फिर सामने एक कोरा पन्ना पड़ा हुआ है.... अपनी सारी अपेक्क्षाओं के साथ..। क्या भरुं इसमें? शब्दों के वह कौन से चित्र बनाऊँ जिन्हें बनाते ही मैं हल्का हो सकूँ..। शायद थकान की कहानी लिखनी चाहिए... एक अनवरत थाकान की जो सब से है... अपने से... आस-पास से... इन लगातार सीड़ी चढ़ते लोगों से... उन ज्ञान वर्धक बातों से.. और उन अनुभवों से जिन्हें घर में कहाँ रखूँ, के विचार से मैं दिनों, हफ्तों महींनों व्यस्त रहता हूँ। पड़े-पड़े दीवार पर निग़ाह टिकी रहती है...दीवार पर लोगों के चहरे ढूढ़ता हूँ... मैं इन दिवास्वप्न से भी बोर हो चुका हूँ..। कुछ शब्द लिखने बैठता हूँ तो ’एवंम इन्द्रजीत’ नाटक याद आ जाता है... उसे पढ़ता हूँ... तो ’देवयानी का कहना है...’ नाटक याद हो आता है..। एवंम इन्द्रजीत को वापिस रख देता हूँ...। फिर एक लंबीं यात्रा पर निकलना चाहता हूँ सो Anna Karenina पढ़ना शुरु कर देता हूँ। Stephen Oblonsky का पात्र तक़लीफ देने लगता है, सो उसे भी थोड़ी देर में रख देता हूँ। फिर से थकान के बारे में सोचना शुरु कर देता हूँ। कुछ पुराने कटु अनुभवों को याद करता हूँ... और मुसकुराने लगता हूँ... अच्छे अनुभव याद आते ही पीड़ा देने लगते हैं। सोचता हूँ कुछ तो लिखूँ... इस सामने पड़े कोरे पन्ने को कितनी देर तक देख सकता हूँ..। सो पहला शब्द लिखता हूँ ’थकान...’ और उसे देखता रहता हूँ। फिर कुछ लिखा नहीं जाता सो इच्छा जागती है कि चलो कोई फिल्म देख लेता हूँ.... पर ’थकान’ शब्द डेस्क से उठने नहीं देता है। इस शब्द को देखते रहने का सुख है...। इस सुख पर हसीं आ जाती है। वापिस किताबों के पास जाता हूँ जो किताब पढ़ी हुई है उसे फिर से पढ़ना चाहता हूँ, नई किताब नहीं..। नई किताब पढ़ना, किसी नए व्यक्ति से मिलना जैसा लगता है... सो बहुत समय तक डर बना रहता है... वह कैसे बात शुरु करेगा? किस विषय पर बात करेगा? पहला संवाद कैसा होगा? वगैराह वगैराह..। इसीलिए पुराने दोस्त सी कोई किताब ढूढ़ने लगता हूँ। R K Narayan के My Days (autobiography) पर निग़ाह पड़ती है... उसे उठाकर पढ़ने लगता हूँ और.... :-).।
4 comments:
bahut bhaawpurn likha hai
बहुत बढिया आलेख है।
बेहतरीन लेखन!!
manav bhai,bahut hi majedar likha.maja aa gaya.
ALOK SINGH "SAHIL"
Post a Comment