Saturday, December 6, 2008

ईकोपा...




आज शायद आख़िरी बार मैं ईकोपा (मेरा घर....) के साथ बैठा हूँ...।
दरारें........
कुछ छोटे चहबच्चों से जाले, कुछ बड़े भी...
पीठ और सिर के निशानों से भीगी हुई दीवारें, और कुछ नाखूनों के खुरचने का दर्द ली हुई दीवारें....।
मैं शांत था... वहीं अपनी कुर्सी पर बैठा था। चार सालों की सी सदी.... यहीं इसी के साथ जी है। यहीं सारा कुछ लिखा, सारी चित्रकारी की, सारा का सारा यहीं बना और यहीं बिगड़ा भी हैं। यह घर एक लौ की तरह मेरे साथ रहा है...मैं इसमें नहीं यह मुझमे था। ’था’ का प्रयोग करना थोड़ा कठिन है... पर यह ’था’ ही सही है अब!!!
काफी देर से मैं एक दरार देख रहा था। हमारे संबंध में मुझे इसके, इस तरह के मूक संवादों की आदत सी है। यह टूटा नहीं... शायद इसे बहुत पहले टूट जाना था, पर यह बना रहा, अपनी लौ के दायरे में मुझे समेटे हुए। यह जितने सच का साक्षी होकर चमक रहा है... उतने ही झूठ इसने अपनी दीवारों के कोनों के जालों में लटकाए हुए है। यहाँ-वहाँ कोनों में सिमटी हुई नमी भी है.... जिसका एहसास सिर्फ हम दोनों को है।
पता नहीं क्यों मैं अपनी कुर्सी से खड़ा हो गया... और मेरे मूँह से ’sorry’ की एक अजीब बुदबुदाहट हुई। मैं माफी मांगना चाह रहा था... इस घर से... इसके ना टूटने से.. इसकी लौ से... इसके जालों, दरारों से...।कौन माफ करेगा मुझे? क्या माफी काफी है?
तभी मुझे मेरे गद्दे के पास की दीवारों पर कुछ निशांन दिखे... यह सारे निशांन अपनी-अपनी कहानियाँ लिए हुए है। यह मिटा दूँ?.. कैसे मिटते हैं यह?... यह असल में कहानी भी नहीं हैं... यह कहानी की कतरनें हैं... जो छूटी हुई है। इन कतरनों से जो कहानी बन रही है वह मैं अब सुनना नहीं चाहता।
मैं वापिस अपनी कुर्सी पर बैठ गया। इसके बाद कुछ निजी संवाद हुए, जिसकी ’आह’ हम दोनों के मूँह से निकलती रही।
कैसे छिन सकता है यह.... मुझसे?
मैंने यह लौ नोचकर अपने शरीर से बाहर की... और घर को विदा कहाँ.... नहीं विदा कह नहीं पाया...।अभी कुछ दिन और है.... शायद मैं इसे कभी विदा कह भी नहीं पाऊगाँ।
ईकोपा, मेरा गुलाबी सा जवान घर, हमेशा अकेले में मेरे साथ रोता है..... पता नहीं क्यों?

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल