प्रश्नों की ध्वनी लगभग एक जैसी सुनाई देने लगी (जिसमें वो उम्र महत्वपूर्ण है।) जैसे-
- कोई आदमी 'नक्सलवादी' क्यों हो जाता है?
- कोई आदमी 'साधू' क्यों बन जाता है?
- कोई 'रंगमंच' क्यों करता रहता है? ( रंगविचार या रंगसंवाद नहीं)
- कोई 'आतंकवादी' क्यों हो जाता है?
- कोई कभी कुछ क्यों नहीं कर पाया?
-वगैरा वगैरा।


कुछ अलग कर दिखाने की होड़, हमें किस सामान्यता पर लाकर छोड़ती है... ये शायद हमें जब तक पता चलता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।फिर हम शायद अपने कीये की निरंन्तरता में.. अपने होने की निरंन्तरता पा चुके होते हैं।

उस निरंन्तरता को बनाए रखने में ही हमारे होने का अस्तित्व भी फसा रहता है, जिसे तोडने के लिए हमें शायद फिर से उसी उम्र की ज़रुरत पड़ती है, जिसे हम 'कुछ अलग कर दिखाने' की कोशिश में बहुत पहले ही खर्च कर चुके होते है।

2 comments:

अमिताभ मीत said...

बहुत अच्छा है मानव. बहुत सही कहा है. Does make a lot of sense.

Anonymous said...

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल