Thursday, December 15, 2011

सपना....


बहुत पहले मैं एक लड़की को जानता था जो चिड़िया हो जाने का सपना देखा करती थी।
हम अकसर एक दूसरे से अपने सपनों की बात करते थे... बात हम सीधी करते थे पर मुझे वह सारी बातें सपनों सी लगती थीं। मैं उससे जब भी कहता कि मुझे मेरे सपने कभी याद नहीं रहते... तो वह हंस देती थी...। वह कहती थी कि यह कोई रटने वाली चीज़ थोड़ी है जिसे याद रखना होता है!!! उसे सब याद था...। उसके सपनों का दायरा बहुत बड़ा था... वह बचपन की घटनाए भी सपनों की तरह सुनाती थी।
एक चिड़िया का घोंसला उसके घर के ऊपर था... जब भी वह टूटे हुए अंड़ों को देखती तो उदास हो जाती... कभी-कभी उसे चिड़िया के छोटे बच्चे भी नीचे पड़े हुए दिखते जिन्हें वह बिना हाथ लगाए वापिस धोंसलों तक पहुंचा देती। उसके बचपन की कई दोपहरे चिड़िया के धोंसले की पहरेदारी में बीतती थी। एक दिन उसने सपना देखा था कि वह एक चिड़िया के धोंसले में पड़ी हुई है...दूसरे चिड़िया के बच्चों के साथ। वह अपने परों को निकलता हुआ देख सकती थी...। धीरे-धीरे उसकी उम्र के बच्चे.. अपने परों को झटके के साथ खोलकर धोंसले से कूदने लगे थे.... और ऊपर आसमान में उड़ने लगे... वह अकेली रह गई थी.. डरी हुई। अब उसकी बारी थी। उसने उड़ने की तैयारी की.. अपने परों को झाड़ा... फैलाया..। वह धोंसले के कोने तक आई.... और ऊपर आसमान को देखने लगी...। वह कूदने ही वाली थी कि उसे नीचे एक भूखी बिल्ली दिखी जो उसका इंतज़ार कर रही थी...। उसने एक गहरी सांस भीतर खींची और अपने परों को चौड़ा करके धोंसले से कूद गई.... कूदते वक़्त उसने अपनी आंखें बहुत कस कर बंद कर ली थीं। तभी उसकी नींद खुल गई..।
हम लोग नदी किनारे धूम रहे थे जब उसने मुझे यह सपना सुनाया था। उसके सपने हमेशा बीच में कहीं खत्म हो जाते थे... हमेशा अंत होने के पहले उसकी आँखें खुल जाती थी। ’फिर क्या हुआ?’ जैसे प्रश्नों की मैं झड़ी लगा देता... जवाब में वह सिर्फ यही कहती की ’बस मैंने इतना ही देखा था।’ वह कहती थी कि हमें हमेशा अधूरे सपने याद रहते हैं... बीच की ख़ाली जगह... आधे कहे हुए संवाद... चुप्पी...। मुझे सपने याद नहीं रहते थे... मेरे सपने अपना अंत लेकर आते थे शायद... मुझे यूं भी अंत की हमेशा चिंता रहती थी...। किसी भी कहानी को पढ़ते हुए मैं उसके अंत का बोझ अपने कंधे पर लिए हुए उसे पढ़ता... अगर अंत अच्छा होता तो मुझे कहानी पसंद आती वरना मैं चिढ़ जाता। एक दिन उसने मुझसे कहा कि ’तुम पहले कहानी का अंत पढ़ लिया करो... फिर तुम कम से कम कहानी का मज़ा तो ले पाओगे।’ मैं उसकी बात समझता था... पर मैं उसके जैसा नहीं सोच सकता था... मैंने अपना पूरा जीवन भविष्य को देखते हुए जीया था... पर वह कभी भी भविष्य के बारे में बात नहीं करती थी। हम दोनों के बीच सबसे बड़ा अंतर सपनों का ही था। उसे अधूरेपन की आदत थी... और मैं अपने देखे हर सपने को उसकी नीयती तक पहुंचाना चाहता था।
मुझे वह अभी भी याद है। क्योंकि वह बीच में ही वापिस मुड़ गई थी... जबकि मैं आगे चलता रहा। मुझे लगा वह किसी अगले मौड़ पर मुझसे ज़रुर टकराएगी और हम वापिस साथ चलना शुरु कर देंगें... पर ऎसा नहीं हुआ..। वह जिस दिन मुड़ी थी तब से मुझे सपने याद रहने लगे। उसके अधूरे सपनों का अंत मैं अपने सपनों में देखने लगा... उसके जाने के बाद।
काम की तलाश वाली उम्र में मैं उससे मिला था। मुझे लगता था कि यह उन लड़्कियों जैसी है जो सपनों में जीती है। मैं उसे बार-बार खींचकर यथार्थ पर लाता था पर वह हर बार मुझसे छूटकर कहीं चली जाती थी। वह कहती थी कि ”मैं जल्दी से पैंतिस की होना चाहती हूँ.. मुझे यह उम्र बहुत बकवास लगती है। मैं बस पैंतिस होने तक का समय काट रही हूँ।’ वह मेरे हद के बाहर की लड़की थी.. वह जो कहती थी वही जीती थी.. शायद इसीलिए मैं उसकी तरफ इतना आकर्षित हुआ था। मैं उससे अकसर पूछा करता था कि ’हम दोनों एक साथ क्या कर रहे हैं?’ तो वह तपाक से जवाब देती कि ’हम दोनों एक साथ नहीं है..।’ मैंने उसके साथ अपने भविष्य के सपने देखने लगा था... भविष्य के सपने देखना मेरा स्वभाव था... मैं ऎसा ही था... मुझे दुकानों-दुकानों धूमना अच्छा लगता था। हर दुकान के सामने मैं बहुत देर तक खड़ा रहता था... और सपने देखता था.. जब मेरा घर होगा तो मैं यह रंग के पर्दे लगाऊंगा.. इस तरीक़े का फर्नीचर होगा..। मेरे सपने वहीं पर खत्म नहीं होते थे.. मैं उन्हें अपनी डायरी में नोट भी कर लेता था.. उनके दाम के साथ... फिर उसे ज़बर्दस्ति उन दुकानों पर ले जाता और उसकी राय पूछता..। उसे मेरी यह आदत बहुत बचकानी लगती थी.. पर वह हर बार मेरे साथ हो लेती... मुझपर हंसने के लिए.. और मुझे उसका हंसना बहुत सुंदर लगता। मैं हर बार उसे हंसाना चाहता था.. इसलिए अपनी बचकानी आदतों को उसके सामने दौहराता रहता।
एक दिन मैंने उसे एक झूठा सपना सुनाया...। मुझे ऎसा कोई सपना नहीं आया था पर मैंने उससे झूठ कहा कि मैंने कल रात तुम्हारा सपना देखा था कि तुम मेरे साथ पहाड़ों में धूम रही हो..। हमारी शादी हो चुकी है और तुम उड रही हो... मैंने तुम्हें अपने सपने में उड़ते हुए देखा था। इस सपने का उसपर बहुत गहरा असर हुआ था... मैं जानता था वह चिड़िया हो जाने का सपना देखती है। उसने मेरे झूठे सपने में अपनी आँखें बंद कर ली.. और मैं अपने झूठे सपने की उड़ान को रोक नहीं पाया..। मुझे उस झूठ के असर को देखकर चुप हो जाना चाहिए था पर मैं चुप नहीं हुआ... मैं अपने सपने गढ़ने लगा..। हर कुछ दिनों में मैं उसे एक सपना सुना देता... और वह हर बार अपनी आँखें बंद कर लेती। मैंने कभी उसे अपने इतना करीब महसूस नहीं किया था... वह मेरे पास थी... बहुत पास। इन्हीं सपनों के बीच कहीं हमने साथ रहने का फैसला कर लिए...। यह उसका फैसला नहीं था... जब उसकी आँखें बंद थी मैं उसे अपने घर ले जा चुका था। वह मेरे झूठे सपने में थी और मैं उसे सच में अपना बना चुका था। उसने मुझसे शादी नहीं की थी... पर हम साथ रहने लगे थे। मैंने अपने घर को अपने सारे बचकाने सपनों से सजा दिया था... वही पर्दे.. वही फर्नीचर जिसे देखकर वह खूब हंसी थी..। अब वह उन सबके बीच में रहने लगी थी। मुझे लगा था कि वह बहुत हंसेगी पर वह चुप होती गई थी।
उसकी एक आदत थी जिससे मैं बहुत चिढ़ता था... वह अपना हर जॉब कुछ ही महीनों में छोड़ देती थी। वह अपने भविष्य की कुछ भी संभावना देखते ही बिदक जाती थी... तुरंत छोड़ देती... प्रमोशन के लेटर पर वह अपना इस्तिफ़ा कंपनी में दे आती..। मैंने अपनी काम तलाशने की उम्र से जो जॉब पकड़ा था मैं आज भी उसी ऑफिस में था... मैं बार-बार उसे अपना उदाहरण देता कि देखो आज मैं कितना सफल हूँ। वह कभी बहस में नहीं पड़ती थी.. ऎसी बातों में वह हर बार पहाड़ों पर चलने की बात कहती और मैं हर बार बात टाल जाता।
मैंने उसे अपने साथ लगातार धरेलू होते देखा था..। मैं जब भी उसे अपने घर में काम करता हुआ देखता था तो मुझे अजीब सी जीत का अहसाह होता था। जैसे मैंने कोई जंगली जानवर को पालतू बना दिया हो। जैसे...हाथी का दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार करना हमें बहुत अच्छा लगता है... शेर हंटर की टाप पर कुर्सी पर बैठ जाए तो हम ताली बजा देते हैं... आसमान में उड़ते हुए पक्षी हो अपने घर के पिंजरे में अपना नाम पुकारते हुए सुनना कितना सुख देता है... मैं उसी सुख में था।
फिर वह दिन आ गया.....
वह रविवार का दिन था। छुट्टी थी... और वह किचिन में आटा गूंद रही थी। मैंने पूछा
’क्या कर रही हो”
तो वह कहने लगी कि..
’मैं पूरियां बना रही हूँ।’
’पूरियां क्यों? आज कोई त्यौहार है क्या?’
’ना... इस महीने मैं पैंतिस की हो जाऊंगी।’
’इस महीने मतलब... तुम्हारा जन्म दिन कब है?’
’जन्म दिन का पता नहीं है... पर इसी महीने कभी है। मैं खुद को पैंतिस महसूस कर रही हूँ...। मैं अपने परों को बड़ा होते देख सकती हूँ।’
’मैं पैंतिस की हो जाऊगीं...’ के बाद मुझे नहीं पता कि वह क्या कह रही थी..। मैं बार-बार उसका उड़ना सुन रहा था... मैं डर गया। मुझे उसका सपना याद था.. वह चिड़िया होना चाहती थी हमेशा से...। वह बस पैंतिस होने का इंतज़ार कर रही थी।
’तो अब तुम क्या करने वाली हो?’
’पूरियां बनाऊगीं और पतली आलू टमाटर की सब्ज़ी।’
’नहीं मेरा मतलब है.. पैंतिस होते ही क्या करोगी?’
’उड़ जाऊंगी।’
वह अपनी बातों में एकदम सहज थी..। मैं डर गया..। इस बार मैंने उससे कहा..
’सुनों मैं एक हफ्ते की छुट्टी ले रहा हूँ ऑफिस से... चलो कहीं पहाड़ों पर चलते हैं।’
’ना... मेरी इच्छा नहीं है..।’
’अरे तुम ही कहा करती थीं... पहाड़ों पर जाना है.. अब क्या हुआ?’
’बस... इच्छा नहीं है...।’
वह बहुत खुश दिख रही थी..। उसकी आँखों में जंगलीपन वापिस दिखने लगा था..। वह मेरे साथ रहकर.. या मुझे सहकर सिर्फ पैंतिस होने तक का वक़्त काट रही थी। वह पैंतिस होते ही उड़ जाएगी...। मुझे लगा मैं किसी पिंजरे में बंद शेर के पास खड़ा हूँ.... जिसे पता है कि वह जब चाहे तब पिंजरा तौड़कर भाग सकता है.. इसलिए वह उस पिंजरे में खुश है... शांत है.. पूरियां बना रहा है। मेरी कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि मै क्या करुं.. इसे पालतु बनाना मेरा भ्रम था.. यह कभी भी मेरा बनाया हुआ पिंजरा तोड़कर चली जाएगी। मेरे सपने... उनका क्या..? झूठे ही सही... पर मैंने उन्हें अपनी पूरी शिद्दत से देखा था... उन्हें मैं उनकी नीयती तक पहुंचाना चाहता था। मुझे कुछ हो रहा था.. मैं ऊपर से नीचे तक कांपने लगा।
’सुनों मैं तुम्हें जाने नहीं दूंगा।’
मैंने कुछ ऎसे कहा मानों मैं कह रहा हूँ कि मैं तुम्हें उड़ने नहीं दूंगा।
’क्या कह रहे हो तुम?’
’मैं तुम्हें उड़ने नहीं दूंगा।’
इस बार मेरे मुँह से उड़ना ही निकला.. पर मैं रोक नहीं पाया...। मैंने उसे बहुत कसकर पकड़ लिया...।
’अरे क्या कर रहे हो तुम... तेल गर्म है... जाओ यहाँ से...। अरे मुझे लग रही है। तुम... दूर रहो..।’
उसने मुझे धक्का दिया मैं फर्श पर आकर गिर गया। मुझे सब कुछ छूटता हुआ दिख रहा था.. मेरा सपना.. मेरा भविष्य...। मेरी आँखों में अजीब सी जलन हो रही थी जिसकी वजह से मेरी आँखों से लगातार पानी आ गिर रहा था। वह डर रही थी... वह डर के मारे सोफे के ऊपर चढ़ गई.. मैं अभी भी फर्श पर था। मुझे लगा कि वह सोफे के ऊपर से छलांग लगाएगी और उड़ जाएगी... मैं भूख़ी बिल्ली की तरह बस उसके फर्श पर गिर जाने का इंतज़ार करुंगा..। मैं अपनी पूरी ताकत से उठा और उसकी और झपट्टा मारा..। मैं उसे रोकना चाहता था। वह कुछ बड़बड़ाए जा रही थी पर मुझे बार-बार उसके उड़ जाने का डर था.. सो मैं बस उसके परों को ज़ख़्मी कर देना चाहता था। वह इस तरह मुझे छोड़कर नहीं जा सकती थी। कुछ देर की हथापाई में मैंने अपने सिर पर किसी कठोर चीज़ का प्रहार सा महसूस किया... शायद वह कुकर था... या कढ़ाई.... पता नहीं पर मैं बेहोश हो चुका था।
जब नींद खुली तो मैं अपने घर में अकेला था... वह कहीं भी नहीं थी। मैंने उसे बहुत ढ़ूढ़ने की कोशिश की पर वह उसके बाद मुझे कभी नहीं मिली...। मैंने अपने झूठे सपनों में उसे कुछ सालों तक फसाए रखा था... बस... या शायद वह मेरे झूठे सपनों के बारे में जानती थी पर उसे पैंतिस होने तक का वक़्त काटना था... सो वह मेरे झूठ के साथ बनी रही। मैं हमेशा भ्रम में ही था... कि वह मेरे प्रेम में धरेलू हो चुकी है... वह अपने सपनों से बाहर आ चुकी है.. और मेरे यथार्थ में जीने लगी है...। पर ऎसा नहीं था... वह हमेशा सपने में ही थी..। उसने एक बार कहा था कि ... ’जो सपना देखता है... वह कभी भी उड सकता है...।’ वह उड़ चुकी थी..।
यह बहुत पुरानी बात है..। आज रात सच में मैंने उसका सपना देखा था कि वह पहाड़ों में देवदार के एक वृक्ष पर बैठी मुझे देख रही है... जब तक मैं उसका नाम पुकारता वह उड़ चुकी थी... दूर पहाड़ों की ओर...।

Sunday, October 23, 2011

जूते.. चप्पल...


कितना सारा काम है..? जिसे निभाने की कसमों के बीच एक अदना छिछला आदमी है जो आदमी के रुप सा ना होकर...जानवर सा दीख पड़ रहा है। धीमे कदमों से हंसता हुआ आतंक सीड़ीयां चढ़ रहा है...। वह सीड़ीयां उतर रहा है की सोच मन में लिए मैं उसका इंतज़ार नहीं कर रहा हूँ...। वह फिर भी चला आ रहा है....। मैंने अपने कुछ जूते खड़की की सलाखों से बांधकर बाहर की तरफ टांगे हुए हूँ..। वह कभी मेरे काम आएगें... जब मैं बाहर निकल चुका होऊंगा और जल्दी में जूते पहन्ना भूल चुका होऊंगा..। जूता कितना मेरा साथ दे देगा...? मैं कितनी देर तक उसका साथ दे पाऊंगा यह प्रश्न मैं हमेशा खुद से करने से डरता हूँ। जूता चलना चाहता है... मैं उसे अपने कमरों में मुझे ताकते हुए देखता हूँ.... हर बार की उन प्रश्नवाचक जूताई निगाहों से बचने के लिए मैंने उन्हें एक दिन अपनी खिड़की की सलाखों से बाहर की तरफ लटका दिया था। सो जब भी बाहर निकलता हूँ तो एक बेपरवाही होती है। बहुत लंबे कही नहीं जाता हूँ... कुछ दूर जाकर लौट आता हूँ... चप्पल पर ज़्यादा दूर जाया नहीं जा सकता है..। जूता लंबी यात्रा की याद दिलाता है... जूता उपन्यास जैसा है जिसे मैं कभी भी लिख नहीं पाया... चप्पल छोटी कहानियों जैसी है जिसे पहनकर मैं यहाँ वहाँ टहल आता हूँ...। इन सब में नाटक नंगे पैर चलने सा है....।

Friday, September 23, 2011

Toji.... (land...)


प्रार्थना की सी शांति है यहाँ...। अपने आपको कभी इतने अकेले में देखा नहीं था... जिया नहीं था.. ख़ासकर जब भाषा, ख़ाना, लोग सब कुछ अलग हों....। मैंने अकेलेपन की कल्पना की थी.... पर यह शायद उस कल्पना का और सुलझा रुप है। यहाँ Toji, Korea में शांति अपने पूरे सन्नाटे में है... यहाँ कभी कभी लगता है कि आप किसी कटीली तारों के बीच फसे हो.. अगर ज़्यादा तड़पोंगे तो खुद ही ज़ख़्मी होगे... इससे छुटकारा नहीं है... यूं छुटकारे की इच्छा भी नहीं है..। यहाँ हर दिन नया है... कभी एकदम नए विचारों की लहर है तो कभी पुराने बीते दिनों की ठंड़ी हवा... पर कभी एक दिन दूसरे दिन जैसा नहीं गुज़रा...।
एक चीज़ रोज़ तय है .... रात के खाने के बाद सबके साथ एक लम्बी walk पर जाना...। हर walk पर मैं खुद को थोड़ा ज़्यादा बूढ़ा महसूस करता हूँ। इस सारे लेखकों के बीच में मैं सबसे young हूँ.. बाक़ी सबकी उम्र लगभग पैंतालीस पार कर चुकी है...। औरते ज़्यादा हैं.... और चूकि कोरियन संस्कृति भारतीय संस्कृति से बहुत मेल ख़ाती है तो कहना चाहिए कि मेरे पास करीब छ: माँए है.... सभी मेरा इतना ज़्यादा ख़्याल रखती हैं कि कभी-कभी मैं खुद को बहुत बच्चा सा महसूस करता हूँ। हर रोज़ टहलते हुए वह सब चिल्लाते-चहकते हुए बात करते हैं.... मैं चुप्प उस भाषा का संगीत सुनता हुआ चलता हूँ। यदा-कदा कोई टूटा फूटा अंग्रेज़ी का शब्द कहकर मुझे भी बात-चीत में शामिल रखना चाहता है.. पर मेरे जवाब के साथ वह कोशिश भी वहीं खत्म हो जाती है। पहले एक हफ्ते तो सभी मुझसे झेंप रहे थे.... उसका कारण अंग्रेज़ी भाषा था जो मुझे बाद में समझ में आया। पर एक बहुत ही विचित्र बात है.. कि बिना भाषा जाने.. बिना बहुत बात किये मेरा सब लोगों से एक नए तरीक़े का आत्मीय संबंध बन चुका है।
एक poet हैं... MOON-YOUNG HOON जो पिछले पच्चीस सालों से पेरिस में रहते हैं.. वह फ्रेंच और कोरियन में कविताए लिखते हैं। मैंने अपने जीवन में इतना शांत और मुस्कुराता हुआ चहरा कभी नहीं देखा... उनकी शांति और आँखों की उनकी मुस्कान से रंज होता है...। बीच में जब मैं कुछ परेशान था तब एक वह ही थे जो मुझे कुछ इस तरह देखते थे मानों सब समझते हो.. सब जानते हों...। मैं उन्हें बहुत पसंद करने लगा हूँ.... पर बात चीत नामुमकिन है... मैं सिर्फ उनसे दिन और रात के खाने पर ही मिलता हूँ...(वह हमारे साथ लंबी walk पर कभी नहीं आते...) पर उनसे आत्मीयता कुछ इतनी बढ़ गई है कि जब कोई उनकी जगह बैठता है तो मैं मना कर देता हूँ.. ’कि वह उन poet की जगह है...’, जब वह कभी खाने नहीं आते तो मैं थोड़ा विचलित हो जाता हूँ।
यहाँ बहुत से लेखक हैं, कम्पोज़र है और पेंटर... जिनमें से चार महिलाएं सिर्फ बच्चों के उपन्यास लिखती हैं...। उसमें से एक हैं... BAEK-SUNG NAM जिन्होंने एक किताब मुझे gift की जिसका नाम KING OF WOLF है... अब किताब कोरियन भाषा में है... पर वह इतनी ज़्यादा उत्साहित थी मुझे किताब देने में मानों मैं अभी पूरा उपन्यास पढ़ लूंगा... मैंने उनको बहुत बहुत धन्यवाद कहा... (ख़नसा हम निदा...) पर मैंने उनसे विनती की कि कृप्या करके वह इसकी कहानी मुझे बता दें...(किताब सचित्र थी..) जैसे-तैसे अपना पूरा समय लेते हुए.. टूटी फूटी अंग्रेज़ी में कुछ वह बता पाई.. कुछ कहानी मैंने गढ़ ली..। फिर मैंने लगभग सभी किताबों की कहानिया सब से सुनी.. और बहुत सुंदर बात यह लगी कि... बच्चों की कहानियों में मृत्यु थी... परिवार का बिख़रना था... शोक था... खुशी थी....। एक महिला तो बच्चों की संजीदा कहानियाँ ही लिखती हैं....उनका नाम KANG-SOOK TN है... उनके पैर में कुछ समस्या है... अभी-अभी पिछले दो हफ्तों से वह मेरे साथ अंग्रेज़ी में कुछ शब्द.. कुछ छोटे वाक़्य कहने लगी हैं... पर उन्हें पता नहीं क्यों अग्रेज़ी बोलना चुटकुले सुनाने जैसा लगता है... वह एक शब्द भी बोलती है तो बच्चों सी हंसती हैं... एक पूरे वाक़्य में तो मुझे भी हंसी आने लगती है।
इन सारी यात्राओं की बस एक ही त्रासदी है कि जो आत्मीय संबंध आपका यहाँ कुछ लोगों से बन गया है... आप पता नहीं इसके बाद कभी उनसे मिलेगें भी या नहीं....। शायद कभी किसी से भी मिलना ना हो...। यह संबंध यहीं तक है... बस इतना ही...। यह सोचते ही लगता है कि दुनियाँ इतनी दूर-दूर क्यों है..? क्या हम ख़िसकर कुछ और पास नहीं आ सकते...?
लिखने आया था पर संतोषजनक लेखन नहीं हो पाया है...। बहुत सारा लिखना बचा है... पर इस प्रवास में मैं खुद अपने कुछ करीब खिसक आया हूँ... अपने साथ चलते रहने के कुछ मौन इस बार थकान लिए हुए नहीं थे..। मैं इस बार थका नहीं... मैं इस बार चलता रहा...।
इस प्रवास में सबसे अच्छा काम शायद Red Pencil का लिखा जाना है। यह बच्चों का उपन्यास Soo-Hyeon ने लिखा है.. उससे प्रभावित होकर मैं नाटक लिख रहा हूँ। आशा है मैं इसे जाने से पहले पूरा कर लूंगा..। SOO-HYEON की उम्र करीब 42 वर्ष होगी...। उनसे बात करते समय लगता है कि किसी बौद्ध भिक्षु से बात कर रहे हो... उनके भीतर बहुत प्रेम है दूसरों के लिए.. वह लगभग सबकी सहायता यहाँ कुछ इस तरह करती है मानों हम उनके घर में रहने आए हैं। मैं उनके लिए एक lost child जैसा कुछ हूँ... जिसे पता नहीं कि वह कहाँ जा रहा है.. क्या कर रहा है। मैं खुद कभी इसका जवाब नहीं दे पाया कि मैं lost child हूँ कि नहीं हूँ... सो मैं जो भी भूमिका मुझे यहाँ मिलती है मैं बिल्कुल वैसा ही जीने लगता हूँ।
मुझे लगता है कि आप असल में क्या सोचते हैं... अगर उसको हमेशा बता देने का उत्साह अगर हम थोड़ा शांत कर ले.... तो हम बहुत से लोगों को बहुत सारी जगह दे पाएंगे..... अपने पास आने की....।

Wednesday, September 14, 2011

टीस...


सुबह बहुत सामान्य थी, जब तक उसकी निग़ाह घड़ी पर नहीं गई... उसके मुँह से आह! निकली.. और वह भागा........
वह भाग रहा था... जूतों के लेस खुल चुके थे... पर उसे गिरने का कोई डर नहीं था। वह बीच में धीमा हुआ... सिर्फ कुछ सांस बटोरने के लिए... एक ..दो... तीन... वह फिर भागने लगा। कहीं वह चले ना गए हो? यह बात उसके दिमाग़ में धूम रही थी। उसे उनके चहरे की झुर्रीयाँ दिख रही थी.... वह उसी को देख रहे थे... अचानक वह उनके चहरे की झुर्रीयाँ गिनने लगा। उसने अपने सिर को एक झटका दिया और सब ग़ायब हो गया... मानों सब कुछ ड्स्ट बिन में चला गया हो। दिमाग़ में एक ड्स्ट बिन होता है जिसे आप सिर के एक झटके से भर सकते हैं... पर अगर ड्स्ट बिन भर गया तो उसे कैसे झटका देते हैं?... दिमाग़ के ड्स्ट बिन को कहाँ ख़ाली करते हैं? उसने फिर दिमाग़ को एक झटका दिया... और भागता रहा....
वह दरवाज़े के सामने काफी देर से खड़ा था...। उसका माथा दरवाज़े से सटा हुआ था। वह बीच में एक गहरी सांस छोड़ते हुए अपना माथा धीरे से दरवाज़े पर पटकता और एक ठ्क की आवाज़ आती। उसने अपना दाहिना हाथ घंटी पर रख रखा था। उसके दो माथे की ठ्क के बीच में घंटी की आवाज़ सुनाई दे जाती...यह एक तरह की रिद्यम में यह चलने लगा था, पर बहुत ही धीरे, इतना धीरे कि अगली ठ्क की आवाज़ शायद ना आए...। उसकी आँखें दरवाज़े पर लगे ताले पर थी... काला पड़ चुका ताला...। घंटी की आवाज़ और ठ्क के बीच अचानक एक वाक़्य भी बजने लगा था... “मैं सुबह चला जाऊगाँ...।“ कुछ देर में वह बैठ गया... सोचा स्टेशन जाऊगाँ पर कोई फायदा नहीं है। वह कहाँ से जाएगें इसका कोई पता नहीं था... या शायद वह गए भी नहीं हो.. वह अभी भी यहीं हो आस पास ही कहीं। छुपकर उसका इस तरह पछताना देख रहे हों। वह खड़ा रहा। उसने दरवाज़े पर एक लात मारी और सीड़ीयों से नीचे उतर गया। अचानक वह पलटा और उसने जिस जगह लात मारी थी वहाँ हाथ से दरवाज़ा पोछ दिया... कहीं वह सच में छुपकर देख रहे हो तो?


यह यही तक है... इसकी इतनी ही कहानी है...। कौन छुपकर देख रहा है? कौन दरवाज़े पर है? इसका कोई सिर पैर नहीं है। इसके बाद उसने क्या किया, वह सोची समझी कहानी की तरह मेरे दिमाग़ में चलने लगा... मैं कहानी जीना चाहता हूँ... पहले से ही पता है- वाली कहानी मैं नहीं लिखना चाहता। मैंने लिखना बंद कर दिया। आप चाहे तो पढ़ना बंद कर सकते हैं। अभी यही रुक जाईये। क्योंकि अगर आप कहानी ढ़ूढ़ रहे है तो वह आपके हाथ नहीं आने वाली....। मैं कहानी नहीं कहना चाहता हूँ... ख़ासकर वह कहानी जिसका अंत मुझे पहले से ही पता हो..। मैं उस स्थिति से नहीं गुज़रना चाहता जिसमें मुझे एक अच्छी कहानी कहने का बोझ ढ़ोना पड़े। यहाँ जो भी हो रहा है या होगा... वह कुछ भी नहीं है... ऎसा जो शायद मैं पढ़ना चाह रहा था। शायद मुझे इसे लिखना और आपको इसे पढ़ना बंद कर देना चाहिए....मैं अभी भी आपको थोड़ा वक़्त देता हूँ... और खुद को भी....................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................।
अब हम दोनों ही एक ही स्थिति में है... आप रुके नहीं... आप अभी भी इसे पढ़ रहे हैं.. और मैंने भी लिखना बंद नहीं किया। अब आगे जो भी होगा उसके ज़िम्मेदार हम दोनों हैं। ठीक इस वक़्त आपको भी नहीं पता कि आगे क्या होगा.. और मुझे तो यह अंदाज़ा भी नहीं है कि अगला शब्द क्या होगा...। सो चलते हैं......
राही... मैं हमेशा सोचा करता था कि जब भी मेरी कोई लड़की होगी मैं उसका नाम राही रखुगाँ। राही को मेरे साथ धूमेगी... मेरे साथ रहेगी... मेरी सबसे अच्छी दोस्त बनकर...। वह खुद सब चुने और करे। उसे जानने सीखने की ओछी दुनियाँ से दूर ही रखुगाँ। मुझे जानने सीखने और आगे बढ़ने जैसे शब्दों से सख्त नफरत है। खैर ऎसा होना इस जनम में मुझे संभव अब लगता नहीं है... वह उम्र मेरी निकल चुकी है जिसमें इस तरह के सपनों की जगह था।
अभी इस वक़्त आप भी और मैं भी बार-बार उस आदमी के बारे में सोच रहे हैं जो दरवाज़े पर था.. हे ना...? वह दरवाज़ा पोछने के बाद कहाँ गया होगा..? उसका नाम क्या है...? उसका नाम... अली है। अली नाम अच्छा है मुझे हमेशा छोटे नाम अच्छे लगते है... टाईप करने में आसानी होती है।

वह अली का कमरा था और राही उसके साथ थी.........

अली- मेरे पास आओ।
राही- अली नहीं।
अली- राही.. मेरे पास आओ।
राही- अली मैं तुम्हारी मुँह बोली बहन हूँ।
अली- मुझे पता है, याद दिलाने की तुम्हें ज़रुरत नही हैं।
राही- हाथ छोड़ो।
अली- मुँह बोली हो ना... तो मैं अपने मुँह से बोलता हूँ.. आज से तुम मेरी बहन नहीं हो।
राही- बचपना बंद करो।
अली- प्लीज़।
राही- अली... अली।

राही सलवार सूट पहने थी..। वह बार बार अली के हाथों को अपने शरीर पर से हटा रहे थी। अली ने उसका चहरा अपने हाथों में पकड़ लिया... और शांत खड़ा हो गया। राही ने उसके हाथों को चहरे से नहीं हटाया... दोनों चुप खड़े रहे।
राही- छोड़ो अली।
राही ने बहुत धीरे से कहाँ... अली ने उसकी आखों को चूम लिया। शायद आखों को चूमना सीमा पार करना नहीं था.. सो राही ने उसे रोका नहीं। वह आखों को चूमते हुए उसके गालों को चूमने लगा... गालों से सरकता हुआ होटों के किनारों तक आया... पर होटों को नहीं छुआ। राही का शरीर थोड़ा ढीला पड़ने लगा था... उसने अपनी आखें बंद कर ली थी। गालों पर से अली का एक हाथ हट गया था और वह राही के सूट के भीतर जाने का छोर ढ़ूढ़ने लगा। राही हलके हलके उसके हाथ को रोकती रही... इस जद्दोजहद में दोनों लड़खड़ाए और बिस्तर पर लेट गए। अली का हाथ राही के सूट के भीतर उसकी ब्रा खोलने में लग गया...। वह अभी भी होठों के किनारों को ही चूम रहा था।

राही- अली देखो यह ठीक नहीं है... मैं इसीलिए तुमसे दूर रहती हूँ...। तुम पगला रहे हो... अली मेरी बात सुनो।

अली ने ब्रा खोल दी थी....उसके हाथ राही के वक्ष के इर्द गिर्द घूमने लगे। राही चुप हो गई। राही, अली को चूमने लगी...पर अली राही को होठों पे चूमने के पहले ही अपना चहरा हटा लेता। अली के दोनों हाथ राही के वक्ष के पास थे... पर वह उसके nipples को नहीं छू रहे थे...। राही, अली के हाथों को खीचकर उसके वक्षों पर ले जाती पर अली उसके nipples को नहीं छूता। अली ने धीरे से राही को बिठाया और उसका सूट... एक ही झटके में खींच के उतार दिया। सूट के साथ ब्रा को भी उसने कुर्सी पर रख दिया...। राही... अली से चिपक गई। अली उसे हटाता रह... वह उसके चेहरे को उसके वक्षों के साथ देखना चाहता था... पर राही उससे दूर नहीं हो रही थी। अली ने एक झटके से राही को लिटाया और उसके दोनों हाथों को ज़बरदस्ती उसके सिर के पीछे ख़ीचकर ले गया। राही कुछ देर तक विरोध करती रही, फिर उसने अपना सिर एक तरफ घुमा लिया और अपनी आँखे बंद कर ली। अली उसके वक्ष को उसके चहरे के साथ पहली बार देख रहा था। उसने राही के दोनों हाथों को एक हाथ से जकड़ लिया और दूसरा हाथ उसकी शलवार की तरफ बढ़ाया। राही विरोध में पूरे शरीर को मरोड़ती रही पर अली की पकड़ मज़बूत थी वह उससे छूट नहीं पाई। अली शलवार के नाड़ का ओर-छोर ढूढ़ने लगा। छोर अचानक उसके हाथ में आ गया। राही के मुँह से चीख निकली.... अली ने नाड़े का छोर खींच लिया। तभी दरवाज़े पर एक खट हुई और आली की पकड़ ढीली पड़ गई।



हर संबंध एक छोर पर आकर आत्महत्या की जगह खोज रहा होता है। वह आत्महत्या करे या ना करे की उहापोह में वह संबंध ज़िदा रहता है.... किसी भी तरह का नर्णय उस संबंध की हत्या है।

बाहर दरवाज़े पर खट की आवाज़ किसकी थी यह कहना मुश्किल था...। उसे लगा नरेद्र होगा... वह राही और राही उसको बहुत पसंद करते थे। शायद नरेद्र को पता हो कि आज राही अली से मिलने आ रही है? .. पता नहीं....

थोड़ी सी संरचना जो मुझे अभी दिख रही है........
जिस बूढ़े आदमी से मिलने अली भाग रहा था और अंत में उसने दरवाज़े पर ताला पाया....। उस बूढ़े आदमी का नाम..... हम्म्म्म्म.... कमल है...। हाँ.. कमल.... पूरी ज़िदगी लिखा... ढ़लती उम्र में शादी की... करीब पचपन-साठ के बीच में बीबी अपने बच्चे के साथ उन्हें छोड़कर चली गई। उनका बेटा (आयुश) और अली दोस्त थे..। नशे की बुरी आदत पड़ गई थी... बेटे के सामने अच्छे बाप की भूमिका निभाने के चक्कर में हमेशा गड़बड़ हो जाती... बेटा बाप से नाराज़ रहता...। पुराने लिखे की जो भी रॉयल्टी आती थी उससे उनका घर चलता था। उनके बेटे... आयुश के साथ अली कई बार कमल से मिला था... अपने कॉलेज के दिनों में...। आयुश वह आदमी कमल में नहीं देख पाया जो अली ने देख लिया.... सो अली अदतन उनसे मिलने लगा...। अली खुद कुछ नहीं करता था.. उसे लगता था कि वह लेखक है.. पर लिखते ही.. उसे पेंटिग करने की इच्छा होती.. उसे धूमना पसंद था... सो वह उसकी जुगाड़ में हमेशा लगा रहता था।

एक दिन पहले की रात... अलि और कमल... कमल के घर....

कमल सामने थे। उसकी आखें कहीं अनंत को छूने में दूर कुछ टटोल रही थी। खिड़की से हल्की सी रोशनी भीतर आ रही थी। बाक़ी कमरे में अंधेरा था। ’लाईट मत आन करो…’ अली के भीतर आते ही उनका यह पहला वाक्य था उसके बाद से अभी तक सब चुप था। अली उनके करीब जाकर बैठ गया.. सस्ती शराब की बदबू उनके मुँह से आ रही थी। अली कई घंटे.. ऎसे ही उनके सामने बैठ सकता था… स्थिर.. शायद इसीलिए अली अभी तक उनके जीवन का हिस्सा है… अली के अलावा उनसे कोई दूसरा मिलने नहीं आता था। अयुश कभी-कभी आता था... कमल अयुश का इंतज़ार करते थे.. पर उससे मिलना पसंद नहीं करते थे। कमल कभी-कभी किसी से मिलने जाते थे… पर किससे यह किसी को पता नहीं था...। अगर अली कभी पूछता तो कहते कि-’दोस्त के यहाँ जा रहा हूँ…’ किस दोस्त के यहाँ? यह पूछने की हिम्मत अली में नहीं थी। अली पिछले कुछ महीनों से बाहर था... कुछ विदेशी लोगों को लेकर एक ग्लेशियर के ट्रिप पर... सो कमल से नहीं मिल पाया था... कमल ऎसे वक़्त हमेशा नाराज़ हो जाते..… ’कहाँ थे..??? कोई ख़बर नहीं है, कम से कम बताया तो करो कि तुम नहीं आ रहे हो?’ अली ऎसे कुछ क्षणों में खुद को उनके करीब महसूस करता.. पर अगर अली बताता कि मैं एक महिने के लिए बाहर जा रहा हूँ... तो भी कमल नाराज़ हो जाते... ’तो मैं क्या करुं... जाओ.. तुम्हारी उम्र है.. धूमों.. मुझ बूढ़े के साथ तो बस तुम अपना समय बरबाद कर रहे हो...।’ सो अली कभी बताता कभी नहीं बताता...
अली बिना ज़्यादा आवाज़ किये उठा…. टटोलते-टटोलते पानी का मटका की तरफ बढ़ा… मटका नहीं मिला… ’कहीं मटका भी तो नहीं फेंक दिया’ अली ने सोचा.... फिर एक बुरी आवाज़ हुई… मटके के ऊपर रखा पानी का गिलास गिर पड़ा अली से गिर पड़ा... अली वहीं ठिठक कर खड़ा रहा… धीरे से पलटकर उनकी तरफ देखा तो वह अभी भी खिड़की के बाहर कुछ तलाश रहे थे। वह झुका और गिलास टटोलने लगा.. गिलास हाथ में आते ही उसने पानी निकालना चाहा… ’खड़र.र्र.. खड़र..र्र..’ आवाज़ हुई… मटका खाली था। वह खिड़की की रोशनी के सहारे वापिस आकर अपनी जगह बैठ गया…। वह गिलास को वापिस रखना भूल गया.. गिलास उसके हाथ में ही था…। तभी पहली बार कमल उसकी तरफ मुड़े.. फिर उनकी निग़ाह गिलास पर गई।
’पानी नहीं है….....’
अली बस इतना ही कहना चाह रहा था… पर वाक्य कुछ इस तरह निकला कि पूरा नहीं हो पाया… लगा इसके आगे भी कुछ कह सकने की गुंजाईश है… अली झटके से चुप हो गया।
’यहाँ पानी नहीं है… यहाँ क्यों आते हो???’ कमल ने कहा...
घर में सस्ती दारु की महक थी। खिड़की का पर्दा शायद कमल के एकटक बाहर देखने की वजह से एकदम स्थिर था... । कमरे में गर्मी थी.... उनके भीतर के कमरे से संगीत की आवाज़ आ रही थी.. piano …
’बहुत प्यास नहीं है मुझे...’ अली ने कहा...
फिर उसने गिलास को नीचे रख दिया...।
’सिगरेट है...?’ कमल ने पूछा..
अली ने अपनी जेब से सिगरेट निकालकर दी... पहले कश के साथ ही कमल ने फिर वही वाक्य दौहराया..
’यहाँ क्यों आते हो...?’
’अच्छा लगता है..।’
अली की सिगरेट पीने की इच्छा थी पर उसने जल्दबाज़ी में पेकट अपनी जेब में रख लिया.. फिर वापिस निकालना उसे ठीक नहीं लगा सो उसने उसे वहीं पड़ा रहने दिया...
’आज मैने बहुत दिनों बाद कुछ लिखा....’ कमल ने कहा..
’अरे वाह...’
’तुम्हारे बारे में....’
’मेरे बारे में...?’
’तुम्हे बुरा तो नहीं लगेगा कि मैं तुम्हें कहानी के एक पात्र की तरह देख रहा हूँ....’
’नहीं... बल्कि....’
’मेरे सारे निजी संबंधों की झलक मेरी कहानियों में है.. और उन्हें यह बात कभी अच्छी नहीं लगी....।’
’मुझे कोई तक़लीफ नहीं है....।’ अली ने अपनी बात साफ-साफ कह दी...
’यह तुम्हारे और राही के बारे में है....।’
’राही????’
अली को यह कुछ अजीब लगा....। अली ने अगर अपने जीवन में कमल से कुछ भी नहीं छुपाया था... ख़ासकर उसके गहन निजी संबंध... वह सब कुछ खोलकर बता देता था.. और कमल चुप सब कुछ सुन लेते थे.. कभी किसी निर्णय पर नहीं पहुंचते थे.. उसे जज नहीं करते थे..। पर राही के बार में लिखना... उसे अजीब लग...
’क्यों तुम्हें ठीक नहीं लगा...?’
’क्या मैं पढ़ सकता हूँ....?’
’क्यों नहीं..’
कमल उठे और उन्होंने कुछ पन्ने लाकर अली के हाथ में थमा दिये...।
’दारु पियोगे...?’
’ना....’
’शायद इसे पढ़ने के बाद अपने विचार बदल दो....!!!’
यह कहकर कमल किचिन में चले गए...। अली पढ़ने लगा.. पर बहुत अंधेरा है...
’मैं लाईट आन कर लूं...?’
’नहीं खिड़की के करीब चले जाओ... पढ़ पाओगे।’
अली अपनी कुर्सी खिड़की से आती हुई रोशनी की तरफ खिसका लेता है। कुछ वाक्य पढ़्ने पर ही वह सिगरेट निकालकर जला लेता है....। वह पूरा नहीं पढ़ पाया... बाक़ी सारे पन्ने उठाकर वह पलंग पर पटक देता है..। बाथरुम से फ्लश की आवाज़ आती है.... बाथरुम का दरवाज़ा खुलता है.. बल्ब की रोशनी पूरे कमरे में फैल जाती है....। उस ज़रा से उजाले की घड़ी में अली कमरे में चारों तरफ निग़ाह डालता है.. कमरा एकदम खाली है.. जैसे वहाँ अब कोई नहीं रहता हो... बस एक सूटकेस दिखता है... और उसके बगल में एक बेग़...। बाथरुम का दरवाज़ा बंद होती ही फिर अंधेरा हो जाता है.. पर इस बार पहले से थोड़ा गाढ़ा अंधेरा। कमल किचिन में ही खड़े थे... अली ने किचिन की तरफ देखा...
’मेरे लिए एक पग पना दीजिए...’
कुछ देर में कमल और अली अपने-अपने पेग के साथ आमने-सामने बैठे थे।
’यह ठीक नहीं है... आप... राही को इसमें मत लिखिए..।’
’क्यों..? यह fiction है।’
’पर आपने तो नाम भी नहीं बदले...।’
’उससे कितना फर्क पड़ जाएगा...?’
’मुझे नहीं पता... आप बस नाम बदल दीजिए..।’
’देखो मैंने इतने सालों से नहीं लिखा है... उसकी वजह है... हर कहानी कुछ समय में नाटकीय लगने लगती है। पात्रों से ज़्यादा वह लोग दिखने लगते हैं जो इसे पढ़ेगें...। एक पूरा झूठा संसार... जिसमें छिछला मनोरंजन.. एक ससपेंस भरा अंत... गढ़ने के लिए... दिन रात एक कर दो.. ना मैं नहीं लिख सकता यह सब...।’
’तो यह जो लिखा है वह क्या है...? एक erotic B-Grade साहित्य...जिसका मुख्य पात्र मैं हूँ।’
’यह तुम नहीं हो...?’
’यह मैं नहीं हूँ?... तो यह कौन है?’
’अगर तुम इस कहानी के अली होते तो मेरी बात का जवाब सही देते?’
’कौन सी बात का....?’
’जो मैंने तुमसे पूछा था।’
’क्या पूछा था?’
’जब पानी नहीं है तो यहाँ क्यों आत्ते हो?’
’यह सब क्या है.... यह.... सब.....।’
’मैं कहानी के इसी वाक़्य पर अटका हूँ.. कि अली इस बात का क्या जवाब देगा?’
’enough!!!’
अली एक झटके में पूरा ड्रिंक खत्म कर देता है। कमल उसका गिलास उठाते हैं और एक किनारे रख देते हैं... फिर वह पानी वाला गिलास भी मटके में जाकर रख देते हैं। अली अपनी कुर्सी से उठता है और लाईट बोर्ड की तरफ बढ़ता है....
’मैं लाईट आन कर रहा हूँ।’
’लाईट आन मत करो....’
’मुझे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है... मुझे अजीब लग रहा है.. मैं लाईट आन करता हूँ....।’
’नहीं... कहानी में भी इस वक़्त अंधेरा है... सिर्फ रोशनी खिड़की से आ रही है.... बस... लाईट आन नहीं होगी।’
अली वापिस आकर बैठ जाता है।
’मुझे एक पेग और चाहिए.... ’
कमल मटके के पास खड़े हैं..जवाब नहीं देते...।
’मिलेगा?’
’मैं दे दूंगा... देशी है... आगे जो होगा उसके ज़िम्मेदार तुम खुद होगे...?’
’अब आगे और क्या होने वाला है..!!!’
’कुछ नहीं...’
कमल अंदर जाते हैं.. और एक पेग बनाकर अली के लिए लाते हैं... पर खुद नहीं पीते..।
’आप नहीं लेंगे...।’
’अभी नहीं.....’
अली एक बार में आधा पेग खत्म कर देता है। गिलास नीचे रखता है। मुँह पोछता है... उसे ज़ोर का एक ठसका का जाता है.. कुछ देर खांसता है...।
’पानी नहीं है.....’
’मुझे नहीं चाहिए पानी....’
खांसी कुछ देर में बंद हो जाती है...। अली कुछ देर शांत रहता है...। फिर पलंग से बाक़ी पन्ने उठाता है.... उन्हें अपने पास रखता है...।
’राही सच में मेरी मुँह बोली बहन है....। मैंने आपसे यह सब एक अच्छे दोस्त की हेसियत से कहा था...’
’पर दोस्त लेखक निकला...’
’यह बेईमानी है...’
’बेईमानी है झूठा लिखना... यह ईमानदारी है.. ’
’ईमानदारी कैसे हुई.. ऎसा कुछ कभी हुआ ही नहीं था...’
’मैं तुम्हारी आत्मकथा नहीं लिख रहा हूँ... यह काल्पनिक कहानी है... बस’
अली को सवालों के बहुत से उबाल आ रहे थे.... पर वह चुप हो गया.। उसने अपन सिर पन्नों में गड़ा दिया...।
’आप सामने से हटेगें...?’
अली कमल से कहता है.. कमल समझ नहीं पाते हैं...।
’एक मात्र रोशनी जो खड़की से आ रही है आप उसे भी रोक रहे हैं...।’
कमल धीरे से उठकर पलंग पर बैठ जाते हैं...।

यहाँ यह अजीब सा नाटकीय दृश्य खत्म होता है। ओह!.... आप कहानी पढ़ रहे हैं... जबकि आप कहानी नुमा कुछ पढ़ रहे हैं... मैं कहानी नहीं लिखना चाहता हूँ... पर कहानी जैसी ही कोई चीज़ सुनाई दे रही है। ओह!!! क्या यह वैसा ही नहीं है जैसे हम अपने बाथरुम में बैठते थे.. तो गीली दीवारों में हमें चहरे दिखाई देते थे.. जबकि वहाँ कोई चहरा नहीं होता था... पर हम चहरा देख लेते थे। हमें कोई एक घांस का तिनका भी देगा तो उसमें भी हमे सीता की कहानी याद है रावण के खिलाफ लड़ाई की...। हमने इतनी कहानिया पढ़ी और सुनी है कि हमने कोई भी चीज़ ऎसी नहीं छोड़ी है जिसकी कोई कहानी नहीं हो...। पर आप कहानी नहीं पढ़ रहे हैं... और मैं कहानी नहीं लिख रहा हूँ... हम यह बात याद रखेंगें.... अब आगे बढ़ते हैं....

मुझे नरेन्द्र दिखा दरवाज़ा खटखटाता हुआ....। नरेन्द्र अली का दोस्त है... और उसका संबंध राही से है..। उसे लगता है कि अली में कुछ बात है.. वह या तो लेखक बनेगा या बड़ा पेंटर... सो वह अली का दोस्त होते हुए उसका सम्मान भी करता है। उसे लगता है कि वह अली का दोस्त है.. और उसकी मदद कर रहा है। नरेन्द्र बड़ी कंपनी में काम करता है.. हंसे-मज़ाक से भरपूर आदमी है.. राही उसे बहुत पसंद करती है। दोनों की जोड़ी अली को भी पसंद है.... जब तीनों साथ होते हैं तो अली अच्छे दोस्त, और अच्छे भाई की भूमिका में दोनों ट्रीट करता है।

राही ने तुरंत नाड़ा बांधा और अपनी ब्रा की तरफ लपकी...।
’कौन?’
’अरे अली मैं नरेन्द्र...’
अली ने एक बार राही की तरफ देखा...। राही ने अपना कुर्ता पहन लिया था पर ब्रा नहीं पहन पाई थी.. सो उसने अपनी ब्रा बिस्तर के नीचे छिपा दी और चुनरी ओढ़ ली.....। अली ने दरवाज़ा खोला...
’अबे फिर सो रहा था.. इतनी देर लग गई दरवाज़ा खोलने में......?’
नरेन्द्र शक्कर और अंड़े लाया था। वह सीधा किचिन में जाना चाह रहा था तभी उसकी निग़ाह राही पर पड़ी। वह बीच में ही रुक गया।
’अरे तुम यहा हो...?’
राही उठकर खड़ी हो गई...।
’ऎसे ही... मैं इसे कुछ पढ़कर सुना रहा था।’
अली ने कहा...। नरेन्द्र ने राही को ऊपर से नीचे तक देखा...राही के बाल बिख़रे हुए थे। राही को कुछ समझ में नहीं आया... तो वह नरेन्द्र से अंड़े और शक्कर लेकर किचिन में चली गई।
’मुझे बहुत भूख लग रही है... थेक्यु तुम यह सब ले आए... अली तो मुझे भूखा मार देता...।’
नरेन्द्र पहले बिस्तर की तरफ गया.. फिर वह कुर्सी पर जाकर बैठ गया।
’तो क्या सुना रहा था...तेरी डायरी तो है नहीं यहा?’
नरेन्द्र ने कहा...
’नहीं एक आईडिया सुना रहा था.. नई कहानी का....’
’तुम्हें यह नया आईडिया पसंद आया राही?’
नरेन्द्र ने ऊंची आवाज़ में राही से पूछा....।
’ठीक है...’
अली पलंग पर बैठ गया....। दोनों चुप रहे...
’तुम कुछ खाओगे नरेन्द्र?’
राही ने पूछा..
’नहीं.. मैं तो इस कुत्ते के लिए लाया था।’
कुत्ता कहन में इतना ज़्यादा कड़वापन था... कि अली असहज हो गया। वह उठकर बाथरुम चला गया। राही अपने लिए आमलेट और चाय बनाकर लाई और नरेन्द्र के पास आकर बैठ गई। राही भूखी नहीं थी... उसे आमलेट खाने की इच्छा भी नहीं थी..। वह हर आमलेट का कोर चाय के साथ निगल रही थी।
’तुम्हें खाने की ज़रुरत नहीं है अगर तुम्हें भूख नहीं लग रही है..।’ नरेन्द्र ने कहा..
’अरे मैं भूखी हूँ।’ राही ने जवाब दिया..
’मुझे यहाँ नहीं आना चाहिए था.. हे ना?’
’अरे ऎसा क्यों बोल रहे हो?’
’खेर मुझे कहीं जाना है... शाम को मिलते हैं...।’
’अरे .. तुम ऎसे कैसे जा रहे हो... रुको मैं भी चलती हूँ तुम्हारे साथ...।’
’नहीं.. तुम रुको... मैं जाता हूँ।’
राही ने नरेन्द्र को रोकने की कोशिश की पर वह नहीं रुका। राही ने बचे हुए आमलेट को वापिस किचिन में रख दिया। अली बाथरुम से बाहर निकला उसे नरेन्द्र नहीं दिखा..
’अरे कहाँ गया....?’
’उसे शक़ हो गया है?’
’अरे... ऎसा कुछ नहीं है..।’
’नहीं उसे शक हो गया है।’
’उसने कुछ कहा तुमसे?’
’नहीं पर मैं उसे जानती हूँ...।’
अली ने जाकर दरवाज़ा बंद कर दिया...। वापिस आकर उसने राही को पकड़ लिया...।
’अली नहीं... रुको.. यह ठीक नहीं है...।’
पर अली नहीं रुका... उसने राही का कुर्ता उतार दिया..। राही बहुत देर तक उसे मना करती रही... पर वह नहीं माना..। अली ने राही की शलवार के अंदर हाथ डाल दिया... राही... अली को चूमने लगी..। अली ने राही की शलवार उतार दी.... पर राही ने पूरी तरह नग्न होने से मना कर दिया..। वह इसके आगे नहीं जाना चाहती थी। अली बहुत कोशिश करता रहा.. पर राही नहीं मानी...। अंत में अली ने राही को अलग कर दिया...। दोनों कुछ देर चुप बैठे रहे... फिर राही ने अली को गले लगा लिया...।
’तुम मुझसे प्रेम नहीं करते हो... तुम किसी से बदला ले रहे हो और उसके लिए तुम मेरा इस्तेमाल करना चाहते हो।’
’नहीं ऎसा नहीं है...।’
’मैं तुम्हें जानती हूँ अली... तुम बहुत कमज़ोर हो...। और यह तुम्हारी कमज़ोरी से उपजा गुस्सा है जो तुम मुझपर निकाल रहे हो।’
’नहीं... मैं हरामी हूँ... बस... उससे ज़्यादा कुछ भी नहीं...’
’ऎसा मत कहो.... मैं तुम्हारे साथ यह नहीं करना चाहती... उसका कारण नरेन्द्र है.. मैं उसके साथ यह नहीं कर सकते.. अली.. और शायद तुम भी ऎसा कुछ नहीं करना चाहते हो।’
’हाँ... मैं भी नहीं चाहता... पर जब सब कुछ हाथ से छूट रहा होता है तो लगता है कि कुछ पकड़ लो.. चाहे वह कितना भी गलत क्यों ना हो... उसे पकड़कर ....’
फिर अली कुछ नहीं बोल पाया...। राही उठी और उसने अपने कपड़े पहन लिये..। दोनों चुप चाप बैठे रहे... फिर अली राही के पास गया.. और उसे चूम लिया... राही ने कुछ नहीं कहा.. । वह उसे चूमता गया...।


यह किससा यहीं तमाम हुअ.....
तो बात चलते-चलते यहाँ तक पहुंच गई है। नहीं.. इसमें कोई भी सोची समझी चाल नहीं है...। यह शब्द.. अली.. राही.. और नरेन्द्र जैसा देखते गए.. मैं लिखता गया...। अब मैं भी नहीं यह खुद अपनी बात कह रहें है.. जैसा हम कहते है कि इंसान क्या है बस परिस्थियों से बना हुआ पुतला। मैं इसे अभी भी कहानी मानने से इनकार करता हूँ... क्योंकि अगर यह कहानी होती तो मैं लिखना और आप पढ़ना बंद कर चुके होते... हम दोनों ही यह नहीं चाहते कि यह कहानी हो... तो मैं यक़ीन दिलाता हूँ आपको कि यह कहानी नहीं है। अब यह ताना बाना जो बुना हुआ है.. यह परिस्थितिवश है...। क्योंकि इन बातों का अंत मैं पहले ही लिख चुका हूँ... जिसमें कमल जा चुके हैं.. अपने घर में ताला लगाकर...।

अली अभी भी उस अंधेरे कमरे में कमल के साथ बैठा हुआ है। ’अली राही को चूमता है...’ उसके बाद उसने कहानी पढ़ना बंद कर दिया...। पर कहानी के पन्ने अभी भी उसके हाथ में है।
’क्या हुआ?’ कमल ने पूछा...
’सिगरेट पीना है..।
अली जेब से सिगरेट निकालता है..। एक सिगरेट कमल को देता है और दूसरी अपने मुँह में लगा देता है... कमल माचिस निकालकर दोनों की सिगरेट जलाता है। अली एक कश के साथ अपना बचा हुआ ड्रिंक पी जाता है... और गिलास कमल की तरफ बढ़ा देता है...
’एक और.......’
कमल कुछ नहीं कहते.. वह गिलास लेकर भीतर चले जाते हैं....।
’इसलिए आपको आपकी बीवी छोड़कर चली गई.. हे ना?’
कमल अंदर पेग बना रहे हैं और इसका कोई जवाब नहीं देते।
’आपको आपके बेटे आयुष में कोई कहानी नहीं दिखती?’
कमल उसका पेग लाकर उसे दे देते हैं...। अली फिर एक झटके में आधा पेग खत्म कर देता है... और गिलास नीचे रख देता है। इस बार उसे ठसका नहीं लगता।
’क्योंकि वह मेरी तरह चूतिया नहीं है ना.. वह आपके पास आकर अपने जीवन की पर्सल बातें आपको नहीं बताता है...।’
’कुछ ही पन्ने बचे हैं... उसे पढ़ लो फिर बात करेगें...।’
अली नहीं पढ़ता है। वह कमल को देखता रहता है।
’तुम तो पेंटर भी हो... तुम्हें कोई भी पेंटिग क्यॊं अच्छी लगती है...?’
’क्योंकि वह अच्छी होती है... बस..’
’नहीं... क्योंकि उसमें तुम खुद का अंश देख लेते हो.. उसके रंग तुम्हारे जीए हुए रंग से मेल खा लेते है.. कभी तुम्हारी मन:स्थिति से... कुछ क्रूरता मेल खा जाती है.. और तुम्हें वह अच्छा लगता है। ऎसे ही कहानी भी... तुम खुद का एक अंश उन संवादों में महसूस करते हो...।’
’तो...?’
’तो कुल मिलाकर हम हर जगह खुद को ही तलाश रहे होते है... और जब-जब हमें अपना अंश इस संसार में दिखता हैं.. हमें जीने में एक sence मिलता है। इस हिसाब से तो तुम्हें यह बहुत अच्छी कहानी लगनी चाहिए... हे ना..’
’यह सब बहुत पर्सनल है...।’
’मैं जानता हूँ... लेकिन यह तुम्हारी बात नहीं है...।’
’मैंने यह सारे संवाद आपसे किये थे... कि मैं कमज़ोर हूँ.. मुझे लगता है कि मैं बदला ले रहा हूँ....’
’मैंने कहा ना यह fiction है...’
’और मैंने राही को बस चूमा था.. उससे ज़्यादा...’
’इसी बाद का तो तुम्हें दुख है कि तुमने उसे सिर्फ चूमा था... और यहाँ तुम बहुत आगे बढ़ गए हो...।’
’नहीं....’
’तुम यह बात मानों या ना मानों.. पर यही सही है...’
’यह झूठ है.. यह झूठ है..यह......’
अली अपने गुससे पर काबू नहीं रख पाता... और वह कमल की तरफ बढ़ता है.. पर रुक जाता है। वापिस आकर अपनी कुर्सी पर बैठ जाता है। कुछ देर चुप्पी बनी रहती है.. फिर अली कहता है...
’sorry…..’
‘तुम्हें पता है तुमने पूछा था कि मैं किससे मिलने जाता हूँ..? तब मैंने कहा था कि मैं अपने दोस्त से मिलने जाता हूँ.... तुम्हें पता है असल में मैं किससे मिलने जाता था...?’
’किससे...?’
’अपनी बीवी से...’
’अयुश जानता है यह बात...?’
’ना.... हम दोनों पार्क में, कॉफी शॉप में मिलते हैं...। अजीब है मैं उससे बस एक बार मिलना चाहता था कि माफी मांग सकूं... उन बहुत छोटी चीज़ों की जो वह मुझसे चाहती थी और मैं उसे दे नहीं पाया...। पर मिलना इतना सुंदर लगा कि... हम मिलते रहे...। मैंने अभी तक उससे माफी नहीं मांगी है..।
’आप यह सब मुझे क्यों बता रहे हैं?’
’पता नहीं... मैं इसके अलावा एक और आदमी से भी मिलने जाता था..।’
’किससे....?’
’नरेन्द्र से.....’
’क्या?’
’हाँ... मुझॆ उसका पक्ष भी जानना था...’
’अरे ... आप....’
’वैसे.. नरेन्द्र अच्छा लड़का है...।’
’हाँ मैं जानता हूँ....।’
’तुमने मेरी एक कहानी राही को यह कहकर सुनाई थी कि वह तुमने लिखी है...?’
’आपको कैसे पता यह बात.. यह तो बहुत पुरानी बात है.. और मैंने राही को बता भी दिया था बाद में कि वह आपने लिखी है।’
’यह नहीं पता था मुझॆ...’
’पर यह बात राही के अलावा और किसी को नहीं पता थी....।’
’नरेन्द्र ने मुझे बताया....।’
’क्या आप राही से भी मिले हैं...?’
’नहीं उसे सिर्फ दूर से देखा है.. सुंदर है वह...।’
’आप कब से यह कर रहे हैं...?’
’मैं लेखक हूँ... जब से होश संभाला है तब से लिख रहा हूँ...।’
’आपको नहीं लगता कि आपने सबको इस्तेमाल किया है?’
’हम सब एक दूसरे का इस्तेमाल करते हैं.. इस बात को हम चाहे माने या न माने...।’
’नहीं..... ऎसा नहीं है..।’
’क्यों तुमने राही का use नहीं किया अपने लिए... तुमने नरेन्द्र का इस्तेमाल किया...।’
’वह गलती थी मेरी...।’
’अगर दौबारा मौक़ा मिलेगा तुम वह ग़लती दौबारा दौहराओगे..।’
’नहीं.. कभी नहीं...।’
कमल वहाँ से उठकर चले जाते हैं....। अली भीतर सी आती कुछ आवज़े सुनता है चीज़ो के उठाने रखने की...। वह खिड़्की से आती रोशनी में फिर उन पन्नों को लाता है और पढ़ना शुरु करता है।

मुझे इस वक़्त अजीब सी घबराहट हो रही है। मुझे इन पात्रों से संवाद ठीक नहीं लग रहे हैं। हाँ इन पात्र से मेरे संवाद.... । जब-जब बीच में मैं लिखना बंद करता हूँ... पात्र मुझसे .. या आपस में बात करने लगते हैं..। मैं उनको मेरी बुराई करते सुन सकता हूँ। हम जब भी उनके चरित्र के खिलाफ एक भी वाक्य लिखते हैं वह पात्र हमें माफ नहीं करते...। कमल मुझसे नाराज़ है.... वह अपनी बीबी से नहीं मिलना चाह रहा था...। हाँ उसकी अपने चरित्र को लेकर अपनी आज़ादी है... पर मुझे कमल से उसकी आज़ादी छींननी पड़ी... इसलिए कमल खफ़ा है..। अगर कमल मुझे एक मोची के रुप में दिखता .. बस कंड़क्टर के रुप में.. तो शायद वह इस बात पर नाराज़ नहीं होता.. पर तब उसकी दूसरी समस्या होती...। पात्रों से बहस कई बार कहानी रोक देती है.. अगर मैं कहानी लिख रहा होता तो !!! यहाँ कमल और मेरी बहस में कहानी रुक गई होती... पर यह कहानी नहीं हैं..। मैं कहानी नहीं लिख रहा हूँ.. इस बात में आज़ादी है.. मैं यह बात यहीं खत्म कर सकता हूँ और कह सकता हूँ कि बस... यह यहीं तक है..। आप कहेंगे यह तो अधूरी है... इसे पूरा तो कीजिए...!!! मुझे अपने जीवन में सारी अधूरी छूटी हुई चीज़े याद है.. पूरी तरह.... बहुत से संबंध.. किस्से.. बातें... जो बीच में ही कहीं छूट गए थे... एक टीस की तरह.. जो टीस हमेशा याद रहती है। कहानी नहीं लिख रहा हूँ इस बात की सबसे बड़ी आज़ादी यही है कि... मैं कभी भी इसे किसी भी टीस पर खत्म कर सकता हूँ.....।

अली, राही से मिलने उसके घर पर गया है। राही उसे अपने कमरे में बुलाती है...। अली, राही से और नरेन्द्र से बहुत दिनों से नहीं मिला है....।
’तुम आखरी बार नरेन्द्र से कब मिले थे?’ राही ने पूछा
’क्यों? सब ठीक है...?’ अली थोड़ा डर गया..
’तुम बताओ.. कब मिले थे...?’
’उसी दिन.... जब वह अंडे और शक्कर लेकर आया था।’
’उसके बाद क्यों नहीं मिले तुम?’
’पता नहीं... वह व्यस्त था.. मैंने एक दो बार फोन किया... पर उसने मेरा फोन नहीं उठाया.. वापिस फोन भी नहीं किया तो नहीं मिले...।’
’तुम मुझसे भी नहीं मिले...।’
’हाँ.. तुमसे जान बूझकर नहीं मिला.... मैं तुमसे नहीं मिलना चाहता था...।’
राही इस बात पर अली के सामने से उठ गई...। बहुत से धुले हुए कपड़े पलंग पर पड़े थे.... वह उन्हें घड़ी करने लगी...। सलीके से.. धीरे-धीरे.. तह करके वह सारे कपड़ों को रखने लगी...।
’बस यही पूछने के लिए तुमने मुझे बुलाया था?’ अली ने पूछा...
’नहीं...’
’तो क्या बात है बोलो?’
’मैं चाहती हूँ तुम जाकर नरेन्द्र से मिल लो...।’
’नहीं मैं नहीं मिलूगां।’
राही ने कपड़े तह करना बंद कर दिया...। वह अली की तरफ देखने लगी...
’मेरी ख़ातिर... एक बार...।’
’ठीक है...। मैं कल मिल लूंगा उससे...।’
’नहीं कल नहीं.. आज रात... वह बहुत पीने लगा है...। तुम्हारा उससे मिलना बहुत ज़रुरी है...।’
’ठीक है..।’
’उसे फोन मत करना.. वह तुम्हारा फोन नहीं उठाएगा...। सीधे रात उसके घर चले जाना...।’
’ठीक है...।’
अली वहाँ से चला जाता है...। वह अपने कमरे में नहीं जाता... उसे लगता है कि अगर वह अपने कमरे में गया तो नरेन्द्र से नहीं मिलने के कारण ढूढ़ लेगा.. सो वह एक कॉफी हाऊस में जाकर बैठ जाता है। तभी एक बुज़ुर्ग से व्यक्ति उसके सामने आकर बैठ जते हैं.. वह उसे अपना नाम कमल बताते हैं।
’जी ....?’ अली पूछता है..
’मैंने कहा मेरा नाम कमल है...।’ कमल जवाब देते हैं...
अली चुप रहता है.. वह अपना नाम नहीं बताता...। कमल एक काग़ज़ और पेन बाहर निकाल लेते हैं.. और अली का स्केच सा बनाने लगते हैं..।
’अरे! आप यह क्या कर रहे हैं...?’
’जिस तरीक़े से तुम काफी देर से यहाँ बैठे हो... मुझे वह तरीक़ा बहुत अच्छा लग रहा है। मैं भूल न जाऊं उससे पहले स्केच कर लेना चाहता हूँ।’
’अरे!.. पर...’
’अगर आपको दिक्कत है तो....’
’नहीं पर आप यह...’
’मैं एक लेखक हूँ.. और जिस तरह आप बैठें है.. बुरा मत मनियेगा.. जिस पीड़ा से आप बैठे है और कॉफी पे कॉफी पीये जा रहे हैं.. मुझे आपमें एक कहानी दिख रही है...।’
’कहानी...?’
’मैं कतई कहानी नहीं लिखना चाहता हूँ.. मुझे कहानिया बोर करती है.. मैं बस तुम्हारा इस पीड़ा से बैठा लिखना चाहता हूँ...।’
’मुझे कोई इच्छा नहीं यह जानने की कि आप क्या और क्यों लिखना चाहते हैं... मैं अकेले बैठना चाहता हूँ।’
’इसलिए तो मैं आपकी तरफ आकर्षित हुआ...। मुझे पता है आप आकेले बैठना चाहते हैं... बस मैं कुछ देर में चला जाऊंगा..।’
अली की कुछ समझ में नहीं आता कि वह क्या करे...। वह वापिस अपनी कॉफी पीने लगता है। कमल उसका स्केच बनाने लगते हैं। कुछ देर में वह अपना कागज़ और पेन वापिस जेब में डाल लेते हैं... पर वहाँ से उठते नहीं है...। कमल अली की तरफ देखकर मुस्कुराते हैं... पर अली उनकी तरफ नहीं देखता...
’इस उम्र में ही इतनी गहरी समस्या होती है। मेरी उम्र में आते-आते या तो सब सुलझ जाता है या समस्याएं असर करना बंद कर देती है।’
अली चुप रहता है।
’शायद मैं आज रात में ही आपकी कहानी लिख दूं..... सच में मैंने बहुत समय से कुछ भी नहीं लिखा है। आपको देखकर लगता है कि मैं आज रात मे ही यह कहानी लिख दूंगा...। क्योंकि कल मैं यह शहर छोड़कर जा रहा हूँ... बहुत समय से सोच रहा था पर अब... मैंने मन बना लिया है.. सारा सामन भी बांध लिया है...।’
अली चुप रहता है....। कमल वापिस अपनी जेब से कागज़ और पेन निकालते हैं.. और अपने घर का पता लिखते हैं...।
’देखिए..मुझे पता है आपको कोई इन्टरेस्ट नहीं है... पर अगर आपको अपनी कहानी सुननी है तो आपको मेरे घर सुबह छ: बजे के पहले आना पड़ेगा... वरना मैं निकल जाऊंगा...। यह रहा मेरा पता...।’
अली वह कागज़ नहीं लेता....। कमल उसकी टेबल के पास वह कागज़ रख देते हैं। और अपना पेन वापिस शर्ट की जेब में फसाते हैं और चल देते है। कुछ देर अली उस कागज़ को देखता है फिर उसे बिना वजह अपनी जेब में डाल लेता है...। वह एक कॉफी और पीता है... फिर नरेन्द्र के घर की और चल देता है....।
अली नरेन्द्र के दरवाज़े पर खड़ा है... एक गहरी सांस लेकर वह दरवाज़ा खटखटाता है...। पर वहा से कोई आहट नहीं सुनाई देती.. वह फिर खटखटाता है... फिर चुप्पी...। वह थोड़ा सा दरवाज़ा धकेलता है... वह खुल जाता है...। वह आवाज़ लगाता है..
’नरेन्द्र... नरेन्द्र....’
’हा.. अली...’
कमरे में अंधेरा है...।
’मैं दरवाज़ा खटखटा रहा था...पर..’
अली चुप हो जाता है.. उसे अपना बोलना व्यर्थ लगने लगता है। पूरा कमरा सस्ती दारु से महक रहा था....। वह टटोलते हुए लाईट जलाने की कोशिश करता है.. तभी नरेन्द्र की आवाज़ आती है..
’लाईट बंद रहने दो... लाईट चालू मत करो....।’
अली हाथ वापिस खींच लेता है....। धीरे-धीरे... वह नरेन्द्र की तरफ बढ़ता है...। पूरे कमरे में अधेरा है.. सिर्फ खिड़की से रोशनी आ रही है..। नरेन्द्र खिड़की के पास बैठा है...। अली नरेन्द्र के सामने बैठ जाता है।
’दारु पियेगा..?’ नरेन्द्र पूछता है..
’नहीं.... नहीं’
’पी ले...’
’नहीं.. मैं पानी पीयुंगा....’
और अली मटके की तरफ बढ़ता है...।
’यहाँ पानी नहें है.... तो यहाँ क्यों आया है?’
अली बात कहा से शुरु करे..? पुरानी दोस्ती से...? अभी की समस्या से..? या सीधे राही की बात पर आ जाए? अली खामोश है और नरेन्द्र अली के लिए एक ड्रिंक बनाता है।
अली और कमल... कमल के घर रात...
कमल ने कहानी यहीं तक लिखी थी। अली अधूरेपन की टीस महसूस करता है। कमल भीतर से निकलकर बाहर आते हैं...।
’तो पढ़ ली..?’ कमल ने पूछा..
’हाँ.... पर नरेन्द्र से क्या बात हुई...।’
’वहीं पर तो मामला रुका हुआ है...।’
’क्या आप सच में कल सुबह जा रहे हैं।’
’तुम कहानी को और रियेलिटी को मिक्स कर रहे हो!!!’
’आप जा रहे हैं...।’
’मुझे आज कैसे भी यह कहानी पूरी करना है। तो बताओ क्या बात होनी चाहिए नरेन्द्र और तुम्हारे बीच...?’
’यह आप मुझसे क्यों पूछ रहे हैं? आप तो उससे मिले हैं ना... अब लिखिए।’
’यही तो गलती कर दी मैंने... जब आपको एक पक्ष की बात ज़्यादा ठीक से पता हो तो.. आप चीज़े आसानी से लिख लेते हो..। देखों दुनिया में लोगों ने एक पक्ष पर लिख लिखकर किताबें भर दी है।’
’मुझे लगता है दोनों बैठकर पीते हैं और बस.. दोस्ती वापिस शुरु हो जाती है.. उस बारे में कोई बात नहीं करता..।’
’हम्म.. यह हो सकता है.. पर मैं कुछ और देख रहा हूँ...। मैं कभी तुम्हें रोता हुआ देखता हूँ तो कभी नरेन्र्आ को.. पर फैसला नहीं कर पा रहा हूँ कि किसको रुलाऊं...।’
’अब मेरी इच्छा है इसका अंत जानने की... और तब मैं आपसे बात करुंगा...।’
’तो ठीक है.. अंत जानना है तो कल सुबह.. छ: बजे के पहले...।’
और कमल यह कहकर हसने लगते हैं। कुछ देर में अली वहाँ से चला जाता है। कमल कहानी के पन्नों को लेकर अपनी डेस्क पर चले जाते हैं।

बात कितनी सीधी हुई है अब तक...। आपको भी चीज़े साफ-साफ दिखने लगी और मुझे भी...। इसके बाद इसके कई अंत हो सकते हैं। जैसे Woyzeck नाटक जो Georg Buchner पूरा नहीं लिख पाए थे। अंत खुला था... जो चाहे जैसा अंत वैसा लिख ले.. वह नाटक सबसे ज़्यादा खेले गए नाटको में से एक है। जैसे कहानी नहीं लिखने में एक आज़ादी है वैसे ही अधूरेपन में भी आज़ादी है... हर आदमी खुद अपना हिस्सा उसमें मिला सकता है और उसे पूरा कर सकता है।
यह बात शायद उस हिस्से की है जो मैं शुरुआत में लिख चुके था....। मुझे एक लड़का भागता हुआ दिखा.. और बात वहाँ से यहाँ तक पहुंच गई...। और अब हम वापिस वहीं पहुंच गए.....

सुबह बहुत सामान्य थी जब तक उसकी निग़ाह घड़ी पर नहीं गई... उसके मुँह से आह! निकली.. और वह भागा........
वह भाग रहा था... जूतों के लेस खुल चुके थे... पर उसे गिरने का कोई डर नहीं था। वह बीच में धीमा हुआ... सिर्फ कुछ सांस बटोरने के लिए... एक ..दो... तीन... वह फिर भागने लगा। कहीं वह चले ना गए हो? यह बात उसके दिमाग़ में धूम रही थी। उसे उनके चहरे की झुर्रीयाँ दिख रही थी.... वह उसी को देख रहे थे... अचानक वह उनके चहरे की झुर्रीयाँ गिनने लगा। उसने अपने सिर को एक झटका दिया और सब ग़ायब हो गया... मानों सब कुछ ड्स्ट बिन में चला गया हो। दिमाग़ में एक ड्स्ट बिन होता है जिसे आप सिर के एक झटके से भर सकते हैं... पर अगर ड्स्ट बिन भर गया तो उसे कैसे झटका देते हैं?... दिमाग़ के ड्स्ट बिन को कहाँ ख़ाली करते हैं? उसने फिर दिमाग़ को एक झटका दिया... और भागता रहा....
वह दरवाज़े के सामने काफी देर से खड़ा था...। उसका माथा दरवाज़े से सटा हुआ था। वह बीच में एक गहरी सांस छोड़ते हुए अपना माथा धीरे से दरवाज़े पर पटकता और एक ठ्क की आवाज़ आती। उसने अपना दाहिना हाथ घंटी पर रख रखा था। उसके दो माथे की ठ्क के बीच में घंटी की आवाज़ सुनाई दे जाती...यह एक तरह की रिद्यम में यह चलने लगा था, पर बहुत ही धीरे, इतना धीरे कि अगली ठ्क की आवाज़ शायद ना आए...। उसकी आँखें दरवाज़े पर लगे ताले पर थी... काला पड़ चुका ताला...। घंटी की आवाज़ और ठ्क के बीच अचानक एक वाक़्य भी बजने लगा था... “मैं सुबह चला जाऊगाँ...।“ कुछ देर में वह बैठ गया... सोचा स्टेशन जाऊगाँ पर कोई फायदा नहीं है। वह कहाँ से जाएगें इसका कोई पता नहीं था... या शायद वह गए भी नहीं हो.. वह अभी भी यहीं हो आस पास ही कहीं। छुपकर उसका इस तरह पछताना देख रहे हों। वह खड़ा रहा। उसने दरवाज़े पर एक लात मारी और सीड़ीयों से नीचे उतर गया। अचानक वह पलटा और उसने जिस जगह लात मारी थी वहाँ हाथ से दरवाज़ा पोछ दिया... कहीं वह सच में छुपकर देख रहे हो तो?

यह अंत लिखते ही मुझे लगा इस कहानी का नाम... ’टीस...’ होना चाहिए.. क्या कहते हैं आप????


Friday, September 9, 2011

secret island....



कल कुछ कोरियन आर्टिस्ट के साथ बैठा था। मेरा एक सवाल जिसपर कुछ बातचीत शुरु हुई थी वह था ’why we create? Or why we write?’ मेरे ज़हन में यह सवाल बहुत समय से चल रहा है कि मैं लिखता क्यों हूँ। मेरे पास इसके बहुत ही छिछले और रटेरटाए जवाब थे....। कुछ देर खामोशी छाई रही.... हम कुछ चार लोग बैठे थे.. janghae (composer), sook (painter), soo-hyeon (children novelist- red pencil)| खमोशी दो कारणों से थी पहला तो सवाल थोड़ा सीधा था.. और दूसरा उनका अंग्रेज़ी में हाथ तंग होना..। soo-hyeon ने पहले जवाब दिया कि ’उसे लगता है कि हम सबके भीतर एक टापू है... secrete island. उसकी अपनी सुंदर दुनिया है... हम जब भी उस टापू के बारे में बात करने लगते हैं तो कहानिया निकलती है.. उस कहानी को मैं लिखना पसंद करती हूँ... बनिसपत किसी से कहना।’ फिर अचानक बात उस खाली जगह के बारे में होने लगी जिसमें हम जब भी कुछ रखते हैं वह multiply होने लगता है... जैसे एक घांस का टुकड़ा अगर वहाँ छोड़ दिया जाए तो वह कुछ देर में जंगल का रुप ले लेता है.. और हम जंगल की एक कहानी लिख देते है... उसमें संगीत ढ़ूढ़ लेते हैं.. नहीं तो उसे paint कर लेते हैं।
मैंने sook की पेंटिग्स देखीं थीं। वह हर emotions के particles पेंट करती है... मतलब उन्होंने जो अपनी टूटी फूटी अंग्रेज़ी में जो बताया और जितना मैं समझ पाया। इस सारी बातचीत में janghae बहुत गंभीर बनी रही। जबकि वह एक बहुत उर्जा वाली महिला हैं। कुछ देर में वह कोरियन में बातचीत करने लगे और मुझे समय-समय पर sorry बोलते रहे... मैं janghae के बारे में सोचने लगा।
Janghae 48 साल की थीं पर उतनी उम्र की लगती नहीं थी... वह Switzerland में रहती हैं पिछले बीस सालों से... अकेले। मेरी उनसे दोस्ती बहुत जल्द हो गई थी..। क्योंकि वह ही थीं जो सबसे सही अंग्रेज़ी बोल लेती थी... और बहुत ही उत्साही थीं.... हम दोनों बहुत से पहाड़-जंगल साथ भटके थे। इस बीच मुझसे एक ग़लती हो गई... एक दिन जब हम घूमने गए थे.. मैंने मस्ती में उनसे कह दिया कि मैं हाथ पढ़ सकता हूँ...मुझे नहीं पता था कि यहाँ fortune telling एक बिज़नस है... लोगों का गहरा विश्वास है उसपर...। मेरा मज़ाक मुझपर ही भारी पड़ गया... janghae ने अपना हाथ आगे बढ़ाया और बहुत संजीदगी से मुझे देखने लगी। मुझे कुछ भी नहीं आता था.. पर मैंने अपने दोस्तो को बहुत ही संजीदगी से यह सब करते हुए देखा था सो मैं उन्हें कुछ सतही चीज़े बताने लगा... पर मेरी हर बात को वह कुछ इस तरह भीतर जज़्ब कर रहीं थी मानों वह पूर्ण सत्य हो...। सो मुझे लगा कि कुछ अच्छी बात कर लेनी चाहिए... मैंने उन्हें बताया कि आपकी luck line बहुत बढ़िया है.... आप बहुत lucky हैं.. वह चुप रहीं... मैंने कहा कि आपका जल्दी विश्वास नहीं करती लोगों पर... ऎसा उनसे बात करते हुए मुझे पता चला था। मैंने कहा आपके पास जल्दी ही बहुत काम आने वाला है.... क्योंकि वह इस बात को लेकर बहुत परेशान थी कि उनके पास आजकल कोई काम नहीं है...। वह मेरी एक बात पर बहुत मायूस हो गईं कि उनकी luck line बहुत अच्छी है.. वह कहने लगी कि ’मैं बिल्कुल भी lucky नहीं हूँ... मैंने बहुत संघर्ष किया है.. अब इस उम्र में मैं अकेली हूँ.. कोई आगे-पीछे नहीं है.. अपना कोई घर भी नहीं.... बहुत ज़्यादा महत करती हूँ तो एक कमिश्न मिल जाता है संगीत बनाने का.... हर महीने अपना किराया देने के लिए उठा-पटक करनी पड़ती है....” मैं स्तब्ध रह गया। मैंने उनसे कहा कि मैं एक fraud palm reader हूँ... पर वह अपनी गंभीरता पर बने रही,,,। उन्होंने कहा कि ’एक अर्टिस्ट का retirement कितना दुखद होता है... वह retire होना चाहे तो कहाँ जाए????’ मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था..। हम उसके बाद चुप रहे...।
अचानक अगली sorry पर सब लोग मुझसे मुखातिफ हुए....। मैं Janghae के बारे में सोच रहा था सो मेरे मुँह से एक प्रश्न और निकला कि ’हम अपने अकेलेपन का क्या करें जब वह हमें नहीं चाहिए होता है?’ मैंने कुछ समझाते हुए कहा कि यहाँ toji में सारे युवा कलाकार हैं... सभी अपने-अपने अकेलेपन में रहते हैं.. उन्हें इसकी सुंदर जगह दी गई है कि वह अपना काम पूरी तल्लीनता के साथ करें.... इस तरह का अकेलापन उम्र के साथ-साथ किसी भी कलाकार के जीवन में बढ़ता रहता है। वह जब अपना लिखा खत्म करके अपनी डेस्क से उठता है तो उसे आस-पास कोई भी दिखाई नहीं देता.. वह एक ऎसी अवस्था में पहुच जाता है जिसमें या तो वह सृजन करे अथवा अकेलेपन के जंगल में भटकता रहे। मेरी बात Janghae समझ गई थीं... वह कुछ कहने के लिए आगे आई पर उनके मुँह से कोई शब्द नहीं निकला...। उन्होंने मुझसे कहा कि ’जैसे बिना भूखा रहे भूख लिखना झूठ है ठीक वैसे ही उस अकेलेपन में घुसे बिना उसकी बात करना भी.... ।’ सभी उन्हें देखते रहे... वह थोड़ा सहम गई... फिर बिना कुछ कहे उठकर अपने कमरे में चली गई।
कुछ देर में हम सब अपने-अपने कमरों में अकेले थे...। मैं उनकी बात बहुत अच्छी तरह समझता था.. मेरे पास भी इसके कोई जवाब नहीं थे.. पर हम दोष किसे दें... उस उम्र को जिसमें हमने कलाकार बनना चुना था? या उस आदमी को जो कभी हमारे जीवन में नहीं आया जो आकर हमारी कलम हमारे हाथ से लेकर तोड़ देता?
’तुम अभी नहीं समझोगे... बाद में पचताओगे !!!’ वाली बातें मैं बहुत सालों से सुनता आया हूँ। मैने उस ’बाद...’ का भी कई बार इंतज़ार किया है जो कभी आएगा और मैं पश्चाताप करना शुरु कर दूंगा... पर फिल्हाल वह कभी दिखा नहीं....। हाँ पर.. मुझे दुख ज़रुर होता है.... जब मैं उन लोगों से मिलता हूँ... या कभी-कभी जब मैं खुद को ऎसी स्थिति में पाता हूँ... जब हमारा खालीपन एक तरह की अनंत स्पेस हमारे सामने खोल देता है और लगता है कि इससे कोई छुटकारा नहीं है...। उस वक़्त अगल बगल मेंकोई भी खड़ा नहीं दिखता..... इस अकेलेपन और खालीपन से खुद ही निपटना पड़ता है।
मैंने soo-hyeon से यह सवाल पूछा था कि ’वह अपने अकेलेपन को कैसे handle करती हैं?’ तो उसने कहा था कि... ’उसके सबसे अच्छे दोस्त वह पात्र हैं जिन्हें वह लिख रही होती है.. वह उनके साथ रहती है... उनसे बातें करती है.. उनका बहुत ख्याल रखती है...। उसे अपने secret island में घूमना बहुत अच्छा लगता है।’
मुझे उसकी बात बहुत अच्छी लगी...। हमारे अकेलेपन का मुआवज़ा क्या है? शायद वह सारे पात्र...जिन्हें हमने किसी बीहड़ में.. या घने जंगल में कहीं हमारे साथ लुका-छुपी खेलते हुए देखा था और वह उस दिन के बाद से हमारे साथ हो लिए...।

माँ.....


मेरा नाम कोंपल है। बहुत समय तक मुझे इसके मानी नहीं पता थे। एक दिन मेरी माँ मुझे एक पेड़ के पास ले गई... और उसमें अभी-अभी आए नए कोमल पत्तों को छूने को कहा। बहुत छोटे-छोटे, हरे रंग में बहुत सा पीला रंग लिए वह अत्यधिक कोमल पत्ते कोंपल कहलाते हैं....। मैंने उससे कोमल चीज़ आज तक नहीं छुई थी। माँ ने कहा कि यह तू है। मैंने कहा यह तो बहुत कमज़ोर लगते हैं... उन्होंने कहा कि यह कमज़ोर नहीं है..कोमल है.. जो तू है। मैंने उन कोपलों को छूते हुए माँ से कहा था कि अगर यह कोमल से पत्ते मैं हूँ तो यह पेड़ आप हैं। मैं इस बात को बहुत पहले भूल चुका था।
कल गांव से सोनी जी का फोन आया था कि ‘तुम्हारी माँ कल रात अचानक चल बसी हैं। कल अंतिम क्रियाकरम करना पड़ेगा... तुम तुरंत पहुंच जाओ।’ मैं अपने ऑफिस में बहुत बुरी तरह व्यस्त था... बहुत से काम मुझे निपटाने थे। मैंने सोनी जी के फोन को ’ठीक है’ कहकर रख दिया। बहुत देर तक मैं अपने ऑफिस के काम में उलझा रहा..। तभी काम करते-करते मुझे कुछ खाली-खाली सा लगने लगा... मैं बहुत देर तक अपनी डेस्क को देखता रहा.. फिर कुछ चीज़ें ढ़ूढ़ना शुरु कर दिया। मेरे दोस्त ने मुझे देखा और पूछा ’क्या खोज रहा हूँ?’ मैंने अपने कंधे उचका दिये..और फिर खोजने में जुट गया..। अचानक मुझॆ पसीना आने लगा... असामान्य तरीक़े से..बहुत पसीना....मैंने अपने एक दोस्त से पूछा कि देख मुझे कहीं बुखार तो नहीं है? उसने मेरा माथा छुआ और कहा ’नहीं...” मैंने उससे कहा कि यार मेरी माँ नहीं रही और तब उसकी आँखों में मैंने वह देखा... जिसे मैं खोज रहा था..। फिर मुझसे खड़े रहते नहीं बना... मैं बैठना चाहता था.. लेटना चाहता था.. मैं बहुत सारे तकिये चाहता था.. रजाईयाँ... जिसमें गुत्थम-गुत्था होकर मैं सो जाऊं.. छिप जाऊं.. मैं माँ की कोख़ जैसी सुरक्षा ढूंढ़ रहा था.......।
कुछ देर में मैंने ऑफिस से अपना सामान उठाया और सीधा अपने घर आ गया।
मैं सुबह चार बजे से उठा हुआ हूँ। सुबह कितनी धीमी गति से होती है इसका अंदाज़ा मुझे आज तक नहीं चला...। मैं नहा चुका था.. शेव कर चुका था.. पूरा सामान बांध चुका था पर सुबह होने का नाम ही नहीं ले रही थी। अपनी रेक पर रखी किताबों में मेरी निग़ाह गोर्की की मदर पर पड़ी...। अपनी बहुत जवानी के दिनों में मैंने वह किताब पढ़ी थी.... किताब खत्म करते ही मेरे भीतर एक बहुत ही रिरयाती हुई इच्छा जागी कि काश मेरी माँ भी पलाग्या निलोवना की तरह महान माँ होती। मैंने कई दिनों तक अपनी माँ से ठीक से बात नहीं की थी... मुझे लगा था कि उन्होंने मुझे धोखा दिया है... उन्हें महान होना चाहिए था... वह हो सकती थी... फिर क्यों नहीं हुई? आज लगता है कि पेलाग्या निलोवना से कहीं महान वह माँए है जो बिना किसी ’आह’ के एक घर में काम करते हुए पूरी ज़िदगी गुज़ार देती हैं। उनकी कोई कहानियाँ हमने नहीं पढ़ी.. उन्हें किसी ने कहीं भी दर्ज़ नहीं किया। वह अपने पति के जर-जर होने और बच्चों से आती ख़बरों के बीच कहीं अदृश्य सी बूढ़ी होती रहीं... यह हमारी माँए है जिनका ज़िक्र कहीं नहीं है।

मेरी माँ पढ़ी लिखी थी… हमेशा से लिखना चाहती थी। मैं लिखने पढ़ने से कतराता था। माँ ज़बर्दस्ति कुछ किताबें मेरे सिरहाने रख दिया करती थी... जिन्हें मैं महज़ नींद आने के लिए पढ़ता था। नींद में आधी पढ़ी हुई कहानी अपने बहुत ही अलग विरले अंत खोजने लगती। मेरे सपने उन कहानीयों के अंत की कल्पना बन जाते। सुबह माँ को कहानी के बारे में बताता तो आधी कहानी सही होती और आधी मेरे सपने की बात होती। माँ को हमेशा से लगता था कि मैं पढ़ने से बचने के लिए मनगढ़ंत कहानी बनाता हूँ, पर उन्होंने यह बात कभी मुझसे नहीं कही।
मैंने लिखना शुरुकर दिया... उन कहानियों के काल्पनिक अंत को जिसकी आदत माँ को लग गई थी.। फिर धीरे-धीरे वह पढ़ी हुई कहानिया छूट गईं.. और मैं पूरी एक कहानी की काल्पना करने लगा..। माँ हमेशा मेरे लिखने से खुश रहती...।
मैंने घड़ी देखी छ: बज चुके थे... मैंने अपना सामान उठाया और एयरपोर्ट के लिए रिक्षा पकड़ लिया। बारिश बहुत हो रही थी सुबह का समय था मैं अपने समय से बहुत पहले ही एयरपोर्ट पहुंच गया। एक कॉफी लिए मैं एक कोने में जाकर बैठ गया। एक बहुत बूढ़ी औरत दिखी...जो कुछ ढूंढ़ रही थी। मैं बहुत देर तक सोचता रहा कि मैं उठकर उसकी मदद करुं पर मैं उठा नहीं... एक औरत उसके पास गई.. उस औरत ने उसे इशारे से बताया कि बाथरुम वहाँ है। वह बूढ़ी औरत जब धीरे-धीरे चलती हुई बाथरुम की तरफ जा रही थी तो मुझे अपनी माँ दिखीं... नहीं वह कभी भी इतने बूढ़ी नहीं थी.. पर वह दिखीं। मैंने अपनी कॉफी छोड़ी और उस बूढ़ी औरत की तरफ लपका..। मैं जैसे ही उनके पास पहुंचा वह मुझे देखकर मुस्कुराने लगी... मैंने उनसे कहा... ’माँ... ’ वह बूढ़ी औरत रुक गई और मुझे आश्चर्य से देखने लगी। मैं फिर ठंड़ा पड़ चुका था.. चुप...। वह बूढ़ी औरत कुछ डर गई...। जल्दी से मुड़ी और बाथरुम की तरफ जाने लगी... कुछ देर मैंने उन्हें जाते हुए देखा... और मैं फिर उनके पीछे हो लिया..। ठीक बाथरुम के पास मैंने उन्हें रोक लिया... ’माँ...।’ वह बूढ़ी औरत कांप रही थी.. बहुत डर चुकी थी..। अचानक वह मुझे डांटने लगी.. मुझे पागल कहकर संबोधित करने लगी.... कुछ लोग हमारे पास आ गए...। मुझसे कुछ भी कहते नहीं बना.. मैं वहीं ठंडा खड़ा रहा...। बहुत से लोगों ने मुझे धक्का देखर वहाँ से अलग कर दिया। मैं उस बूढ़ी औरत से क्या कहना चाहता था...? मुझे नहीं पता.. मैं शायद माँ से संवाद चाहता था जो बहुत पहले बंद हो चुके थे।
माँ पिताजी के बारे में ऎसे बात करती थी मानो वह कोई सैनिक हो जिसका काम उनपर पहरा देना हो। पिताजी जब तक जीवित थे उन्होंने माँ पर पहरा दिया। शादी के बाद पिताजी हमेशा घर में ताला लगाकर जाते थे। माँ लिखना चाहती थी इसलिए घर में पिताजी को जहाँ कहीं भी पेन दिखता वह तोड़ देते। तभी मैं पैदा हुआ और माँ ने पहली बार कोमलता देखी और उन्होंने मेरा नाम कोंपल रख दिया। मुझे हमेशा से लगता रहा है कि माँ के दो जीवन हैं... एक पिताजी से पहले और एक पिताजी के बाद...। पिताजी से पहले का जीवन माँ हमेशा भूल जाना चाहती थी इसलिए वह उन्हें सबसे ज़्यादा याद रहता था। पिताजी के बाद का जीवन वह अभी तक जी रही थीं।
हवाईजहाज़ में बैठते ही मुझे पहली बार अपने वह दिन याद आ गए जब मैं अपने घर की खिड़की से कभी-कभी कोई हवाईजहाज़ देख लेता था... माँ इसे अच्छा शगुन मानती थी। वह तुरंत मुझे एक रुपये का नोट देती और कहती कि जा जाकर पेड़े ले आ, आज रात प्रसाद में पेड़े खाएगें। हम बहुत पेड़े नहीं खा पाते थे... शायद हवाई जहाज़ के लिए पेड़े भी इसलिए थे कि वह बहुत कम ही हमारे गांव से गुज़रते थे... अगर ज़्यादा गुज़रते तो हम पेड़े से बताशे पर उतर आते इसका मुझे पूरा यक़ीन था। मेरे बड़े होते-होते हमारे गांव से कभी-कभी एक दिन में दो हवाई जहाज़ गुज़र जाते ... दूसरे हवाई जहाज़ का ज़िक्र ना तो माँ मुझसे करती और ना मैं माँ से...। दूसरे हवाई जहाज़ पर हम दोनों मौन हो जाते.. और खुद को इधर-उधर के कामों में व्यस्त कर लेते जैसे हम कुछ सुन ही नहीं पा रहे हो।
हम ज़मीन से बहुत ऊपर उड़ रहे थे। तभी मेरे सामने एयर होस्टेस ने खाना रखा... मैंने उसे धन्यवाद कहा...। मैंने सुबह से कुछ भी नहीं खाया था... बहुत भूख लगी थी...। मैंने जल्दी में खाना खाने की कोशिश की पर कुछ भी मेरे मुँह में नहीं गया। मेरे बगल में एक सज्जन बैठे थे जो बड़ी तल्लीनता के साथ खा रहे थे... वह मुझे खाता ना देखकर रुक गए। उन्हें लगा खाने में कुछ खराबी है...। मैंने उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया.. और खड़की के बाहर देखने लगा...। छोटे-छोटे कुछ गांव मुझे दिखाई दिये... मैं बहुत ध्यान से एक-एक घर को देख रहा था.. मुझे लगा शायद खिड़िकी में बैठा हुआ मैं खुद को दिख जाऊंगा...। मैं उन पेड़ों का स्वाद अपने मुँह में महसूस कर सकता था। मुझे अचानक सब कुछ धुंधला दिखने लगा... मेरी आँखों में पानी भर आया था...। मैं झेंप गया। बगल में बैठे सज्जन खाना खाते हुए मुझे देख रहे थे..। मैंने खाने में से टिशु उठाया और अपनी आँखे पोंछ ली...। किस बात पर मैं रो दिया था? मुझे समझ में नहीं आया... मैं कब आखरी बार रोया था? मुझे याद नहीं.... नहीं इसे रोना नहीं कहते... मैं रोया नहीं था.. बस किसी कमज़ोर क्षण में मेरी आँखें छलक गई थी और कुछ भी नहीं... नहीं मैं रो नहीं सकता हूँ।
मैंने अपनी कुर्सी पीछे की और अपनी आँखें बंद कर ली...।

कितने मासूम दिन थे वह। माँ मेन बोर्ड स्कूल से रोज़ शाम को लाल रंग की प्लास्टिक की टोकरी लेकर आती थी... मैं अकेला घर में उनका इंतज़ार किया करता था..। रोज़ उनकी लाल रंग की प्लास्टिक की टोकरी में कुछ चॉक के टुकड़े पड़े होते। वह दिन भर अकेले रहने के इनाम के तौर पर मुझे दे देती। चॉक के टुकड़े इनाम थे... मेरे अकेलेपन के...। एक भगवान का आला था जिसमें भगवान रहते, इस बात पर मैं उस वक़्त ऎसे विश्वास करता था जैसे इस बात पर कि समुद्र में इतना पानी होता है कि उसका दूसरा किनारा नहीं दिखता... मैं भगवान को भी चित्रों में देखा था और समुद्र को भी....। उस भगवान के आले में बिछे लाल कपड़े के नीचे माँ के हर महीने के साठ रुपये होते। हर महीने साठ रुपये का हमारा खेल था... कभी साठ रुपये पच्चीस तारीख़ को खत्म हो जाते तो कभी इक्कीस तरीख़ को ही दम तोड़ देते...। पर वह महीने जिनमें हम छब्बीस या सत्ताईस तारीख़ तक पहुंच जाते वह महिने स्वर्ग के महीने कहलाते..। मेरे बड़े होते-होते माँ की तनख़्वा एक सो सत्तर रुपये तक पहुंच गई थी... मैं इन दिनों कुछ पैसे भगवान के आले से चुराना भी सीख गया था। पैसे चुरा तो लेता पर उनका क्या करना है यह कभी सोचा नहीं था। चोरी किये हुए पैसे मेरी स्कूल की गणित की किताब में जमा होते गए... पर घबराहट इतनी ज़्यादा बढ़ती चली गई कि गणित में मैं फेल होता गया...। गणित की कापी जब भी खोलता उसमें चोरी के पैसे दिख जाते.. और मैं वहीं उसे उसी वक़्त बंद कर देता। फिर एक दिन मैं पंजाब नेशनल बैंक चला गया उन्हें जमा करने... पर मेरा सिर उस बैंक के काऊंटर तक ही पहुंचता था.. सो हाथ से इशारा करके मैंने एक औरत से कहा कि ’सुनिये मेरे पास पैसे हैं.. मुझे इसे बैंक में जमा करना है...। बड़े होने पर मैं आपसे ले लूंगा...।’ उस औरत ने मुझे पहचान लिया और पैसे समेत मेरी पेशी माँ के सामने करा दी... पर माँ ने उस औरत से कहा कि ’मैंने ही इसे पैसे दिये थे.. बैंक में जमा करने के लिए...’ वह औरत मेरी माँ की मूर्खता पर बहुत हंसी थी.... मैं उस वक़्त भीतर रोया था.. और शायद वह ही दिन था जिस दिन से मैंने बड़ा होना शुरु किया था....। बड़े होते रहने के अपने दुख थे... जिसमें बूंद-बूंद अपनी संवेदनशीलता को कठोर होते देखना... और कुछ ना कर पाना.. एक ग्लानी थी। इन सारे दिनों की काईं जैसी भीतर जमा होती गई थी... ग्लानी जिसको कहा जा सकता है। अपने ही बिताए खूबसूरत मासूम दिनों की ग्लानी...।
मैंने लिखना कब छोड़ा था..? बहुत गर्मी के दिन थे तब...। मुझे पसीना बहुत अच्छी तरह याद है... गर्दन के पीछे, रीड़ की हड्डी से सरकता पसीना...। मेरे हाथ में मेरी एक मात्र छपी हुई कहानियों की किताब थी...। इस संकलन का नाम था “अनकहा...”। ठीक इस वक़्त से कुछ समय पहले मैंने अपना एक अधूरा उपन्यास, और बहुत सी बिखरी हुई कविताएँ जलाई थीं...। गर्मी उसी की थी... पसीने की बूंदे जो मेरे गर्दन से नीचे की तरफ सफर कर रही थीं.. उनका संबंध उस आग से भी था जिसकी आंच अभी भी बाल्टी में धधक रही थी। मैंने ऎसा क्यों किया था...? उस दिन मेरी कहानियों की किताब ’अनकहा’ का पहला पृष्ठ मेरी गोद में खुला हुआ था... और मैं उसमें लिखा हुआ वाक्य पढ़ रहा था..“माँ के लिए...”।
गाँव में रहते हुए मुझे एक स्वन ने एक दिन घेर लिया था। उस सपने में मुझे एक आदमी दिखा जिसकी शक़्ल मेरे बाप से मिलती हुई थी। मैंने मेरे बाप की बहुत सी तस्वीर देखीं है..... उन सारी तस्वीरों में वह बहुत जवान दिखते थे... पर मेरे स्वप्न में वह वृद्ध थे.. पहाड़ी वृद्ध..। उनके चहरे पर खिंची आड़ी-तिरछी लक़ीरों में मुझे पीला द्रव्य बहता हुआ दिखता..। फिर उन सपनों का तारतम्य बनने लगा... वह धीरे-धीरे अपनी कहानी को आगे बढ़ाने लगे...। मेरा वृद्ध पहाड़ी बाप मुझसे गुज़ारिश करने लगे कि... कृप्या मेरे चहरे से यह पीलापन हटा दो...। मैं उनके चहरे को छूने से डरता...। बहुत करीब जाकर देखा तो उनके चहरे की लक़ीरों में मुझे पीला द्रव्य बहता हुआ नज़र आया.... मैंने एक लकड़ी उठाई.. और उस द्रव्य को उस लकड़ी से रगड़-रगड़ कर निकालना शुरु किया...। पीछे एक पीपल का पेड़ था.. उसके पत्ते झड़कर अगल-बगल गिर रहे थे...। बहुत मद्धिम हवा का पत्तों से रखड़ाना मैं साफ सुन सकता था। इस सरसराहट के बीच मेरे पहाड़ी बाप की कराह भी थी और उस कराह के पीछे छिपे हुए कुछ शब्द थे... जो बहुत जल्द वाक्यों में बदलते जा रहे थे...।
’बेटा... इस पीले द्रव्य का मूल खोज..’
’ऊपरी सफाई घोखा है।’
’पीड़ा तेरे होने की नहीं है.. पीड़ा मेरे ना होने की है।’
’इस जगह से कहीं निकल जा.. वरना अंत में वह बन जाएगा जिसके सपने तुझे डराते हैं।’
यह सपने मुझे कुछ साल भर आते रहे...। इसकी शुरुआत सिर्फ पीपल का पेड़ था और अंत यह आखरी वाक्य।
प्लेन समय पर उतरा। मेरा गांव करीब यहाँ से नब्बे किलोमीटर दूर था। मैंने एक टेक्सी की... और गांव की तरफ चल दिया। मैं यहाँ आखरी बार दो साल पहले आया था। वह मेरी माँ से आखरी मुलाकात थी.. जो बहुत ही डरावनी थी। आज भी याद करता हूँ तो सिहर जाता हूँ।
धीरे-धीरे, कदम-कदम हमने बिख़री हुई सी कुछ चीज़ों को एकत्रित किया था और उसे घर कहना शुरु किया था। बहुत छोटी-छोटी चीज़ों को लेकर हम खुश हो जाते और बिना वजह एक दूसरे से चिड़ने लगते। तभी वह कुछ लोग घर आने लगे जिन्हें लेकर पहली बार मैंने भय महसूस किया..। वह लोग दिन के उजले में घर आते और माँ से हंस-हंस कर बातें करते.. और रात के अंधेरों में खो जाते..। यह वह ही समय था जब मुझे बार-बार चाय बनानी पड़ती थी...। तभी पहली बार मुझे ऎहसाह हुआ था कि मेरी माँ बहुत खूबसूरत हैं... उनके काले घने लंबे बाल हैं... उनका ताबंई रंग...उनका लंबा पतला शरीर..। माँ ऎसी नहीं होती है... बाक़ी सबकी माँए बूढ़ी होने की सीडियाँ चढ़ती हुई थकी सी दिखती थीं पर मेरी माँ एक उम्र पर रुकी हुई थीं। मेरे बड़े होने के दुखों में यह दुख अपना वज़न लगातार बढ़ाए जा रहा था। मैं माँ को बूढ़ा चाहता था।
एक रात सोते वक़्त मैंने माँ से कहा था...
’माँ आप बहुत खूबसूरत हो...?’
मैं अपनी बात कहना चाहता था पर यह सवाल के रुप में मेरे मुँह से निकला.... माँ कुछ देर चुप रही फिर उन्होंने कहा...
’बेटा क्या मुझे शादी करनी चाहिए...?’
मैं दंग रह गया...। अचानक मुझे घबराहट होने लगी... मैं कुछ देर में पसीने-पसीने हो गया.. मैं ज़ोर-ज़ोर से सांसे लेने लगा...। माँ मेरे करीब आई और उन्होंने मुझे अपनी और खींचना चाहा... मैंने उन्हें झटका देकर अलग कर दिया...। गुस्से में मैं उठकर बाथरुम गया...।
कितनी इच्छा होती है कि गांव वैसा ही रहे... हमारी स्मृतियों में वह जैसा गुदा हुआ है। वहाँ कभी लोग बूढ़े ना हो.. कभी हमारी जी हुई पगड़ंडियों पर हमारे ना होने की डामर ना बिछ जाए। जैसे ही मेरी टेक्सी गांव की सरहद में घुसी मुझे मेरा शरीर भारी लगने लगा... मैंने अपनी शर्ट के कुछ बटन खोल दिये..
“यार सुनों ज़रा ए सी चालू कर दो...”
“साहब वह चालू है...।“
मुझे बहुत गर्मी लग रही थी। टेक्सी मेरे मौहल्ले की तरफ बढ़ रही थी। मुझे कुछ सूरते पहचानी हुई लग रही थी पर मुझे लगा सब लोग धूप में जले हुए हैं। तभी मैंने परायापन महसूस किया... अब मेरा इस गांव से कोई संबंध नहीं है.. कुछ भी नहीं...। दो साल पहले जब मैं यहाँ आया था तो एक गुस्सा था इस गांव को लेकर... अब वह भी नहीं है। मैंने कहीं भी अपनी टेक्सी नहीं रोकी...। मैं सीधा अपने घर की तरफ बढ़ा...।


माँ और मेरे संबंध में मेरा लिखा हुआ एक रक्त की तरह काम करता था जिसका संचार बहुत समय तक लगातार बना रहा। मैं शहर आ गया था... माँ से बहुत कहा कि चलो यहाँ क्या रखा है मेरे साथ रहना... पर वह नहीं मानी... कहने लगी ’मेरी सारी उम्र यहीं कटी है.. तू आता रहना और मैं भी आती रहूंगी.. फिर तेरा लिखा पढ़ूगीं तो तू पास ही रहेगा।’ माँ मेरे साथ नहीं आई.. कई साल बीत गए... बीच-बीच में वह आती रहती फिर उन्हें गाव वापिस जाने की जल्दी लग जाती.... मेरा जाना बहुत कम होता था। इसी बीच मेरा पहला कहानी संकलन ’अनकहा’ छपा... उस समय माँ मेरे साथ थी... बहुत खुशी थी उन्हें उस बात की... हम दोनों उस रात बाहर खाने गए थे.. खाने के बीच में ही उन्होंने कहा...
’तुझसे एक बात कहनी है...?’
’बोलो माँ....’
’तुम सोनी जी को जानते हो ना...?’
’हाँ... वह वकील थे ना....’
सोनी जी वक़ील थे..। सब्ज़ी बाज़ार के पास कहीं रहते थे... अब मुझे ठीक से याद नहीं है.. । उनका एक लड़का था... जो मेरे से बड़ा था.. उससे मेरी कभी नहीं बनी... हम हमेशा आपस में लड़ लेते थे... उसके कारण मैं सोनी जी को भी बहुत पसंद नहीं करता था।
’हाँ वही वकील...’ यह कहते ही माँ चुप हो गई...
’क्या हुआ उन्हें....?’
’नहीं उन्हें कुछ भी नहीं हुआ है... वह मेरे साथ रहना चाहते हैं..।’
’क्या मतलब...? उनका तो अपना घर है... वह तो.... ।’
मैं कुछ आगे बोल पाता इससे पहले मैंने माँ का चहरा पढ़ लिया.... जिसपर उस रात की छाया थी जब उन्होंने कहा था कि ’बेटा क्या मुझे शादी करनी चाहिए?’ मैं डर गया... कहीं यह वही बात तो नहीं है..। माँ बूढ़ी हो चुकी हैं.. वह मेरी माँ है.. पिताजी मेरे सपने में आते हैं... भले ही मैंने उन्हें कभी देखा नहीं है.. पर मैं जानता हूँ मेरी माँ कौन है और मेरे पिताजी कौन है...। पता नहीं क्या-क्या मेरे दिमाग में उबलने लगा... फिर मुझसे कुछ भी नहीं हुआ.. मैं पसीने-पसीने था। माँ बहुत देर तक मुझे कुछ-कुछ समझाती रहीं... पर मैं कुछ भी सुन नहीं पा रहा था...।
अगले दिन माँ वापिस गांव चली गई। उस रात मैंने बाथरुम से लोहे की बाल्टी उठाई और उसमें अपने सारे लिखे को जला दिया... उस दिन की गर्मी मुझे अभी तक याद है...। हाथ में बस वह कहानी संग्रह था ’अनकहा...’ जिसके पहले पृष्ठ पर लिखा था.. ’माँ के लिए....’। बहुत दिनों तक मुझे मेरे पिताजी के सपने आते रहे... मैं उनके बूढ़े चहरे से पीलापन निकालता रहा... मैं उस पीलेपन की जड़ भी खोजना चाहता था.. पर जड़ें कहाँ थी? इसका उत्तर मैं कभी भी नहीं खोज पाया....। खुद को बहुत समझाने पर भी मैं “माँ”’ शब्द के भीतर ’आज का समझदार आदमी’ नहीं घुसा पाया...। मैं माँ का अकेलापन भी समझता था.. उनकी सारी बातें सहीं थी पर मैं अलग ही इतिहास को जानता था.. जिसमें माँ... माँ की तरह होती है। मैंने उसके बाद कभी भी यह नहीं जानना चाहा कि वह कैसी हैं.. मैं कभी-कभी उनसे बात कर लिया करता था.. बस.. वह कैसे रह रही हैं..? क्या हो रहा है..? मैं अपने संवादों को वहां तक जाने ही नहीं देता था।
मैंने चश्मा पहन लिया था जिसमें जैसा और जितना मैं देखना चाहता था मुझे उतना ही दिखता था। चीज़ों के पीछे के सत्य में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं थी...। इस चश्में का असर मेरे लिखने पर बहुत हुआ.. मेरा लिखना लगभग छूट चुका था... जब भी कोशिश करता... चश्मा कहीं गायब हो जाता और उस चश्में के बिना जो भी दिखता वह मेरी सांस की नली में कहीं फस जाता.. मैं पसीने-पसीने हो जाता.... घबरा कर घर से बाहर चला जाता... वापिस दोस्तों के बीच अपना चश्मा पहन लेता। काम बहुत अच्छा चलने लगा था.. मैं अपने ऑफिस में बुरी तरह व्यस्त हो चुका था...। लिखन में दिलचस्पी पूरी तरह खत्म हो चुकी थी....।
कुछ ही समय बीता था कि जीवन एक ढलान पर तेज़ी से आगे बढ़ने लगा था। एक घर खरीद लिया था.. ऑफिस में ही एक लड़की थी जिससे घर सजाने की बातें होने लगी थीं...। मैंने कभी कोई निर्णय नहीं किये...। अधूरी पढ़ी कहानियों के चक्कर में कब लिखना शुरु कर दिया पता नहीं चला.. शहर आया तो किसी ने कहा कि लिखते रहना पहले यह अच्छा काम मिल रहा है उसे क्यों ठोकर मारते हो... मैंने काम कर लिया और लिखना कबका पीछे रह गया...। माँ की सारी समस्या को मैंने बहुत पीछे अपनी सारी व्यस्तताओं में दबा के रख दिया था...।
तभी गांव से मेरे कुछ दोस्तों के फोन आने लगे..। वह मुझसे सीधी बात नहीं करते थे.. वह इधर-उधर घुमाकर मुझसे मेरी माँ के बारे में पूछते...। मैं बहुत समय तक बात समझा नहीं...। फिर एक दिन मैंने अपने दोस्त सुधीर को मैंने फोन लगाया.. सुधीर मेरा एक मात्र दोस्त रह गया था गांव में... उसने मुझसे कहा कि तेरी माँ और सोनी जी साथ रहने लगे हैं...। यह गांव के लिए बड़ी बात है.. पहले सब खुसफुसाहट में बात करते थे पर अब लोग सीधा बोलने लगे हैं.. और भी बहुत सी बाते उसने कहीं जिसपर मैंने फोन काट दिया...।
मुझे लगता है हम लोग इस बड़े महाकाव्य में व्यक्ति ना होकर महज़ शब्द हैं...। वह मेरे लिए एक शब्द है ’माँ..’ जिसकी परिभाषा मेरे खून में है... उस परिभाषा से अलग अगर वह व्यक्ति व्यवहार करता है तो वह व्यक्ति अपने शब्द की परिभाषा लांघ रहा है.. जिसे कैसे सहन करना है मुझे कभी नहीं सिखाया गया..। मैं भी एक शब्द हूँ ’कोंपल..’। मैंने भी अपनी परिभाषा लांघी है... मैं कठोर रहा हूँ.. ’माँ...’ शब्द के लिए.. जबकि यह नाम उन्होंने ही मुझे दिया था। मेरा गांव से कोई संबंध नहीं था... पर माँ का वहाँ उन लोगों के बीच इस तरह रहना बहुत कठिन था। मैं अब अपनी व्यस्तता के पीछे छिपकर नहीं बैठ सकता था.. मुझे इसे सुलझाना ही था किसी भी कीमत पर.. बहुत सोचने पर मैं एक नतीजे पर पहुंचा.. कि माँ को यहाँ ले आऊंगा.. चाहे वह कुछ भी समझे.. उन्हें अपने साथ रखूंगा। मैं पहली फ्लाईट से अपने गांव पहुंचा......
गांव में घुसने से पहले मैंने सुधीर को गांव के बाहर वाले एक ढ़ाबे पर बुला लिया..। उससे कुछ देर बात करने पर पता चला कि माँ बहुत कम ही घर से निकलती हैं.... सिर्फ सोनी जी बाज़ार में कभी कभार किसी को दिख जाते हैं..। लोगों के लिए मसाला है... सबके पास कहने के लिए बहुत कुछ है...। मैं चुप चाप सब सुनता रहा... फिर मैंने उसे बताया कि मैं माँ को अपने साथ ले जाने आया हूँ। उसने कहा यह ही सही है। कुछ देर की बात के बाद मैं सीधा अपने घर पहुंचा....। दरवाज़ा सोनी जी ने खोला।
’अरे वाह!!! तुम आ रहे हो तुमने बताया भी नहीं... सुनिये!! देखिए कौन आया है आपका ’कोंपल..’।”
मैं सीधा भीतर चला गया.. सोनी जी की तरफ बिना ध्यान दिये..। माँ पूजा वाले कमरे में लेटी हुई थीं। मैं सीधा उनके पास गया.. उनके पैर छुए... बड़ी मुश्किल से वह अपने पलंग से उठ पाईं...।
’क्या हुआ माँ?’
वह बहुत दुबली हो चुकी थीं... जर-जर काया... शरीर बहुत गर्म था। मैं उनके बगल में बैठ गया..।
’रहने दीजिए, उठने की क्या ज़रुरत है... क्या हुआ है माँ?’
तभी मुझे सोनी जी की आवाज़ आई.. वह दरवाज़े पर खड़े थे....
’कई महिनों से इनकी ऎसी ही हालत है...। डॉक्टर ने पूरी तरह बेड-रेस्ट बोला है... पर यह मानती कहाँ है...? मैंने कहा था कि तुम्हें बता दें... या मैं तुम्हारे पास छोड़ आता हूँ... पर इन्होंने मना कर दिया..। चाय पियोगे?’
कुछ देर चुप्पी बनी रही.. मैं सोनी जी की आवाज़ अपने भीतर चबा रहा था.. ’’यह कौन होते है मुझे बताने वाले कि मेरी माँ कैसी है कैसी नहीं है!!” किचिन में कुछ बर्तनों की खट-पट सुनाई दे रही थी..। भगवान के कमरे की खुशबू बिलकुल वैसी ही थी... उन्हीं दिनों की...। घर बहुत साफ दिख रहा था। मैं कब से माँ से नही मिला हूँ? बहुत समय हो गया.. उनसे बात किये भी काफी समय बीत चुका था। माँ मुझे देख नहीं रही थीं.. वह मुझे निहार रही थीं...।
’कुछ लिखना शुरु किया...?’
’नहीं....।’
मैं भीतर नारज़गी लेकर आया था जो कुछ माँ की हालत को देखकर पिघली थी.. पर कड़वाहट बहुत सी थी... जिसकी वजह से जवाब तुरंत मुँह से निकल गया।
’तुम बाहर बैठो.. मैं हाथ मुँह धोकर आती हूँ।’
माँ ने यह मुस्कुराते हुए कहा था पर मैं समझ गया कि उन्होंने कुछ सूंघ लिया था। वह मेरी माँ थीं... मेरे माथे के बल से समझ जाती है कि भीतर क्या चल रहा है। मैं बाहर के कमरे में जाकर बैठ गया.... सोनी जी मेरे लिए चाय ले आए.. और मेरे सामने आकर बैठ गए। उनसे संवाद मुश्किल थे.. सो मैं उनकी तरफ देख भी नहीं रहा था। अपने ही घर में मैं महमान की तरह बैठा था। कुछ देर में माँ बाहिर आई.। अभी भी वह वैसी ही खूबसूरत थीं... लंबी, ताबंई रंग..। सोनी जी ने उठकर उन्हें सहारा देना चाहा पर माँ ने मना कर दिया, वह मेरे बगल में आकर बैठ गई।
’मुझे बाज़ार में कुछ काम है.. मैं आता हूँ...!!!’
सोनी जी स्थिति समझ चुके थे..। वह जाने लगे...
’नहीं.. रहने दीजिए.. कोंपल आया है... बाज़ार बाद में चले जाईयेगा।’
सोनी जी कुछ समझ नहीं पाए...। वह वापिस आकर बैठ गए।
’रुकोगे कुछ दिन...?’ माँ ने पूछा...
मैं सोनी जी के सामने संवाद नहीं करना चाहता था... मैंने उनकी तरफ एक बार देखा..। वह सहमें से मेरे सामने बैठे रहे..।
’यह घर के ही आदमी हैं...।’ माँ ने कहा...
माँ सीधी बात पर आना चाहती थीं....। मेरे पास कोई चारा नहीं था....
’माँ मैं आपको लेने आया हूँ... हम आज शामको साथ चल रहे हैं..। मैंने फ्लाईट टिकिट भी बुक कर ली है आपके लिए...।’
’देखा अपने कितना प्यार करता है मुझसे यह...।’
उन्होंने यह बात सोनी जी से कही...। सोनी जी आधा लजाए, आधा मुस्कुरा दिये..।
’माँ मैं टिकिट भी बुक कर चुका हूँ। आपको मेरे साथ चलना ही पड़ेगा...।’
’कहाँ ले जाएगा मुझे??? रख पाएगा अपने साथ?’
’आप मेरी माँ हो..!! क्यों नहीं रखूगां?’
’माँ जिससे शर्मिदगी हो रही है... तभी तू भागा हुआ आया ना...?’
’देखो माँ... मैं यह सब बर्दाश्त नहीं कर सकता.... कि...’
’देख तुझसे तो बोला भी नहीं जा रहा है...।’
बात बिगड़ गई थी... मैं कुछ देर चुप रहा..। सोनी जी अपनी बगले झांक रहे थे... माँ सीधा मुझे ही देख रही थीं। माँ ने फिर पूछा...
’क्या बर्दाश्त नहीं कर सकता?’
’माँ आपको पता है यहा लोग आपके बारे में क्या-क्या बोल रहे हैं? इस उम्र में यह सब ठीक लगता है क्या? मैं बस और कुछ नहीं सुनना चाहता... मैं चाहता हूँ आप मेरे साथ रहो बस...।’
’बहुत पहले मैंने एक दुकान खोली थी... जिसमें बहुत सारी चीज़े बिकती थी। तब उस वक़्त लगा कि देखो मैं अपने पैरों पर खड़ी हूँ... लोग मुझसे वह खरीदने आते हैं जो मैं बेचती हूँ। फिर उम्र के साथ-साथ दूसरा ख्याल घर कर गया कि नहीं मैं असल में महज़ एक ज़रिया हूँ.. कोई है जो थोक में चीज़े बनाता है.. मैं बस उसे फुटकर में लोगों तक पहुंचाती हूँ। मैं असल में वही बेच रही हूँ जो लोग खरीदना चाहते हैं... तो मैं क्या चाहती हूँ....? इसका उत्तर मेरे पास नहीं था। एक दिन मैंने यह दुकान बंद कर दी.... बस..। लोगों को अब मैं कुछ भी नहीं बेच रही हूँ... और तुम्हें भी...।’
मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था। मैंने इस तरह की बातों की कभी कल्पना भी नहीं की थी। मैं चुप हो गया..। कुछ देर मैं घर में बिताना चाहता था पर वह मुमकिन नहीं था। माँ अपने कमरे में वापिस चली गई। पता नहीं क्यों मेरी इच्छा हुई कि मैं सोनी जी से बात करुं... पर मैं उनसे कुछ कह नहीं पाया.... मैंने अपना सामान उठाया और जाने लगा... सोनी जी मुझे बाहर तक छोड़ने आए...
’बीमारी के कारण थोड़ी चिड़चिड़ा गई हैं... वैसे हमेशा तुम्हारे बारे में बातें करती हैं...।’
सोनी जी ने कहा, मैने जाते वक्त उन्हें उन्हें प्रणाम किया..। यह दो साल पहले मेरी माँ से आखरी मुलाकात थी... जिसे सोचकर आज भी मैं सिहर जाता हूँ।

मैंने टेस्की वाले को अपने घर की गली के बाहर ही रोक दिया। मैं अपने घर चलकर जाना चाहता था। घर के सामने सुधीर दिखा...। हम एक दूसरे के सामने मूक खड़े रहे.. फिर उसने कहा की ’अंदर चले जाओ.... कुछ सामान रह गया है मैं उसे लेकर आता हूँ।’ मैं भीतर गया तो सब जगह चुप्पी थी... भगवान के कमरे से कुछ धुंआ निकल रहा था। मैं भगवान के कमरे में गया.. वहाँ माँ का शव रखा हुआ था.. सोनी जी बगल में बैठे हुए थे.. एक थाली में राख रखी हुई थी... और बहुत सी दूब जल रही थी। मैं माँ के शव के बग़ल में बैठ गया। सोनी जी ने मुझे देखा... उनकी आँखे लाल थी... मैं उनसे दूर बैठा था... वह खिसकर मेरे पास आ गए..। मेरे कंधे पर हाथ रखा... फिर कुछ देर में अपना सिर मेरे कंधे पर रख लिया...। मैंरा पूरा शरीर कड़क हो गया... वह रो रहे थे... सुबक-सुबक कर .. बच्चों की तरह...। मैंने अपने कंधे को हल्का सा झटका दिया... वह अलग हो गए... फिर कुछ समय में उठकर बाहर चले गए....।
कैसे ऎसा होता है कि आज के बाद वह हमारे जिए में नहीं होगीं...। किसी की मृत्यु पर सबसे ज़्यादा दुख हमें किस बात का होता है? शायद उस ख़ाली जगह का जो उसके जाने के बाद छूट गई है... नहीं हमारे भीतर नहीं... हमारे भीतर की ख़ाली जगह भरने के हमारे पास बहुत गुण हैं। ख़ाली जगह वह छूट जाती है जहाँ वह हमेशा से थीं.. जैसे इस घर और मेरे बीच के संबंध... मेरे और इस गांव के संबंध के बीच की ख़ाली जगह... मेरे और मेरे कोंपल होने के बीच की जगह... मेरे और मेरे माँ शब्द के बीच की जगह... और पता नहीं क्या-क्या? उनके चले जाने पर महसूस होता है कि असल में वह हर जगह कहीं न कहीं मौजूद थीं...। उन जगहों पर अब मेरी ही आवाज़ लौटकर मेरे पास आएगी... मेरा हर हरकत गूंजेगी मेरे ही कानों में....। हमें सालों इतज़ार करना होता है.. तब कहीं इस ख़ाली जगह में... हल्की सी घांस नज़र आने लगती है.. फिर हम एक रात की किसी कमज़ोर घड़ी में वहाँ पेड़ लगा आएगें... और वह बहुत समय बाद एक हरा भरा घांस का मैदान हो जाएगा... तब शायद हम कह सकेगें कि वह अब जा चुकीं हैं...।
मुझे लग रहा था कि माँ बहुत गहरी नींद में हैं... अभी आँखें खोलेगीं और मुझसे पूछेगीं कि ’कुछ नया लिखा?’ वह अभी भी माऒ जैसी माँ नहीं थीं... वह अभी भी खूबसूरत लग रहीं थीं। मैं खिसकर उनके चहरे के पास आ गया... उनके गालों हो हल्के से छुआ...। गाल बहुत ठंड़े थे...। मैंने उनके चहरे पर हाथ फैरा.. और लगा कि वहाँ कुछ नहीं है... कोई हरकत नहीं...। मैं उनके माथे और आखोंको हल्का सहलाने लगा... और मुझे वहाँ इंतज़ार दिखा... लंबा इंतज़ार.. जिसकी रेखाएं हल्की पीली पड़ चुकी थीं....। मैंने एक कपड़ा लिया और उसे पानी में भिगोकर उस पीलेपन को हल्के-हल्के मिटाने लगा...। तभी सोनी जी की बच्चों सी सुबक सुनाई दी... वह दरवाज़े पर खड़े रो रहे थे...। मेरी इच्छा हुई कि मैं उनसे माफ़ी मांग लूं... मेरे ना होने की और इस वक़्त मेरे यहां होने की... सब- सारी बातों की माफी...।
कुछ देर में सुधीर अर्थी का सामान ले आया....। उसके साथ कुछ लोग ओर थे। सभी उसके हम उम्र थे.. उसके दोस्त होगें जो माँ को जानते भी नहीं है शायद..। माँ की शव यात्र में सिर्फ हम तीन ही लोग होगें इस बात से शायद सुधीर घबरा गया होगा..। अब हम तीन नहीं थे हम पांच थे..। मुझे अच्छा लगा...। माँ ने बहुत पहले एक लेखक की डायरी से पढ़कर एक वाक़्य सुनाया था..जो मुझे याद आ गया... “जीवन में अकेलेपन की पीड़ा भोगने का क्या लाभ यदि हम अकेले में मरने का अधिकार अर्जित न कर सकें? किन्तु ऎसे भी लोग हैं जो जीवन-भर दूसरों के साथ रहने का कष्ट भोगते हैं, ताकि अन्त में आकेले न मरना पड़े।“
शमशान में माँ को सूखी लकड़ीयों के बीच लेटा हुआ देखा तो इच्छा हुई कि उनसे कह दूं कि मैं कोंपल नहीं हूँ...। मेरी कोमलता बहुत पहले ख़त्म हो गई थी... मैं सूखा हुआ पत्ता हूँ जो बहुत पहले अपने पेड़ से अलग हो गया था। सुधीर अग्नि लेकर मेरे पास आया.. माँ को अग्नि देने की मेरी हिम्मत नहीं हुई..। मैं अग्नि देने का अधिकार नहीं रखता था.. मैंने लकड़ी सोनी जी को पकड़ा दी.. और उनसे कहा कि वह अग्नि दें... वह इस का अधिकार रखते हैं.. मैं नहीं..।
मुझे लगा मैं किसी घने हरे पेड़ को जलते हुए देख रहा हूँ...। माँ को जलता हुए देखने की मेरी हिम्मत नहीं हुई मैं नदी की तरफ मुड़ गया....। कुछ देर बाद सोनी जी आए और मैं उनके साथ अपने घर चला गया।
अगले दिन सुबह हम माँ की अस्थियां बटोरने गए.... सुबह की राख में माँ को टटोलना..। जो कहानी कल तक मुझे असह रुप से लंबी लग रही थी वह अभी इस राख में खत्म हो चुकी थी..। इस राख में मैं माँ को ढ़ूढ रहा था... कभी वह मुझे अपने घर के बाहर खड़ी दिखती को कभी लाल डलिया लिये में मेरे लिए चॉक लाती हुई... पर पकड़ में कुछ भी नहीं आता.. सिर्फ राख...। तब पहली बार मैं सोनी जी के गले लगकर रोया था.. बहुत रोया.।
क्या हम कुछ भी नहीं बदल सकते जो बीत गया है? क्या वह समय वापिस नहीं आ सकता जब पेड़ पर मैं कोंपल था? वह दिन जिस दिन सुबह के वक़्त माँ ने मुझे पहली बार कोंपल दिखाई थी...? वह दोपहर जब हम कभी-कभी बिना वजह पेड़े खा लिया करते...? या कम से कम वह दो साल पहले का दिन जब मैं माँ से नाराज़ होकर चला गया था !!! काश मैं रुक जाता.... सोनी जी से बात कर लेता.. माँ किसी को अब कुछ नहीं बेच रहीं हैं... वाली बात समझ सकता....। मैं प्लेन में बैठे-बैठे सोच रहा था कि काश ऎसा कोई प्लेन होता जिसमें बैठकर हम अपने अतीत में जाते और कुछ चीज़े ठीक कर लेते... कुछ लोगों को प्यार दे देते.. किसी के साथ थोड़ा ज़्यादा बैठ लेते... किसी को सुनते और समझते.. कहीं किसी के गले लग जाते और जी भरकर रो लेते..।
प्लेन शहर में उतने वाला था... मैंने अपनी कुर्सी सीधी कर ली थी... खिड़्की खोल दी थी.. और कमर में पेटी बांध ली थी।


Wednesday, September 7, 2011

प्यास...


क्या इतना सब कुछ लिख सकता हूँ मैं जिस सहजता से आँखे देख लेती है और शरीर अपनी सिहरन में नए अनुभव ठूंस लेता है। आज बुद्ध के एक मंदिर में गया था... (मै पूरी तरह नास्तिक हूँ...)। घने जंगल में के बीच मंदिर का नाम कछुए और ड्रेंगन था। सुंदर घना जंगल पार करके जैसे ही हम उस मंदिर में पहुंचे... उसके रंग ... उस जगह की शांति को मैं अपने भीतर आने से रोक नहीं सका...। हम जो पूरे रस्ते अपने घिसे पिटे अनुभवों को हंस-हंस कर एक दूसरे को बता रहे थें... अचानक शांत हो गए... जो भी बीच में बात करता लगता कि यह आवाज़ यहा की नहीं है... यह आवाज़ यहां नहीं होनी चाहिए... सब चुप थे..। बुद्ध की मूर्ती जहाँ रखी हुई थी मैं वहाँ जाने से पहले थोड़ा हिचक रहा था... सो बाहर ही खड़ा रहा..। जब सब भी तरह हो आए तो सू (एक कोरियन दोस्त...) ने बड़े अपने पन से मुझे भीतर जाने को कहा.. मैंने अपने जूते उतारे और भीतर चला गया। जैसा कि सब लोग.. बुद्ध की मूर्ति के सामने करते हैं मैंने भी वैसा ही सब कुछ दौहराया... पर बीच में ही कहीं... कुछ टूट गया...। कुछ अनकहा... कोई एक गांठ... कुछ बहुत गहरे में दबा हुआ ऊपर को आ गया...। मैं अचानक मुस्कुराने लगा... और दूसरे ही क्षण मेरा गला भर आया...। मेरी आँखें छलकने लगी। कोई मुझे देख रहा है... बहुत करीब से...इसका अहसास मुझे हुआ.. मैंने अपनी आँखें बंद कर ली...। तभी मुझे लगा कि कुछ सुनहरा... जिसकी शक्ल भी थी.... (नहीं बुद्ध नहीं...) बहुत लंबे-लटके हुए सुनहरे कपड़ों समेत मेरे करीब उड़ता हुआ आ रहा था...। मैं पूरी तरह stiff हो गया...। फिर मुझे लगा उस सुनहरी चीज़ ने मुझे अपने गले लगा लिया.... अपने भीतर भीच लिया.... मैं अपने गालों पर उसके नर्म कपड़ों को महसूस कर सकता था..। मुझे लगा यह सब मैं एक कहानी की तरह गढ़ रहा हूँ..... फिर मैं अपने गाल रगड़े उस सुनहरी चीज़ में....। फिर सब कुछ छूटने लगा.... मेरी उंग्लियाँ... ढ़ीली पड़ गई..... मेरे कंधे लटक गए...। मैंने मेरी गर्दन पर एक थाप महसूस की.. फिर कुछ खिचकर अलग होने लगा... बहुत हल्के से...।
मैंने अपनी आँखें खोल दी...। इधर-उधर देखा... सू मेरी तरफ देख रही थी... मुझे लगा शायद उसने सब कुछ देखा है... मैं उसकी तरफ देखकर मुस्कुरा दिया...। वह चुप मेरी तरफ देखती रही.... मैं उठ गया...।
जब मैं उस मंदिर से निकल रहे थे.. तो मैं बार-बार पलटकर उस मंदिर की तरफ देख रहा था। क्या हुआ था? मैं मुस्कुरा रहा था... लगा किसी बहुत अपने के जी भरकर गले लग कर आया हूँ.....। बाहर जाते हुए मैं सू को यह बताना चाहता था... पर वह अंग्रेज़ी नहीं समझती है.. सो मैं चुप रहा। मैंने बस सू को इशारे से कहा कि प्यास लगी है.. बहुत प्यास... उसने पानी की तरफ इशारा कर दिया... और मैं अपनी प्यास बुझाने उस ओर चल दिया...।

Monday, September 5, 2011

I AM NATURE.. AS YOU ARE…



बाहर घांस काटने की आवाज़ आ रही थी। एक चिड़िया तार पर बैठकर बहुत देर तक पूंछ हिला-हिलाकर किसी को बुला रही थी। दूर किसी के कपड़े धोने की आवाज़ थी। बीच-बीच में हवा का झोंका तेज़ी से आता और खिड़की के पर्दे उड़ जाते। मेरे बगल में पी हुई कॉफीयों के ख़ाली कप पड़े हुए थे, एक एशट्रे, लाईटर, कुछ आधी-अधूरी पढ़ी हुई किताबें... टेबिल लेंप.. और कुछ कोरे कागज़...। बहुत बुलाने पर भी उस पूंछ हिलाने वाली चिड़िया के पास कोई नहीं आया सो वह उड़ गई....मेरे खिड़की से बाहर देखने के एक मात्र कारण को लेकर...। मैं वापिस अपनी डेस्क पर आ गया। बहुत देर डेस्क की बिखरी हुई चीज़ों को देखा तो थकान से भर गया... फिर मेरी निग़ाह उस पेंटिंग पर गई जो मेरे कमरे में लगी हुई है। कोरे से केनवास पर एक आदमी (काली श्याही से आदमी का आकार) सिर झुकाए सात घांस के टुकड़ों को देख रहा है....और उसपर कुछ कोरियन भाषा में लिखा हुआ है। कल मेरी एक कोरियन मित्र ने मुझे बताया कि उसपर लिखा हुआ है... I AM NATURE…. AS YOU ARE… मुझे यह बात बहुत सुंदर लगी..। तब से जब भी इस पेंटिंग पर निग़ाह जाती है मेरे भीतर कुछ सुलझ जाता है..। मुझे विश्वास करने की इच्छा होती है सब पर... अपने डरे हुए कोनों में दिया जलाकर टहलने की इच्छा होती है। उन जगहों की याद हो आती है जिन जगहों पर जाना मैंने सालों से टाल रखा था। फिर अपने खालीपन में एक घांस का तिनका गिरा पड़ा मिलता है... और तब एक बोझ महसूस होता है...। उस तिनके को अपने जीए हुए लेंडस्केप में फसाने की कोशिश करता हूँ...। वह अपनी अलग कहानी लेकर आया हुआ लगता है...। उसे छूने पर लगता है कि यह सुख है... पर इस सुख को कहां टिकाकर रखूं का कोना कहीं दिखता नहीं है।
अभी रात है... देर रात अपनी बाल्कनी के कोने में खड़े रहने पर लगता है कि अंधकार कुछ खींच रहा है...। कहीं से कुछ रिसने लगता है.. मैं छूटता जाता हूँ... I AM NATURE.. AS YOU ARE…. वाली बात दिमाग़ में एक तिनके की तरह बैठी रहती है... वह सुख है.. पर उसे अपने भीतर टिकाकर रखने का कोना अभी भी खाली नहीं है।

Friday, September 2, 2011

खुश......





हड़बड़ाकर उठा तो देखा मैं एक खाली से कमरे में था... मैं अपने घर पर नहीं हूँ.. मैं कोरिया,(तोजी) वानजू नाम के एक गांव में हूँ....यहाँ मैं एक महिने के लिए बतौर लेखक आया हूँ। सफर की थकान ने सब भुला दिया था.. कुछ देर में मैं यथार्थ को ताकने लगा। कुछ किताबें.. मेरा लेपटाप.. एक डायरी... सिगरेट के पेकेट... फिर लगने लगा कि यह मुझे ताक रहे हैं... उनके ताकने में इंतज़ार था। टेबल पर घड़ी रखी हुई थी। रेंगते हुए समय देखा.. शाम के छे बजने वाले थे। बालकनी का दरवाज़ा खोला तो सामने पहाड़ दिखाई दिये... गहरे हरे रंग से पुते हुए। मेरा पहाड़ों से बहुत अच्छा संबंध रहा है.. पर यह पहाड़ मुझसे बहुत दूर थे... मैं शायद अभी इनमें भटका नहीं था। कुछ देर में खाने का बुलावा आने वाला था। मेरे अलावा यहाँ सभी कोरियन हैं... किसी को भी कोरियन के अलावा कोई भी भाषा नहीं आती है... । मैं जल्दी-जल्दी तैयार होकर खाने के लिए मेस में निकल पड़ा.... सिर्फ आँखे और मूक अभिवादन पहचान के थे... उसके बाद हम सब अपनी-अपनी थालीयों में सिर घुसाए खाते रहे..। कोरियन बहुत शर्मीले स्वभाव के होते हैं... वह आपस में भी बहुत कम बात कर रहे थे..। खाने के बाद मैं टहलने के लिए मैं गांव की तरफ निकल आया... बहुत साफ सुथरा गांव है... बहुत कम लोग दिखाई देते है...। घर हैं लेकिन घर के बाहर कोई चहलकदमी नहीं दिखती... लगता है कि लोगों के यहाँ पर वीकएंड बंगले है... वह लोग रहते कहीं और हैं.. पर ऎसा नहीं था..। चारों तरफ खेती है... और उन खेतों को गहरे हरे रंग के पहाड़ों ने चारों तरफ से घेर रखा है..। कुछ लोग सड़क पर दिखे... मैंने अभिवादन में सिर झुकाया पर वह बस मुस्कुरा दिये..। किसी अजनबी देश के अजनबी गांव में आपको लोगों की आँखें अजीब सी लगती हैं.. लगता है वह लोग एक खूबसूरत संसार में हैं.... जिसकी प्रदर्शनी किसी आर्ट गैलरी में लगी है.. और मैं किसी गंदे पर्यटक की तरह उन्हें निहार रहा हूँ, उनकी तस्वीरें लेना चाहता हूँ... जिसे वह बिलकुल भी पसंद नहीं करते। मैं चलते-चलते अपने में खो गया। उनके संसार को घूर-घूर कर देखने की बजाए चुपचाप उनके संसार में सांस लेने लगा। इस पूरे इलाके में अजीब सी चुप्पी है.. हर कुछ देर में कोई गाड़ी सड़क पर से गुज़र जाती है तो उस चुप्पी का एहसाह होता है जो स्थिर है... जो चारों तरफ फैली हुई है। मैं एक पत्थर पर बैठ गया... इस गहरी चुप्पी में कुछ बुदबुदाने लगा... फिर मुझे याद आया मैं असल में दो दिनों से चुप हूँ... मैंने अभिवादन और धन्यवाद जैसे शब्दों के अलावा कुछ भी नहीं बोला है..। मैं खुद से बातें करने लगा कुछ ऎसे जैसे खुद से नहीं किसी ओर से बोल रहा हूँ। फिर अपनी ही बातों से चिढ़ होने लगी... खुद से मैं कितने झूठे सुर में बोलता हूँ.. इससे तो चुप्पी ही बहतर है..। मैंने सिगरेट जलाई और कुछ आगे की ओर चल दिया...। तभी सामने से आती हुई एक वृद्ध महिला दिखी... मैं उन्हें पहचान गया.. क्योंकि वह हमेशा एक अजीब सी चौड़ी टोपी लगाए रहती हैं.. वह पेंटर हैं...। वह मेरी तरफ ही चली आ रही थी... मैं उन्हें देखकर मुस्कुरा दिया... पर भीतर एक डर था कि उनसे बात क्या होगी...। उन्होंने आते ही.. कोरियन भाषा में बोलना चालू किया... मैं उनका दिल नहीं तोड़ना चाहता था सो कुछ यूं सिर हिलाता गया कि मुझे कुछ-कुछ बातें समझ में आ रही हैं..। सब लोगों के सामने वह अभिवादन करने में भी झेंप रही थीं.. पर अकेले में वह लगातार बोले जा रही थीं...। फिर बीच में वह बोलते-बोलते हंसने लगी..। मेरे लिए सब कुछ संगीत था सो मैं बस सुरों के उतार चढ़ाव समझ रहा था। हंसने के बाद वह कुछ देर चुप रहीं... इधर-उधर देखने लगी.. फिर एक छोटे से घर की तरफ इशारा किया.. और कुछ धीमी आवाज़ में बोलने लगी...। जब वह मेरी तरफ मुड़ी तो उनकी आँखें भीगी हुई थी...। मैं यह सुर पहचानता था... असल में मैं सारे सुर पहचानता था... पर सुनने में भी मैं अभी तक दूर थी... पर्यटक जैसा... तस्वीरे लेता हुआ...। मुझे खुद से बहुत घृणा सी होने लगी.... मैंने अपनी आखें नीचे कल ली...। उनके सुर टूट गए.. वह अचानक नीचे सुर में गाते-गाते रुक गई.... मुझे पता था कि उन्होंने पूरा राग नहीं गाया है... मेरी आँखे नीचे कर लेने में वह टूट गया बीच में कहीं। उन्होंने कुछ कदम मेरी तरफ बढ़ाए... मेरे कंधों को छुआ... सहलाया। मेरे भीतर एक चोर था... एक झूठ से भरा हुआ थेला लिए चोर... जो मेरे सारे जीने को, उनके अनुभवों को अपने झूठ के थेले में भर लेता...। जब भी मैं अपने अनुभवों, अपने जीए हुए के बारे में कुछ कहता, लिखता... सब कुछ झूठा दिखता..। वह मेरे कंधे को सहलाती हुई कितनी पवित्र थीं... मैं उनका सामना नहीं कर सकता था। मुझे पता था जैसे ही मैं उनकी तरफ देखूंगा, वह मेरे भीतर का चोर उनकी सारी पवित्रता को झूठ में बदल देगा...। फिर मुझे लगने लगा कि पहली बार मुझे किसीने पकड़ा है.... असल में पहली बार मैंने खुद को पकड़ा है... अपने समूचे झूठ को, अपनी पूरी कायरता में...। उन्होंने मेरे बालों पर हाथ फेरा और दूसरी ओर चल दी... मैं जड़ था।
भाषा कितना छोटा कर के रख देती है हर स्वाद को...। मैं अपनी इस बात को भी लिखने में असमर्थ हूँ.... भाषा घुसते ही नमक हो जाती है और हमको सब कुछ ठीक लगने लगता है... स्वादिष्ट।
मैं जड़ था.. और इसमें कोई स्वाद नहीं था... मैं कुछ भी देखना सुनना नहीं चाहता था...। मैं अभी भी उनका स्पर्ष अपने कंधे पर महसूस कर सकता था। मैं बार-बार अपने कंधे को छु रहा था... उनके बूढ़े कोमल हाथ... मैं उन्हें चूम लेना चाहता था... उन हाथों में अपना अनकहा पढना चाहता था।
मैं अकेला वहीं खड़ा था। रात हो चुकी थी... सब कुछ चुप था.. सिवाए रात की आवाज़ों के। मैं अपने कमरे की तरफ मुड़ गया...।
अपना लेपटाप खोलकर मैं बहुत देर कोरेपन को ताकता रहा....। मुझे वह सारे कमरे याद आ गए जिनमें मैं रहा था... वह सारी दीवारें, जिनपर मेरे शरीर के निशान रह गए थे...। वह अकेली वीरान रातें जिन्हें मैं भूल चुका था। तभी दरवाज़े पर ’खट..’ हुई...। मैंने दरवाज़ा खोला वह सामने खड़ी थी... उनके हाथ में एक बीयर की केन थी... और दूसरे हाथ में एक चिप्स का पेकेट... उन्होंने मुझे दिया... और वह जाने लगी.. मानों वह अपने इस बर्ताव से बहुत शर्मिंदा हों....। मैंने उन्हें रोका.... और धन्यवाद कहा... वह घबराई हुई जाने लगी...। मैंने उन्हें अपना नाम बताया... उन्होंने जवाब में कहा.... ’खुश....’। यह उनका नाम था... ’खुश..’।

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल