Friday, September 9, 2011

माँ.....


मेरा नाम कोंपल है। बहुत समय तक मुझे इसके मानी नहीं पता थे। एक दिन मेरी माँ मुझे एक पेड़ के पास ले गई... और उसमें अभी-अभी आए नए कोमल पत्तों को छूने को कहा। बहुत छोटे-छोटे, हरे रंग में बहुत सा पीला रंग लिए वह अत्यधिक कोमल पत्ते कोंपल कहलाते हैं....। मैंने उससे कोमल चीज़ आज तक नहीं छुई थी। माँ ने कहा कि यह तू है। मैंने कहा यह तो बहुत कमज़ोर लगते हैं... उन्होंने कहा कि यह कमज़ोर नहीं है..कोमल है.. जो तू है। मैंने उन कोपलों को छूते हुए माँ से कहा था कि अगर यह कोमल से पत्ते मैं हूँ तो यह पेड़ आप हैं। मैं इस बात को बहुत पहले भूल चुका था।
कल गांव से सोनी जी का फोन आया था कि ‘तुम्हारी माँ कल रात अचानक चल बसी हैं। कल अंतिम क्रियाकरम करना पड़ेगा... तुम तुरंत पहुंच जाओ।’ मैं अपने ऑफिस में बहुत बुरी तरह व्यस्त था... बहुत से काम मुझे निपटाने थे। मैंने सोनी जी के फोन को ’ठीक है’ कहकर रख दिया। बहुत देर तक मैं अपने ऑफिस के काम में उलझा रहा..। तभी काम करते-करते मुझे कुछ खाली-खाली सा लगने लगा... मैं बहुत देर तक अपनी डेस्क को देखता रहा.. फिर कुछ चीज़ें ढ़ूढ़ना शुरु कर दिया। मेरे दोस्त ने मुझे देखा और पूछा ’क्या खोज रहा हूँ?’ मैंने अपने कंधे उचका दिये..और फिर खोजने में जुट गया..। अचानक मुझॆ पसीना आने लगा... असामान्य तरीक़े से..बहुत पसीना....मैंने अपने एक दोस्त से पूछा कि देख मुझे कहीं बुखार तो नहीं है? उसने मेरा माथा छुआ और कहा ’नहीं...” मैंने उससे कहा कि यार मेरी माँ नहीं रही और तब उसकी आँखों में मैंने वह देखा... जिसे मैं खोज रहा था..। फिर मुझसे खड़े रहते नहीं बना... मैं बैठना चाहता था.. लेटना चाहता था.. मैं बहुत सारे तकिये चाहता था.. रजाईयाँ... जिसमें गुत्थम-गुत्था होकर मैं सो जाऊं.. छिप जाऊं.. मैं माँ की कोख़ जैसी सुरक्षा ढूंढ़ रहा था.......।
कुछ देर में मैंने ऑफिस से अपना सामान उठाया और सीधा अपने घर आ गया।
मैं सुबह चार बजे से उठा हुआ हूँ। सुबह कितनी धीमी गति से होती है इसका अंदाज़ा मुझे आज तक नहीं चला...। मैं नहा चुका था.. शेव कर चुका था.. पूरा सामान बांध चुका था पर सुबह होने का नाम ही नहीं ले रही थी। अपनी रेक पर रखी किताबों में मेरी निग़ाह गोर्की की मदर पर पड़ी...। अपनी बहुत जवानी के दिनों में मैंने वह किताब पढ़ी थी.... किताब खत्म करते ही मेरे भीतर एक बहुत ही रिरयाती हुई इच्छा जागी कि काश मेरी माँ भी पलाग्या निलोवना की तरह महान माँ होती। मैंने कई दिनों तक अपनी माँ से ठीक से बात नहीं की थी... मुझे लगा था कि उन्होंने मुझे धोखा दिया है... उन्हें महान होना चाहिए था... वह हो सकती थी... फिर क्यों नहीं हुई? आज लगता है कि पेलाग्या निलोवना से कहीं महान वह माँए है जो बिना किसी ’आह’ के एक घर में काम करते हुए पूरी ज़िदगी गुज़ार देती हैं। उनकी कोई कहानियाँ हमने नहीं पढ़ी.. उन्हें किसी ने कहीं भी दर्ज़ नहीं किया। वह अपने पति के जर-जर होने और बच्चों से आती ख़बरों के बीच कहीं अदृश्य सी बूढ़ी होती रहीं... यह हमारी माँए है जिनका ज़िक्र कहीं नहीं है।

मेरी माँ पढ़ी लिखी थी… हमेशा से लिखना चाहती थी। मैं लिखने पढ़ने से कतराता था। माँ ज़बर्दस्ति कुछ किताबें मेरे सिरहाने रख दिया करती थी... जिन्हें मैं महज़ नींद आने के लिए पढ़ता था। नींद में आधी पढ़ी हुई कहानी अपने बहुत ही अलग विरले अंत खोजने लगती। मेरे सपने उन कहानीयों के अंत की कल्पना बन जाते। सुबह माँ को कहानी के बारे में बताता तो आधी कहानी सही होती और आधी मेरे सपने की बात होती। माँ को हमेशा से लगता था कि मैं पढ़ने से बचने के लिए मनगढ़ंत कहानी बनाता हूँ, पर उन्होंने यह बात कभी मुझसे नहीं कही।
मैंने लिखना शुरुकर दिया... उन कहानियों के काल्पनिक अंत को जिसकी आदत माँ को लग गई थी.। फिर धीरे-धीरे वह पढ़ी हुई कहानिया छूट गईं.. और मैं पूरी एक कहानी की काल्पना करने लगा..। माँ हमेशा मेरे लिखने से खुश रहती...।
मैंने घड़ी देखी छ: बज चुके थे... मैंने अपना सामान उठाया और एयरपोर्ट के लिए रिक्षा पकड़ लिया। बारिश बहुत हो रही थी सुबह का समय था मैं अपने समय से बहुत पहले ही एयरपोर्ट पहुंच गया। एक कॉफी लिए मैं एक कोने में जाकर बैठ गया। एक बहुत बूढ़ी औरत दिखी...जो कुछ ढूंढ़ रही थी। मैं बहुत देर तक सोचता रहा कि मैं उठकर उसकी मदद करुं पर मैं उठा नहीं... एक औरत उसके पास गई.. उस औरत ने उसे इशारे से बताया कि बाथरुम वहाँ है। वह बूढ़ी औरत जब धीरे-धीरे चलती हुई बाथरुम की तरफ जा रही थी तो मुझे अपनी माँ दिखीं... नहीं वह कभी भी इतने बूढ़ी नहीं थी.. पर वह दिखीं। मैंने अपनी कॉफी छोड़ी और उस बूढ़ी औरत की तरफ लपका..। मैं जैसे ही उनके पास पहुंचा वह मुझे देखकर मुस्कुराने लगी... मैंने उनसे कहा... ’माँ... ’ वह बूढ़ी औरत रुक गई और मुझे आश्चर्य से देखने लगी। मैं फिर ठंड़ा पड़ चुका था.. चुप...। वह बूढ़ी औरत कुछ डर गई...। जल्दी से मुड़ी और बाथरुम की तरफ जाने लगी... कुछ देर मैंने उन्हें जाते हुए देखा... और मैं फिर उनके पीछे हो लिया..। ठीक बाथरुम के पास मैंने उन्हें रोक लिया... ’माँ...।’ वह बूढ़ी औरत कांप रही थी.. बहुत डर चुकी थी..। अचानक वह मुझे डांटने लगी.. मुझे पागल कहकर संबोधित करने लगी.... कुछ लोग हमारे पास आ गए...। मुझसे कुछ भी कहते नहीं बना.. मैं वहीं ठंडा खड़ा रहा...। बहुत से लोगों ने मुझे धक्का देखर वहाँ से अलग कर दिया। मैं उस बूढ़ी औरत से क्या कहना चाहता था...? मुझे नहीं पता.. मैं शायद माँ से संवाद चाहता था जो बहुत पहले बंद हो चुके थे।
माँ पिताजी के बारे में ऎसे बात करती थी मानो वह कोई सैनिक हो जिसका काम उनपर पहरा देना हो। पिताजी जब तक जीवित थे उन्होंने माँ पर पहरा दिया। शादी के बाद पिताजी हमेशा घर में ताला लगाकर जाते थे। माँ लिखना चाहती थी इसलिए घर में पिताजी को जहाँ कहीं भी पेन दिखता वह तोड़ देते। तभी मैं पैदा हुआ और माँ ने पहली बार कोमलता देखी और उन्होंने मेरा नाम कोंपल रख दिया। मुझे हमेशा से लगता रहा है कि माँ के दो जीवन हैं... एक पिताजी से पहले और एक पिताजी के बाद...। पिताजी से पहले का जीवन माँ हमेशा भूल जाना चाहती थी इसलिए वह उन्हें सबसे ज़्यादा याद रहता था। पिताजी के बाद का जीवन वह अभी तक जी रही थीं।
हवाईजहाज़ में बैठते ही मुझे पहली बार अपने वह दिन याद आ गए जब मैं अपने घर की खिड़की से कभी-कभी कोई हवाईजहाज़ देख लेता था... माँ इसे अच्छा शगुन मानती थी। वह तुरंत मुझे एक रुपये का नोट देती और कहती कि जा जाकर पेड़े ले आ, आज रात प्रसाद में पेड़े खाएगें। हम बहुत पेड़े नहीं खा पाते थे... शायद हवाई जहाज़ के लिए पेड़े भी इसलिए थे कि वह बहुत कम ही हमारे गांव से गुज़रते थे... अगर ज़्यादा गुज़रते तो हम पेड़े से बताशे पर उतर आते इसका मुझे पूरा यक़ीन था। मेरे बड़े होते-होते हमारे गांव से कभी-कभी एक दिन में दो हवाई जहाज़ गुज़र जाते ... दूसरे हवाई जहाज़ का ज़िक्र ना तो माँ मुझसे करती और ना मैं माँ से...। दूसरे हवाई जहाज़ पर हम दोनों मौन हो जाते.. और खुद को इधर-उधर के कामों में व्यस्त कर लेते जैसे हम कुछ सुन ही नहीं पा रहे हो।
हम ज़मीन से बहुत ऊपर उड़ रहे थे। तभी मेरे सामने एयर होस्टेस ने खाना रखा... मैंने उसे धन्यवाद कहा...। मैंने सुबह से कुछ भी नहीं खाया था... बहुत भूख लगी थी...। मैंने जल्दी में खाना खाने की कोशिश की पर कुछ भी मेरे मुँह में नहीं गया। मेरे बगल में एक सज्जन बैठे थे जो बड़ी तल्लीनता के साथ खा रहे थे... वह मुझे खाता ना देखकर रुक गए। उन्हें लगा खाने में कुछ खराबी है...। मैंने उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया.. और खड़की के बाहर देखने लगा...। छोटे-छोटे कुछ गांव मुझे दिखाई दिये... मैं बहुत ध्यान से एक-एक घर को देख रहा था.. मुझे लगा शायद खिड़िकी में बैठा हुआ मैं खुद को दिख जाऊंगा...। मैं उन पेड़ों का स्वाद अपने मुँह में महसूस कर सकता था। मुझे अचानक सब कुछ धुंधला दिखने लगा... मेरी आँखों में पानी भर आया था...। मैं झेंप गया। बगल में बैठे सज्जन खाना खाते हुए मुझे देख रहे थे..। मैंने खाने में से टिशु उठाया और अपनी आँखे पोंछ ली...। किस बात पर मैं रो दिया था? मुझे समझ में नहीं आया... मैं कब आखरी बार रोया था? मुझे याद नहीं.... नहीं इसे रोना नहीं कहते... मैं रोया नहीं था.. बस किसी कमज़ोर क्षण में मेरी आँखें छलक गई थी और कुछ भी नहीं... नहीं मैं रो नहीं सकता हूँ।
मैंने अपनी कुर्सी पीछे की और अपनी आँखें बंद कर ली...।

कितने मासूम दिन थे वह। माँ मेन बोर्ड स्कूल से रोज़ शाम को लाल रंग की प्लास्टिक की टोकरी लेकर आती थी... मैं अकेला घर में उनका इंतज़ार किया करता था..। रोज़ उनकी लाल रंग की प्लास्टिक की टोकरी में कुछ चॉक के टुकड़े पड़े होते। वह दिन भर अकेले रहने के इनाम के तौर पर मुझे दे देती। चॉक के टुकड़े इनाम थे... मेरे अकेलेपन के...। एक भगवान का आला था जिसमें भगवान रहते, इस बात पर मैं उस वक़्त ऎसे विश्वास करता था जैसे इस बात पर कि समुद्र में इतना पानी होता है कि उसका दूसरा किनारा नहीं दिखता... मैं भगवान को भी चित्रों में देखा था और समुद्र को भी....। उस भगवान के आले में बिछे लाल कपड़े के नीचे माँ के हर महीने के साठ रुपये होते। हर महीने साठ रुपये का हमारा खेल था... कभी साठ रुपये पच्चीस तारीख़ को खत्म हो जाते तो कभी इक्कीस तरीख़ को ही दम तोड़ देते...। पर वह महीने जिनमें हम छब्बीस या सत्ताईस तारीख़ तक पहुंच जाते वह महिने स्वर्ग के महीने कहलाते..। मेरे बड़े होते-होते माँ की तनख़्वा एक सो सत्तर रुपये तक पहुंच गई थी... मैं इन दिनों कुछ पैसे भगवान के आले से चुराना भी सीख गया था। पैसे चुरा तो लेता पर उनका क्या करना है यह कभी सोचा नहीं था। चोरी किये हुए पैसे मेरी स्कूल की गणित की किताब में जमा होते गए... पर घबराहट इतनी ज़्यादा बढ़ती चली गई कि गणित में मैं फेल होता गया...। गणित की कापी जब भी खोलता उसमें चोरी के पैसे दिख जाते.. और मैं वहीं उसे उसी वक़्त बंद कर देता। फिर एक दिन मैं पंजाब नेशनल बैंक चला गया उन्हें जमा करने... पर मेरा सिर उस बैंक के काऊंटर तक ही पहुंचता था.. सो हाथ से इशारा करके मैंने एक औरत से कहा कि ’सुनिये मेरे पास पैसे हैं.. मुझे इसे बैंक में जमा करना है...। बड़े होने पर मैं आपसे ले लूंगा...।’ उस औरत ने मुझे पहचान लिया और पैसे समेत मेरी पेशी माँ के सामने करा दी... पर माँ ने उस औरत से कहा कि ’मैंने ही इसे पैसे दिये थे.. बैंक में जमा करने के लिए...’ वह औरत मेरी माँ की मूर्खता पर बहुत हंसी थी.... मैं उस वक़्त भीतर रोया था.. और शायद वह ही दिन था जिस दिन से मैंने बड़ा होना शुरु किया था....। बड़े होते रहने के अपने दुख थे... जिसमें बूंद-बूंद अपनी संवेदनशीलता को कठोर होते देखना... और कुछ ना कर पाना.. एक ग्लानी थी। इन सारे दिनों की काईं जैसी भीतर जमा होती गई थी... ग्लानी जिसको कहा जा सकता है। अपने ही बिताए खूबसूरत मासूम दिनों की ग्लानी...।
मैंने लिखना कब छोड़ा था..? बहुत गर्मी के दिन थे तब...। मुझे पसीना बहुत अच्छी तरह याद है... गर्दन के पीछे, रीड़ की हड्डी से सरकता पसीना...। मेरे हाथ में मेरी एक मात्र छपी हुई कहानियों की किताब थी...। इस संकलन का नाम था “अनकहा...”। ठीक इस वक़्त से कुछ समय पहले मैंने अपना एक अधूरा उपन्यास, और बहुत सी बिखरी हुई कविताएँ जलाई थीं...। गर्मी उसी की थी... पसीने की बूंदे जो मेरे गर्दन से नीचे की तरफ सफर कर रही थीं.. उनका संबंध उस आग से भी था जिसकी आंच अभी भी बाल्टी में धधक रही थी। मैंने ऎसा क्यों किया था...? उस दिन मेरी कहानियों की किताब ’अनकहा’ का पहला पृष्ठ मेरी गोद में खुला हुआ था... और मैं उसमें लिखा हुआ वाक्य पढ़ रहा था..“माँ के लिए...”।
गाँव में रहते हुए मुझे एक स्वन ने एक दिन घेर लिया था। उस सपने में मुझे एक आदमी दिखा जिसकी शक़्ल मेरे बाप से मिलती हुई थी। मैंने मेरे बाप की बहुत सी तस्वीर देखीं है..... उन सारी तस्वीरों में वह बहुत जवान दिखते थे... पर मेरे स्वप्न में वह वृद्ध थे.. पहाड़ी वृद्ध..। उनके चहरे पर खिंची आड़ी-तिरछी लक़ीरों में मुझे पीला द्रव्य बहता हुआ दिखता..। फिर उन सपनों का तारतम्य बनने लगा... वह धीरे-धीरे अपनी कहानी को आगे बढ़ाने लगे...। मेरा वृद्ध पहाड़ी बाप मुझसे गुज़ारिश करने लगे कि... कृप्या मेरे चहरे से यह पीलापन हटा दो...। मैं उनके चहरे को छूने से डरता...। बहुत करीब जाकर देखा तो उनके चहरे की लक़ीरों में मुझे पीला द्रव्य बहता हुआ नज़र आया.... मैंने एक लकड़ी उठाई.. और उस द्रव्य को उस लकड़ी से रगड़-रगड़ कर निकालना शुरु किया...। पीछे एक पीपल का पेड़ था.. उसके पत्ते झड़कर अगल-बगल गिर रहे थे...। बहुत मद्धिम हवा का पत्तों से रखड़ाना मैं साफ सुन सकता था। इस सरसराहट के बीच मेरे पहाड़ी बाप की कराह भी थी और उस कराह के पीछे छिपे हुए कुछ शब्द थे... जो बहुत जल्द वाक्यों में बदलते जा रहे थे...।
’बेटा... इस पीले द्रव्य का मूल खोज..’
’ऊपरी सफाई घोखा है।’
’पीड़ा तेरे होने की नहीं है.. पीड़ा मेरे ना होने की है।’
’इस जगह से कहीं निकल जा.. वरना अंत में वह बन जाएगा जिसके सपने तुझे डराते हैं।’
यह सपने मुझे कुछ साल भर आते रहे...। इसकी शुरुआत सिर्फ पीपल का पेड़ था और अंत यह आखरी वाक्य।
प्लेन समय पर उतरा। मेरा गांव करीब यहाँ से नब्बे किलोमीटर दूर था। मैंने एक टेक्सी की... और गांव की तरफ चल दिया। मैं यहाँ आखरी बार दो साल पहले आया था। वह मेरी माँ से आखरी मुलाकात थी.. जो बहुत ही डरावनी थी। आज भी याद करता हूँ तो सिहर जाता हूँ।
धीरे-धीरे, कदम-कदम हमने बिख़री हुई सी कुछ चीज़ों को एकत्रित किया था और उसे घर कहना शुरु किया था। बहुत छोटी-छोटी चीज़ों को लेकर हम खुश हो जाते और बिना वजह एक दूसरे से चिड़ने लगते। तभी वह कुछ लोग घर आने लगे जिन्हें लेकर पहली बार मैंने भय महसूस किया..। वह लोग दिन के उजले में घर आते और माँ से हंस-हंस कर बातें करते.. और रात के अंधेरों में खो जाते..। यह वह ही समय था जब मुझे बार-बार चाय बनानी पड़ती थी...। तभी पहली बार मुझे ऎहसाह हुआ था कि मेरी माँ बहुत खूबसूरत हैं... उनके काले घने लंबे बाल हैं... उनका ताबंई रंग...उनका लंबा पतला शरीर..। माँ ऎसी नहीं होती है... बाक़ी सबकी माँए बूढ़ी होने की सीडियाँ चढ़ती हुई थकी सी दिखती थीं पर मेरी माँ एक उम्र पर रुकी हुई थीं। मेरे बड़े होने के दुखों में यह दुख अपना वज़न लगातार बढ़ाए जा रहा था। मैं माँ को बूढ़ा चाहता था।
एक रात सोते वक़्त मैंने माँ से कहा था...
’माँ आप बहुत खूबसूरत हो...?’
मैं अपनी बात कहना चाहता था पर यह सवाल के रुप में मेरे मुँह से निकला.... माँ कुछ देर चुप रही फिर उन्होंने कहा...
’बेटा क्या मुझे शादी करनी चाहिए...?’
मैं दंग रह गया...। अचानक मुझे घबराहट होने लगी... मैं कुछ देर में पसीने-पसीने हो गया.. मैं ज़ोर-ज़ोर से सांसे लेने लगा...। माँ मेरे करीब आई और उन्होंने मुझे अपनी और खींचना चाहा... मैंने उन्हें झटका देकर अलग कर दिया...। गुस्से में मैं उठकर बाथरुम गया...।
कितनी इच्छा होती है कि गांव वैसा ही रहे... हमारी स्मृतियों में वह जैसा गुदा हुआ है। वहाँ कभी लोग बूढ़े ना हो.. कभी हमारी जी हुई पगड़ंडियों पर हमारे ना होने की डामर ना बिछ जाए। जैसे ही मेरी टेक्सी गांव की सरहद में घुसी मुझे मेरा शरीर भारी लगने लगा... मैंने अपनी शर्ट के कुछ बटन खोल दिये..
“यार सुनों ज़रा ए सी चालू कर दो...”
“साहब वह चालू है...।“
मुझे बहुत गर्मी लग रही थी। टेक्सी मेरे मौहल्ले की तरफ बढ़ रही थी। मुझे कुछ सूरते पहचानी हुई लग रही थी पर मुझे लगा सब लोग धूप में जले हुए हैं। तभी मैंने परायापन महसूस किया... अब मेरा इस गांव से कोई संबंध नहीं है.. कुछ भी नहीं...। दो साल पहले जब मैं यहाँ आया था तो एक गुस्सा था इस गांव को लेकर... अब वह भी नहीं है। मैंने कहीं भी अपनी टेक्सी नहीं रोकी...। मैं सीधा अपने घर की तरफ बढ़ा...।


माँ और मेरे संबंध में मेरा लिखा हुआ एक रक्त की तरह काम करता था जिसका संचार बहुत समय तक लगातार बना रहा। मैं शहर आ गया था... माँ से बहुत कहा कि चलो यहाँ क्या रखा है मेरे साथ रहना... पर वह नहीं मानी... कहने लगी ’मेरी सारी उम्र यहीं कटी है.. तू आता रहना और मैं भी आती रहूंगी.. फिर तेरा लिखा पढ़ूगीं तो तू पास ही रहेगा।’ माँ मेरे साथ नहीं आई.. कई साल बीत गए... बीच-बीच में वह आती रहती फिर उन्हें गाव वापिस जाने की जल्दी लग जाती.... मेरा जाना बहुत कम होता था। इसी बीच मेरा पहला कहानी संकलन ’अनकहा’ छपा... उस समय माँ मेरे साथ थी... बहुत खुशी थी उन्हें उस बात की... हम दोनों उस रात बाहर खाने गए थे.. खाने के बीच में ही उन्होंने कहा...
’तुझसे एक बात कहनी है...?’
’बोलो माँ....’
’तुम सोनी जी को जानते हो ना...?’
’हाँ... वह वकील थे ना....’
सोनी जी वक़ील थे..। सब्ज़ी बाज़ार के पास कहीं रहते थे... अब मुझे ठीक से याद नहीं है.. । उनका एक लड़का था... जो मेरे से बड़ा था.. उससे मेरी कभी नहीं बनी... हम हमेशा आपस में लड़ लेते थे... उसके कारण मैं सोनी जी को भी बहुत पसंद नहीं करता था।
’हाँ वही वकील...’ यह कहते ही माँ चुप हो गई...
’क्या हुआ उन्हें....?’
’नहीं उन्हें कुछ भी नहीं हुआ है... वह मेरे साथ रहना चाहते हैं..।’
’क्या मतलब...? उनका तो अपना घर है... वह तो.... ।’
मैं कुछ आगे बोल पाता इससे पहले मैंने माँ का चहरा पढ़ लिया.... जिसपर उस रात की छाया थी जब उन्होंने कहा था कि ’बेटा क्या मुझे शादी करनी चाहिए?’ मैं डर गया... कहीं यह वही बात तो नहीं है..। माँ बूढ़ी हो चुकी हैं.. वह मेरी माँ है.. पिताजी मेरे सपने में आते हैं... भले ही मैंने उन्हें कभी देखा नहीं है.. पर मैं जानता हूँ मेरी माँ कौन है और मेरे पिताजी कौन है...। पता नहीं क्या-क्या मेरे दिमाग में उबलने लगा... फिर मुझसे कुछ भी नहीं हुआ.. मैं पसीने-पसीने था। माँ बहुत देर तक मुझे कुछ-कुछ समझाती रहीं... पर मैं कुछ भी सुन नहीं पा रहा था...।
अगले दिन माँ वापिस गांव चली गई। उस रात मैंने बाथरुम से लोहे की बाल्टी उठाई और उसमें अपने सारे लिखे को जला दिया... उस दिन की गर्मी मुझे अभी तक याद है...। हाथ में बस वह कहानी संग्रह था ’अनकहा...’ जिसके पहले पृष्ठ पर लिखा था.. ’माँ के लिए....’। बहुत दिनों तक मुझे मेरे पिताजी के सपने आते रहे... मैं उनके बूढ़े चहरे से पीलापन निकालता रहा... मैं उस पीलेपन की जड़ भी खोजना चाहता था.. पर जड़ें कहाँ थी? इसका उत्तर मैं कभी भी नहीं खोज पाया....। खुद को बहुत समझाने पर भी मैं “माँ”’ शब्द के भीतर ’आज का समझदार आदमी’ नहीं घुसा पाया...। मैं माँ का अकेलापन भी समझता था.. उनकी सारी बातें सहीं थी पर मैं अलग ही इतिहास को जानता था.. जिसमें माँ... माँ की तरह होती है। मैंने उसके बाद कभी भी यह नहीं जानना चाहा कि वह कैसी हैं.. मैं कभी-कभी उनसे बात कर लिया करता था.. बस.. वह कैसे रह रही हैं..? क्या हो रहा है..? मैं अपने संवादों को वहां तक जाने ही नहीं देता था।
मैंने चश्मा पहन लिया था जिसमें जैसा और जितना मैं देखना चाहता था मुझे उतना ही दिखता था। चीज़ों के पीछे के सत्य में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं थी...। इस चश्में का असर मेरे लिखने पर बहुत हुआ.. मेरा लिखना लगभग छूट चुका था... जब भी कोशिश करता... चश्मा कहीं गायब हो जाता और उस चश्में के बिना जो भी दिखता वह मेरी सांस की नली में कहीं फस जाता.. मैं पसीने-पसीने हो जाता.... घबरा कर घर से बाहर चला जाता... वापिस दोस्तों के बीच अपना चश्मा पहन लेता। काम बहुत अच्छा चलने लगा था.. मैं अपने ऑफिस में बुरी तरह व्यस्त हो चुका था...। लिखन में दिलचस्पी पूरी तरह खत्म हो चुकी थी....।
कुछ ही समय बीता था कि जीवन एक ढलान पर तेज़ी से आगे बढ़ने लगा था। एक घर खरीद लिया था.. ऑफिस में ही एक लड़की थी जिससे घर सजाने की बातें होने लगी थीं...। मैंने कभी कोई निर्णय नहीं किये...। अधूरी पढ़ी कहानियों के चक्कर में कब लिखना शुरु कर दिया पता नहीं चला.. शहर आया तो किसी ने कहा कि लिखते रहना पहले यह अच्छा काम मिल रहा है उसे क्यों ठोकर मारते हो... मैंने काम कर लिया और लिखना कबका पीछे रह गया...। माँ की सारी समस्या को मैंने बहुत पीछे अपनी सारी व्यस्तताओं में दबा के रख दिया था...।
तभी गांव से मेरे कुछ दोस्तों के फोन आने लगे..। वह मुझसे सीधी बात नहीं करते थे.. वह इधर-उधर घुमाकर मुझसे मेरी माँ के बारे में पूछते...। मैं बहुत समय तक बात समझा नहीं...। फिर एक दिन मैंने अपने दोस्त सुधीर को मैंने फोन लगाया.. सुधीर मेरा एक मात्र दोस्त रह गया था गांव में... उसने मुझसे कहा कि तेरी माँ और सोनी जी साथ रहने लगे हैं...। यह गांव के लिए बड़ी बात है.. पहले सब खुसफुसाहट में बात करते थे पर अब लोग सीधा बोलने लगे हैं.. और भी बहुत सी बाते उसने कहीं जिसपर मैंने फोन काट दिया...।
मुझे लगता है हम लोग इस बड़े महाकाव्य में व्यक्ति ना होकर महज़ शब्द हैं...। वह मेरे लिए एक शब्द है ’माँ..’ जिसकी परिभाषा मेरे खून में है... उस परिभाषा से अलग अगर वह व्यक्ति व्यवहार करता है तो वह व्यक्ति अपने शब्द की परिभाषा लांघ रहा है.. जिसे कैसे सहन करना है मुझे कभी नहीं सिखाया गया..। मैं भी एक शब्द हूँ ’कोंपल..’। मैंने भी अपनी परिभाषा लांघी है... मैं कठोर रहा हूँ.. ’माँ...’ शब्द के लिए.. जबकि यह नाम उन्होंने ही मुझे दिया था। मेरा गांव से कोई संबंध नहीं था... पर माँ का वहाँ उन लोगों के बीच इस तरह रहना बहुत कठिन था। मैं अब अपनी व्यस्तता के पीछे छिपकर नहीं बैठ सकता था.. मुझे इसे सुलझाना ही था किसी भी कीमत पर.. बहुत सोचने पर मैं एक नतीजे पर पहुंचा.. कि माँ को यहाँ ले आऊंगा.. चाहे वह कुछ भी समझे.. उन्हें अपने साथ रखूंगा। मैं पहली फ्लाईट से अपने गांव पहुंचा......
गांव में घुसने से पहले मैंने सुधीर को गांव के बाहर वाले एक ढ़ाबे पर बुला लिया..। उससे कुछ देर बात करने पर पता चला कि माँ बहुत कम ही घर से निकलती हैं.... सिर्फ सोनी जी बाज़ार में कभी कभार किसी को दिख जाते हैं..। लोगों के लिए मसाला है... सबके पास कहने के लिए बहुत कुछ है...। मैं चुप चाप सब सुनता रहा... फिर मैंने उसे बताया कि मैं माँ को अपने साथ ले जाने आया हूँ। उसने कहा यह ही सही है। कुछ देर की बात के बाद मैं सीधा अपने घर पहुंचा....। दरवाज़ा सोनी जी ने खोला।
’अरे वाह!!! तुम आ रहे हो तुमने बताया भी नहीं... सुनिये!! देखिए कौन आया है आपका ’कोंपल..’।”
मैं सीधा भीतर चला गया.. सोनी जी की तरफ बिना ध्यान दिये..। माँ पूजा वाले कमरे में लेटी हुई थीं। मैं सीधा उनके पास गया.. उनके पैर छुए... बड़ी मुश्किल से वह अपने पलंग से उठ पाईं...।
’क्या हुआ माँ?’
वह बहुत दुबली हो चुकी थीं... जर-जर काया... शरीर बहुत गर्म था। मैं उनके बगल में बैठ गया..।
’रहने दीजिए, उठने की क्या ज़रुरत है... क्या हुआ है माँ?’
तभी मुझे सोनी जी की आवाज़ आई.. वह दरवाज़े पर खड़े थे....
’कई महिनों से इनकी ऎसी ही हालत है...। डॉक्टर ने पूरी तरह बेड-रेस्ट बोला है... पर यह मानती कहाँ है...? मैंने कहा था कि तुम्हें बता दें... या मैं तुम्हारे पास छोड़ आता हूँ... पर इन्होंने मना कर दिया..। चाय पियोगे?’
कुछ देर चुप्पी बनी रही.. मैं सोनी जी की आवाज़ अपने भीतर चबा रहा था.. ’’यह कौन होते है मुझे बताने वाले कि मेरी माँ कैसी है कैसी नहीं है!!” किचिन में कुछ बर्तनों की खट-पट सुनाई दे रही थी..। भगवान के कमरे की खुशबू बिलकुल वैसी ही थी... उन्हीं दिनों की...। घर बहुत साफ दिख रहा था। मैं कब से माँ से नही मिला हूँ? बहुत समय हो गया.. उनसे बात किये भी काफी समय बीत चुका था। माँ मुझे देख नहीं रही थीं.. वह मुझे निहार रही थीं...।
’कुछ लिखना शुरु किया...?’
’नहीं....।’
मैं भीतर नारज़गी लेकर आया था जो कुछ माँ की हालत को देखकर पिघली थी.. पर कड़वाहट बहुत सी थी... जिसकी वजह से जवाब तुरंत मुँह से निकल गया।
’तुम बाहर बैठो.. मैं हाथ मुँह धोकर आती हूँ।’
माँ ने यह मुस्कुराते हुए कहा था पर मैं समझ गया कि उन्होंने कुछ सूंघ लिया था। वह मेरी माँ थीं... मेरे माथे के बल से समझ जाती है कि भीतर क्या चल रहा है। मैं बाहर के कमरे में जाकर बैठ गया.... सोनी जी मेरे लिए चाय ले आए.. और मेरे सामने आकर बैठ गए। उनसे संवाद मुश्किल थे.. सो मैं उनकी तरफ देख भी नहीं रहा था। अपने ही घर में मैं महमान की तरह बैठा था। कुछ देर में माँ बाहिर आई.। अभी भी वह वैसी ही खूबसूरत थीं... लंबी, ताबंई रंग..। सोनी जी ने उठकर उन्हें सहारा देना चाहा पर माँ ने मना कर दिया, वह मेरे बगल में आकर बैठ गई।
’मुझे बाज़ार में कुछ काम है.. मैं आता हूँ...!!!’
सोनी जी स्थिति समझ चुके थे..। वह जाने लगे...
’नहीं.. रहने दीजिए.. कोंपल आया है... बाज़ार बाद में चले जाईयेगा।’
सोनी जी कुछ समझ नहीं पाए...। वह वापिस आकर बैठ गए।
’रुकोगे कुछ दिन...?’ माँ ने पूछा...
मैं सोनी जी के सामने संवाद नहीं करना चाहता था... मैंने उनकी तरफ एक बार देखा..। वह सहमें से मेरे सामने बैठे रहे..।
’यह घर के ही आदमी हैं...।’ माँ ने कहा...
माँ सीधी बात पर आना चाहती थीं....। मेरे पास कोई चारा नहीं था....
’माँ मैं आपको लेने आया हूँ... हम आज शामको साथ चल रहे हैं..। मैंने फ्लाईट टिकिट भी बुक कर ली है आपके लिए...।’
’देखा अपने कितना प्यार करता है मुझसे यह...।’
उन्होंने यह बात सोनी जी से कही...। सोनी जी आधा लजाए, आधा मुस्कुरा दिये..।
’माँ मैं टिकिट भी बुक कर चुका हूँ। आपको मेरे साथ चलना ही पड़ेगा...।’
’कहाँ ले जाएगा मुझे??? रख पाएगा अपने साथ?’
’आप मेरी माँ हो..!! क्यों नहीं रखूगां?’
’माँ जिससे शर्मिदगी हो रही है... तभी तू भागा हुआ आया ना...?’
’देखो माँ... मैं यह सब बर्दाश्त नहीं कर सकता.... कि...’
’देख तुझसे तो बोला भी नहीं जा रहा है...।’
बात बिगड़ गई थी... मैं कुछ देर चुप रहा..। सोनी जी अपनी बगले झांक रहे थे... माँ सीधा मुझे ही देख रही थीं। माँ ने फिर पूछा...
’क्या बर्दाश्त नहीं कर सकता?’
’माँ आपको पता है यहा लोग आपके बारे में क्या-क्या बोल रहे हैं? इस उम्र में यह सब ठीक लगता है क्या? मैं बस और कुछ नहीं सुनना चाहता... मैं चाहता हूँ आप मेरे साथ रहो बस...।’
’बहुत पहले मैंने एक दुकान खोली थी... जिसमें बहुत सारी चीज़े बिकती थी। तब उस वक़्त लगा कि देखो मैं अपने पैरों पर खड़ी हूँ... लोग मुझसे वह खरीदने आते हैं जो मैं बेचती हूँ। फिर उम्र के साथ-साथ दूसरा ख्याल घर कर गया कि नहीं मैं असल में महज़ एक ज़रिया हूँ.. कोई है जो थोक में चीज़े बनाता है.. मैं बस उसे फुटकर में लोगों तक पहुंचाती हूँ। मैं असल में वही बेच रही हूँ जो लोग खरीदना चाहते हैं... तो मैं क्या चाहती हूँ....? इसका उत्तर मेरे पास नहीं था। एक दिन मैंने यह दुकान बंद कर दी.... बस..। लोगों को अब मैं कुछ भी नहीं बेच रही हूँ... और तुम्हें भी...।’
मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था। मैंने इस तरह की बातों की कभी कल्पना भी नहीं की थी। मैं चुप हो गया..। कुछ देर मैं घर में बिताना चाहता था पर वह मुमकिन नहीं था। माँ अपने कमरे में वापिस चली गई। पता नहीं क्यों मेरी इच्छा हुई कि मैं सोनी जी से बात करुं... पर मैं उनसे कुछ कह नहीं पाया.... मैंने अपना सामान उठाया और जाने लगा... सोनी जी मुझे बाहर तक छोड़ने आए...
’बीमारी के कारण थोड़ी चिड़चिड़ा गई हैं... वैसे हमेशा तुम्हारे बारे में बातें करती हैं...।’
सोनी जी ने कहा, मैने जाते वक्त उन्हें उन्हें प्रणाम किया..। यह दो साल पहले मेरी माँ से आखरी मुलाकात थी... जिसे सोचकर आज भी मैं सिहर जाता हूँ।

मैंने टेस्की वाले को अपने घर की गली के बाहर ही रोक दिया। मैं अपने घर चलकर जाना चाहता था। घर के सामने सुधीर दिखा...। हम एक दूसरे के सामने मूक खड़े रहे.. फिर उसने कहा की ’अंदर चले जाओ.... कुछ सामान रह गया है मैं उसे लेकर आता हूँ।’ मैं भीतर गया तो सब जगह चुप्पी थी... भगवान के कमरे से कुछ धुंआ निकल रहा था। मैं भगवान के कमरे में गया.. वहाँ माँ का शव रखा हुआ था.. सोनी जी बगल में बैठे हुए थे.. एक थाली में राख रखी हुई थी... और बहुत सी दूब जल रही थी। मैं माँ के शव के बग़ल में बैठ गया। सोनी जी ने मुझे देखा... उनकी आँखे लाल थी... मैं उनसे दूर बैठा था... वह खिसकर मेरे पास आ गए..। मेरे कंधे पर हाथ रखा... फिर कुछ देर में अपना सिर मेरे कंधे पर रख लिया...। मैंरा पूरा शरीर कड़क हो गया... वह रो रहे थे... सुबक-सुबक कर .. बच्चों की तरह...। मैंने अपने कंधे को हल्का सा झटका दिया... वह अलग हो गए... फिर कुछ समय में उठकर बाहर चले गए....।
कैसे ऎसा होता है कि आज के बाद वह हमारे जिए में नहीं होगीं...। किसी की मृत्यु पर सबसे ज़्यादा दुख हमें किस बात का होता है? शायद उस ख़ाली जगह का जो उसके जाने के बाद छूट गई है... नहीं हमारे भीतर नहीं... हमारे भीतर की ख़ाली जगह भरने के हमारे पास बहुत गुण हैं। ख़ाली जगह वह छूट जाती है जहाँ वह हमेशा से थीं.. जैसे इस घर और मेरे बीच के संबंध... मेरे और इस गांव के संबंध के बीच की ख़ाली जगह... मेरे और मेरे कोंपल होने के बीच की जगह... मेरे और मेरे माँ शब्द के बीच की जगह... और पता नहीं क्या-क्या? उनके चले जाने पर महसूस होता है कि असल में वह हर जगह कहीं न कहीं मौजूद थीं...। उन जगहों पर अब मेरी ही आवाज़ लौटकर मेरे पास आएगी... मेरा हर हरकत गूंजेगी मेरे ही कानों में....। हमें सालों इतज़ार करना होता है.. तब कहीं इस ख़ाली जगह में... हल्की सी घांस नज़र आने लगती है.. फिर हम एक रात की किसी कमज़ोर घड़ी में वहाँ पेड़ लगा आएगें... और वह बहुत समय बाद एक हरा भरा घांस का मैदान हो जाएगा... तब शायद हम कह सकेगें कि वह अब जा चुकीं हैं...।
मुझे लग रहा था कि माँ बहुत गहरी नींद में हैं... अभी आँखें खोलेगीं और मुझसे पूछेगीं कि ’कुछ नया लिखा?’ वह अभी भी माऒ जैसी माँ नहीं थीं... वह अभी भी खूबसूरत लग रहीं थीं। मैं खिसकर उनके चहरे के पास आ गया... उनके गालों हो हल्के से छुआ...। गाल बहुत ठंड़े थे...। मैंने उनके चहरे पर हाथ फैरा.. और लगा कि वहाँ कुछ नहीं है... कोई हरकत नहीं...। मैं उनके माथे और आखोंको हल्का सहलाने लगा... और मुझे वहाँ इंतज़ार दिखा... लंबा इंतज़ार.. जिसकी रेखाएं हल्की पीली पड़ चुकी थीं....। मैंने एक कपड़ा लिया और उसे पानी में भिगोकर उस पीलेपन को हल्के-हल्के मिटाने लगा...। तभी सोनी जी की बच्चों सी सुबक सुनाई दी... वह दरवाज़े पर खड़े रो रहे थे...। मेरी इच्छा हुई कि मैं उनसे माफ़ी मांग लूं... मेरे ना होने की और इस वक़्त मेरे यहां होने की... सब- सारी बातों की माफी...।
कुछ देर में सुधीर अर्थी का सामान ले आया....। उसके साथ कुछ लोग ओर थे। सभी उसके हम उम्र थे.. उसके दोस्त होगें जो माँ को जानते भी नहीं है शायद..। माँ की शव यात्र में सिर्फ हम तीन ही लोग होगें इस बात से शायद सुधीर घबरा गया होगा..। अब हम तीन नहीं थे हम पांच थे..। मुझे अच्छा लगा...। माँ ने बहुत पहले एक लेखक की डायरी से पढ़कर एक वाक़्य सुनाया था..जो मुझे याद आ गया... “जीवन में अकेलेपन की पीड़ा भोगने का क्या लाभ यदि हम अकेले में मरने का अधिकार अर्जित न कर सकें? किन्तु ऎसे भी लोग हैं जो जीवन-भर दूसरों के साथ रहने का कष्ट भोगते हैं, ताकि अन्त में आकेले न मरना पड़े।“
शमशान में माँ को सूखी लकड़ीयों के बीच लेटा हुआ देखा तो इच्छा हुई कि उनसे कह दूं कि मैं कोंपल नहीं हूँ...। मेरी कोमलता बहुत पहले ख़त्म हो गई थी... मैं सूखा हुआ पत्ता हूँ जो बहुत पहले अपने पेड़ से अलग हो गया था। सुधीर अग्नि लेकर मेरे पास आया.. माँ को अग्नि देने की मेरी हिम्मत नहीं हुई..। मैं अग्नि देने का अधिकार नहीं रखता था.. मैंने लकड़ी सोनी जी को पकड़ा दी.. और उनसे कहा कि वह अग्नि दें... वह इस का अधिकार रखते हैं.. मैं नहीं..।
मुझे लगा मैं किसी घने हरे पेड़ को जलते हुए देख रहा हूँ...। माँ को जलता हुए देखने की मेरी हिम्मत नहीं हुई मैं नदी की तरफ मुड़ गया....। कुछ देर बाद सोनी जी आए और मैं उनके साथ अपने घर चला गया।
अगले दिन सुबह हम माँ की अस्थियां बटोरने गए.... सुबह की राख में माँ को टटोलना..। जो कहानी कल तक मुझे असह रुप से लंबी लग रही थी वह अभी इस राख में खत्म हो चुकी थी..। इस राख में मैं माँ को ढ़ूढ रहा था... कभी वह मुझे अपने घर के बाहर खड़ी दिखती को कभी लाल डलिया लिये में मेरे लिए चॉक लाती हुई... पर पकड़ में कुछ भी नहीं आता.. सिर्फ राख...। तब पहली बार मैं सोनी जी के गले लगकर रोया था.. बहुत रोया.।
क्या हम कुछ भी नहीं बदल सकते जो बीत गया है? क्या वह समय वापिस नहीं आ सकता जब पेड़ पर मैं कोंपल था? वह दिन जिस दिन सुबह के वक़्त माँ ने मुझे पहली बार कोंपल दिखाई थी...? वह दोपहर जब हम कभी-कभी बिना वजह पेड़े खा लिया करते...? या कम से कम वह दो साल पहले का दिन जब मैं माँ से नाराज़ होकर चला गया था !!! काश मैं रुक जाता.... सोनी जी से बात कर लेता.. माँ किसी को अब कुछ नहीं बेच रहीं हैं... वाली बात समझ सकता....। मैं प्लेन में बैठे-बैठे सोच रहा था कि काश ऎसा कोई प्लेन होता जिसमें बैठकर हम अपने अतीत में जाते और कुछ चीज़े ठीक कर लेते... कुछ लोगों को प्यार दे देते.. किसी के साथ थोड़ा ज़्यादा बैठ लेते... किसी को सुनते और समझते.. कहीं किसी के गले लग जाते और जी भरकर रो लेते..।
प्लेन शहर में उतने वाला था... मैंने अपनी कुर्सी सीधी कर ली थी... खिड़्की खोल दी थी.. और कमर में पेटी बांध ली थी।


3 comments:

Pratibha Katiyar said...

संवेदनाओं का ऐसा सुन्दर जाल. कई जगह आँखें छलकी हैं...कहानी के वो हिस्से अब भी भीगे से हैं...

प्रवीण पाण्डेय said...

कहानी अच्छी लग रही है, सुकून से पढ़ेंगे अब।

salima Raza said...

Manav..pehle to tumhara shukriya ki merey ek sujhav se tumne itni marmic kahani paida kar di. Yahan wahan ghumtey rehney ki wajah se kahani padh na payi thi.Ab Australia men baithi padhrahi hun.. hamesha ke tarah, tumhari khaniyon ko kai baar, baar baar padhkar unka pura ras pati hun.parat ,parat khulti hain aur dil men utarti hain. Zarur is kahani ko istemal karungi...kais? , kab ? khan?..shayad abhi nahin pata...Lekin tumhara tahey-dil se shukriya. Dher sa jiyo..aur yun hi likhtey raho.
Salima

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल