Friday, September 2, 2011

खुश......





हड़बड़ाकर उठा तो देखा मैं एक खाली से कमरे में था... मैं अपने घर पर नहीं हूँ.. मैं कोरिया,(तोजी) वानजू नाम के एक गांव में हूँ....यहाँ मैं एक महिने के लिए बतौर लेखक आया हूँ। सफर की थकान ने सब भुला दिया था.. कुछ देर में मैं यथार्थ को ताकने लगा। कुछ किताबें.. मेरा लेपटाप.. एक डायरी... सिगरेट के पेकेट... फिर लगने लगा कि यह मुझे ताक रहे हैं... उनके ताकने में इंतज़ार था। टेबल पर घड़ी रखी हुई थी। रेंगते हुए समय देखा.. शाम के छे बजने वाले थे। बालकनी का दरवाज़ा खोला तो सामने पहाड़ दिखाई दिये... गहरे हरे रंग से पुते हुए। मेरा पहाड़ों से बहुत अच्छा संबंध रहा है.. पर यह पहाड़ मुझसे बहुत दूर थे... मैं शायद अभी इनमें भटका नहीं था। कुछ देर में खाने का बुलावा आने वाला था। मेरे अलावा यहाँ सभी कोरियन हैं... किसी को भी कोरियन के अलावा कोई भी भाषा नहीं आती है... । मैं जल्दी-जल्दी तैयार होकर खाने के लिए मेस में निकल पड़ा.... सिर्फ आँखे और मूक अभिवादन पहचान के थे... उसके बाद हम सब अपनी-अपनी थालीयों में सिर घुसाए खाते रहे..। कोरियन बहुत शर्मीले स्वभाव के होते हैं... वह आपस में भी बहुत कम बात कर रहे थे..। खाने के बाद मैं टहलने के लिए मैं गांव की तरफ निकल आया... बहुत साफ सुथरा गांव है... बहुत कम लोग दिखाई देते है...। घर हैं लेकिन घर के बाहर कोई चहलकदमी नहीं दिखती... लगता है कि लोगों के यहाँ पर वीकएंड बंगले है... वह लोग रहते कहीं और हैं.. पर ऎसा नहीं था..। चारों तरफ खेती है... और उन खेतों को गहरे हरे रंग के पहाड़ों ने चारों तरफ से घेर रखा है..। कुछ लोग सड़क पर दिखे... मैंने अभिवादन में सिर झुकाया पर वह बस मुस्कुरा दिये..। किसी अजनबी देश के अजनबी गांव में आपको लोगों की आँखें अजीब सी लगती हैं.. लगता है वह लोग एक खूबसूरत संसार में हैं.... जिसकी प्रदर्शनी किसी आर्ट गैलरी में लगी है.. और मैं किसी गंदे पर्यटक की तरह उन्हें निहार रहा हूँ, उनकी तस्वीरें लेना चाहता हूँ... जिसे वह बिलकुल भी पसंद नहीं करते। मैं चलते-चलते अपने में खो गया। उनके संसार को घूर-घूर कर देखने की बजाए चुपचाप उनके संसार में सांस लेने लगा। इस पूरे इलाके में अजीब सी चुप्पी है.. हर कुछ देर में कोई गाड़ी सड़क पर से गुज़र जाती है तो उस चुप्पी का एहसाह होता है जो स्थिर है... जो चारों तरफ फैली हुई है। मैं एक पत्थर पर बैठ गया... इस गहरी चुप्पी में कुछ बुदबुदाने लगा... फिर मुझे याद आया मैं असल में दो दिनों से चुप हूँ... मैंने अभिवादन और धन्यवाद जैसे शब्दों के अलावा कुछ भी नहीं बोला है..। मैं खुद से बातें करने लगा कुछ ऎसे जैसे खुद से नहीं किसी ओर से बोल रहा हूँ। फिर अपनी ही बातों से चिढ़ होने लगी... खुद से मैं कितने झूठे सुर में बोलता हूँ.. इससे तो चुप्पी ही बहतर है..। मैंने सिगरेट जलाई और कुछ आगे की ओर चल दिया...। तभी सामने से आती हुई एक वृद्ध महिला दिखी... मैं उन्हें पहचान गया.. क्योंकि वह हमेशा एक अजीब सी चौड़ी टोपी लगाए रहती हैं.. वह पेंटर हैं...। वह मेरी तरफ ही चली आ रही थी... मैं उन्हें देखकर मुस्कुरा दिया... पर भीतर एक डर था कि उनसे बात क्या होगी...। उन्होंने आते ही.. कोरियन भाषा में बोलना चालू किया... मैं उनका दिल नहीं तोड़ना चाहता था सो कुछ यूं सिर हिलाता गया कि मुझे कुछ-कुछ बातें समझ में आ रही हैं..। सब लोगों के सामने वह अभिवादन करने में भी झेंप रही थीं.. पर अकेले में वह लगातार बोले जा रही थीं...। फिर बीच में वह बोलते-बोलते हंसने लगी..। मेरे लिए सब कुछ संगीत था सो मैं बस सुरों के उतार चढ़ाव समझ रहा था। हंसने के बाद वह कुछ देर चुप रहीं... इधर-उधर देखने लगी.. फिर एक छोटे से घर की तरफ इशारा किया.. और कुछ धीमी आवाज़ में बोलने लगी...। जब वह मेरी तरफ मुड़ी तो उनकी आँखें भीगी हुई थी...। मैं यह सुर पहचानता था... असल में मैं सारे सुर पहचानता था... पर सुनने में भी मैं अभी तक दूर थी... पर्यटक जैसा... तस्वीरे लेता हुआ...। मुझे खुद से बहुत घृणा सी होने लगी.... मैंने अपनी आखें नीचे कल ली...। उनके सुर टूट गए.. वह अचानक नीचे सुर में गाते-गाते रुक गई.... मुझे पता था कि उन्होंने पूरा राग नहीं गाया है... मेरी आँखे नीचे कर लेने में वह टूट गया बीच में कहीं। उन्होंने कुछ कदम मेरी तरफ बढ़ाए... मेरे कंधों को छुआ... सहलाया। मेरे भीतर एक चोर था... एक झूठ से भरा हुआ थेला लिए चोर... जो मेरे सारे जीने को, उनके अनुभवों को अपने झूठ के थेले में भर लेता...। जब भी मैं अपने अनुभवों, अपने जीए हुए के बारे में कुछ कहता, लिखता... सब कुछ झूठा दिखता..। वह मेरे कंधे को सहलाती हुई कितनी पवित्र थीं... मैं उनका सामना नहीं कर सकता था। मुझे पता था जैसे ही मैं उनकी तरफ देखूंगा, वह मेरे भीतर का चोर उनकी सारी पवित्रता को झूठ में बदल देगा...। फिर मुझे लगने लगा कि पहली बार मुझे किसीने पकड़ा है.... असल में पहली बार मैंने खुद को पकड़ा है... अपने समूचे झूठ को, अपनी पूरी कायरता में...। उन्होंने मेरे बालों पर हाथ फेरा और दूसरी ओर चल दी... मैं जड़ था।
भाषा कितना छोटा कर के रख देती है हर स्वाद को...। मैं अपनी इस बात को भी लिखने में असमर्थ हूँ.... भाषा घुसते ही नमक हो जाती है और हमको सब कुछ ठीक लगने लगता है... स्वादिष्ट।
मैं जड़ था.. और इसमें कोई स्वाद नहीं था... मैं कुछ भी देखना सुनना नहीं चाहता था...। मैं अभी भी उनका स्पर्ष अपने कंधे पर महसूस कर सकता था। मैं बार-बार अपने कंधे को छु रहा था... उनके बूढ़े कोमल हाथ... मैं उन्हें चूम लेना चाहता था... उन हाथों में अपना अनकहा पढना चाहता था।
मैं अकेला वहीं खड़ा था। रात हो चुकी थी... सब कुछ चुप था.. सिवाए रात की आवाज़ों के। मैं अपने कमरे की तरफ मुड़ गया...।
अपना लेपटाप खोलकर मैं बहुत देर कोरेपन को ताकता रहा....। मुझे वह सारे कमरे याद आ गए जिनमें मैं रहा था... वह सारी दीवारें, जिनपर मेरे शरीर के निशान रह गए थे...। वह अकेली वीरान रातें जिन्हें मैं भूल चुका था। तभी दरवाज़े पर ’खट..’ हुई...। मैंने दरवाज़ा खोला वह सामने खड़ी थी... उनके हाथ में एक बीयर की केन थी... और दूसरे हाथ में एक चिप्स का पेकेट... उन्होंने मुझे दिया... और वह जाने लगी.. मानों वह अपने इस बर्ताव से बहुत शर्मिंदा हों....। मैंने उन्हें रोका.... और धन्यवाद कहा... वह घबराई हुई जाने लगी...। मैंने उन्हें अपना नाम बताया... उन्होंने जवाब में कहा.... ’खुश....’। यह उनका नाम था... ’खुश..’।

9 comments:

पारुल "पुखराज" said...

lagaa jaisey koi gazal suni ho..

दीपक बाबा said...

मनसायन ......

induravisinghj said...

Nostalgic...

Pratibha Katiyar said...

khush!

Pratibha Katiyar said...
This comment has been removed by the author.
प्रवीण पाण्डेय said...

ऐसा ही कुछ हो माहौल हो, रचनाकार के लिये।

Swapnrang said...

bahut khush

NIMISH G said...

This is actual ''Maun mein Samwaad''.

NIMISH G said...

This is actual ''Maun mein Samwaad''.

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मानव

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल