Wednesday, June 10, 2009

घर-घर


बचपन में मैं कुछ तकियों और चादरों का मिला कर घर बना लिया करता था... उसमें थोड़ा पानी और खाना आने की एक जगह छोड़ दिया करता था। बहुत समय तक मुझे यह लगता था कि....मैं पूरी ज़िदगी ऎसे ही रह सकता हूँ....माँ चिल्ला-चिल्ला कर कहती कि-’बस बहुत हो गया अब निकल आओ बाहर।’ मैं कहता कि मुझे एक सांकल या घंटी चाहिए अपने घर के लिए। घर छूटे ज़माना हो गया....सांकल की तलाश में एक दिन सांकल मिल गई.... पर तब तक तकियों और चादरों का घर खत्म हो चुका था... सांकल साथ रहती थी जो हमेशा चलते हुए बजने लगती थी। हर खड़-खड़ पर लगता, कि कोई घर में आना चाहता है। जब घर में बहुत समय तक कोई नहीं आया.. तब कोई आया है कि कल्पना शुरु कर दी....। आया, बैठा, खाया-पीया... और चला गया तक की कहानी रच दी.... यहीं, उस सांकल और उस तकियों और चादरों के घर ने ही लिखना शुरु करवाया।

6 comments:

Bhawna Kukreti said...

bahut badhiya sanchipt lekhan

मुनीश ( munish ) said...

brevity..precision of a needle ! itz very subjective and im not a writer either . As a reader however i am desirous to read ur motorcycle diary if u have maintained any . i am a tramp by the way.

सुशील छौक्कर said...

बेहतरीन अहसास लिख दिये।

ravindra vyas said...

sunder!

Vikrant said...

दिल के दरवाजे की सांकल बजा गयी...अतिसुन्दर

http://vikrantkasafar.blogspot.com/2009/02/bean-bag.html

L.Goswami said...

लगा जैसे किसी ने मन की बात कह दी हो

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल