Sunday, October 5, 2008

हमारे चित्र...


कहीं तो हमने वह चित्र देखें ही होगें जिन्हें, अब हम खुद बनाना चाहते हैं... वह सारे चित्र, जिनके अच्छे बुरे सारे रंग हममें समाए हुए हैं, उन्हें लेकर सिर्फ छटपटाने से अच्छा है कि हम उन सारे रंगों की उल्टी कर दें। सफेद, सीधा, सपाट सा हमें जो अपना भविष्य दिखता है, हम कम से कम... कुछ गंदला तो करें। कभी तो हमें हमारे रंगों पर शक सा होता है तो कभी दूसरे के चित्रों से जलन। हमारे अपने रंग, भले ही ढेरों प्रसिद्ध चित्रकारों की चित्रों के सामने मज़ाक जैसे लगें, पर कम से कम हमारे सारे रंग भीतर पड़े-पड़े ही सड़ गये का गम तो नहीं रहेगा। अब इस प्रयोग के अंत में चित्र कैसा बनता है... ये बात नगण्य है।

1 comment:

Udan Tashtari said...

मगर चित्र तो अच्छा बना है!

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परिचय

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल