यह काफ़ी अजीब है कि मैं अपनी पूरी ईमान्दारी से जब भी किसी बहुत गहरे अनुभव/एहसास को जी रहा होता हूँ, चाहे वह दुख हो सुख हो.... या अकेलापन हो... मैं अचानक अपने ही आप को, दूर जाकर देखने लगता हूँ... एक तरीके का अभिनय वहाँ शुरु हो जाता है जहाँ सच मैं क्षोभ था, करुणा थी, पीड़ा थी। और फिर मेरे सारे एहसास एक दम मुझे किसी लिखी हुई कहानी का हिस्सा लगने लगते है, या अगर सही कहूँ तो किसी लिखी जाने वाली कहानी का हिस्सा। यह कौन लिख रहा है... या यह कौन सा लेखक है जो ठीक उस ईमांदारी के बीच में चला आता है.... और अपनी कहानी का सामान बटोरने लगता है। यह त्रासदी है, सच... मैं एक अजीब से डर से लगातार गुज़रता रहता हूँ.....। अब जब मेरा लेखक एक नया ताज़ा एहसास बटोरता है तो मैं उस वक़्त खुश होना चाहता हूँ, क्योंकि मैं उस बेचारे लेखक की छटपटाहट के साथ जीता हूँ... पर उस समय जिये जा रहे अपने सच्चे emotions का क्या करुँ? अब अगर मैं यहाँ धोखा देने या धोखा खाने की बात करुँ तो.... यह सवाल अपना अर्थ खो देगा।–
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