Saturday, June 13, 2009

ख़ाना और गाना...


“बेंग्लौर में एक महीने रहने के बाद यात्रा पहाड़ों की ओर बन चुकी है। जुलाई अंत और आधा अगस्त पहाड़ों में ही बीतेगा...” यह सोचते हुए मैं भीतर खुश हो रहा था...। भीतर खुशी के साथ-साथ भूख की भी एक हूक़ उठी... मेरी आँखें खुद-ब-खुद खाने की जगह टटोलने लगी। सोचा आगे दो महीने का इतना अच्छा प्लान आज ही बना है तो मुझे खुद को treat देना चाहिए। सो एक छोटे से ढ़ाबे में मैंने मछली चावल ऑडर किया... मेंग्लौरेयन होटल था... केले के पत्ते में उन्होंने खाना परोसा.... वाह!

       मैं हमेशा इन छोटे ढ़ाबों में.. छोटी जगह ही खाना पसंद करता... इसकी मुख्य वजह है उन लोगों का कम formal होना...। वह बिंदास आपको खाना देते है... उनका आपको देखकर मुस्कुराना हमेशा आपको व्यक्तिगत रुप से मुस्कुराना लगता है। वह किसी होटल मेनेजमेंट की मर्यादा के तहत आपकी आव भगत नहीं कर रहे होते हैं। खाना देने के बाद वह आपके ऊपर से ध्यान भी हटा लेते है... मेरे जैसे आदमी के लिए यह गुण बहुत बड़ा है.. क्योंकि मैं बहुत ही सभ्य तरीक़े से खाना नहीं खा पाता हूँ। आपके हाथ से यदि पानी, खान, चम्मच कुछ भी गिर जाए तो यह वहाँ सामान्य सी बात की तरह टाल दी जाती है...।

इस मेंग्लोरियम होटल का मालिक मुझे दो दिन से आता हुआ देख रहा था... आज उसने मेरे आते ही रेडियों पर कन्नड़ की बजाए एक हिन्दी चैनल लगा दिया... उसे काफी देर लगी वह चैनल ढ़ूढ़ने में... किसी पुरानी फिल्म का गाना था... और कुछ इस तरह बज रहा था कि बजना ना चाहता हो...। अगल बगल बहुत से लोग अपने खाने में व्यस्त थे... पर हिन्दी गाने के साथ ही कुछ लोगों के खाने का तारतम्य थोड़ा टूटा...चैनल  के बदलाव पर मैं भी कुछ आश्चर्य में था... मेरी निगाह मालिक पर पड़ी... वह मुझे देखकर मुस्कुरा दिया... मैं भी मुस्कुरा दिया, अगल-बगल देखा....अचानक कुछ लोग मेरी तरफ देखने लगे थे... मैं थोड़ा सहम गया, मैं जानता था इस बदलाव का मुख्य कारण मैं ही हूँ, और मालिक के साथ मुस्कुराहट की अदला-बदली इस बात की पूरी तरह पुष्टी भी कर चुकी थी। मेरी इच्छा हुई कि मैं मालिक के पास जाकर कहूँ कि भाई आप वापिस कन्नड़ चैनल लगा दीजिए... मुझे यहा एक महीना और रहना है.... मतलब बेवजह लोग मुझे धूरे, मुझे यह बहुत पसंद नहीं है... पर यह करना शायद उसके आतिथ्य का अपमान करना होगा... सो मैंने मछली के कांटो की परवाह किये बगैर उन्हें निगलना चालू किया... खाना खाने की रफ्तार लगभग दोगुनी कर दी। बीच ही में बिल लाने के लिए भी इशारा कर दिया....। एक वेटर मेरे पास मुस्कुराते हुए बढ़ा... मैं उसकी मुस्कुराहट में ही उसका सवाल देख सकता था.... ’आराम से भाई... कोई आपसे खान छीन नहीं रहा है।’ मैंने उसे जल्दी जाना है... ज़रुरी काम है का इशारा कर के.. बात टाल दी। खाना आधा छोड़कर... जल्दी-जल्दी बिल देकर मैं फौरन वहाँ से बाहर निकल गया..... मेरे बाहर निकलते ही... कन्नड़ गाना वापिस पूरे होटल में गूंजने लगा...।

       मैंने तय किया कि अगले दिन कन्नड़ गाने की धुन गुनगुनाते हुए ही होटल मे प्रवेश करुगाँ... और मालिक से सबसे पहले, चल रहे कन्नड़ गाने की तारीफ करुगाँ.... पूरे समय खाना खाते हुए मैं कन्नड़ गाने पर झूमता रहूगाँ... मानों मुझे खाने से ज़्यादा गाना पसंद आ रहा हो। यह और ऎसी बहुत सारी कसम खाते हुए मैं वहाँ से रवाना हुआ।

8 comments:

निर्मला कपिला said...

bahut rochak hai kisee ke rang me rangana bhi kitana achha lagta hai kabhi kbhi

Sneha Shrivastava said...

behot hee achcha likha hai aapney, or wo dar jo bhid sey alag dikney per hota hai usey badi hee khubsurti sey chitran kiya hai.:)

Quietude N said...

:-),kabhi hum tere rang odhte hai,kabhi tume mera rang odhte ho...

अनिल कान्त said...

bhai mazaa aa gaya
chha gaye guru

अनिल कान्त said...

bhai mazaa aa gaya
chha gaye guru

मुनीश ( munish ) said...

yes standing out in a crowd has its own fears ,but that was a nice dhaba vaala anyway ! so u r off to hills again ,thats wonderful, but how can a common reader relate to u when u can't tell about the lacation of places like satohal?

अनूप शुक्ल said...

सुन्दर पोस्ट!

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

हे हे :) फ़िर क्या हुआ था?

LinkWithin

Related Posts with Thumbnails

मानव

मानव

परिचय

My photo
मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल