Wednesday, October 22, 2008

Father


’तबीयत खराब है भाई।’
आज ही सुबह मेरे भाई का फोन आया... वह मुझे भारत के जीतने पर ( क्रिकेट..) बधाई देना चाह रहा था। मेरी तबियत की बात सुनते ही उसका थोड़ा जोश कम हो गया। पर मैंने ज़ोर लगाकर बधाई दी तो उसने कुछ तफसील से ज़हीर खाँन के विकट लेने का आँखों देखा हाल (टी.वी.) सुना दिया। फिर कुछ इसी तरह का मेरे पिताजी का भी फोन आया और हमने एक दूसरे को, पूरी गरम जोशी से बधाईयाँ दी।
शाम को जैसे-तैसे धूमने सा निकला... तो लगातार क्रिकेट और अपने पिताजी के बारे में सोचता रहा। मेरे बचपन में... बारामुला, खोजाबाग़ (कश्मीर...) में पिताजी रेड़ियों पर क्रिकेट सुना करते थे। भारत और पाकिस्तान का मैच होता तो घर एक war room बन जाता...। सिग़रेट के कश पे कश लगाते हुए, मेरे पिताजी के कई हिन्दु दोस्त, रेड़ियों को घेरे हुए बैठे रहते...। भीतर माँ डरी हुई, चाय के प्याले बाहर पहुचवा रही होती। उस खेल का अंत हमेशा एक सा ही होता था। भारत अगर हार जाता तो पिताजी तुरंत रेड़ियों को दीवार पर मार कर तोड़ देते, घर के दरवाज़े, खिड़कियाँ बंद कर देने की हिदायत दी जाती, घर के बाहर पिताजी के ऑफिस के कुछ मुसलमान दोस्त आकर पटाखें फोड़ते और पिताजी ऑफिस से कुछ तीन-चार दिन की छुट्टी ले लेते। और अग़र भारत जीत जाता तो तुरंत मिठाई का एक ढिब्बा मंगवाया जाता और पिताजी अपने सारे ऑफिस के मुसलमान दोस्तों के घर जाकर तुरंत उनका मुँह मीठा कराते... कुछ रॉकेट जलाए जाते... अगले दिन पिताजी ऑफिस नए कपड़े पहनकर जाते थे। मैं काफी छोटा था तब...... उस वक़्त उतना ज़्यादा क्रिकेट भी नहीं होता था.... उस वक़्त क्रिकेट का अपना एक अलग मौसम होता था, और उस मौसम में जब भी भारत और पाकिस्तान भिड़ते थे... तो उसका तनाव पूरे मोहल्ले में नज़र आता था। बाक़ी दिनों में हम लोग पिताजी के उन्हीं मुसलमान दोस्तों के यह... या वह लोग हमारे यहाँ दावते उड़ाया करते थे।
यह सिलसिला सालों चलत रहा.... रेड़ियों टूटते गए... मिठाईयाँ बटती गईं। कई सालों बाद हम होशंगाबाद (मध्य प्रदेश) आ गए। पिताजी छुट्टीयों में आते जाते रहते थे। बचपन में रेड़ियों सुनते हुए मुझे हमेशा लगता था कि यह खेल शायद पहाड़ियॊं पर खेला जाता होगा। एक तरफ से गेंदें फेक़ी जाती होगीं और दूसरी तरफ से जवाब में छक्के और चौकों मारे जाते होगें, गर चूक गए तो हाथ पेर टूटे समझो। तभी एशियाड के समय घर में टी.वी. आया। उसके काफ़ी समय बाद एक दिन हमने क्रिकेट मेच देखा और लगने लगा कि यह तो महज़ एक खेल है... इसमें इतनी ज़्यादा तोड़ा-फोड़ी क्यों मची रहती है। खैर घर की हालत खस्ता थी, सो पिताजी ने अपने परिवार के साथ रहने के लालच और रिटायर होने के बाद मिलने वाले पैसों के चक्कर में जल्द अपना रिटायर्मेंट ले लिया। रिटायर्मेंट लेते ही आतंकियों ने पिताजी का ऑफिस एक ब्लास्ट में उड़ा दिया.... सारे दस्तावेज़ स्वाहा हो गए। पिताजी का पैसा तो दूर, वह वहाँ जॉब करते थे, इसका भी सबूत देना मुश्किल हो गया।
आज तक उन्हें वह पैसा नहीं मिला... जिसका गुस्सा उन्होंने सब पे निकाला....। इस गुस्से और निराशा के दौर में एक चीज़ अजीब हुई...। मैं और मेरा भाई... क्रिकेट के क़रीब आते गए और पिताजी क्रिकेट के नाम से ही चिड़ने लगे। मुझे पिताजी के जोश भरे दिन याद थे... मैं जब भी उन्हें, बहुत उत्साह में कहता कि आज भारत-पाकिस्तान का मैच है तो वह अपना मुँह बना कर, मैंने कश्मीर में जॉब किया है के सबूतों में खो जाते थे।
बीच में एक world cup मैच के दौरान उनका जोश मुझे वापिस दिखा था, जिस मैच में वेंकटेश प्रसाद हीरों हो गया था और भारत वह मैच हारते-हारते जीत गया था। पिताजी उछल पड़े थे... हम सबने उस मैच के बाद, बाज़ार जाकर आइस्क्रीम खाई थी।
पर उसके बाद भी वह क्रिकेट से उस तरीक़े से जुड़ नहीं पाए...। एक अजीब सी निराशा ने उन्हें घेर रखा था। बात चीत के दौरान कई बार उनके मुँह से निकल जाता कि मैं तुम लोगों के लिए कुछ नहीं कर पाया। टी.वी. देखते हुए जब भी कश्मीर के समाचार आते तो पिताजी या तो चैनल बदल देते या गाली देते हुए टी.वी. ही बंद कर देते, मानो कश्मीर से उनका कोई संबंध ही ना हो।
इन सबके बाद मैं मुबंई आ गया...। पिताजी और मेरे बीच की दूरियाँ, जो काफ़ी बढ़ चुकी थी.... में एक अजीब सा रुखापन आ गया। मैंने इसपर बहुत गौर नहीं किया क्यों कि हम सभी अपने माता पिता के संबंध को बहुत तय संवादों की तरह जीते हैं। तभी इसी बीच एक कमाल की बात हुई.... ’धोनी..’ नाम का एक युवा खिलाड़ी का नाम उभरा...कुछ ही समय में देखते-देखते वह भरतीय टीम का कप्तान बन गया। मेरे पिताजी को भी अब, मैं नौकरी करता था के सबूतों के साथ रहना आ गया था। अचानक मेरे पास एक दिन पिताजी का फोन आया... ’तुमने यह मैच देखा क्या खेला धोनी...। एक दम कपिल देव जैसा।’ उन्हें कपिल देव की वह पारी आज भी याद है जिसमें ने सारे बॉलरों की धुलाई की थी कुछ १७५ रन बनाए थे और एक बॉलर ने सफेद रुमाल कपिल के सामने हिलाया था। धोनी के कारण मेरे पिताजी वापिस क्रिकेट में उसी जोश से कूद पड़े। हमारे संबंध में भी यह... एक अजीब सी ताज़गी लाया है। अभी पिताजी के लिए पाकिस्तान उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि आस्ट्रेलिया... या इग्लेंड़...। मैच के जीतने के बाद हमारी बात होना तय है.... और हारने पर फोन ना करने में ही भलाई है।
मुझे क्रिकेट अच्छा लगता है... यह मेरे खून में है, पर मैं पिताजी के रोमांच का मुकाबला कतई नहीं कर सकता हूँ। उनके और मेरे बीच में धोनी, क्रिकेट... सचिन... बहुत ही महत्वपूर्ण किरदार है, जिनकी सफलता का सुख मैं अपने संबंध की सफलता में बटोरता हूँ।

Saturday, October 18, 2008

थकान...


फिर सामने एक कोरा पन्ना पड़ा हुआ है.... अपनी सारी अपेक्क्षाओं के साथ..। क्या भरुं इसमें? शब्दों के वह कौन से चित्र बनाऊँ जिन्हें बनाते ही मैं हल्का हो सकूँ..। शायद थकान की कहानी लिखनी चाहिए... एक अनवरत थाकान की जो सब से है... अपने से... आस-पास से... इन लगातार सीड़ी चढ़ते लोगों से... उन ज्ञान वर्धक बातों से.. और उन अनुभवों से जिन्हें घर में कहाँ रखूँ, के विचार से मैं दिनों, हफ्तों महींनों व्यस्त रहता हूँ। पड़े-पड़े दीवार पर निग़ाह टिकी रहती है...दीवार पर लोगों के चहरे ढूढ़ता हूँ... मैं इन दिवास्वप्न से भी बोर हो चुका हूँ..। कुछ शब्द लिखने बैठता हूँ तो ’एवंम इन्द्रजीत’ नाटक याद आ जाता है... उसे पढ़ता हूँ... तो ’देवयानी का कहना है...’ नाटक याद हो आता है..। एवंम इन्द्रजीत को वापिस रख देता हूँ...। फिर एक लंबीं यात्रा पर निकलना चाहता हूँ सो Anna Karenina पढ़ना शुरु कर देता हूँ। Stephen Oblonsky का पात्र तक़लीफ देने लगता है, सो उसे भी थोड़ी देर में रख देता हूँ। फिर से थकान के बारे में सोचना शुरु कर देता हूँ। कुछ पुराने कटु अनुभवों को याद करता हूँ... और मुसकुराने लगता हूँ... अच्छे अनुभव याद आते ही पीड़ा देने लगते हैं। सोचता हूँ कुछ तो लिखूँ... इस सामने पड़े कोरे पन्ने को कितनी देर तक देख सकता हूँ..। सो पहला शब्द लिखता हूँ ’थकान...’ और उसे देखता रहता हूँ। फिर कुछ लिखा नहीं जाता सो इच्छा जागती है कि चलो कोई फिल्म देख लेता हूँ.... पर ’थकान’ शब्द डेस्क से उठने नहीं देता है। इस शब्द को देखते रहने का सुख है...। इस सुख पर हसीं आ जाती है। वापिस किताबों के पास जाता हूँ जो किताब पढ़ी हुई है उसे फिर से पढ़ना चाहता हूँ, नई किताब नहीं..। नई किताब पढ़ना, किसी नए व्यक्ति से मिलना जैसा लगता है... सो बहुत समय तक डर बना रहता है... वह कैसे बात शुरु करेगा? किस विषय पर बात करेगा? पहला संवाद कैसा होगा? वगैराह वगैराह..। इसीलिए पुराने दोस्त सी कोई किताब ढूढ़ने लगता हूँ। R K Narayan के My Days (autobiography) पर निग़ाह पड़ती है... उसे उठाकर पढ़ने लगता हूँ और.... :-).।

Thursday, October 16, 2008

निर्मल वर्मा..


काफ़ी समय से अपने आप को एक कोस रहा हूँ कि मैं बहुत ही ज़्यादा समय बरबाद करता हूँ.... भीतर समय बीतते जाने का ज्वर सा भरा रहता है।और अधिक्तर यह तब ही होता है जब मैं निर्मल वर्मा, वर्जीनिया वुल्फ या काफ़्का को पढ़ रहा होता हूँ...इस बार यह काम निर्मल वर्मा ने किया। निर्मल वर्मा को दुबारा पढ़ने की इच्छा जागी थी... उनकी किताब पढ़ते हुए हमेशा हम कुछ ही देर में एक ऎसे एकांत में चले जाते हैं.... जहाँ वह हमसे फुसफुसाते हुए बात कर सकें। देर रात तक उनकी किताब पढ़ता रहा..’धुंध से उठती धुन..’। जब मैंने उस किताब को रखा... तो उसके पीछे के कवर पर निग़ाह गई... पाँच उपन्यास.... आठ निबंध... छ्ह कहानी संग्रह.... तीन यात्रा संस्मरण.... एक नाटक... और एक संभाषण/ साक्षात्कार... एवंम दो किताबें अवसानोपरांत। यह थे कुल जमा निर्मल वर्मा...। उन्हें कई सालों से लगातार पढ़ते हुए उनसे एक संबंध सा बन गया है... इस संबंध में एक अजीब सी खो जाने की पीड़ा है...। पता नहीं मैं इसे विस्तार से कह पाऊगाँ कि नहीं... उन्हें पढ़ते हुए मैं हमेशा एक अजीब सी पीड़ा महसूस करता हूँ, छूटी हुई चीज़ो की, बीच में छूट गए लोगों की, पीछे छूट गई जगहों की...। अभी इस किताब को रखते ही मैं अपने गाँव जाना चाह रहा हूँ... पीछे छूट गए लोगों से भागकर जाकर गले लगना चाहता हूँ...उनसे माफी मांगना चाहता हूँ.. और पता नहीं क्या.. क्या?
इतने भीतर जाकर निर्मल वर्मा बातें कर रहे होते हैं कि वो मुझे बार-बार उस सुर पर ले आते हैं जिससे मैं कभी-कभी भटक जाता हूँ...। वह लिखने की उस ईमांदारी पर बह रहे होते हैं कि आपको अपना सारा किया हुआ थोड़ा उथला जान पड़ता है। शायद हम सब इतने सधंन चिंतन की इच्छा मन में रखते है....अपने काम के प्रति..। उनका सारा लिखा हुआ हमेशा एक अच्छे दोस्त जैसा मेरे घर में रहता है.... जब भी विचलित होता हूँ... उन्हें पढ़ लेता हूँ।

Sunday, October 12, 2008

शुद्ध कला...

कला को बाज़ार ही चलाता है, शायद यह ही कला की त्रासदी है.... कला को सामान्य जीवन के बाहर के शौक के रुप में हमेशा रखा गया है। शुद्ध कला की जगह इस बाज़ार में कितनी है?
यह मानने को हमेशा जी चाहता है कि मैं वह ही लिखूगाँ या रचूगाँ जो बहुत भीतर से मैं सोचता हूँ या कहना चाहता हूँ। पर हमारी इस सारी व्यवस्था में उस शुद्ध कला की असल में कितनी ज़रुरत है... इस बात पर जब भी ग़ोर करता हूँ तो, वह जगह कहीं नज़र नहीं आती...। निर्मल वर्मा या विनोद कुमार शुक्ल जैसे लेखको को जब देखता हूँ तो कुछ बल मिलता है कि वह रचना के चरम पर रहकर... अपनी ही नई बोली में, अपनी कही जा सकने वाली सारी बातें कहीं...। अभी उम्मीद अगर नए लोगों से करों तो उनकी संख्या बहुत कम नज़र आती है। विनोद कुमार शुक्ल से एक बार मैं बात कर रहा था... तो उन्होंने मुझसे कहा कि ’सुनों पैसा कमाने के बारे में भी ध्यान देते हो कि नहीं.?’ उनकी चिंता मुझे जायज़ लगती है। पंडित सत्य देव दुबे... कई बार मुझसे कह चुके हैं कि- ’क्यों अटक गए तुम थियेटर में...?’ मैं अटक गया हूँ? इस बारे में मैंने कभी सोचा नहीं था... उनके कहने के बाद भी नहीं सोचा। पर यह ज़रुर सोचा कि वह कौन सी बात है जिससे यह लोग मुझे आगाह कर रहे हैं?
मैं अपने समकक्ष के लोगों को देखता हूँ जो छोटे शहरों में थियेटर कर रहे हैं... वह नाटक नहीं सरकारी प्रोजेक्ट बनाते है....जैसे... 1857 की क्रांति के ऊपर अगर आप कुछ करेंगें तो सरकार आपको पैसा देगी... तो मेरे कुछ युवा मित्र से लेकर बड़े-बड़े दिग्ग़ज सभी उसी पर प्रोजेक्ट (नाटक... अगर उन्हें नाटक कहा जा सकता है तो...।) करने लगे। ’मैं थियेटर करता हूँ?’ का दंभ भरने वाले.... हर ऎसे वाक्य कहने के बाद सरकारी आफ़िस के चक्कर काटते हुए नज़र आते हैं।
मुझे उन लोगों से कतई कोई भी बुराई नहीं लगती जो मनोरंजन से भरा... ओछा कॉमेडी नाटक करके पैसा कमाते है और विदेश धूमते है। उनका उद्देश्य बिलकुल साफ है, वह पैसा कमाना चाहते हैं।
इसमें अगर रचना के लिए... काफ़्का के मृत सन्नाटे की इच्छा रखें तो वह मज़ाक लगता है... हसीं आती है।
इस तरह की बातें काफ़ी सवालों को उठाती हैं। मैंने उसके जवाब ना तो ढूंढ़े और ना ही उसमें अपना समय ही बरबाद करना चाहता हूँ। यह एक प्रतिक्रिया है, जिसमें अभी चल रही स्थिति को मैं आंकना नहीं चाहता हूँ.. मैं बस इसपर प्रतिक्रिया देकर (ज़्यादा सही शब्द है उल्टी करकर...) इसे अपने सिस्टम से बाहर फैंक देना चाहता हूँ... जिससे यह विचार दौबारा सामने ना आए।

Saturday, October 11, 2008

प्रकृति हमें अच्छी लगती है...

'प्रकृति हमें अच्छी लगती है'- का एक पक्षी,
हमने अपने घर के पिंजरें में बंद कर रखा है।
और एक फूल ग़मले में उगा रखा है।

'हमें सुखी रहना चाहिए'- की हँसी,लोगों को बाहर तक सुनाई देती है।
दुख की लड़ाई और रोना भी है,पर वो सिर्फ इसलिए कि खुशी का पैमाना तय हो सके।

'बुज़ुर्गों की इज़्ज़त के माँ-बाप'- घर के कोनों में,ज़िंदा बैठे रहते हैं।

'जानवरों से प्रेम'- की एक बिल्ली,घर में यहाँ-वहाँ डरी हुई घूमती रहती है।
'इंसानों में आपसी प्रेम है'- के त्यौहार,हर कुछ दिनों में चीखते-चिल्लाते नज़र आते हैं।
पर वो सिर्फ इसलिए कि 'इंसान ने ही इंनसान को मारा है'-की आवाज़ें हमें कम सुनाई दें।

'हमको एक दूसरे की ज़रुरत है'- के खैल,हम चोर-पुलिस, भाई-बहन, घर-घर, आफ़िस-आफ़िस के रुप में, लगातार खेलते रहते हैं।

पर इस सारी हमारी खूबसूरत व्यवस्था में,
हमारे 'नाखू़न बढ्ते रहने का जानवर भी है।
जिसे हमने भीतर गुफा में,धर्म और शांति की बोटियाँ खिला-खिलाकर छुपाए रखा है।

और फिर इन्हीं दिनों में से एक दिन....
'प्रकृति हमें अच्छी लगती है'- के पक्षी को,
'जानवरों से प्रेम की बिल्ली'- पंजा मारकर खाँ जाती है।
'हमारे नाखून बढते रहने का जानवर'-गुफा से बाहर निकलकर बिल्ली को मार देता है।
'वहाँ बुज़ुर्गों की इज़्ज़त के माँ-बाप'-चुप-चाप सब देखते रहते है,
और घर में 'प्रकृति हमें अच्छी लगती है'- का पिंजरा,बरसों खाली पड़ा रहता है।

Thursday, October 9, 2008

डरपोक़....


काफ़ी समय से चाय पीता हुआ मैं... इन छोटे-छोटे आश्चर्यों को देख रहा था जो मेरी आँखों के सामने घट रहे थे.... मैं पहाड़ के एक गाँव में बैठा, चाय पी रहा था...। सामने अचानक बादल घिर आए थे... और बूंदाबांदी शुरु हो गई थी.... पर पीछे के दो पहाड़ो पर अभी भी धूप थी...। तेज़ सुनहरा रंग चारो तरफ बिखर गया था।मैं जिस दुकान में चाय पी रहा था वह एक बुज़ुर्ग दम्पत्ति की दुकान है... शायद इस गाँव के तीन किलोमीटर के इलाके में एक यही दुकान है...। दोनों अकेले रहते हैं... नीचे गाँव में उनकी खेती है जो दो बच्चे मिलकर चलाते है.... दो बेटीयों की शादी हो चुकी है... और एक बेटा दिल्ली में कहीं पढ़ता है जिसके बारे में वह बड़े फ़क्र से बता रहे थे। चुकी आस पास कोई दुकान नहीं है इसलिए .. यह चाय कि दुकान, चाय और किराने की दुकान हो गई थी। करीब तीन चाय के बाद अचानक मेरी निगाह उन छोटे पहाड़ों पर पड़ी जिनके पीछे से निकलकर बहुत सारी धुंध हमारी तरफ बढ़ी चली आ रही थी...। वह दोनों पति-पत्नि अपने काम में व्यस्त थे... मैने चिल्लाकर कहाँ -’वह देखो... धुंध कितनी अच्छी लग रही है।’
दोनों ने एक बार निग़ाह उठाकर देखा और फिर अपने काम में व्यस्त हो गए। मैं जल्दी-जल्दी कुछ तस्वीरे लेने लगा...। केमरे के लेन्स में से मुझे एक छोटा सा सफेद धब्बा जैसा कुछ दिखा... मैंने लेन्स पर से आँखें हटाकर देखा तो.. एक बूढ़ा आदमी नीचे किसी गाँव से हमारी तरफ चला आ रहा है... उसकी चाल उसकी उम्र के हिसाब से काफ़ी तेज़ थी...। वह कुछ ही देर में दुकान पर पहुँच चुका था। वह आते ही चाय वाले के साथ बातचीत में व्यस्त हो गया.... वह अपनी बोली में बात कर रहे थे...सो मैं वापिस पहाड़ो को देखने लगा। मुझे लगा कि उस छोटे से पहाड़ के पीछे किसी ने बहुत सारी आग जला रखी है, जिसका धुआ वहाँ से निकलकर हमारी तरफ बढ़ता आ रहा है। कुछ ही देर में उस पूरी धुंध के भीतर अब हम थे...और यह चाय की दुकान थी और यह पूरा गाँव था....। वह चाय वाला कहने लगा कि ’धुंध की अपनी एक खुश्बू होती है....।’ मैंने पूछा कि ’कैसी होती है?’ वह कहने लगा कि ’आप जब यहाँ ज़्यादा रहेगें तो आपको पता चल जाएगा।’
यह सुनते ही मुझे ध्यान आया कि पाँच बज चुके है और मुझे अभी करीब आठ-नौ किलोमीटर का फासला पैदल तेय करना है... अपने गेस्ट हाऊस पहुचने के लिए... और जैसा डरपोक मैं हूँ... रात को अकेले इस जंगल में चलना... इस विचार से ही मेरी रुह काँप गई थी। पता नहीं कैसे... वह चाय वाले ने मेरा डर सूंध लिया... और उन्होने कहा कि आप इनके साथ वहाँ तक जा सकते है... यह उसी गाँव में रहते है जहाँ आपका गेस्ट हॉऊस है...। मैंने तुरंत हाँ कह दिया, बेग़ अपने कंधे पर टांगा और इंतज़ार करने लगा कि वह बुढ़ा आदमी उठेगा.. पर वह वहीं बैठा रहा। उसने एक चाय मांगी... मैंने घड़ी की तरफ एक बार देखा। मैंने महसूस किया कि उसने मेरी तरफ बस एक बार, सरसरी निग़ाह से देखा था, वह भी जब वह इस चाय की दुकान में आया था... उसके बाद से या तो वह उस चाय वाले से बात कर रहा है या वह शून्य में कहीं देख रहा है। एक पर्यटक होने के नाते, यह हमेशा अपेक्षित रहता है कि लोग लगातार अपको देखें, आपसे बात करने के बहाने ढूढें...और बहुत जल्द आपको इसकी आदत भी पड़ जाती है.... पर यह बुज़ुर्गवार है कि इस चाय की दुकान में मेरा होना ही मानो टाल गए हैं। मुझे हल्का सा गुस्सा आने लगा... यह बिलकुल वैसा ही गुस्सा था जैसा गुस्सा मैंने पहली बार शेर को देखते हुए महसूस किया था... वह पिंजरे में था और मैं उसके एकदम सामने खड़ा था... पर उसका व्यवहार कुछ ऎसा था कि मानों मैं वहाँ नहीं हूँ या मैं पारदर्शी हूँ...! मैं उस शेर के सामने चिल्लाने लगा... अजीब सी हरक़ते करने लगा पर उसके कानों में जूं तक नहीं रेंगी...। मेरे दोस्त कहते हैं कि उस वक़्त मैं शेर के सामने बंदर जैसा लग रहा था।
जब वह बुज़ुर्गवार चाय पीने लगे तो मैंने अपना बेग़ उतारकर रख दिया... थोड़ा से गुस्से में रखा कि उन्हें पता चले कि मैं उनका इंतज़ार कर रहा हूँ...मैंने ज़्यादा गुस्सा नहीं किया, क्योंकि यहाँ मैं बंदर होने से बचना चाह रहा था। मैंने एक चाय और मांग ली...जिसपर उस दुकान की मालकिन ने मुझे ज़्यादा चाय ना पीने पर एक लेक्चर सुना दिया...। मैं उठकर उस चाय की दुकान के बाहर आ गया...। चाय खत्म की और अपने और उन महाश्य के चाय के पैसे दिये... इस बात पर उन्होने सिर्फ मुझे एक बार देखा, मुस्कुराए भी नहीं तो धन्यवाद देना तो दूर की बात है।
खैर करीब आधे घंटे बाद हम दोनों वहाँ से निकले.. साड़े पाँच बज चुका था।.... सुरज का दिखना बंद हो चुका था... वह बुज़ुर्गवार आगे चल रहे थे और मैं उनके पीछे था। इस बीच मैंने उनका नाम पूछा... करीब तीन बार...... पर उन्होने कोई जवाब नहीं दिया तो मैं चुपचाप चलता रहा। थोड़ी ही देर में अंधेरा बढ़ने लगा था मैंने अपनी टॉर्च अपने बेग़ से निकाली...। कुछ देर उसे हाथ में रही रखा... फिर धीरे से जलाकर देखा कि ठीक से काम कर रही है कि नहीं...। मेरी टार्च जलाते ही वह बोले... ’टॉर्च वापिस अंदर रख दो..।’ मैंने कहाँ ’अंधेरा बहुत है रास्ता नहीं देखेगा?’ वह चुप रहे...। मैं टॉर्च तो बंद कर चुका था पर कोई जवाब ना मिलने के कारण मैंने उसे अपने बेग़ में नहीं डाला, उसे अपने हाथों में ही दबाए रखा। फिर वह धीरे से बोले-’यहाँ टॉर्च की ज़रुरत नहीं पड़ती, उसे अंदर रख लो...। वह हाथ में रहेगी तो जलाने का लॉलच बना रहेगा।’ उनकी आवाज़ रात होने के साथ-साथ भारी होती जा रही थी। एक आश्चर्य की बात लगी कि उनकी हिन्दी कतई पहाड़ीपन लिए हुए नहीं थी... वह एकदम साफ हिन्दी बोल रहे थे। मैंने टॉर्च अंदर रख दी... सोचा अगर अकेले चल रहा होता तो टॉर्च के बाद भी यह अंधेरा सहन नहीं होता... इनके साथ चलने में कम से कम डर तो कम ही लगेगा।
दिन में यही जंगल, जो मुझे इतना खूबसूरत लगता कि मैं घंटो यहाँ अकेला टहल सकता हूँ वही जंगल, रात होते ही मानों एक भयानक भूत या पता नहीं किसमें तबदील हो जाता है..। ओह हो! मैं यह सब सोच ही क्यों रहा हूँ.... मैं अपने आपको कोसने लगा। तभी ऊपर पहाड़ पे किसी की आहट हुई.... मेरी ऊपर की तरफ देखने की हिम्मत नहीं हुई... मैंने दो तीन कदम तेज़ रखे और उन बुज़ुर्गवार के ठीक बग़ल में चलने लगा... लगभग चिपके हुए..। मैं कुछ कहना नहीं चाह रहा था पर एक अजीब से सुर में मेरे मुँह से निकला..’कितनी देर लगेगी गाँव तक पहुचने में...?’
रात अचानक हो गई... मानों किसी ने बटन दबाकर बल्ब बंद कर दिया हो। सच कहूँ ठीक इस वक्त मुझे किसी से भी डर नहीं लग रहा था... ना ही इस जंगल से... ना रात से... ना अगल बगल में आ रही अजीब सी आवाज़ो से... मुझे इस वक्त डर लग रहा था तो सिर्फ, इन बुज़ुर्गवार से जो मेरी बातों का जवाब ही नहीं दे रहे थे...। अरे! कह देते उस चाय की दुकान पर ही कि हम रास्ते में कोई बात नहीं करेगें... तो मैं भी समझ जाता कि भाई, इन्हें चलते हुए बात करना ठीक नहीं लगता है। पर उनकी यह चुप्पी मुझे बुरी तरह डराए जा रही थी.... मैं थोड़ा उनसे दूर होके चलने लगा... एक निग़ाह, पूरा अंधेरा छान रही थी... तो दूसरी निग़ाह उनपे लगी हुई थी। उनकी चुप्पी इस रात में एक ऎसा डरावना सन्नाटा पैदा कर रही थी कि वह बर्दाश्त नहीं हो रहा था...। मुझे इतना डर लगने लगा कि मैं अजीब-अजीब सी कल्पना करने लगा... कि मानो यह बुज़ुर्गवार अभी पलटकर मुझसे कहेगें कि बस मैं तो इसी पेड़ पर रहता हूँ अब तुम अकेले जाओ... और अचानक उछल के पेड़ पर चले जाए.... या अजीब सी आवाज़ में हसँना शुरु कर दें... मेरा दम दो सेकेन्ड में निकल जाएगा। मैंने धीरे से उनके पैर देखे..... खुशी हुई कि वह सीधे है। हाँ मैं जानता हूँ यह सब बहुत बचकाना है.... पर ठीक इस वक्त अगर मेरी जगह कोई भी होता और वह भी मेरी तरह डरपोक... तो वह भी यही सब सोच रहा होता। बहुत दूर एक बल्ब की रोशनी थी जो मोडों पर ग़ायब हो जाती थी और फिर कुछ देर में वापिस आ जाती थी... पर उस बल्ब की रोशनी की दूरी कम नहीं हो रही थी... अचानक मुझे लगने लगा कि यह आदमी मुझे यहीं गोल-गोल धुमा रहा है... रास्ता खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था.... दिन में मुझे इतना वक़्त तो नहीं लगा था..???... मैंने हिम्मत करके फिर पूछा....’कितनी दूरी और है?’ इस सन्नाटे में मुझे मेरी ही आवाज़ इतनी ज़्यादा लगी कि आधा वाक्य मैं डर के मारे अपने मुँह में ही बोल गया। आप यक़ीन नहीं करेगें वह तब भी चुप ही रहे। एक भीतर से इच्छा हुई कि अभी दौड़ लगाना शुरु कर दू...पर मैं चुपचाप उनके पीछे-पीछे चलता रहा... अब मेरी निग़ाह पूरी तरह उनके ऊपर थी...अगल-बगल के अंधेरे से अब मुझे कोई मतलब नहीं था।
मैंने इस बार गला साफ करके, अपने पूरे डरे हुए आत्म विश्वास को समेटते हुए पूछा... ’अरे! साहब कितना समय और लगेगा।’ इस बार उन्होंने मेरी तरफ एक बार देखा...। शायद मेरे प्राण-पखेरु के अभी पंख नहीं निकले थे... वरना वह अभी, इसी वक़्त उड़ चुके होते। मैंने खुद डर के मारे अपनी निग़ाह हटा ली..... वापिस पलटकर देखा तो वह अपनी गति से चल रहे है... आगे, अधेरे में शून्य की तरफ देखते हुए....। मेरी अब जॉन ही सूखती जा रही थी.... या तो वह कुछ बोले या मैं अभी इसी वक़्त अपने प्राण त्याग दूगां। उनके हाथ में एक डंडा था... पर वह उसे टिकाकर नहीं चल रहे थे... वह बस उनके हाथ में था.... चाल भी ऎसी कि चलने की आहट भी नहीं हो रही थी...। भीतेर एक इच्छा तीव्रता पर उठने लगी कि उनका डंडा छीनकर उन्हीं के सिर पर दे मारु और दौड़ लगा दूं....।
तभी एक आवाज़ आई... यह उन्हीं की आवाज़ थी....-’तुम कुछ सुन रहे हो....?’ मैं समझ ही नहीं पाया....!!! ’जी..?’ बस मेरे मुँह से बस इतना ही शब्द निकला...., वह भी इसिलिए कि कहीं वह यह बोलकर फिर चुप न हो जाए। ’यह छोटी-छोटी आवाज़े...यह लय...? तुम्हें सुनाई नहीं दे रही... इसी को रात का होना कहते हैं।’ मैं चुप था.... उनके बोलने में एक अजीब सा संगीत था...। ’गाँव बस आने ही वाला है....।’ वह धीरे से बोले... और थोड़ी दूर तक शांत रहे..। मेरे पीछे से जैसे कोई मेरे डर को खींचे जा रहा था...’गाँव बस आने ही वाला है।’ यह वाक्य सांत्वना पुरुस्कार की तरह काम कर गया, मेरा आधा डर जाता रहा...। मैं उनके बारे में अब बहुत बुरा भी नहीं सोच रहा था....। तभी वह रुक गये... बिना मुझे कुछ बताए सड़क से नीचे की तरफ उतर गए... मुझे फिर लगने लगा कि यह एक पेड़ के ऊपर चढ़ने वाले हैं। मैं सड़क पर, अधेरे में एक दम अकेला खड़ा था... मैंने धीरे से आवाज़ लगाई..’अरे साहब.... कहाँ चल दिये... सुनिये...।’ कुछ और भी संबोधन जैसे शब्दों को जोड़कर, कुछ टूटे-फूटे वाक्य बोलने के बाद, मैं चुप हो गया....। मेरा आधा डर जो पीछे कहीं छूट गया था वह वापिस मुझसे आ चिपका...। मैं अपने चारों तरफ देखने लगा... धीरे से बेग़ में हाथ गया और मैंने टटोलकर अपनी टॉर्च निकाल ली.... मैं उसे जलाने ही वाला था कि मुझे उनकी पेशाब करने की आवाज़ आने लगी...। मैंने टॉर्च नहीं जलाई... मैं थोड़ उनकी और जाकर खड़ा हो गया...। पेशाब की आवाज़ आना बंद हो गई.. पर वह ऊपर नहीं आए.. मैंने थोड़ा निग़ाह गड़ाकर देखने की कोशिश की... जिस तरफ वह गए थे... पर मुझे कोई नहीं दिखा..। मैंने अपनी टॉर्च जला ली और नीचे की तरफ देखा पर वह कहीं भी दिखाई नहीं दिये। टॉर्च की रोशनी में इस अधेरे को और भी भयानक बना रही थी...। मैंने आवाज़ लगाई....’ददा... दाजू... भाई साहब... आप ठीक तो हैं।’ तभी सड़क के आग से आवाज़ आई... ’चलो.. वहाँ क्यों खड़े हो...?’ अरे! वह आगे कब निकल गए? मैंने उनपर टॉर्च मारी... तो अजीब सा महसूस होने लगा... वह दूर खड़ए टॉर्च की रोशनी में और भी भयानक लग रहे थे, मेरी उनके पास जाने की हिम्मत नहीं हुए...। मैंने टॉर्च को बंद कर दिया... तेज़ कदमों से उनकी तरफ चलने लगा...। वह मुझे देखे जा रहे थे..., जैसे-जैसे मैं उनके पास पहुच रहा था... मुझे लगा मानों वह कुछ करने वाले हैं... पता नहीं पर उनकी आँखों में मुझे एक शेर की तैयारी दिखी... जब वह शिकार करने के पहले एक आखरी बार अपने शिकार को पेनी निग़ाह से देखता है...। मैं चलते-चलते कांप रहा था....सो मैंने दौड़ना शुरु कर दिया...। सीधे उनकी ही तरफ... वह सामने से हटे नहीं, मैंने भागते हुए उन्हें ज़ोर से टक्कर मारी... वह बुज़ुर्गवार नीचे गिर गए...। मैंने दौड़ना बंद नहीं किया... मैं भागता रहा.... जब तक कि मेरा गेस्ट हॉऊस नहीं आ गया। यह सब कुछ इतना जल्दी हुआ कि मैं जब अपने कमरे में सोने की तैयारी करने लगा तब मुझे अचानक उन बुज़ुर्गवार की चिता होने लगी...। रात काफ़ी देर तक जगता रहा पर रुम से निकलने की हिम्मत नहीं हुई, सोचा सुबह उठते ही पता करुगाँ।
सुबह उठते ही मैं सीधा उस जगह पहुचा... मैं वहाँ पहुचते ही अपने आपको कोसने लगा... इस खूबसूरती से मैं गई रात डर रहा था? लानत है मुझ पर। उन्हें ढूढंने की कोशिश की पर वह कहीं भी नहीं दिखे फिर वापिस मैं गाँव लोट आया। अंदर गेस्ट हॉऊस में जाने की इच्छा नहीं थी सो बाहर ही एक चाय की दुकान पर बैठा चाय पीने लगा....। अभी मुझे यहाँ करीब दस दिन और रहना है...। मैंने पेपर पढ़ने लगा। तभी मेरे सामने से एक आदमी, छोटे से बच्चे को साथ में लिए गुज़र रहा था... और मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, यह तो वह ही बुज़ुर्गवार हैं...। उन्होंने मेरी तरफ देखा... और थोड़ी ही देर में निग़ाह फेरते हुए सीधे जाने लगे... मैं उनसे माफ़ी मॉगना चाह रहा था....। मैंने उन्हें आवाज़ लगाई एक बार... दो बार पर वह नहीं मुड़े...। अलबत्ता, उनके साथ चल रहे बच्चे ने एक बार पलटकर मेरी तरफ देख लिया। तभी चाय वाले ने मुझे बताया... वह द्येउनदा हैं। मैं द्येउनदा के नाम से चिल्लाने लगा... तो उस चाय वाले ने मुझे टोकते हुए कहाँ कि वह तो बहरे हैं... उन्हें सुनाई नहीं देता। पर... मैंने चाय वाले से कहाँ कि रात में तो वह मेरे साथ थे... मुझे नहीं लगा कि वह नहीं सुन सकते हैं। मैंने उस बहस में ज़्यादा समय नहीं बर्बाद किया... मैं एक बहुत बड़े गिल्ट से मरा जा रहा था... मैंने अपनी चाय वहीं छोड़ी और मैं भागता हुआ उनके पास पहुँचा..। जब मैं उनके सामने जाकर खड़ा हुआ,तो वह रुक गए...। मैंने इशारे से उनसे माफ़ी माँगी... पर वह मुझे आश्चर्य से देखते रहे.. जैसे उन्हें कुछ भी याद नहीं हो। मैंने उनके पैर पड़ लिए... और बगल की दुक़ान से बहुत सारी टॉफ़ियाँ खरीदकर, उस बच्चे के हाथ में भर दी..और वापिस उनके सामने खड़ा हो गया... मैं उनके सामने से हटा नहीं...मैं माफ़ी चाह रहा था.. तभी, पहले उनकी आँखें, फिर उनके होठों पर एक हल्की सी मुस्कान आ गई.. मानों उतनी देर में उन्होंने, बीती हुई रात, मेरी आँखों में पढ़ ली। उनके मुस्कुराते ही मैंने एक गहरी सॉस ली... और उनके सामने से हट गया। वह उस बच्चे के साथ आगे चल दिये...।

Sunday, October 5, 2008

लेखक...


यह काफ़ी अजीब है कि मैं अपनी पूरी ईमान्दारी से जब भी किसी बहुत गहरे अनुभव/एहसास को जी रहा होता हूँ, चाहे वह दुख हो सुख हो.... या अकेलापन हो... मैं अचानक अपने ही आप को, दूर जाकर देखने लगता हूँ... एक तरीके का अभिनय वहाँ शुरु हो जाता है जहाँ सच मैं क्षोभ था, करुणा थी, पीड़ा थी। और फिर मेरे सारे एहसास एक दम मुझे किसी लिखी हुई कहानी का हिस्सा लगने लगते है, या अगर सही कहूँ तो किसी लिखी जाने वाली कहानी का हिस्सा। यह कौन लिख रहा है... या यह कौन सा लेखक है जो ठीक उस ईमांदारी के बीच में चला आता है.... और अपनी कहानी का सामान बटोरने लगता है। यह त्रासदी है, सच... मैं एक अजीब से डर से लगातार गुज़रता रहता हूँ.....। अब जब मेरा लेखक एक नया ताज़ा एहसास बटोरता है तो मैं उस वक़्त खुश होना चाहता हूँ, क्योंकि मैं उस बेचारे लेखक की छटपटाहट के साथ जीता हूँ... पर उस समय जिये जा रहे अपने सच्चे emotions का क्या करुँ? अब अगर मैं यहाँ धोखा देने या धोखा खाने की बात करुँ तो.... यह सवाल अपना अर्थ खो देगा।–

हमारे चित्र...


कहीं तो हमने वह चित्र देखें ही होगें जिन्हें, अब हम खुद बनाना चाहते हैं... वह सारे चित्र, जिनके अच्छे बुरे सारे रंग हममें समाए हुए हैं, उन्हें लेकर सिर्फ छटपटाने से अच्छा है कि हम उन सारे रंगों की उल्टी कर दें। सफेद, सीधा, सपाट सा हमें जो अपना भविष्य दिखता है, हम कम से कम... कुछ गंदला तो करें। कभी तो हमें हमारे रंगों पर शक सा होता है तो कभी दूसरे के चित्रों से जलन। हमारे अपने रंग, भले ही ढेरों प्रसिद्ध चित्रकारों की चित्रों के सामने मज़ाक जैसे लगें, पर कम से कम हमारे सारे रंग भीतर पड़े-पड़े ही सड़ गये का गम तो नहीं रहेगा। अब इस प्रयोग के अंत में चित्र कैसा बनता है... ये बात नगण्य है।

Saturday, October 4, 2008

सुबह की अंगड़ाई...


नींद शायद अपनी खुमारी पर हो, नींद को, पास बैठे रहने की सलाह हर बार नींद को शायद रास आ जाती हो। कहीं कह सकने की इच्छा... कहीं कह दिये जाने की पीड़ा, भीतर की एक दीवार खरोंच रही हो। हाँ, मैं ही हूँ जिसने रुलाया है... हर सुबह को....। हर सुबह को मैं जीना चाहता हूँ, अपनी एक भरी-पूरी अंगड़ाई के साथ उसमें प्रवेश करना चाहता हूँ। हर सुबह, सुबह ही क्यों नहीं रहती वह दिन क्यों हो जाती है? रात मेरे अकेलेपन की तरह है, वह कम-से-कम मेरे साथ तो रहती है, सुबह बदल जाती है, कुछ और हो जाती है। जहाँ मैं नहीं हूँ। मेरा खुद का जीना कितना मानी रखता है, इस सुबह और रात के होने की विशालता में..? मैं धोखा दे रहा हूँ, या धोखा खा रहा हूँ... एक लुका-छिपी का खेल है। अगर मैं ढूढ़ रहा हूँ तो धोका खा रहा हूँ.... और अगर मैं छिपा हुआ हूँ तो धोखा दे रहा हूँ। आज भी उस सुबह को मैं पूरी तरह जीना चाहता हूँ... पर यह खेल मैं खेलना नहीं चाहता। मेरी सुबह अगर रोती है तो उसकी वजह मैं ही हूँ, मैं ही हर सुबह सोया रहता हूँ। मैं नहीं सामना करना चाहता उसका। रात उस सीमा तक मेरे साथ रहती है जिस सीमा तक मैं रात का साथ देता हूँ। वहाँ यह लुका-छिपी का खेल नहीं है। मेरी कमज़ोरीयाँ है, मैं बहुत कमज़ोर हूँ। मैं भाग जाता हूँ, जब कुछ दे नहीं पाता.... या जब देने की क्षमता खो देता हूँ। रात को पसंद करने के पीछे कारण सिर्फ मेरा अहं है और कुछ नहीं.... क्योंकि ऎसा मुझे लगता है कि मैं रात को अपनी मर्ज़ी से धुमा-फिरा सकता हूँ, यह भ्रम है.. पर ऎसा भ्रम जिसमें मेरी कमज़ोरीयाँ छिप जाती हैं। मेरी हमेशा इच्छा रही है कि काश वह सुबह, ऎसी ही किसी रात को चुप-चाप मेरे घर के किसी कोने में कहीं चोरी से बैठे मुझे देखती रहे। वहाँ मैं.... कुछ मैं रह पाता हूँ। सुबह जैसे दिन होते ही बदल जाती है वैसे ही दिन में, मैं कुछ ओर हो जाता हूँ.... मैं वह रात का आदमी नहीं रह जाता जो अपनी तमाक कमज़ोरीयाँ... अपने सामने रखकर बात करता है। अगर मुझे चौबीस धंटो में से चुनने को कहा जाए कि किन बारह धंटों में तुम सोना चाहते हो तो मैं दिन के बारह धंटे ही चुनुगाँ। मैं शायद बात से भटक रहा हूँ... बात है कि- ’मेरे कारण सुबह रोती है’।...यह बात है जो अभी मेरे सामने है और मैं इस बात को या कमज़ोरी को बार-बार टाल रहा हूँ। जबकी मैं इस वक़्त रात में ही बैठ के बात कर रहा हूँ। मेरे कारण सुबह रोती है- पर बात करने की ताकत मैंने सुबह के रोने से ही पाई है। रात को धुमा-फिरा सकने का जो धमंड मेरे भीतर है (झूठा ही सही), शायद यह ही वह धमंड है जिसके कारण मैं रात के साथ और रात मेरे साथ... लगातार एक संबंध बना पाए हैं। पर सुबह का संबंध मेरे हाथ में नहीं है.... वह ठीक उस वक़्त बदल चुकी होती है जिस वक़्त मैं उसे जीना शुरु करता हूँ। नींद मेरे बस में हैं... सो मैं उसके साथ खेलता रहता हूँ। मैं इस सत्य को भी जानता हूँ कि सुबह जितनी भी है वह अपने आपमें पूरी है... उसका उससे ज़्यादा या उससे कम होने का प्रश्न ही नहीं उठता है। मैंने कई बार अपनी नासमझी मैं रात से अपने सुबह के धोखों के बारे में प्रश्न किये है और मैं रोया भी हूँ.... बहुत..मैंने रात से कई बार कहा है कि ’देखों मैं तो जी रहा था पर वो ही बीच में बदल गई वह दिन की हो गई?’... रात चुप रही... मैंने फिर कहा-’ यह गलत है, वह ऎसा कैसे कर सकती है।’ रात फिर भी चुप रही। पर मैं खामोश रहने वालो में से नहीं था मैं बोलता ही जा रहा था....। अंत में रात ने मुझसे कहा कि तुम सुबह को भला-बुरा कहकर अपने जीये हुए को ही गालियाँ दे रहे हो.... अगर तुम अभी यहाँ तक बहते हुए आ गए हो तो वह उस सुबह जैसी नदी का ही कमाल है....। सुबह तो बहती ही... वह तो तुम अपनी खैर मनाओ कि तुम उसके साथ उस वक़्त थे... जब वह बह रही थी... सो तुम यहाँ तक चले आए।..... मैं चुप हो गया। मैं एक तरह की गलानी में भी चला गया....। अब कल जब सुबह होगी तो मैं उससे कैसे निगाह मिला पाऊगाँ। सो यह संबंध कुछ इस तरह का हो गया कि मैं अपने होने में अब, सुबह का होना टाल जाता हूँ। मैं अपनी सारी ग्लानीयों और कमज़ोरीयों के साथ कैसे सुबह को बता सकता हूँ कि देखो मैं भी ठीक उसी बात पर गई रात रो रहा था... जिस बात को लेकर तुम अभी दुखी हो। वह सुबह कुछ ही देर के लिए ही सही एक बार रात मैं आकर मुझसे मिले तो सही...और मैं कह सकूं कि मैंने अपने जीवन की सारी अंगड़ाईयाँ तुम्हीं से सीखी हैं। यह सारे खेल जो हमने खेले हैं वह हम दोनों के खेल थे... वह किसी एक की हार या जीत कतई नहीं हो सकते। अब मैं इन खेलों से डरा हुआ हूँ और चुपचाप रात में अपने अकेलेपन के साथ बातें करता रहता हूँ। नींद फिर अपनी खुमारी पर आई है.... और मैं अभी और कुछ देर के लिए उसे अपने पास बिठाना चाहता हूँ। कल शायद सुबह से सामना हो... और मैं सुबह-सुबह एक नई अंगड़ाई ले सकूं... वह अंगड़ाई नहीं जो मैं ले चुका हूँ। या जिसकी सुबह को आदत है.... बल्कि नई अंगड़ाई जिससे मेरे और सुबह के बीच से एक और नदी फूटे... जो हम दोनों को बहा ले जाए... कहीं दूर और कहीं भी नहीं। मैं अपनी और सुबहो को रोते हुए नहीं देख सकता... मैं अब और नहीं भाग सकता हूँ... मैं अब और नहीं खेल सकता हूँ।

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल