’तबीयत खराब है भाई।’
आज ही सुबह मेरे भाई का फोन आया... वह मुझे भारत के जीतने पर ( क्रिकेट..) बधाई देना चाह रहा था। मेरी तबियत की बात सुनते ही उसका थोड़ा जोश कम हो गया। पर मैंने ज़ोर लगाकर बधाई दी तो उसने कुछ तफसील से ज़हीर खाँन के विकट लेने का आँखों देखा हाल (टी.वी.) सुना दिया। फिर कुछ इसी तरह का मेरे पिताजी का भी फोन आया और हमने एक दूसरे को, पूरी गरम जोशी से बधाईयाँ दी।
शाम को जैसे-तैसे धूमने सा निकला... तो लगातार क्रिकेट और अपने पिताजी के बारे में सोचता रहा। मेरे बचपन में... बारामुला, खोजाबाग़ (कश्मीर...) में पिताजी रेड़ियों पर क्रिकेट सुना करते थे। भारत और पाकिस्तान का मैच होता तो घर एक war room बन जाता...। सिग़रेट के कश पे कश लगाते हुए, मेरे पिताजी के कई हिन्दु दोस्त, रेड़ियों को घेरे हुए बैठे रहते...। भीतर माँ डरी हुई, चाय के प्याले बाहर पहुचवा रही होती। उस खेल का अंत हमेशा एक सा ही होता था। भारत अगर हार जाता तो पिताजी तुरंत रेड़ियों को दीवार पर मार कर तोड़ देते, घर के दरवाज़े, खिड़कियाँ बंद कर देने की हिदायत दी जाती, घर के बाहर पिताजी के ऑफिस के कुछ मुसलमान दोस्त आकर पटाखें फोड़ते और पिताजी ऑफिस से कुछ तीन-चार दिन की छुट्टी ले लेते। और अग़र भारत जीत जाता तो तुरंत मिठाई का एक ढिब्बा मंगवाया जाता और पिताजी अपने सारे ऑफिस के मुसलमान दोस्तों के घर जाकर तुरंत उनका मुँह मीठा कराते... कुछ रॉकेट जलाए जाते... अगले दिन पिताजी ऑफिस नए कपड़े पहनकर जाते थे। मैं काफी छोटा था तब...... उस वक़्त उतना ज़्यादा क्रिकेट भी नहीं होता था.... उस वक़्त क्रिकेट का अपना एक अलग मौसम होता था, और उस मौसम में जब भी भारत और पाकिस्तान भिड़ते थे... तो उसका तनाव पूरे मोहल्ले में नज़र आता था। बाक़ी दिनों में हम लोग पिताजी के उन्हीं मुसलमान दोस्तों के यह... या वह लोग हमारे यहाँ दावते उड़ाया करते थे।
यह सिलसिला सालों चलत रहा.... रेड़ियों टूटते गए... मिठाईयाँ बटती गईं। कई सालों बाद हम होशंगाबाद (मध्य प्रदेश) आ गए। पिताजी छुट्टीयों में आते जाते रहते थे। बचपन में रेड़ियों सुनते हुए मुझे हमेशा लगता था कि यह खेल शायद पहाड़ियॊं पर खेला जाता होगा। एक तरफ से गेंदें फेक़ी जाती होगीं और दूसरी तरफ से जवाब में छक्के और चौकों मारे जाते होगें, गर चूक गए तो हाथ पेर टूटे समझो। तभी एशियाड के समय घर में टी.वी. आया। उसके काफ़ी समय बाद एक दिन हमने क्रिकेट मेच देखा और लगने लगा कि यह तो महज़ एक खेल है... इसमें इतनी ज़्यादा तोड़ा-फोड़ी क्यों मची रहती है। खैर घर की हालत खस्ता थी, सो पिताजी ने अपने परिवार के साथ रहने के लालच और रिटायर होने के बाद मिलने वाले पैसों के चक्कर में जल्द अपना रिटायर्मेंट ले लिया। रिटायर्मेंट लेते ही आतंकियों ने पिताजी का ऑफिस एक ब्लास्ट में उड़ा दिया.... सारे दस्तावेज़ स्वाहा हो गए। पिताजी का पैसा तो दूर, वह वहाँ जॉब करते थे, इसका भी सबूत देना मुश्किल हो गया।
आज तक उन्हें वह पैसा नहीं मिला... जिसका गुस्सा उन्होंने सब पे निकाला....। इस गुस्से और निराशा के दौर में एक चीज़ अजीब हुई...। मैं और मेरा भाई... क्रिकेट के क़रीब आते गए और पिताजी क्रिकेट के नाम से ही चिड़ने लगे। मुझे पिताजी के जोश भरे दिन याद थे... मैं जब भी उन्हें, बहुत उत्साह में कहता कि आज भारत-पाकिस्तान का मैच है तो वह अपना मुँह बना कर, मैंने कश्मीर में जॉब किया है के सबूतों में खो जाते थे।
बीच में एक world cup मैच के दौरान उनका जोश मुझे वापिस दिखा था, जिस मैच में वेंकटेश प्रसाद हीरों हो गया था और भारत वह मैच हारते-हारते जीत गया था। पिताजी उछल पड़े थे... हम सबने उस मैच के बाद, बाज़ार जाकर आइस्क्रीम खाई थी।
पर उसके बाद भी वह क्रिकेट से उस तरीक़े से जुड़ नहीं पाए...। एक अजीब सी निराशा ने उन्हें घेर रखा था। बात चीत के दौरान कई बार उनके मुँह से निकल जाता कि मैं तुम लोगों के लिए कुछ नहीं कर पाया। टी.वी. देखते हुए जब भी कश्मीर के समाचार आते तो पिताजी या तो चैनल बदल देते या गाली देते हुए टी.वी. ही बंद कर देते, मानो कश्मीर से उनका कोई संबंध ही ना हो।
इन सबके बाद मैं मुबंई आ गया...। पिताजी और मेरे बीच की दूरियाँ, जो काफ़ी बढ़ चुकी थी.... में एक अजीब सा रुखापन आ गया। मैंने इसपर बहुत गौर नहीं किया क्यों कि हम सभी अपने माता पिता के संबंध को बहुत तय संवादों की तरह जीते हैं। तभी इसी बीच एक कमाल की बात हुई.... ’धोनी..’ नाम का एक युवा खिलाड़ी का नाम उभरा...कुछ ही समय में देखते-देखते वह भरतीय टीम का कप्तान बन गया। मेरे पिताजी को भी अब, मैं नौकरी करता था के सबूतों के साथ रहना आ गया था। अचानक मेरे पास एक दिन पिताजी का फोन आया... ’तुमने यह मैच देखा क्या खेला धोनी...। एक दम कपिल देव जैसा।’ उन्हें कपिल देव की वह पारी आज भी याद है जिसमें ने सारे बॉलरों की धुलाई की थी कुछ १७५ रन बनाए थे और एक बॉलर ने सफेद रुमाल कपिल के सामने हिलाया था। धोनी के कारण मेरे पिताजी वापिस क्रिकेट में उसी जोश से कूद पड़े। हमारे संबंध में भी यह... एक अजीब सी ताज़गी लाया है। अभी पिताजी के लिए पाकिस्तान उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि आस्ट्रेलिया... या इग्लेंड़...। मैच के जीतने के बाद हमारी बात होना तय है.... और हारने पर फोन ना करने में ही भलाई है।
मुझे क्रिकेट अच्छा लगता है... यह मेरे खून में है, पर मैं पिताजी के रोमांच का मुकाबला कतई नहीं कर सकता हूँ। उनके और मेरे बीच में धोनी, क्रिकेट... सचिन... बहुत ही महत्वपूर्ण किरदार है, जिनकी सफलता का सुख मैं अपने संबंध की सफलता में बटोरता हूँ।
आज ही सुबह मेरे भाई का फोन आया... वह मुझे भारत के जीतने पर ( क्रिकेट..) बधाई देना चाह रहा था। मेरी तबियत की बात सुनते ही उसका थोड़ा जोश कम हो गया। पर मैंने ज़ोर लगाकर बधाई दी तो उसने कुछ तफसील से ज़हीर खाँन के विकट लेने का आँखों देखा हाल (टी.वी.) सुना दिया। फिर कुछ इसी तरह का मेरे पिताजी का भी फोन आया और हमने एक दूसरे को, पूरी गरम जोशी से बधाईयाँ दी।
शाम को जैसे-तैसे धूमने सा निकला... तो लगातार क्रिकेट और अपने पिताजी के बारे में सोचता रहा। मेरे बचपन में... बारामुला, खोजाबाग़ (कश्मीर...) में पिताजी रेड़ियों पर क्रिकेट सुना करते थे। भारत और पाकिस्तान का मैच होता तो घर एक war room बन जाता...। सिग़रेट के कश पे कश लगाते हुए, मेरे पिताजी के कई हिन्दु दोस्त, रेड़ियों को घेरे हुए बैठे रहते...। भीतर माँ डरी हुई, चाय के प्याले बाहर पहुचवा रही होती। उस खेल का अंत हमेशा एक सा ही होता था। भारत अगर हार जाता तो पिताजी तुरंत रेड़ियों को दीवार पर मार कर तोड़ देते, घर के दरवाज़े, खिड़कियाँ बंद कर देने की हिदायत दी जाती, घर के बाहर पिताजी के ऑफिस के कुछ मुसलमान दोस्त आकर पटाखें फोड़ते और पिताजी ऑफिस से कुछ तीन-चार दिन की छुट्टी ले लेते। और अग़र भारत जीत जाता तो तुरंत मिठाई का एक ढिब्बा मंगवाया जाता और पिताजी अपने सारे ऑफिस के मुसलमान दोस्तों के घर जाकर तुरंत उनका मुँह मीठा कराते... कुछ रॉकेट जलाए जाते... अगले दिन पिताजी ऑफिस नए कपड़े पहनकर जाते थे। मैं काफी छोटा था तब...... उस वक़्त उतना ज़्यादा क्रिकेट भी नहीं होता था.... उस वक़्त क्रिकेट का अपना एक अलग मौसम होता था, और उस मौसम में जब भी भारत और पाकिस्तान भिड़ते थे... तो उसका तनाव पूरे मोहल्ले में नज़र आता था। बाक़ी दिनों में हम लोग पिताजी के उन्हीं मुसलमान दोस्तों के यह... या वह लोग हमारे यहाँ दावते उड़ाया करते थे।
यह सिलसिला सालों चलत रहा.... रेड़ियों टूटते गए... मिठाईयाँ बटती गईं। कई सालों बाद हम होशंगाबाद (मध्य प्रदेश) आ गए। पिताजी छुट्टीयों में आते जाते रहते थे। बचपन में रेड़ियों सुनते हुए मुझे हमेशा लगता था कि यह खेल शायद पहाड़ियॊं पर खेला जाता होगा। एक तरफ से गेंदें फेक़ी जाती होगीं और दूसरी तरफ से जवाब में छक्के और चौकों मारे जाते होगें, गर चूक गए तो हाथ पेर टूटे समझो। तभी एशियाड के समय घर में टी.वी. आया। उसके काफ़ी समय बाद एक दिन हमने क्रिकेट मेच देखा और लगने लगा कि यह तो महज़ एक खेल है... इसमें इतनी ज़्यादा तोड़ा-फोड़ी क्यों मची रहती है। खैर घर की हालत खस्ता थी, सो पिताजी ने अपने परिवार के साथ रहने के लालच और रिटायर होने के बाद मिलने वाले पैसों के चक्कर में जल्द अपना रिटायर्मेंट ले लिया। रिटायर्मेंट लेते ही आतंकियों ने पिताजी का ऑफिस एक ब्लास्ट में उड़ा दिया.... सारे दस्तावेज़ स्वाहा हो गए। पिताजी का पैसा तो दूर, वह वहाँ जॉब करते थे, इसका भी सबूत देना मुश्किल हो गया।
आज तक उन्हें वह पैसा नहीं मिला... जिसका गुस्सा उन्होंने सब पे निकाला....। इस गुस्से और निराशा के दौर में एक चीज़ अजीब हुई...। मैं और मेरा भाई... क्रिकेट के क़रीब आते गए और पिताजी क्रिकेट के नाम से ही चिड़ने लगे। मुझे पिताजी के जोश भरे दिन याद थे... मैं जब भी उन्हें, बहुत उत्साह में कहता कि आज भारत-पाकिस्तान का मैच है तो वह अपना मुँह बना कर, मैंने कश्मीर में जॉब किया है के सबूतों में खो जाते थे।
बीच में एक world cup मैच के दौरान उनका जोश मुझे वापिस दिखा था, जिस मैच में वेंकटेश प्रसाद हीरों हो गया था और भारत वह मैच हारते-हारते जीत गया था। पिताजी उछल पड़े थे... हम सबने उस मैच के बाद, बाज़ार जाकर आइस्क्रीम खाई थी।
पर उसके बाद भी वह क्रिकेट से उस तरीक़े से जुड़ नहीं पाए...। एक अजीब सी निराशा ने उन्हें घेर रखा था। बात चीत के दौरान कई बार उनके मुँह से निकल जाता कि मैं तुम लोगों के लिए कुछ नहीं कर पाया। टी.वी. देखते हुए जब भी कश्मीर के समाचार आते तो पिताजी या तो चैनल बदल देते या गाली देते हुए टी.वी. ही बंद कर देते, मानो कश्मीर से उनका कोई संबंध ही ना हो।
इन सबके बाद मैं मुबंई आ गया...। पिताजी और मेरे बीच की दूरियाँ, जो काफ़ी बढ़ चुकी थी.... में एक अजीब सा रुखापन आ गया। मैंने इसपर बहुत गौर नहीं किया क्यों कि हम सभी अपने माता पिता के संबंध को बहुत तय संवादों की तरह जीते हैं। तभी इसी बीच एक कमाल की बात हुई.... ’धोनी..’ नाम का एक युवा खिलाड़ी का नाम उभरा...कुछ ही समय में देखते-देखते वह भरतीय टीम का कप्तान बन गया। मेरे पिताजी को भी अब, मैं नौकरी करता था के सबूतों के साथ रहना आ गया था। अचानक मेरे पास एक दिन पिताजी का फोन आया... ’तुमने यह मैच देखा क्या खेला धोनी...। एक दम कपिल देव जैसा।’ उन्हें कपिल देव की वह पारी आज भी याद है जिसमें ने सारे बॉलरों की धुलाई की थी कुछ १७५ रन बनाए थे और एक बॉलर ने सफेद रुमाल कपिल के सामने हिलाया था। धोनी के कारण मेरे पिताजी वापिस क्रिकेट में उसी जोश से कूद पड़े। हमारे संबंध में भी यह... एक अजीब सी ताज़गी लाया है। अभी पिताजी के लिए पाकिस्तान उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि आस्ट्रेलिया... या इग्लेंड़...। मैच के जीतने के बाद हमारी बात होना तय है.... और हारने पर फोन ना करने में ही भलाई है।
मुझे क्रिकेट अच्छा लगता है... यह मेरे खून में है, पर मैं पिताजी के रोमांच का मुकाबला कतई नहीं कर सकता हूँ। उनके और मेरे बीच में धोनी, क्रिकेट... सचिन... बहुत ही महत्वपूर्ण किरदार है, जिनकी सफलता का सुख मैं अपने संबंध की सफलता में बटोरता हूँ।