Saturday, October 4, 2008

सुबह की अंगड़ाई...


नींद शायद अपनी खुमारी पर हो, नींद को, पास बैठे रहने की सलाह हर बार नींद को शायद रास आ जाती हो। कहीं कह सकने की इच्छा... कहीं कह दिये जाने की पीड़ा, भीतर की एक दीवार खरोंच रही हो। हाँ, मैं ही हूँ जिसने रुलाया है... हर सुबह को....। हर सुबह को मैं जीना चाहता हूँ, अपनी एक भरी-पूरी अंगड़ाई के साथ उसमें प्रवेश करना चाहता हूँ। हर सुबह, सुबह ही क्यों नहीं रहती वह दिन क्यों हो जाती है? रात मेरे अकेलेपन की तरह है, वह कम-से-कम मेरे साथ तो रहती है, सुबह बदल जाती है, कुछ और हो जाती है। जहाँ मैं नहीं हूँ। मेरा खुद का जीना कितना मानी रखता है, इस सुबह और रात के होने की विशालता में..? मैं धोखा दे रहा हूँ, या धोखा खा रहा हूँ... एक लुका-छिपी का खेल है। अगर मैं ढूढ़ रहा हूँ तो धोका खा रहा हूँ.... और अगर मैं छिपा हुआ हूँ तो धोखा दे रहा हूँ। आज भी उस सुबह को मैं पूरी तरह जीना चाहता हूँ... पर यह खेल मैं खेलना नहीं चाहता। मेरी सुबह अगर रोती है तो उसकी वजह मैं ही हूँ, मैं ही हर सुबह सोया रहता हूँ। मैं नहीं सामना करना चाहता उसका। रात उस सीमा तक मेरे साथ रहती है जिस सीमा तक मैं रात का साथ देता हूँ। वहाँ यह लुका-छिपी का खेल नहीं है। मेरी कमज़ोरीयाँ है, मैं बहुत कमज़ोर हूँ। मैं भाग जाता हूँ, जब कुछ दे नहीं पाता.... या जब देने की क्षमता खो देता हूँ। रात को पसंद करने के पीछे कारण सिर्फ मेरा अहं है और कुछ नहीं.... क्योंकि ऎसा मुझे लगता है कि मैं रात को अपनी मर्ज़ी से धुमा-फिरा सकता हूँ, यह भ्रम है.. पर ऎसा भ्रम जिसमें मेरी कमज़ोरीयाँ छिप जाती हैं। मेरी हमेशा इच्छा रही है कि काश वह सुबह, ऎसी ही किसी रात को चुप-चाप मेरे घर के किसी कोने में कहीं चोरी से बैठे मुझे देखती रहे। वहाँ मैं.... कुछ मैं रह पाता हूँ। सुबह जैसे दिन होते ही बदल जाती है वैसे ही दिन में, मैं कुछ ओर हो जाता हूँ.... मैं वह रात का आदमी नहीं रह जाता जो अपनी तमाक कमज़ोरीयाँ... अपने सामने रखकर बात करता है। अगर मुझे चौबीस धंटो में से चुनने को कहा जाए कि किन बारह धंटों में तुम सोना चाहते हो तो मैं दिन के बारह धंटे ही चुनुगाँ। मैं शायद बात से भटक रहा हूँ... बात है कि- ’मेरे कारण सुबह रोती है’।...यह बात है जो अभी मेरे सामने है और मैं इस बात को या कमज़ोरी को बार-बार टाल रहा हूँ। जबकी मैं इस वक़्त रात में ही बैठ के बात कर रहा हूँ। मेरे कारण सुबह रोती है- पर बात करने की ताकत मैंने सुबह के रोने से ही पाई है। रात को धुमा-फिरा सकने का जो धमंड मेरे भीतर है (झूठा ही सही), शायद यह ही वह धमंड है जिसके कारण मैं रात के साथ और रात मेरे साथ... लगातार एक संबंध बना पाए हैं। पर सुबह का संबंध मेरे हाथ में नहीं है.... वह ठीक उस वक़्त बदल चुकी होती है जिस वक़्त मैं उसे जीना शुरु करता हूँ। नींद मेरे बस में हैं... सो मैं उसके साथ खेलता रहता हूँ। मैं इस सत्य को भी जानता हूँ कि सुबह जितनी भी है वह अपने आपमें पूरी है... उसका उससे ज़्यादा या उससे कम होने का प्रश्न ही नहीं उठता है। मैंने कई बार अपनी नासमझी मैं रात से अपने सुबह के धोखों के बारे में प्रश्न किये है और मैं रोया भी हूँ.... बहुत..मैंने रात से कई बार कहा है कि ’देखों मैं तो जी रहा था पर वो ही बीच में बदल गई वह दिन की हो गई?’... रात चुप रही... मैंने फिर कहा-’ यह गलत है, वह ऎसा कैसे कर सकती है।’ रात फिर भी चुप रही। पर मैं खामोश रहने वालो में से नहीं था मैं बोलता ही जा रहा था....। अंत में रात ने मुझसे कहा कि तुम सुबह को भला-बुरा कहकर अपने जीये हुए को ही गालियाँ दे रहे हो.... अगर तुम अभी यहाँ तक बहते हुए आ गए हो तो वह उस सुबह जैसी नदी का ही कमाल है....। सुबह तो बहती ही... वह तो तुम अपनी खैर मनाओ कि तुम उसके साथ उस वक़्त थे... जब वह बह रही थी... सो तुम यहाँ तक चले आए।..... मैं चुप हो गया। मैं एक तरह की गलानी में भी चला गया....। अब कल जब सुबह होगी तो मैं उससे कैसे निगाह मिला पाऊगाँ। सो यह संबंध कुछ इस तरह का हो गया कि मैं अपने होने में अब, सुबह का होना टाल जाता हूँ। मैं अपनी सारी ग्लानीयों और कमज़ोरीयों के साथ कैसे सुबह को बता सकता हूँ कि देखो मैं भी ठीक उसी बात पर गई रात रो रहा था... जिस बात को लेकर तुम अभी दुखी हो। वह सुबह कुछ ही देर के लिए ही सही एक बार रात मैं आकर मुझसे मिले तो सही...और मैं कह सकूं कि मैंने अपने जीवन की सारी अंगड़ाईयाँ तुम्हीं से सीखी हैं। यह सारे खेल जो हमने खेले हैं वह हम दोनों के खेल थे... वह किसी एक की हार या जीत कतई नहीं हो सकते। अब मैं इन खेलों से डरा हुआ हूँ और चुपचाप रात में अपने अकेलेपन के साथ बातें करता रहता हूँ। नींद फिर अपनी खुमारी पर आई है.... और मैं अभी और कुछ देर के लिए उसे अपने पास बिठाना चाहता हूँ। कल शायद सुबह से सामना हो... और मैं सुबह-सुबह एक नई अंगड़ाई ले सकूं... वह अंगड़ाई नहीं जो मैं ले चुका हूँ। या जिसकी सुबह को आदत है.... बल्कि नई अंगड़ाई जिससे मेरे और सुबह के बीच से एक और नदी फूटे... जो हम दोनों को बहा ले जाए... कहीं दूर और कहीं भी नहीं। मैं अपनी और सुबहो को रोते हुए नहीं देख सकता... मैं अब और नहीं भाग सकता हूँ... मैं अब और नहीं खेल सकता हूँ।

3 comments:

Udan Tashtari said...

बेहतरीन लेखन, बधाई.

Unknown said...

ख्वाबों में जीना और उन को साकार रूप देना। अपने ही अनसार सब कुछ हो जाय । दिल जो कहे वही सच हो जाये तो क्या बात है। अच्छा लिखा बन्धु आपने ।

अमिताभ मीत said...

Beautiful Boss. But what held most was this :
'THOSE WHO WERE DANCING WERE THOUGHT TO BE INSANE BY THOSE WHO COULD NOT HEAR THE MUSIC'..

Great... just about everything.

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल