Wednesday, September 15, 2010

निर्मल और मैं....



निर्मल और मैं...
निर्मल- देखो इस बार मैं खुद ही चला आया बिना तुम्हारे बुलाए।
मैं- आपका इंतज़ार था मुझे।
निर्मल- तो इन दिनों क्या चल रहा है।
मैं- नाटकों का मौसम है.. सो नाटक कर रहा हूँ।
निर्मल- क्या पढ़ रहे हो?
मैं- बिलकुल नहीं के बराबर पढ़ाई है... अभी अगला नाटक पूरा नहीं किया है।
निर्मल- बीच में तुम कहानियों की तरफ मुड़े थे उसका क्या हुआ?
मैं- कुछ समय तक सीधे चल रहा हूँ.... जल्द फिर मुड़ जाऊंगा।
निर्मल- कहानी लिखने का अगर एक बार स्वाद चढ़ जाए तो फिर वह उतरता नहीं है। नाटकों में फिर भी बहुत से बाहरी तत्व काम करते हैं.. जो उसकी शुद्धता को दूषित करते रहते हैं... पर कहानी शुद्ध कला है... वह पतंगबाज़ी जैसी है... तुम्हारे म्मताज़भाई जैसी।
मैं- मेरे म्मताज़ भाई तो आप ही हैं..। मैं आपसे बिलकुल सहमत हूँ.. बहुत समय से इस नाटकों के वातावरण से अजीब सी दुर्गंध आने लगी है। शायद इसका कारण मैं ही हूँ... बहुत दिनों तक मैं एक जैसा जी भी नहीं सकता। मुझे लगता है कि मुझे नाटक बीच-बीच में करना चाहिए.. लगातार नहीं।
निर्मल- तुम्हारे लगने से अगर सब कुछ होता तो तुम इस वक़्त प्राग में बैठे होते।
मैं- हा....हा....हा....।
निर्मल- जो हो रहा है उसपर ध्यान दो, जो हो सकता है उसकी बात काल्पनिक दुनिया जैसी बात है, जो बहुत ही खतरनाक है। काल्पनिक दुनिया बाज़ार के लिए है उससे लोग अपना पेट.. घर.. अंह्म भरते है... उससे दूर ही रहो।
मैं- पर जो रियालिटी है वह कितनी उबाऊ है?
निर्मल- हाँ वह तो है ही.. कल्पना असल में रियालिटी का सेलिब्रेशन है... जैसे अकेलेपन का सेलिब्रेशन एक खूबसूरत आर्ट होता है।
मैं- आप चाय पीएगें?
निर्मल- बिलकुल पियूंगा।
मैं- इस बीच मेरा लिखे हुए ने मुझे बहुत ही संतुष्ट किया निर्मल जी।
निर्मल- अच्छा है।
मैं- पढ़ने को बहुत कुछ बचा है।
निर्मल- इन दो नाटकों के बाद पहाड़ चले जाना.. बहुत दिनों से तुम पहाड़ भी नहीं गए हो।
मैं- हाँ इस बार इच्छा है कि कहीं दो तीन महीने के लिए जाया जाए... किसी गांव में.. किसी छोटी सी जगह में सारा वक़्त बिता दिया जाए।
निर्मल- हाँ अच्छा है। यात्राएं बहुत महत्वपूर्ण होती है क्योंकि कई बार जीवन में भूमिकाए ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है मुख्य कहानी से... उन भूमिकाओं को झाड़ते रहने के लिए... और कहानी पर बने रहने के लिए ज़रुरी है कि यात्राएं जीवन में बनी रहे।
मैं- आपको लगता है कि मेरे जीवन में भूमिकाए बढ़ती जा रही हैं?
निर्मल- उद्धाहरणार्थ है भाई यह...
मैं- नहीं पर आपने कहा भूमिका...
निर्मल- छोड़ो उसे लाओ चाय दो।
मैं- आपने अपने ख़त में वह अकेलेपन की बहुत ही सुंदर बात कही कि हम लोग अपना अकेलापन चुनते है.. और इस बात के लिए हमें कोई भी माफ नहीं करता।
निर्मल- हं.. west में अकेलापन एक स्थिती है.. हम लोगों के लिए नहीं।
मैं- मैं भी हर कुछ समय में असहज हो जाता हूँ।
निर्मल- सहजता कला है.. उसका रियाज़ ज़रुरी है... वह इतनी आसानी से नहीं आती।
मैं- बाद में मैं खुद को बहुत कोसता हूँ। पर तब तक देर हो चुकी होती है।
निर्मल- तुम्हारी नई कहानी कैसी चल रही है।
मैं- कल रात ही कुछ आगे बढ़ी है।
निर्मल- व्यक्ति जो लिखता है और जो उसे सहता है... इसमें अंतर है... और अंतर जितना बड़ा होता है.. कला उतनी ही अच्छी होती है।... किसी ने कहा है।
मैं- हाँ मैं जानता हूँ।
निर्मल- अभी जानते हो.. अब इसे समझो भी.... चलता हूँ।
मैं- जल्द मुलाकात होगी।
निर्मल- आशा करता हूँ।

Sunday, September 12, 2010

मेरे प्रिय दोस्त... (माफी नामा)


मेरे प्रिय दोस्त,
एक माफी नामे के साथ इस ख़त की शुरुआत करना ठीक होगा। पीछे कुछ दिनों सन्नाटे से वाक़िफ हुआ... मौन में बात कहना सीख चुका था.. पर सन्नाटे की परिभाषा कुछ गलत पता थी। उस सन्नाटे के भीतर जब सांस लेना कठिन हो रहा था तब मैंने ब्लॉग पर एक पोस्ट लिख दी...”मैं अब थियेटर छोड़ना चाहता हूँ”। यक़ीन कर सके दोस्त तो उस स्थिति में अपनी ईमानदारी से जो भी शब्द मुँह से निकले उन्हें मैंने चिपका दिया। सन्नाटे के अर्थ बूझते-बूझते जब घबराहट थोड़ी ठंड़ी पड़ी तो उस पोस्ट पर बहुत से साथियों के कमेंट्स देखे। खुद पर बहुत गुस्सा आया.. पर मौन में बात में मैंने तय कि था कि अपनी पूरी ईमानदारी से जो भी लिख सकता हूँ वह लिखूंगा... सो भीतर की छटपटाहट को छुपा ना सका। वह बाहर आ गई। अभी यह माफी नामा सा है उन सभी से जो उस पोस्ट के बाद कुछ चिंता में आ गए थे।
मैं अपने साथ लिखने के अलावा कुछ भी नहीं कर सकता हूँ। मैं लेखन को उसके पूरे संसार के साथ स्वीकार करता हूँ। उस संसार में अगर आर्थिक परेशानियाँ है तो उनका मुझे शुरु से ही पता था.... माफी चाहता हूँ थोड़ा विचलित होने के लिए।
अभी भी अपनी कहानी “म्मताज़ भाई पतंग वाले” का नाट्य रुपांतरण किया है। जो बेहद सुखद अनुभव था। २२,२३ और २४ अक्टूबर को पृथ्वी थियेटर में उसका प्रयोग है.. सो रिहर्सल में व्यस्त हो चुका हूँ। अपने छोटे से बनाए हुए संसार में हूँ.... जो बहुत सुखद है। सन्नाटे का अर्थ अभी भी बूझ ही रहा हूँ... भवानी भाई की कविता में वह कहानी स्वरुप में है.. पर उसकी प्रतिध्वनी बहुत विशाल और असहज कर देने वाली है। मौन और सन्नाटे में अंतर भी बहुत विशाल है...। शायद उस अंतर को अपने लेखन में कहीं पा सकूं। माफी नामें का यहाँ अंत करता हूँ एक और माफी के साथ।
अब बात आगे की...... दोस्त कुछ दिन पूरी तरह नाटक खत्म करने में बीत गए...। फिर एक अजीब घटना हुई... कुछ लोग मेरे घर गणपति का चंदा मागने आए। मैं इस चीखते चिल्लाते धर्म का यूं भी काफ़ी विरोधी रहा हूँ... पर पचास रुपये देकर जान छुड़ानी चाही...। उन्होने पचास रुपये लेने से साफ मना कर दिया, कहाँ नियम है.. एक सो इंक्यावन नक़द चाहिए...। मैं अब अपना निहलिस्ट होना छुपा ना सका... मैंने मना कर दिया। लाल गुस्साई आँखे मेरे ऊपर तन गई। उन्होंने कहाँ बाद में दे दीजिएगा। मैंने सो चलो अभी तो बात टली... बाद में वह लोग फिर आ धमके.. इस बार कुछ देर रात आए थे। कुछ लोगों के मुँह से मदिरा बुरी तरह महक रही थी... मैंने फिर पचास रुपये देने की सिफारिश की... वह फिर अपनी बात पर अड़े रहे...। इस बार बग़ल वाले ने कहाँ कि हम तेरे ब्रोकर को भी जानते है जिसने यह मकान तुझे दिलाया है और तेरे मकान मालिक को भी.. अब यह सीधी-सीधी धमकी थी। मैं कुछ संकोच में आ गया...। वह लोग मुझे धूरते रहे...। मुझे यह तो समझ में आ गया कि अगर मुझे इस वनराई नाम की छोटी सी दुनियाँ में रहना है तो.... इन मगरमच्छों से बेर लेने से कोई फायदा नहीं है.. और फिर इसका अंत क्या है? अगर मैं सच में मनुष्य की आज़ादी नाम की बातों पर लड़ना चाहता हूँ तो मुझे सब कुछ छोड़कर इसमें कूदना पड़ेगा...। मैं शायद अपनी तरह से अपने लिखे में यह काम कर ही रहा हूँ...।
वह लोग मेरे सामने खड़े, नशे में मुझे घूर रहे थे... अचानक मुझे लगने लगा कि मैं थियेटर में एक छिछोरी फिल्म देखने गया हूँ और मुझे यह लोग कह रहे हैं कि “ऎ भाई... जण-गण-मन.. शुरु हो गया.. चलो खड़े हो जाओ...” और मैं वहाँ भी चुपचाप खड़ा हो जाता हूँ। फिर लगने लगा कि यह कह रहे हैं कि तुम तो भोसड़ी के कश्मीरी हो... वहाँ कुछ नहीं कर पाए.. अब यहाँ हमें सिखा रहे हो...”मनुष्य की आज़ादी?”
मुझे लगने लगा कि सच है..मैं कहीं पर भी कुछ नहीं कर पाया। क्योंकि मुझे कोई भी समस्या, मेरी समस्या लगती ही नहीं है। मुझे लगता है कि यह दुनिया एक तरीके से चलती है.. मैं इसमें कुछ इस तरह से हूँ कि इसका पूरी तरह हिस्सा हूँ...। इसके एक-एक दिन का... एक-एक क्षण का...। जब कश्मीर में कोई मरता है तो मैं ही मरता हूँ और उसे मारने वाला भी मैं ही हूँ... तब कुछ भी बचा नहीं रहता जिसके खिलाफ मुझे, सब कुछ छोड़-छाड़कर कूद जाना चाहिए।
सो मेरे प्रिय दोस्त.. उन दो नशेड़ों के सामने मैंने चुप-चाप एक सौ इंक्यावन रुपये नक़द रख दिये। दरवाज़ा बंद करके मैं अपने दड़बे में बहुत देर तक सोचता रहा... आज़ादी जो मिली है मैं उसका क्या करता हूँ????
आशा करता हूँ... हम सब स्वस्थ होगें...
बाक़ी अगले विचार पर....
मानव...

Saturday, August 21, 2010

मेरे प्रिय दोस्त... (3..)


प्रिय दोस्त,
देर रात तुम्हें यह ख़त लिख रहा हूँ...। मैं हमेशा ऎसी अंधेरी घनी रातों में मौन हो जाता हूँ... या किताबों का सहारा ले लेता हूँ, पर किताबें कब तक हमारे उन बोझिल एकांतों का सहारा बनेगीं जिनसे हम लगातार लुका-छिपी का खेल खेलते रहते हैं। मैं उनका सामना भी नहीं करना चाहता हूँ... इस बीच तुम्हारा ख्याल आ गया सो लगा तुमसे ही बात कर ली जाए...।
आज दिन में मैं निर्मल वर्मा के पत्र पढ़ रहा था, उसमें उन्होंने एक बहुत ही सुंदर बात कही... “तीसरी दुनिया के लेखक का ’अकेलापन’ पश्चिमी मनुष्य के अकेलेपन से बहुत अलग है, वहाँ यह एक स्थिति है; यहाँ अकेलेपन को ’चुनना’ पड़ता है, जानबूझ कर आपको दूसरों से अलग होना पड़ता है, जिसके लिये ’दूसरे’ आपको कभी माफ़ नहीं करते; अकेलापन अहं जान पड़ता है, और अन्त तक एक stigma की तरह आदमी पर दग़ा रहता है।“
फिर कुछ karel chapek की कहानियाँ भी पढ़ी जो बहुत ही खूबसूरता लगीं।
एक भाग मेरा कहानियाँ लिखना चाहता है तो दूसरा नाटक के अधूरेपन से चिंताग्रस्त है और मैं एक अजीब से बदलाव का इंतज़ार कर रहा हूँ। मैं उस बदलाव को सूंघ सकता हूँ, वह बहुत आस-पास ही कहीं है। मैंने हमेशा, एक समय बिता लेने के बाद, कुछ चीज़ों को छोड़ा है। मुझे नहीं पता इस बहाव में क्या बह जाए और क्या रुका रहे।
दिन भर शरीर कुछ अजीब से आलस्य में उलझा रहा। शाम होने का बेसब्री से इंतज़ार करने लगा... पर शाम होते ही घर में नीरसता सी छा गई। सो बाहर निकल गया... बाहर बिना बात के समय काटता रहा, सोचा जब रात घर में पहुंच जाएगी तो मैं घर जाऊंगा। शाम ने रात होते-होते मुझे थका दिया। जब घर में घुसा तो घर अपनी नाराज़गी लिए हुए था। मैंने बत्तियाँ जलाकर, पंखा चालू करके उसे मनाने की कोशिश की पर वह नहीं माना... फिर एक चाय की बात पर कुछ बात बनी...।
शायद यह मेरे विचारों की उथल-पुथल ही है जो एक confusion का दायरा अपने चारों तरफ बनाए हुए है। इसमें कोई भी विचार अपने विराम तक नहीं पहुंच रहा है। बीच में कहानी भी वापिस शुरु करने की कोशिश की पर सारे पात्र इतने सारे प्रश्न लिए मेरे पास आते हैं कि उनके जवाब मैं इस मन:स्थिति में नहीं दे सकता हूँ। वह मुझे बेचारा समझते हैं और मैं उनसे माफी मांगे बिना विदा ले लेता हूँ।
अभी-अभी ELFRIEDE JELINEK का उपन्यास piano teacher शुरु किया है जो बहुत सुंदर है।
मेरे घर बहुत से पौधे आए हैं... सुबह उठा था तो एक गमले में फूल भी खिला हुआ था। मैंने आज तक कभी अपना कोई फूल नहीं देखा है... उसके सामने खड़े होकर इतना सुख मिला कि दोस्त बयान नहीं कर सकता। दोपहर होते-होते दूसरे गमले में भी कुछ छोटे फूल नज़र आए... और यह सब इस घर का हिस्सा हैं.. यह एहसास बहुत सुखद है।
आज बहुत दिनों बाद एक कविता भी लिखी है... इसी के साथ तुम्हें भेज रहा हूँ, आशा है पसंद आएगी।
बीच में कुछ नाटक देखे जिनका अनुभव बहुत सुखद नहीं था।
इस गढ़-मढ़ से खत के लिए माफी चाहता हूँ... पर इस घने-अंधकार में कुछ शब्दों का निकल जाना एक तरह की खाली जगह बनाता है... जिसमें ’नींद’ शायद आसानी से प्रवेश कर सकती है... वरना नींद की जगह शब्द होते हैं... शब्दों के अपने चित्र होते है... और उन चित्रों की अपनी पहेली.. जिनके जवाब न दे पाने पीड़ा आपको जगाए रखती हैं।
आशा है तुम स्वस्थ होगे।
बाक़ी अगले विचार पर....
मानव...

Tuesday, August 17, 2010

मेरे प्रिय दोस्त... (दो..)



प्रिय दोस्त,
हर कुछ समय में हम सब एक ऎसी स्थिति में पहुंच जाते है कि हमें दुनियाँ का अर्थ बूझे नहीं बूझता है। सारे जवाब GOOGLE भगवान के पास मौजूद होने के बावजूद।
मैं इस संबंध मे कई दिनों से विचार कर रहा था कि इतनी सारी information का हम क्या कर सकते हैं? इतिहास मेरा प्रिय विषय होने के बावजूद मुझे कभी सन याद नहीं रहते थे। मुझे किसी के जन्म दिन याद नहीं रहते। मेरा अपना मोबाईल नम्बर याद करने में मुझे बहुत परेशानी होती है।
मैं जब new York के म्युज़ियम में धूम रहा था तो यह बात मुझे सबसे ज़्यादा अखरती थी। इतनी सारी information ... मुझे पता था कि मैं म्युज़ियम से बाहर निकलते ही यह सब भूल जाऊंगा फिर मैं क्यों यह सब सुन रहा हूँ।... फिर मुझे लगने लगा कि यह सारी information मुझसे चख़ने का हक़ छीन रही है। मैं किसी भी चीज़ का स्वाद ही नहीं ले पा रहा हूँ। मैं सारी information’s को दरकिनार करके वापिस म्युज़ियम घुसा... ओह!!!
Information एक तरीके से मेरे लिए हर चीज़ को मृत कर देती है। “यह था.....इस वक़्त.. ऎसे... “ – जैसे वाक़्य कला को मेरे लिए बिल्कुल ही निर्जीव चीज़ बना देते थे। मेरा उससे संबंध बनाए नहीं बनता।
प्रिय दोस्त, सीधे शब्दों में, मुझे हमेशा लगता है कि मेरे पहले एक दुनियाँ थी... जो चली आ रही थी लगातार... कुछ उसकी सूचना “Bill Bryson की खूबसूरत किताब- a short History of nearly everything से मिली... मेरा इसमें प्रवेश 1974 में हुआ.. उसके बाद से मैं दुनियाँ को, जैसी वह मेरे सामने आती है, जीना शरु कर दिया।
यह आसान नहीं है... इस जीने की प्रक्रिया के बहुत से नियम है जो एक सामाजिक ढ़ांचे के रुप में हमारे पुराने लोगों ने बनाए है... जिससे हम इस दुनियाँ में एक क़ायदे से जी सके। उन नियमों को जानने समझने और फिर अमल करने में (नियमों का उलंघन करने में भी...) आप खुद को एक ऎसी जगह पाते है जहाँ से आप एक तरीके की दुनियाँ देख रहे होते है (आपका point of view जैसा कुछ..)। फिर जिस दुनियाँ के इतिहास को आपने जीते-जी बटोरा था वह इतिहास और आपकी जगह से देखी जा रही दुनियाँ, आपस में मेल नहीं खाती। तब आप अपने तरीके से इस दुनियां को interpret करना शरु करते हैं.. जिससे कला, धर्म, अतंकवाद, नकसलवाद... आदि आदि शुरु होते हैं।
पर जब पहली बार आपको वह जगह मिली थी जिसे आप अपनी ज़मीन कह सकते थे... जहाँ से आप एक अलग तरीक़े की दुनियाँ देख रहे थे... तब आप अकेले थे...। उस वक़्त की खुजली कि- मैं बता दूं कि जो दुनियाँ मैं यहाँ से खड़े होकर देख रहा हूँ वह अलग है... ने सारा संधर्ष शुरु किया। जबकि सब अपनी अलग जगह से दुनियाँ देख रहे थे... और सभी अपनी-अपनी जगह बिलकुल अकेले हैं। इसमें हिंसा वहाँ शुरु होती है जब आप अपनी दुनियाँ को पूर्ण सत्य के रुप में स्थापित करना चाहते हो...। इसमें कुछ लोग आपके साथ हो जाते है जिनको अपनी ही जी हुई दुनियाँ पर थोड़ा कम भरोसा था। अब चूंकि वह अपनी ज़मीन और जहाँ से वह अपनी अलग दुनियाँ देख रहे थे, खो चुके होते है तो उन लोगों में हिंसक प्रवृति ज़्यादा होती है।
अब इसमें इतिहास इतना सारा और अनंत है कि वह काल्पनिक मौखिक उपन्यास जैसा हो जाता है। (जैसे war and peace लिखित न होकर एक मौखिक कथा हो।) अनंत इतिहास के कारण शब्दों पर भी विश्वास करने से डर लगता है। जैसे एक शब्द ’मन...’ है... बचपन से ’मन..’ से संबंधित मैंने इतना कुछ पढ़ा और सुना है कि वह एक व्यक्ति सा जान पड़त है जिसे मैं जानता था... जबकि मन कहीं नहीं है... भगवान भी मन के बहुत करीब आता है। खेर मेरे प्रिय दोस्त शब्दों को लेकर मेरी अपनी एक अलग कहानी है जिसका ज़िक्र मैं अभी नहीं करना चाहता हूँ।
प्रिय दोस्त यह सब शायद मैं अपनी ज़मीन पर खड़े होकर देख रहा हूँ, यह मेरी सुविधा की ज़मीन है जिससे मुझे थोड़ा जीने में आसानी सी लगती है। इस पूरी उथल-पुथल में मैं अपना मतलब निकाल कर किनारा नही कर रहा हूँ बल्कि अपने मतलबों को थोड़ा उल्टा-पल्टाकर देख रहा हूँ। दोस्त यह बात तुमसे कहते हुए भी मैंने ना जाने कितने वाक्य काटे और कितने वापिस जोड़ दिये... इस ख़त को लिखने में ही मेरे भीतर मानों कुछ सफाई सी हो गई... या कुछ कचरा स्थाई हो गया कौन जाने।
तुमसे संवाद करके अच्छा लगा। आशा है तुम्हें भी प्रसन्नता हुई होगी।
आपना ख्याल रखना।
बाक़ी अगले विचार पर...
तुम्हारा..
मानव

Monday, August 16, 2010

मेरे प्रिय दोस्त...


प्रिय दोस्त,
आज सुबह एक अजीब बोझ लिए उठा...। उठते ही कुछ हल्का होने के लिए मैं Ruskin Bond पढ़ने लगा। अजीब था कि Ruskin bond के बगल में van gogh की किताब रखी हुई थी। कुछ कहानियाँ खत्म करने के बाद मैंने सीधा van gogh उठा लिया।
कल मैंने Gandhi और godfather एक साथ देखी थी।
कल ही एक दोस्त ने मुझसे पूछा था कि ’अमर होने का क्या मतलब है?’
मेरे प्रिय दोस्त जब मैं उसे इस बात का जवाब सा दे रहा था तो खुद भीतर अजीब सी उलझन महसूस कर रहा था। मुझे कुछ बहुत से चित्र याद आए.... जैसे एक बच्चा पेड़ पर अपना नाम गोद रहा है। किसी मंदिर में एक सेठ का शिलालेख लगा हुआ है। फिर कुछ वह लोग याद आए जो ऎसे जीते है मानो इन्वेस्ट कर रहे हो। उन लोगों के बीच बैठे हुए किसी ने मरने की बात छेड़ दी तो लगभग सब लोगों का जवाब था कि ’अरे ऎसे कैसे मर सकते हैं... भाई इतना किया है... अभी इसे भोगना तो बचा ही है। बिना भोगे थोड़ी मरेगें।’
फिर कुछ और लोग याद आए जो किसी मकसद से जीते है... जो ओर भी असहनीय है। यह....हम यूं ही पैदा नहीं हुए हैं से लेकर हम यूं ही नहीं जी रहे है... इस की लड़ाई है। बचपन की इच्छा कि मैं अब बच्चा नहीं हूँ... लोग मुझे गंभीता से ले... के बड़े रुप हम सब देखते रहते हैं।
अब इसमें अमर होने की इच्छा मुझे बहुत ही सहज बहती हुई दिखती है।
मेरे प्रीय दोस्त मेरी उलझन वहाँ शुरु हुई जब इन सारी बातों के बीच मैं खुद अपना उद्धाहरण पेश करने लगा। जिसका मुख्य बिंदु ’निरंतरता’ था।
मैंने शुरु किया था कि जब मैंने अपना पहला नाटक प्रस्तुत किया था... उसकी मुझे जो याद है वह है नाटक के बाद मिली वाह वाही... मुझे तो कुछ संवाद अभी भी याद है जो लोगों ने नाटक देखने के बाद मुझसे कहे थे।
मेरे प्रिय दोस्त तभी मैंने अपने दोस्त से पूछा कि फिर उसके बाद मैंने इतने और नाटक क्यों लिखे? क्यों किये?... जवाब बहुत से थे पर उस वक्त जो जवाब मैंने कहा था वह था... शायद यह उस वाह वाही की याद थी जो मैं फिर से बार-बार जीना चाहता था। उस एक बात की निरंतरता मैं बनाए रखना चाहता था... ।
विचार एक अजीब सी निरंतरता की प्रक्रिया है। बिना विचार का कोई क्षण नहीं होता है। silent mind जैसी कोई चीज़ नहीं होती है। यह विचार अपने आश्चर्यों की निरंतरता बनाए रखना चाहते हैं। हमें हर आश्चर्य जीते ही सामान्य लगने लगते हैं... हम उन आश्चर्यों को तुरंत अपने जीने का हिस्सा बना लेते हैं..। पर उस आश्चर्य को जीते हुए जो अनुभव हुए थे उसकी निरंतरता की भूख कभी खत्म नहीं होती। जिसकी वजह से हम ईंट पर ईंट रखते जाते हैं... इसका कोई अंत नहीं है।
इन सब बातों के बीच में ही कहीं मैं चुप हो गया था। फिर बहुत लंबी ख़ामोशी के बाद हमने बातें बदलने की बहुत कोशिश की पर हम असफल रहे।
बहुत समय से मेरी इच्छा बढ़ती चली जा रही है कि मैं किसी पाहड़ पर एक गांव में चला जाऊं... जहाँ कुछ चार-पाँच अभिनेताओ की एक रेपेट्री खोल दूं। वहीं एक छोटा सा थियेटर बनाऊं.. और वहीं रहकर नए किस्म के प्रयोग करुं...। यह इच्छा दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही चली जा रही है। मुझे हमेशा से लगता रहा है कि नए प्रयोग... या नाटक की नई भाषा की शुरुआत कुछ इसी तरह की जा सकती है।
अभी तो नए नाटक के गुणा-भाग में लगा हूँ... “हाथ का आया?...शून्य” यह नाटक का नाम है।
प्रिय दोस्त इस नए नाटक को लेकर मैं काफी उत्साहित हूँ... आशा करता हूँ जो सोच रहा हूँ उसके अगल-बगल कहीं पहुंच जाऊंगा।
आशा है तुम अच्छे होगे...
बाक़ी नए विचार पर....
तुम्हारा
मानव

Thursday, August 5, 2010

New york, New york...


न्युयार्क के महीने भर के मेरे प्रवास की जितनी बातें मुझे अभी याद हैं उसका ब्यौरा कुछ इस प्रकार है।
मैं जब न्युयार्क से वापिस लौटा और पहली बार Jet lag जैसी चीज़ का शिक़ार हुआ तो अपने ही नाटक का एक वाक्य याद आ गया कि “दुनियाँ बहुत बड़ी है, बहुत बड़ी, उड़ते-उड़ते वाट लग गई।“
जब मुझे कुछ दिन न्युयार्क में हो गए तो एक शाम मैं अपने दोस्त Aris के साथ हडसन नदी के किनारे बीयर पी रहा था, हम दोनों अपने-अपने देश के थियेटर के बारे में बातें कर रहे थे... तभी कुछ असहज सी चुप्पी के बीच मैंने Aris से कहा कि ’मैं असल में एक बहुत ही छोटे से गांव में पला बढ़ा हूँ।’ मुझे नहीं पता कि मैंने ऎसा क्यों कहा और उसने इसका क्या अर्थ समझा होगा... पर वह मुझे देखकर मुस्कुरा दिया, हम काफी देर तक उसी असहज सी चुप्पी के बीच शांत बैठे रहे।
यह बहुत ही सहज था कि गैर-अंग्रेज़ी देशों के लोग आपस में काफी अच्छे दोस्त बन गए...। मेरे कुछ करीबी दोस्तों में Orly Rabinyan (Israel) , Aris Troupakis (Athens, Greece), Xavier Gallais (France), Laura Caparrotti (Italy) थे। इन कुछ लोगों की ख़ास बात यह भी थी कि यह उस किस्म का थियेटर ज़्यादा पसंद करते थे जिसकी तरफ मैं शुरु के आकर्षित रहा हूँ।
न्युयार्क शहर बहुत ही खुबसूरत और अतिव्यवस्थित शहर है। उस सामजिक ढ़ाजे के नियमों का लोग बहुत ही अनुशासन से पालन करते है और यही बात उनकी कला में भी नज़र आती है। उनके नाटक (जो मैंने देखे और समझ पाया...) एक बने बनाए मनोरंजन के नियमों का पालन करते हैं, इसलिए हमसे बहुत दूर दिखते है। म्युज़िकल नाटक का हर गीत.. कहीं सुना हुआ गाना लगता है। कुछ broadway के नाटक देखने के बाद मैं कुछ निराश सा हो गया। फिर मैंने एक 0ff broadway नाटक देखा OUR TOWN (Thornton Wilder) जो मुझॆ बहुत पसंद आया।
Lincoln Center Directors lab में तीन हफ़्ते बहुत ही उम्दा बीते। ’शक्कर के पाँच दाने’ (अंग्रेज़ी मे) के दो Presentations हुए, पहला जो मैंने present कीया और दूसरा presentation एक अमेरिकन director, Andrew ने किया जो बहुत ही अच्छा अनुभव रहा। कुल सत्तर निर्देशक सारी दुनियाँ से आए थे, लगभग सबका काम करने का तरीका और काम देखना बहोत ही रोमांचक अनुभव रहा। इस बार लेब का विषय “धर्म..” था... सो एक तरीके की बहस हर बात-चीत में छिड़ जाती... सबके अपने सिद्धांत थे, अलग-अलग आस्थाएं थी.... इन बहसों से मेरी थोड़ी दूरी रहती थी क्योंकि हमारे देश के चीख़ते चिल्लाते धर्म की थकान मेरे भीतर इतनी है कि मैं ऎसी बहसों में मौन ही रहता हूँ। इन सारी बहसों के करण कुछ लोगों की आपस में दूरीयाँ बढ़ गई और कुछ करीब आ गए। तीसरे हफ्ते अलग-अलग समूह साफ नज़र आने लगे थे। सभी लोगों ने अपने तरीक़े के लोग ढ़ूढ़ निकाले थे। धार्मिक बहसों के बीच मौन के कारण मैं लगभग हर समूह में भटकता रहा। जिन भी लोगों के साथ थोड़ी गहराई से जुड़ा उसका कारण सिर्फ थियेटर था.... धर्म नहीं।
इसके अलावा वह क्षण जिनका गहरा असर मेरे ऊपर अभी भी है वह हैं... JEAN-PAUL SARTRE और ALBERT CAMUS के PORTRAITS के सामने मंत्र मुग्ध सा खड़े रहना( CARTIER BRESSON की प्रदर्शनी में), VAN GOGH की पेंटिंग CYPRESSES AND STARS को घंटो अपलक ताकना, Aris के साथ थियेटर की बहसों में राते धुंआ करना, Orly के साथ बिताए कुछ पल... निम्रत के साथ पैदल न्युयार्क नापना.. और जो क्षण बुरी तरह याद है वह है उस अथाह शहर मैं धंटों अकेले धूमना... जहां आप किसीको नहीं जानते और आपको कोई नहीं जानता... कोई आपकी परवाह नहीं करता और आप किसी की परवाह नहीं करते और यह बात एक अजीब सी मुक्ति से आपको भर देती है। उस मुक्ति के क्षण में आप एक सच कहना चाहते हो, उसे लिख देना चाहते हो पर ऎसा नहीं करते और ‘ऎसा नहीं’ करना आपको खुशी से भर देता है... जिस खुशी के क्षण मैंने वहां खूब बटोरे हैं।
एक बड़ी समस्या अमरीकी थियेटर की है कि वहाँ जवान दर्शक नहीं है। सारे बूढ़े श्वेत अमीर अमेरीकन… महगें टिकिट खरीदकर नाटक देखते हैं और पूरा broadway थियेटर उनकी NOSTALGIA की भूख मिटाता है। वहां नाटको की अर्थव्यवस्था इतनी बड़ी है कि ’प्रयोग..’ जैसे शब्द की वहां कोई जगह नहीं है। पर off broadway और off off broadway में कुछ प्रयोग धर्मी नज़र आते हैं। अभिनेताओं और playwrights की बहुत इज़्ज़त है , जो जायज़ भी है, पर मेरे हिसाब से playwrights को थोड़ा ज़्यादा महत्व मिलता है... सो “Copy Left...” पर मैंने लिंकन सेन्टर में बात की जो सभी लोगों ने बड़े उत्साह से सुनी क्योंकि उन लोगों के लिए यह पहली बार सुना गया शब्द था।
एक भूखे बच्चे सा कोतुहल पूरे समय था कि सारा खाना खा जाऊं और फिर बाद में गाय जैसा सालों तक जुगाली करता रहूं..। मेरे एक अमेरिकन मित्र MARK जब मुझसे विदा ले रहा था तो उसने पूछा था कि ’इतना खूबसूरत समय.. इतने सारे लोग.. पता नहीं ज़िन्दग़ी में फिर इनसे कभी मुलाक़ात होगी भी कि नहीं...?’ मैंने कहां कि ’पता नहीं...’ बाद में मैंने जोड़ा ’वैसे... किसी बहुत खूबसूरत किताब को पढ़ने लेने के बाद हम कितनी बार उस किताब पर वापिस जाते हैं?’
अभी मैं कई लोगों के नाम भूल चुका हूँ, शायद कुछ समय में सब के चहरे भी खो जाए!! कुछ सालों बाद शहर याद रहे पर गलियाँ भूल जाऊं। बात याद रहे पर किसने कहीं थी यह भूल जाऊं। क्या छूट गया याद रहे पर क्या पाया था यह भूल जाऊं... मुझे नहीं पता। मेरे हिसाब से इन सबका मेरे अवचेतन पर जो असर हुआ है उसके निशान बहुत समय तक मेरे नाटको में नज़र आते रहेगें।

Sunday, June 6, 2010

शंख और सीपियां...


शंख और सीपियां...

24th,may, 2010


अतृप्त, बैचेन, छल, नींद, समझ.....

और फिर हम सुखी रहने लगे। कहते थे कि हम किसी भी तरह से गुज़र जाएगें, धीरे-धीरे ही सही पर हम गुज़र ही जाएगें।

फिर बहुत समय बाद......

’उदासी’ का कोई संबंध ’उदासीनता’ से नहीं है... या है...?

छोटी-छोटी खुशियाँ जो किनारे बहती हुई चली आती वह उन्हें बटोरकर घर सजा लेती... घर में सीपियों और शंखों की अपार भीड़ थी। मैं कभी-कभी छोटे शंख बजा लेता तो वह मना कर देती कहती अपशकुन होता है। वह विश्वास करती थी... मैं विश्वास और अविश्वास के झूले में झूलता रहता था। शंख हम बचपन में पल्ली पार जाकर बजाते थे... वहाँ बहुत रेत थी... ढ़ेरों शंख मिलते थे... उन्हें उग्लीयों के बीच में फसाकर खूब बजाते। मैंने उससे कहा कि
‘यह मेरे बचपन का खेल था...’
तो वह नाराज़ हो गई।
‘अब तुम बड़े हो चुके हो... बचपन बीत गया... अब घर बनाना है।‘
घर नहीं बन रहा था... वह बार बार मेरे पास आती और पूछती कि
‘घर क्यों नहीं बन रहा है?’
मैंने उससे कहा कि
‘मैं बचपन में घर-घर खेलता था, वहाँ मैंने बहुत घर बनाए हैं.. मुझे घर बनाने की आदत है.. मुझे आता है घर बनाना।‘
पर मैं अभी भी खेल रहा था.... मैं अभी-भी वहीं, खेल वाला घर बनाता हूँ रोज़।
उसने सारे शंख और सीपियाँ बाहर फेंक दिये।
मैं डर गया... कितना सारा शरीर से निचुड़कर निकल जाता है एक घर बनाने में...।
मैं अपने सीपियों और शंखों के चले जाने की तकलीफ ही बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। वह बाहर कहीं खुले में पड़े होगें... कोई कार.. कोई तांगा.. कोई स्कूटर उनके ऊपर से अभी तक गुज़र भी चुका होगा। अब कमरे में शंख, सीपियों की जगह खाली थी। मैंने वहाँ एक पानी से भरा खाली कटोरा रख दिया। ‘खाली जगह खुद अपने सामान तलाश लेती है...’- वह कहती थी, ‘घर ऎसे ही तो बनता है, बस एक खाली जगह मिल जाए जो अपनी हो, घर वह जगह खुद बन जाएगी।‘
खाली जगह की तलाश में मैं कई बार नदी किनारे गया। यहाँ काफी खाली जगह है... पर यह खाली जगह खाली नहीं है यहाँ शंख है सीपियाँ है... रेत है..., कुछ सांप है जो टहलते हुए इस तरफ चले आते हैं, गुबरेले कीड़े हैं.. झाड़ है, मछलियों के बाहर आकर तड़पने के निशान हैं। मैंने उससे कहा कि…
‘एक जहग मुझे मिलि है नदी किनारे.. पर वह खाली नहीं है वह बहुत सी चीज़ो से भरी पड़ी है, क्या उन सबके बीच तुम रह पाओगी?’
उसने कहा कि....
‘वह उन्हें खाली कर देगी बस उसे चार दीवार चाहिए।‘
अरे, यह शंख और सीपियों की जगह है, उन्हे उन्हीं की जहग से कैसे खाली किया जा सकता है?
चर्र... चट... चर्र... पट...

मैं पहाड़ों की तरफ चला गया। पहाड़ों में खाली जगह की कमी लगी। पहाड़ों में पहाड़ी गांव थे... या पहाड़ थे.. जहाँ भी खाली जगह थी वहाँ खेत थे, खेत खत्म होते ही पहाड़ शुरु हो जाता था। कुछ खाली जगह दिखी तो लोगों ने कहाँ कि यह जंगल है... । मैंने कहाँ जंगल तो थे...? तो उन्होने कहाँ कि
‘अगर यह जगह चाहिए तो इनके कटने का इंतज़ार करो.....’
पर मैं आगे बढ़ गया। बहुत से पहाड़ खत्म होने पर मुझे पहाड़ी गांव के कुछ चरवाहे मिले, मैंने उनसे कहा कि
’देखो मैं एक आदमी हूँ, एक औरत के साथ मैं रहता हूँ एक कमरे में... अब हमें लगता है कि हमारे पास एक घर होना चाहिए..।’
कुछ चरवाहे थे और उनके पास कुछ भेडें थी... भेड़ों ने सिर हिला दिया। मुझे लगा वह भेड़े हाँ और ना साथ में कह रही हैं...। मैं भेड़ों की भाषा समझने उनके कुछ करीब चला गया..
’हे...? हे...?’
मैं हे.. हे....करके उनसे वापिस पूछने लगा। तभी चरवाहों को लगा कि मैं शायद भेड़ों की भाषा जानता हूँ... सो उन्होने बीच में टोकते हुए कहा कि...
’सुनों तुम ठीक सोचते हो.....।’
सभी चरवाहे ’हाँ..’ में सिर हिला रहे थे...। वह मेरी बात समझ रहे थे। उस बात से वह इत्तेफाक भी रखते थे, सो मैंने बात आगे बढ़ाते हुए कहा कि...
’तो अब हमें एक खाली जगह चाहिए...।’
इस बात पर सभी चरवाहे चुप थे... ’खाली जगह?’- के प्रश्नचिन्ह उनकी आँखों में मैं देख सकता था। मैंने सोचा थोड़ा विस्तार में बता दूँ...
’देखों खाली जगह चाहिए, वह कहती है कि घर खुद-ब-खुद बन जाएगा।’
यह विस्तार उनके लिए बहुत बड़ा विस्तार था शायद... वह थोड़ा पीछे हट गए। मैं कुछ कदम उनके पास गया... वह कुछ कदम और पीछे हट गए। मुझे लगा विस्तार को खत्म करके सीधे बात पर आता हूँ...
’घर बनाना है... जगह चाहिए।’
सभी चरवाहे दूर पहाड़ों की तरफ देखने लगे। सारी भेड़ों ने इशारा जान उस और चलना शुरु कर दिया। भेड़ों को चलता देख सभी चरवाहे उनके साथ हो लिए.. और मैं उनके पीछे-पीछे। मैं भेड़ नहीं था... मैं चरवाहा नहीं था। भेड़ चाल मुझे थकाए जा रही थी। पर मैं उनके साथ बना रहा। घर बनाने के लिए भेड़-चाल ज़रुरी है। मैं बीच-बीच में रुक कर चीख़ता..
’खाली जगह... खाली जगह...।’
कभी भेडें तो कभी चरवाहे रुक कर देखते... फिर आगे को चलने लगते। इस तरह की बेइज़्ज़ती के बाद मेरा उनके साथ रहना मुश्किल था.. पर मैं बना रहा। घर बनाना है तो जो कर रहे हो उसे करते चलो... लगातार।
शाम होते-होते सभी भेड़े छितरने लगी। सारी भेड़ों ने अपनी-अपनी खाली जगह देखी और पसर गई। चरवाहों ने अपनी खाली जगह चुनकर आग जला ली। मैं दूर बैठा रहा। आग जलते ही चरवाहों की जगह घर लगने लगी... लगा उसने घर में चूल्हा जला लिया है। मैं भागकर चरवाहों के पास पहुँचा पर अगर यह घर है तो मुझे दरवाज़ा खटखटाकर भीतर जाना चाहिए... पर दरवाज़ा तो नहीं था.. मैं भीतर कैसे जाऊँ? ’भीतर’ कहाँ से शुरु होता है? क्या मैं अभी बाहर हूँ?
मैं कुछ देर भीतर-बाहर की टेक में लगा रहा। फिर एक आसान सा रास्ता अपना लिया। जहाँ तक उनके आग की रोशनी का दायरा है वहाँ तक उनका घर है। मैंने एक लकड़ी उठा ली और आग के दायरे के बाहर खड़ा होकर उस लकड़ी को ज़मीर पर खटखटाया..। चरवाहे मेरी तरफ देखने लगे...
’क्या मैं भीतर आ सकता हूँ?’
मैंने उनके जवाब की प्रतिक्षा की बजाए सीधा आग के उजाले में घुस गया।
’घर के लिए चूल्हा ज़रुरी है? हे ना?’
’हम्म!!!’
’दीवारे तो मानी जा सकती है?’
’हम्म!!!’
आग की लपट ने चरवाहो के चहरों पर अजीब से रंग की पुताई कर रखी थी। उनके जवाबों में रहस्यों की लपट थी।
’छत का क्या करोगे?’
एक बूढ़े चरवहे की आवाज़ बीच में से आई। वह कहाँ है? मुझे दिख नहीं रहा था।
’छत मानी नहीं जा सकती है।’- बूढ़े ने फिर कहा..मैंने उसे अबकी बार देख लिया था।
’बिना दीवारों के छत टिकेगी नहीं।’- मैंने कहा..
’दरवाज़ों के बिना दीवारों का कोई मतलब नहीं है।’ -इस बार यह बात एक जवान चरवाहे ने कही।
’दरवाज़े के बिना, अगर भीतर हो तो भीतर ही रह जाओगे और अगर बाहर हो तो बाहर ही रह जाओगे।’-एक बच्चे चरवाहे ने चुहल करते हुए कहा।’
मैंने हथियार डाल दिये थे.. मैंने हार कर कहा
’तो क्या सिर्फ आग जलाना काफी नहीं होगा?’
बूढ़ा चरवाहा खड़ हो गया वह मेरे पास आया और उसने कहा..
’एक ताला खरीद लो... घर खुद-ब-खुद बन जाएगा।’
अगले दिन मैं वहाँ से वापिस चला आया।
....
मैं ताला लिए उसके सामने खड़ा था।
’यह क्या है?’
’ताला!!!’
’क्या करें इसका?’
’यह घर बनने की शुरुआत है।’
’मतलब?’
’यह घोषणा है कि इस ताले के इस तरफ आना मना है, यहाँ हम रहते है।’
’लेकिन ताला लगाओगे कहाँ?’
’दरवाज़े पर।’
’दरवाज़ा कहाँ है?’
और मैं दरवाज़े की खोज में निकल गया।

“विचलित तन, विचलित मन, विचलित कुछ- सबकुछ।
कम ऊर्जा, कम बुद्धि, कम हम- श्रम।
रक्त बांह, रक्त थाह, रक्तिम ज़मी- हम।
रम अर्थ, रम कल्पना, रम विधी- शक्ति।
सार कम, सार श्रम, सार शून्य- थम।
थम चित्त, थम नित, थम हम- तुम।
प्रेम पीड़ा, प्रेम राग, प्रेम चंचल- मन।
घर कब्र, घर मंज़िल, घर चर- अचर।“

सहारे के लिए हमेशा की तरह मैंने खुद को नदी के पास पाया। नदी सहारा देती है... यह सिद्ध सत्य है। मैंने नदी से बात करनी चाही पर अंत में खुद को, अपने से ही बड़बड़ाते हुए पाया। कुछ देर की चुप्पी के बाद एक मल्लाह अपने डोंगे (छोटी नाव..) पर सवार मेरे सामने आ गया।
’पल्ली पार जाना है?’
मुझे अपनी शंख और सीपियाँ याद हो आई.. उस पार बहुत मिलती है। मैं डोंगे पर बैठ गया।
डोंगा चलाते हुए मल्लाह बार-बार मेरी तरफ देख लेता। मैं उससे नज़रे चुराते हुए यहाँ-वहाँ झांक रहा था। तभी उसने कहना शुरु किया..
’एक बार एक छोटी मछली उछलकर मेरे डोंगे में आ गई और तड़पने लगी। मैं कुछ देर उसे देखता रहा.. जब उसका तड़पना कुछ कम हुआ तो मैंने उसे उठाकर वापिस पानी में फेंक दिया.. वह बच गई।’
मैं उसे सुन रहा था पर नहीं सुनने की इच्छा में पानी से खेल रहा था। वह चुप हो गया। मुझे इस बात का कोई ओर-छोर समझ में नहीं आया... पर मैंने पानी से खेलना बंद कर दिया, शायद वह कुछ बोलेगा, इस आशा से मैं उसकी ओर देखने लगा।
’कुछ दिनों बाद यह घटना फिर से हुई। मैंने फिर से उस मछली को पानी में फेंक दिया... पर मेरे फेंकते ही वह वापिस उछलकर डोंगे में आ गई। मैंने फिर फेंका.. वह फिर आ गई।’
वह इस घटना को करके बता रहा था.. डोंगा बुरी तरह हिलने लगा.. मैं डर गया।
’फिर मैंने उसे वापिस नहीं फेंका... बहुत देर तक तड़पने के बाद वह मर गई।’
और वह चुप हो गया। वापिस वह अपना चप्पू उठाकर चलाने लगा। मैं बहती नदी के पानी में अपना मुँह धोने लगा...
’क्या वह मछली आत्महत्या कर रही थी?’- उसने कहा..
’हें...?’
आत्म हत्या शब्द मछली के साथ जाता नहीं है... मैंने सुना है कि पक्षि आत्महत्या करते हैं... पर मछली !!!
’क्या आपको लगता है कि उसने आत्महत्या कर ली थी?’- उसने फिर पूछा
किनारा अभी दूर था.. मैं जवाब टाल नहीं सकता था।
’मछलियाँ आत्महत्या नहीं करती।’- मैंने कहा...
किनारे पर आते ही उसने डोंगे को नदी के बाहर खींच लिया... ।
’आप मेरे साथ उस मछली के घर पर चलेगें?’ – उसने इच्छा व्यक्त की...
’मछली का घर?’
’हाँ मैंने उसके लिए एक घर बनाया है।’
’मछली के लिए..? घर क्यों बनाया? वह तो मर चुकी है ना?’
’हमारे यहाँ कहते हैं कि मरने पर जब आदमी अंतिम, गहरी नींद सो रहा हो तो उसे एक घर देना चाहिए, दरग़ाह जैसा कुछ...जिसमें वह बिना किसी तक़लीफ के चेन से सो सके।’
’तो क्या वह मछली इसीलिए तुम्हारे डोंगे में आकर मरी थी कि तुम उसे घर दे सको?’
’शायद....’
’तुमने उसके घर में ताला लगाया है?’
’क्या???’
मैं अपना सवाल दोहराना चाह रहा था, पर तब तक मछली का घर आ गया। एक छोटी सी दरग़ाह उसने मछली के लिए बना रखी थी... पीपल का पेड़ ऊपर था... एक कटोरा पानी उसके बगल में रखा था। मल्लाह ने पानी फेंक कर ताज़ा पानी नदी से भरकर उस कटोरे में रख दिया।
’क्या यह अपने घर से बाहर निकलती होगी?’
’हाँ तभी तो पानी रखा है।’
’पर तुमने घर में दरवाज़ा तो बनाया ही नहीं?’
’उसकी ज़रुरत नहीं है।’
मल्लाह मेरे सवालों से थोड़ा चिढ़ने लगा था। सो मैंने पूछना बंद कर दिया।
कुछ देर बाद मैं नदी किनारे शंख और सीपियां खोजने लगा...। इच्छा थी कि मल्लाह से दरवाज़े के बारे में पूछू पर हिम्मत नहीं हुई।


मैं बहुत से शंख और सींपियों को लिए वापिस उसके पास आ गया। वह मेरा इंतज़ार नहीं कर रही थी। मैंने चुप-चाप शंख और सीपियां उसी जगह पर रख दी जिस जगह पर शंख और सीपियां पहले रखी हुई थी। कटोरा भर पानी जो उसकी जगह मैंने रख दिया था उसे मैंने दूसरे कोने में रख दिया... सोचा जब दोबारा मछली के घर में जाऊंगा तो वहाँ रख आऊंगा।
जीतेजी खाली जगह का मिलना, दीवारे बनाना, दरवाज़ा में ताला लगाना जैसे काम असंभव लगा। असंभव नहीं है... संभव है.. पर मेरे भीतर मछली जितना साहस नहीं है... कि मैं उछलकर अपने पानी से बाहर आऊं और घर के लिए किसी के डोंगे में तडपता फिरु...। ना ही मुझमें चरवाहों जितनी शक्ति है कि जहाँ आग जलाऊं वहीं घर हो जाए...। मैंने घर के आगे समर्पण कर दिया और कमरे में अपना ताला लगाने लगा। वह नाराज़ रही फिर कहने लगी कि मैं अपना घर खुद बनाऊंगी ... मुझे एक खाली जगह मिली है...। कुछ सालों बाद वह अपनी खाली जगह पर चली गई... अपना घर बनाने.....।

Thursday, June 3, 2010

‘तोमाय गान शोनाबो...’


‘तोमाय गान शोनाबो...’

’मैं थक चुकी हूँ... सुनो... नहीं... मैं सच में बहुत थक चुकी हूँ, समीर प्लीज़... मुझे सोने दो।’
समीर कुछ बचपने की हरकतों के बाद पीछे हट गया। उसने अपनी टी-शर्ट भी उतार ली थी। वह धीरे से बिस्तर से नीचे उतरा, उसने टी-शर्ट को दो बार झाड़कर पहन लिया।
शील सोई नहीं थी, समीर के जाते ही वह तकिये से लिपटकर, दूसरी तरफ करवट किये लेटी रही। उसकी कोई भी हरकत इस वक्त एक बहस को जन्म दे सकती थी सो वह चुपचाप लेटी रही। तभी उसे प्यास लगने लगी... उसने सोचा वह उठकर पानी तो पी ही सकती है...वह उठने को ही थी कि उसे सिगरेट की महक आई और वह लेटी रही।
समीर अपनी डेस्क पर था... उसने सिगरेट पीते हुए एक किताब खोल ली... कुछ देर वह एक ही पन्ने पर शील से बात-चीत के सवाल जवाब पढ़ता रहा। कुछ देर में वह किताब रखकर कमरे के चक्कर काटने लगा। सिगरेट खत्म हो चुकी थी... वह धीरे से शील के करीब आया.. उसे लगा था कि वह शायद उसकी आहट से जग जाएगी, उसने उसके कंधे पर हाथ भी रखा पर वह सोई रही।
शील ने समीर का उसके बगल में आना महसूस किया, उसका स्पर्ष अपने कंधे पर भी महसूस किया पर वह लेटी पड़ी रही। उसे पता था अगर वह उठेगी तो क्या होगा.. कैसी बातें होगीं.. वह इन बातों के बीज अपने तलुए में महसूस कर रही थी। उसे अचानक अपने तलुओ में खुजली हो ने लगी... कुछ देर की बैचेनी के बाद उसने अपने दाहिने पैर से अपने बाएं पैर के तलुए को खुजला ही दिया, कुछ इस तरह कि वह गहरी नींद में है। कुछ ही देर में समीर की आहट बंद हो गई... फिर बिस्तर पर कुछ हरकत हुई और उसने समीर की देह को अपने बगलमें पसरते हुए महसूस किया। वह कुछ शांत हो गई। उसे पता था समीर कुछ देर में सो जाएगा... वह बहुत देर तक जगा नहीं पाता था। शील ने तकिये को कुछ और अपने भीतर भींचा... और लेटी रही।
समीर कुछ देर खिड़की का पर्दा खोलकर शहर देख रहा था... इसी में वह दिन भर खपा रहता है। वह अपने कल के दिन के बारे में सोचने लगा.. फिर सुबह उठना... घूमने जाना, नहाना, नाश्ता, ट्रेफिक, हार्न, पसीना, शील को उसके ऑफिस छोड़ते हुए अपने ऑफिस की लिफ्ट के बाहर देर तक खड़े रहना... आठवां माला... गुड मार्निंग की चिल्लपो... फाईल, कमप्यूटर, बॉस, ब्रेक... थकान, ऊब... और...अपने ऑफिस से घर तक धीरे-धीरे रेंगते हुए.. रोज़ चले आना.... तभी शील ने अपना तलुआ खुजाया और समीर की दिनचर्या थम गई... उसने पलटकर शील को देखा.. तब तक वह स्थिर हो चुकी थी। उसने वापिस खिड़की का पर्दा लगाया... धीरे से बिस्तर में घुसा और आँखे बंद कर ली।
शील को पानी पीना था... पर उसे कुछ इंतज़ार कराना होगा... समीर अभी अभी लेटा था। वह रोहन के बार में सोचने लगी। रोहन नया-नया उसके ऑफिस में आया था। दिखने में काफी सामान्य था पर बातें बहुत गोल-मोल करता था। पिछले कुछ समय से वह शील को इधर-उधर छूने से भी नहीं चूकता था। पहले-पहल शील ने एतराज़ नहीं किया पर बाद में उसने रोहन से कहाँ कि यह उसे ठीक नहीं लगता है। रोहन ने उससे माफी मांगी और मांफी के लिए उसने उसके साथ कॉफी पीने की ज़िद्द की... शील बहुत ना-नुकुर के बाद मान गई। कॉफी पीने में क्या हर्ज़ है? पर कॉफी हाऊस में, उस भीड़ में रोहन ने शील की कमर में हाथ डाल दिया... शील कुछ देर चुपचाप बैठी रही तो उसकी उंग्लियाँ हरकत करने लगी। शील कुछ देर में उठ गई। आज वह रोहन के साथ फिल्म देखने गई थी... जहाँ रोहन ने शील को चूमा, अपना हाथ शील के कपड़ों के भीतर डाल दिया... शील ने कोई प्रतिवाद नहीं किया। वह रोहन को इस बार नहीं रकना चाहती थी।
समीर सो नहीं पा रहा था... कुछ आटका पड़ा था। एक बार बात हो जाती, चाहे वह लड़ लेता, कुछ बात कर लेते पर इस तरह से सो जाना उसे खटक रहा था। वह जानता था शील बिना पढ़े सोती नहीं है... वह देर रात तक जागती रहती है। उसे ही कई बार कहना पड़ता है कि बत्ती बुझा दो... तब कहीं जाकर वह सोती थी। वह उठकर बैठ गया। बाथरुम में जाकर मुँह धोने लगा... फिर किचिंन में जाकर फ्रिज खोलकर थोड़ी देर खड़ा रहा, फ्रिज बंद करके गेस के पास कुछ टटोलने लगा.... लाईटर गेस के नीचे पड़ा था। लाईटर हाथ में लिए वह बहुत देर तक खड़ रहा... कई बार हवा में उसे जलाने की कोशिश की तीन बार की ’कट-कट’ के बीच एक बार वह जला। अंत में गेस जलाकर उसने कॉफी चढ़ा दी.. ब्लैक कॉफी। कॉफी बनाते वक्त पूरे समय उसके दिमाग़ में चल रहा था कि यह ग़लत है उसे कॉफी नहीं पीनी चाहिए.. वह सो नहीं पाएगा... पर अंत में वह कॉफी लिए वापिस उसी खिड़की पर खड़ा था... जहाँ से कुछ देर पहले वह अपने दिन भर के खपने के बार में सोच रहा था। उसे ऑफिस बहुत पसंद था, दिनभर की जल्दबाज़ी, काम पूरा करने की जद्दोजहद, फिर बीच में दोस्तों के साथ सीड़ियों पर जाकर सिगरेट के कश लगाना... एक भरा-पूरा माहौल.. उसमें उसे जो सबसे कठिन काम लगता था वह था उसका ऑफिस के घर आना... अचानक किसी का हाथ समीर ने अपने कंधे पर महसूस किया और उसके हाथ से कॉफी गिर गई।
शील ने करवट बदल ली थी...। किचिन से कुछ आवाज़े आ रही थी। वह कुछ देर रुकी रही... फिर धीरे से पलंग पर ही खिसकते हुए उसने समीर की तरफ पानी की बोतल खोजनी चाही पर वहाँ उसे बोतल नहीं मिली। उसे कॉफी की महक आई... ’इतनी रात गए समीर कॉफी पी रहा है?’ अब वह सोई नहीं.. उसे एक बहाना मिल गया था कि ’किचिन की खट-खट से नींद टूट गई’। बहाना मिलते ही वह बिस्तर से उठने को हुई पर कुछ सोचकर रुक गई। ’समीर किचिन से कॉफी लेकर आएगा और उसे इस तरह बिस्तर पर बैठा हुआ पाएगा...’ शील को यह ज़्यादा नाटकीय लगा सो उसने उठकर पानी पीना स्थगित कर दिया। वह बिस्तर पर बैठ गई और समीर का इंतज़ार करने लगी। समीर कुछ देर में किचिन से बाहर आया और सीधा खिड़की के पास जाकर खड़ा हो गया.... मानों कि नींद में चल रहा हो। शील को लगा कि समीर ने उसे देखा था... वह मुस्कुराई भी थी पर वह सीधा खिड़की पर जाकर खड़ा हो गया...। शील गुस्से में उठी और सीधा किचिन में गई... पानी पीया... और सीधा समीर के बगल में आकर खड़ी हो गई...। उसने धीरे से समीर के कंधे पर हाथ रखा और समीर के हाथ से कॉफी का कप गिर गया।
शील भीतर कॉफी बना रही थी। समीर, वाक्य विन्यास में कुछ गैर ज़रुरी शब्दों को निकाल रहा था और कुछ बहुत महत्वपूर्ण शब्दों को विन्यास में ठूस रहा था। उसे एक वाक्य में कुछ उस स्थिति के बारे में बात करनी थी जिस स्थिति को वह पिछले कुछ समय से महसूस कर रहा था। शील कॉफी लेकर बाहर आ गई...
’क्या हुआ?’
शील ने समीर को कॉफी पकड़ाते हुए कहा... समीर को इससे बहतर मौका नहीं मिलना था... उसने तुरंत अपना बनाया हुआ वाक्य उगल दिया।
’शील ठीक नहीं लग रहा है।’
समीर के हिसाब से सारे गैर ज़रुरी शब्दों को निकालने के बाद यह वाक्य ही उसकी स्थिति को सही सही स्थापित करता है।
’क्या हुआ?’
’मैं तुमसे बात करना चाहता हूँ... थोड़ा खुलकर..।’
’समीर तुम ठीक तो हो ना...।’
शील उसे छू नहीं पा रही थी, उसके हाथ बार-बार समीर की तरफ जाकर रुक जाते थे।
’मुझे ऑफिस से घर आना, घर से ऑफिस जाना लगता है।’
’क्या???’
’मतलब लोग ऑफिस से घर जाते वक्त जितने उत्साहित रहते हैं मैं घर से ऑफिस जाते वक्त उतना उत्साहित होता हूँ।’
’That means you love your work. उसमे गलत क्या है?’
’इसमें कुछ भी गलत नहीं है?’
’मुझे तो नहीं दिखता...!!!’
’अरे!... ’
’तुम्हारे ऑफिस को पसंद करने की कोई दूसरी वजह तो नहीं है?’
’दूसरी क्या वजह हो सकती है?’
’कोई लड़की...?’
’shut up…!!!’
शील चुप हो गई। इस बातचीत के बीच में वह बार-बार रोहन का चहरा अपनी गर्दन के इर्दगिर्द महसूस कर रही थी। हर थोड़ी देर में शील का हाथ उसकी गर्द पर चला जाता मानों पसीना पोछ रही हो।
’इसमें गलती है... इसमें एक बड़ी गलती है।’
समीर अचानक उठा और पलंग पर जाकर बैठ गया, पलंग के किनारे पर उसके पेर कांप रहे थे... लग रहा था मानों वह किसी दूसरे के घर में बैठा है।
’समीर ज़्यादा स्ट्रेस मत लो।’
’शील अब मैं घर आना पसंद नहीं करता... मुझे यहां बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता.. मैं यहाँ से लगातार बाहर निकलने के बहाने खोजता हूँ... मैं घर में आता हूँ और थक जाता हूँ। मैं बाहर दूसरा आदमी हूँ... वहाँ मेरी चाल अलग हो जाती है... वहाँ मैं... मैं... समीर हूँ... और यहाँ....’
’यहाँ क्या हो...?’
’यहाँ वह आदमी है जो समीर का रहस्य लिए तुम्हारे साथ रहता है।’
शील कतई यह confrontation वाला गेम इस वक्त समीर के साथ नहीं खेलना चाहती थी। उसने खाली कॉफी के कप उठाए और किचिन में चली गई।
’समीर यह कुछ दिनों का बुखार है उतर जाएगा, इसे इतना seriously मत लो!!!’
शील ने कचिन से, एकदम causally, यह कह दिया... मानों वह कई बार ऎसी स्थिति से गुज़र चुकी हो। समीर हेरान रह गया। शील सीधे बिस्तर पर पसर गई....।
’समीर लाईट बंद कर दूँ?’
शील ने समीर को देखे बिना यह कह दिया...। वहाँ से कोई जवाब नहीं आया। शील की लाईट बंद करने की हिम्मत नहीं हुई।
’शील... शील...’
समीर की आवाज़ आई... शील पलट गई।
’क्या है?’
’शील वह गाना सुना दो?’
’क्या?’
’वह टेगौर का ’तोमाय गान शोनाबो.....’”
शील हतप्रभ रह गई।
’समीर मुझे वह अब ठीक से याद भी नहीं है... और अचानक...’
’जितना याद हो... जैसा भी... सुना दो।’
शील खिसक के समीर के बग़ल में आ गई। समीर बिना बदलाव के अटल सा था।
’मैं कोशिश करती हूँ।’
यह बात शील ने खुद से कही और आँखें बंद कर ली। दाहिना हाथ धीरे से हवा में सुर टटोलने लगा और गाना कुछ रुकता-रुकाता शुरु हो गया। कितने साल बीत गए वाली सारी खराश आवाज़ में थी। बीच-बीच में गाना रोककर शील गला साफ कर लेती और फिर दुबारा, शुरु से शुरु करती...। अंतरे के कुछ शब्द धुंधले पड़ चुके थे... वह थके हुए रेंगते से आते तब तक गाना humming का सहारा लेकर आगे बढ़ जाता। गाना जारी रखने के लिए केवल मुखड़े का ही सहारा था... अंतरे अपने शब्द और अर्थ दोनों खो चुके थे। दूसरे अंतरे के धुंधलेपन में शील का गला रुंधने लगा। वह रुक गई। उसे हमेशा से पता था कि यह गाना उसके पास है... कईयों बार उसने उसे ऑफिस आते जाते गुनगुनाया था... पर वह गाना छूट गया है, कहीं बीच में ही। शील को अचानक वह सारी चीज़े याद हो आई जो उसके पास शुरु से थी... एक छोटी पेंसिल रबर लगी हुई, टिफिन का डिब्बा, गुल्लक... समीर के दिये हुए पुराने लेटर और ग्रीटिंग कार्ड्स... रिबिन, पुरानी हरी-लाल चूड़ियाँ... यह सब कहाँ है? उसने सभी चीज़ो को संभाल के रखा था कहीं... कहाँ? उसे याद नहीं आया।
’तुम बहुत अच्छा गाती हो।’
समीर को गाने के टूटेफूटेपन से कोई फर्क नहीं पड़ा था। यूं भी उसे बांग्ला समझ में नहीं आती थी। शील ने उसे कई बार इस गाने का अर्थ समझाया था पर वह हर बार भूल जाता था।
’तोमाय गान शोनाबो, ताईतो आमाए जागिए राखो.....।’
’तुम्हें गाना सुनाऊ इसिलिए तुम मुझे जगाए रखती हो...’
उसे इन शब्दों का अर्थ अभी भी याद था...। शील के गाए हुए बाक़ी गाने में वह इसी वाक़्य के अलग-अलग अर्थ गढ़ते रहता। उन गड़्मड़ अर्थों के बीच समीर सोच रहा था कि कितना प्यार करता था वह शील को... उसे वह दिन याद आ गया जब ज़िद्द करने पर शील ने यह गाना उसके दोस्तों बीच सुनाया था... गाते हुए, बीच के कुछ शब्दों में शील समीर की तरफ देख लेती.., और वह दोनों एक व्यक्तिगत रहस्य उस भीड़ में जी लेते। कितना रोमांच था... कितना सेक्स था.. हाँ सेक्स... कितनी ही बार समीर, बाज़ार में चलते हुए शील की कमर में हाथ डाल देता था.... उसे अपने पास खींच लेता.. और इच्छा हो जाती कि यहीं भरे बाज़ार में शील को प्यार करे.. जी भरकर। वह सेक्स कहाँ गया... वह आखिरी बार शील के साथ कब सोया था? समीर सोचने लगा पर उसे याद नहीं आया। तभी शील की आवाज़ कुछ टूटने लगी... फिर भारी हुई और वह चुप हो गई। टैगोर के शांत होते ही उस कमरे में मानों किसी ने ठूस-ठूस कर मौन भर दिया हो.. सब कुछ एकदम से स्थिर हो गया। समीर पीछे खिसकते हुए पलंग पर लेट गया...
’तुम बहुत अच्छा गाती हो।’
शील यह सुनते ही बाथरुम चली गई। समीर लेटे हुए छत ताकता रहा।
’यहाँ वह आदमी है जो समीर का रहस्य लिए तुम्हारे साथ रहता है….’ उसने अपने ही कहे हुए वाक्य को दौहराना शुरु कर दिया... मानो वह वाक्य छत पर कहीं छपा हो.. जिसे वह हिज्जे करते हुए पढ़ रहा था।
हिज्जे करते हुए वह ’रहस्य’ शब्द पर रुक गया। समीर का ’रहस्य’... उसके खुद के होने का ’रहस्य’... उसे लगा वह हमेशा से ’रहस्य’ भीतर पाल रहा है... बचपन से।
जब वह छोटा था तो उसने अपने भाई के टिकिट संग्रह की कुछ टिकटें चुराकर एक क्रिश्चन लड़की को दे दी थी... यह बात उसने कभी किसी को नहीं बताई थी।
अपने माँ-बाप को एक रात सेक्स करते हुए उसने देखा था... बड़े होने तक वह उस छवी को नहीं भुला पाया था... पहली बार जब वह एक लड़की के साथ सोने गया तो उसे बार-बार वही छवी सताती रही... और वह बहुत समय तक उस लड़की के साथ सो नहीं पाया था। यह एक रहस्य ही तो था... समीर का रहस्य जो वह अपने भीतर लिए घूम रहा था।
बाप की जेब से पैसे चुराकर... ढ़ेरों कंचे खरीद कर घर ले आता और कहता कि मैंने यह खेल में जीते हैं।
अपने ऑफिस की एक ट्रिप में एक रात वह एक लड़की के साथ सोया था... शील को आज तक यह बात नहीं पता है।
शील से जब उसका रिश्ता शुरु ही हुआ था तब माँ की अर्थी के बगल में बैठकर वह.. शील के साथ सोने के सपने देख रहा था.... यह बात उसने दौबारा खुद को भी नहीं बताई थी।
उसे याद आया.. जब वह स्कूल जाता था तो उसके पास दो चीज़ हुआ करती थी...जेब में एक टॉफी और स्कूल बेग में एक नंगी लड़की की तस्वीर... वह तस्वीर उसके पास कहाँ से आई उसे अब याद नहीं था पर यह दो चीज़ हमेशा उसके पास रहती थी.... जब कभी उसका हाथ टॉफी पर पड़ जाता या कोई किताब निकालते हुए वह नंगी लड़की की तस्वीर दिख जाती तो वह रोमांच से भर जाता।
ऎसे ही पता नहीं कितने सारे रहस्यों के बारे में वह सोचने लगा। उसे लगा.. उसका पूरा होना... इन रहस्यों की फेहरिस्त का ही हिस्सा है...। उसे ऎसा मौका कभी याद नहीं आया जब वह किसी रहस्य के बिना रहा हो...।
इन सारे रहस्यों के बारे में सोचते-सोचते समीर शांत हो चुका था, या वह थकान थी, पर अब वह उतना परेशान नहीं था..। उसकी आँखें बंद होने लगी थी। वह अब कल के बारे में भी नहीं सोचना चाहता था... उसने एक बार बाथरुम की तरफ देखा जहाँ शील गई हुई थी, वहाँ कोई भी आहट नहीं थी और उसने आँखें बंद कर ली....
शील भीतर बाथरुम में बहुत देर तक आईने के सामने खड़ी रही। वह आज डर गई थी। वह सोचने लगी.. आज समीर बहुत परेशान था, वह सब कुछ इंमानदारी से कहना चाहता था... पर आज उसके पास कोई जवाब नहीं थे। वह इस ’सब कुछ कह देने वाली इंमानदारी’ में पड़ना भी नहीं चाहती थी। अगर यह रात कुछ हफ्ते पहले आती तो वह भी अपनी पूरी इंमानदारी से इसका हिस्सा होती। उसे भी समीर से कई शिक़ायतें थी... पर वह सारी शिक़ायते अब अपने मायने खो चुकी हैं।
शील ने बहुत सारा पानी अपने चहरे पर डाला, वह सब कुछ धो देना चाहती थी।
’काश यह शतरंज का एक खेल होता...’ वह फिर सोचने लगी, ’और वह कह सकती कि बाज़ी फिर से जमाओ। अभी बहुत से प्यादे मारे जा चुके है... वह चारों तरफ से घिर चुकी है... नहीं वह हार नहीं मान रही है.. पर एक मौक़ा और नहीं मिल सकता है?
क्या एक मौक़ा और मिला तो वह रोहन को उसकी पहली ही हरकत पर चांटा मार देगी? वह उसे वहीं उसी वक़्त रोक देगी? बहुत सोचने पर भी शील कुछ तय नहीं कर पा रही थी कि रोक देगी कि नहीं? उसने फिर ढ़ेर सारा पानी अपने चहरे पर डाला...। आईने के एकदम करीब आकर खुद को घूरने लगी... और उसके मुँह से निकला... “नहीं मैं नहीं रोकूगीं...।’
रोहन, शील को उन दिनों की याद दिलाता था जब उसकी शादी नहीं हुई थी। समीर उस वक़्त उसे बिना छुए रह ही नहीं पाता था... कहीं भी.. बाज़ार में.. रेस्टोरेंट में... किसी दुकान पर...। वह समीर को लगातार झिड़कती रहती थी। उसे पता था यह ग़लत है इसलिए उसमें रोमांच था। उसे यह भी पता था कि समीर के साथ उसका संबंध ग़लत है, उसके माँ-बाप कभी इस संबंध को स्वीकार नहीं करेगें, इसलिए वह संबंध भी रोमांच से भरा था। अब रोहन है जो पूरी तरह ग़लत है इसलिए उसके बारे में सोचना भी शील को रोमांच से भर देता है। इसकी ग्लानी भी है.. पीड़ा भी है.. डर हैं... सब कुछ है।
तभी शील की निग़ाह उसकी भौं पर पड़ी। वह पिछले एक हफ्ते से पार्लर जाना टाल रही थी। उसने सोचा कल ऑफिस जाने से पहले वह पार्लर होती हुई जाएगी।
वह बाहर आई तो देखा समीर सो चुका था। उसने लाईट बंद नहीं की थी। शील, समीर के बग़ल में आकर लेट गई। उसने एक गहरी सांस भीतर ली... और अचानक उस गाने के सुर उसके मुँह से फूटने लगे। वह लेटे-लेटे बहुत हल्के-हल्के उसे गुनगुना रही थी। तभी उसे रोहन का ख्याल हो आया... उसने तय किया कि कल जब वह उससे मिलेगी तो उसे यह गाना सुनाएगी.. सिर्फ मुखड़ा... अंतरे के बारे में कह देग़ी कि ’वह उसे अच्छा नहीं लगता.. सो उसे याद नहीं... मुखड़ा सुंदर है बस इसे ही सुनो....’
’तोमाय गान शोनाबो, ताईतो आमाए जागिए राखो.....।’
वह मुस्कुरादी... उसने करवट बदली और लाईट बंद कर दी।

Sunday, May 23, 2010

निर्मल और मैं....


23rd May 23, 2010
निर्मल- जब हम कहानी लिखते हैं-या उपन्यास- तो एक फिल्म चलने लगती है- इस फिल्म में छूटे हुए मकान हैं और मरे हुए मित्र, बदलते हुए मौसम हैं और लड़कियाँ, खिड़कियाँ, मकड़ियाँ हैं और वे सब अपमान हैं जो हमने अकेले मे सहे थे, और बचपन के डर हैं और क्रूरताएँ हैं जो हमने माँ-बाप को दी थी और माँ-बाप के चेहरे हैं, छत पर सोते हुए और छतें हैं, रेलों की आवाज़े हैं और हम यह एक अदृश्य स्क्रीन पर देखते रहते हैं मानो यह सब किसी दूसरे के साथ हुआ है, हमारे साथ नहीं- हम अपनी नहीं किसी दूसरे की ’फिल्म’ देख रहे हैं; यह ’दूसरा’ ही असल में लेखक है, मैं सिर्फ स्क्रीन हूँ, परदा, दीवार.... लेकिन अँधेरे में हम साथ-साथ बैठे हैं; कभी-कभी हम दोनों एक हो जाते हैं, तब पन्न खाली पड़ा रहता है और दीवार पर कुछ भी दिखाई नहीं देता!
मैं- सही है... पर यह ’दूसरा’ जब गायब होता है तो आप अकेलेपन के उस वीराने में खुद को पाते हो जहाँ महज़ खालीपन है.. पीड़ा है... और बहुत दूर कहीं अपको कुछ लोग खड़े दिखते हैं... जिनसे वापिस संबंध स्थापित करने की एक खाई है जो थका देती है।
निर्मल- जीवन में अकेलेपन की पीड़ा भोगने का क्या लाभ यदि हम अकेले में मरने का अधिकार अर्जित न कर सकें? किन्तु ऎसे भी लोग हैं जो जीवन-भर दूसरों के साथ रहने का कष्ट भोगते हैं, ताकि अंत में अकेले न मरना पड़े।
मैं- आप आज यह लिखी हुई बातें क्यों कर रहे हैं?
निर्मल- तुम ही पढ़ रहे हो।
मैं- मैं उन दिनों की बात कर रह हूँ जब आपसे लिखा नहीं जाता... या वह दिन जब आप कोई सघंन खत्म करके उठे होते हो... आप तृप्त होते हो... कुछ मौलिक सा लिख देने की खुशी होती है... पर ठीक उस खुमारी के बीच वह ’दूसरा’ आपके जीवन से अचानक गायब हो जाता है.. तब कोई भी आसरा नहीं रहता क्यों कि वह पिछले समय में सारे आसरों को धुंधला कर चुका था.. तब उन दिनों में क्या किया जा सकता है।
निर्मल- तुम क्या मुआवज़ा चाहते हो?
मैं- नहीं मैं कोई मुआवज़ा नहीं चाहता।
निर्मल- तो इतनी तड़प क्यों?
मैं- क्योंकि... कोई आस-पास नज़र नहीं आता। लिखने से जो एक खुशी का विस्फोट हुआ था वह भी अकेली गुफाओं से टकराकर दंम तोड़ देता है। आप अपनों की तरफ देखते है.. वहाँ आपको अपनी ही लिखी हुई कुछ पंक्तियाँ नज़र आ जाती है जो आपने अपनों के जीवन से चुरा-चुराकर लिखी थी। माँ-बाप, वह माँ-बाप नहीं रह जाते, उनसे अब पुरानी सहजता से नहीं मिला जा सकता है.. क्योंकि इस बीच आपके वह ’दूसरे’ आदमी ने उनका इस बुरी तरह से इस्तेमाल कर लिया है आप उन्हें संदेह की दृष्टी से देखते हो.... इतना ही नहीं आपको अपना पूरा जीवन एक कहानी लगने लगता है.. तो जहाँ कहीं स्थिरता नज़र आती है आपका पूरा शरीर इस कोशिश में लग जाता है कि कोई घटना हो.. कहीं से रिस्ति हुई पीड़ा टपके.... कुछ ओर हो.. जहाँ पूरा जीवन वापिस अस्थिर हो जाए... कहानी पढ़ने में मज़ा आए... जबकी वह कहानी पढ़ी नहीं जा रही है वह जी जा रही है।
निर्मल- मैंने कहीं पढ़ा था कि आप जैसा जीवन जी रहे है, असल में आप बिलकुल ऎसा ही जीवन जीना चाहते थे, चाहे अभी आप इस बात को माने या ना माने।
मैं- आपको कभी भी सांत्वना नहीं दे सकते?
निर्मल- सांत्वना झूठ है... लिखने से कुछ हासिल नहीं होता... अगर कुछ हासिल करना है तो वह काम करों जिसमें हर माह एक मुश्त मुआवज़ा मिले तुम्हें तुम्हारे काम का... और उसके लिए भी लगातार दौड़ते रहने का बल चाहिए। यहाँ चुप्पी है... शांति है... पागलपन की परिधी पर टहलता हुआ वह ’दूसरा’ है जो किसी भी कायरता की भनक पाते ही ग़ायब हो जाता है। जीने और लिखने के बीच हमेशा एक दूरी बनी रहती है... वही दूरी तुम्हारी और वह ’दूसरे’ के बीच की दूरी है। अपने जीने की गंदगी से ’दूसरे’ दूर ही रखो।
मैं- मेरी नई कहानी पढ़ी आपने?
निर्मल- हाँ...
मैं- कैसी लगी?
निर्मल- उसी के बारे में बात करने आया था... पर तुम अपनी कमज़ोरियाँ लेकर बैठ गए।
मैं- पर कैसी लगी..???
निर्मल- उसके बारे में बाद में बात करेगें... अभी एक चाय पीते हैं...।
मैं- हाँ...मेरी भी इच्छा है।

Thursday, May 20, 2010

‘अभी-अभी’ से ’कभी-का’ तक....


‘अभी-अभी’ से ’कभी-का’ तक....




सूरज ने कहा कि ’देर रात की बात थी। हम सब घबरा गए थे। कुछ समझ में नहीं आया क्या करें। तू समझ रहा है ना?’
मैं नहीं समझ रहा था। बहुत धुंधला सा सूरज दिख रहा था उसके चहरे पर मूछ नहीं थी। मैंने दो बार ज़बान पलटानी चाही कि उससे पूछू तेरी मूंछ का क्या हुआ? पर पलटा नहीं पाया। ’घों..घों...’ की आवाज़ मुँह से निकलती रही। सूरज मेरे बहुत पास आ गया। उसने अपने कान मेरे मुँह पर लगाभग चिपका दिये। मूंछ.. मूंछ... मूंछ... मैंने कई बार ज़ोर लगाकर कहाँ कि एक बार हलका निकल आया। धुंधला सा सूरज अलग हो गया... और हंसने लगा...। फिर मुझे कुछ और लोगों की हंसी सुनाई दी। उसके बगल में मेरे कुछ और दोस्त भी खड़े थे। शायद हंसा.. नील... और... और.. मेरी आँख वापिस बंद होने लगी, धीरे-धीरे सब गायब हो गया।
.........
सभी कुछ सफेद था। सामने की खिड़की से बहुत सारा प्रकाश भीतर आ रहा था। हरे पर्दों के बीच उस प्रकाश का तेज थोड़ा कम हो गया था। मुझे हमेशा हस्पताल का सारा वातावरण किसी नाटक का सेट जैसा कुछ लगता है। दोनों तरफ दरवाज़े हैं... मानों मंच पर आने-जाने का रास्ता। बीच में पूरा मंच खुला पड़ा है और अपने-अपने रोल सभी बखूबी निभा रहे हैं। एक नर्स ट्रे लेकर भीतर आती है... उसकी चाल ढ़ाल से लगता है कि उसे ज़बर्दस्ती यह रोल दे दिया गया है, वह यह रोल नहीं करना चाह रही थी। उसे शायद डॉक्टर बनना था। सामने के कुछ मरीज़ जो मुझे दिख रहे थे वह सभी बिलकुल मरीज़ो जैसे नहीं हैं... वह कराह नहीं रहे हैं, वह.. बस पड़े हुए हैं। मेरे बगल में एक प्लास्टिक बेग में कुछ फल रखे हुए हैं...। वह ट्रे वाली नर्स मेरे सामने से निकली.. मेरी आँखे खुली देखकर वह रुक गई।
’कैसे हो?”
मैं उसे घूरता रहा।
’तुम ठीक है?’
मैं नहीं मुस्कुराने जैसा मुस्कुरा दिया। वह कुछ देर यहाँ-वहाँ चीज़े टटोलती रही फिर चली गई। मुझे लगा कि मैंने एक काबिल मरीज़ की भूमिका ठीक से नहीं निभाई। मुझे उससे सवाल करने थे कि मैं यहाँ कब आ गया? कौन लाया मुझे? मुझे क्या हुआ है? पर मैंने कुछ भी नहीं पूछा।
’आपने मेरा चश्मा देखा?’
मैंने अपने दाहिनी ओर देखा एक बुज़ुर्ग मेरे बग़लवाले बेड़ पर थे...। वह कुछ बेड़ के नीचे घुसने की कोशिश कर रहे थे। मैं कुछ देर उन्हें देखता रहा।
’अरे यहीं रखा था अभी...। कहाँ चला गया? इधर कुछ भी नहीं मिलता है।’
वह किसी से भी बात नहीं कर रहे थे और सब से बात कर रहे थे। उनके हाथ में एक किताब थी.. फटी हुई। वह किसी किताब का बीच का हिस्सा जान पड़ता था। उस किताब के बीच से एक पीपल का सूखा हुआ पत्ता भी झांक रहा था...। मैं करवट लेकर दूसरी तरफ पलट गया... मैं किसी भी चीज़ का हिस्सा नहीं होना चाहता था। मैं शायद सच में यह मानने लगा था कि यह एक नाटक चल रहा है। अगर ऎसा है तो मैं इस नाटक में महज़ दर्शक बना रहना चाहता हूँ। मैं किसी भी घटना का हिस्सा नहीं होना चाहता। करवट बदलते ही मुझे बांय हाथ की तरफ दरवाज़े से भीतर आती हुई एक औरत दिखी... उसने बहुत पुरानी पीले रंग की साड़ी पहने हुई थी, चोटी इतनी कसकर बाधीं थी कि चहरा मांग से नाक की रेखा में.... दो अलग-अलग तरफ खिच गया था। उसके एक हाथ में रंग का एक डिब्बा था और दूसरे हाथ में कूंची..(कूंची जिससे पुताई की जाती है।) उसने कूंची को रंग में डुबोया और डरी हुई दीवार के कोनों की तरफ बढ़ गई। धीरे-धीरे उसने उस दीवार कोने को रंगना शुरु किया... नीला... सुंदर नीला रंग.. जैसा पहाडों में आसमान का साफ नीला रंग होता है वैसा नीला रंग धीरे-धीरे दीवार के कोने में फैलने लगा। ट्रे पकड़े एक नर्स भागती हुई आई और उसने उस औरत को कमर से पकड़ा और खींचती हुई बाहर ले गई... उसने जाते-जाते दो तीन हाथ दीवार पर मार ही दिये... और कूंची से नीला आसमान ज़मीन पर टपकता हुआ... बाहर चला गया। इस हलचल का कमरे पर कोई असर नहीं हुआ। कुछ मरीज़ों ने उस ओर देखा... और फिर वापिस अपने मरीज़िय अभिनय में घुस गए। मैं उस कोने को ही देख रहा था.. अब इस कमरे की मटमैली सी सफेद दीवार का एक कोना नीला था... आसमान जैसा नीला टुकड़ा इस सीलन भरे कमरे में उग आया था। मैं सीधा लेट गया। किसी भी घटना का हिस्सा नहीं होना कितना मुश्किल है... उसे देखना भर हमें उसका हिस्सा बना देता है... उसे सुनना हमें उसका हिस्सा बना देता है... कैसे बिना किसी भी चीज़ का हिस्सा बने हम रह सकते है। मैं दर्शक हूँ बस...मात्र दर्शक उससे ज़्यादा कुछ भी नहीं। मैंने फिर दर्शक बने रहने की कसम खाई और अपनी आँखें बंद कर ली।
............
जब आँख खुली तो नील सामने खड़ी थी। उसके हाथ में पीपल की एक सूखी हुई पत्ती थी। धीरे से उसने वह पत्ती मेरे तकिये के बगल में रख दी।
’तुम अब ठीक लग रहे हो।’
बगल में ही एक स्टूल रख था जिसे मैंने अभी तक नहीं देखा था, उसे खिसकाकर वह मेरे पास बैठ गई।
’हाँ मुझे भी अब ठीक लग रहा है।’
’तुम्हार कुछ हिसाब बचा हुआ है।’
’हिसाब?’
’जब तुम्हारी तबियत बिगड़ गई थी तो मैं हिसाब लगा रही थी... तुम्हारे ऊपर कुछ चीज़े निकलती है। चिंता मत करो.... जब तुम पूरी तरह ठीक हो जाओगे तो उस बारे में मैं बात करुगीं।’
’मैं अब ठीक हूँ... तुम कह सकती हो।’
’मैं इस तरह कहना नहीं चाहती...।’
’किस तरह?’
’मतलब... यह अच्छा नहीं लगता है ना... तुम हस्पताल में हो और मैं हिसाब लेकर बैठ गई।’
’किसे अच्छा नहीं लगता? कौन देख रहा है? यहाँ कोई ओर भी दर्शक है?’
वह चुप हो गई। मुझे लगा मुझे उससे दर्शक वाली बात नहीं कहनी थी। वह कुछ आतंकित हो गई। मानों उसे लगा हो कि मैं अभी भी ठीक नहीं हुआ। उसने वापिस पीपल की पत्ती मेरे तकिये के पास से उठा ली और उससे खेलने लगी।
नील को मैं कब से जानता हूँ...? कैसे वह मेरे जीवन का हिस्सा है? कितने हिसाब-किताब हो चुके है इसके साथ? मैंने बहुत ज़ोर दिया... कुछ एक कमरे याद आए, कुछ बिस्तर, उनपर बिछी हुए अलग-अलग रंग की चादरे.. बालकनी, बालकनी के बाहर जाती हुए सड़क, फिर बिस्तर, फिर.. फिर... सूरज। सूरज और नील दोनों हाथ में हाथ डाले हुए सड़क के किनारे चलते हुए। कुछ बहसें, कुछ शिक़ायते... बिल्ली, आँसू, थकान.. रतजगे.. अकेलापन, खालीपन, मौन।
‘सूरज कहाँ है?’
’वह शाम को आएगा।’
’मुझे हुआ क्या है?’
’तुम ठीक नहीं हो।’
’वह मैं भी जानता हूँ इसीलिए तो हस्पताल में हूँ.. पर मुझे हुआ क्या है?’
’डॉक्टरों का कहना है तुम ठीक नहीं हो.. और तुम्हारे टेस्ट चल रहे हैं।’
’कैसे टेस्ट?’
’वही नार्मल.. ब्लड, युरिन.. वगैराह।’
‘इसमें वह पता क्या कर रहे हैं?’
’वह तुम्हें डॉक्टर ही ठीक से बता पाएंगे।’
’तुम कैसी हो?’
’अच्छी हूँ....।’
’अच्छी हूँ’ कहकर वह बगले झाकने लगी। किसी भी पुराने इशारे को वह साफ नकार देना चाहती थी, जैसे कुछ घटा ही ना हो। उसका हाथ मेरे बिस्तर पर ही था, इच्छा हुई कि धीरे से उसे छू लूं... बाद में माफी मांग लूगा। मैंने हाथ आगे बढ़ाया पर वह हिला नहीं... थोड़ा और ज़ोर लगाया फिर भी कुछ फर्क नहीं पड़ा।
’नील मेरा दाहिना हाथ...।’
तभी मेरा हाथ हिला और मेरे हाथ ने बिना मेरी पूर्वाअनुमति के, नील का हाथ कसकर पकड़ लिया... जकड़ सा लिया। नील घबरा गई, वह अपने स्टूल से उठकर खड़ी हो गई। मैं खुद हाथ छुड़ाना चाह रहा था पर नील चीख़ने लगी...। ट्रे वाली नर्स भागती हुई भीतर आई... उसने छुड़ाने की पूरी कोशिश, मैं खुद बहुत ज़ोर की कोशिश कर रहा था। उस ट्रे वाली नर्स ने ट्रे से मेरे हाथों पर वार किया... जब उन वारों से कुछ नहीं हुआ तो उसने कुछ वार मेरे सिर पर किये। अचानक हाथ छूटा और मैं बिस्तर पर निढ़ाल सा पड़ गया।
…………..
रोज़ के इग्जेक्शन बढ़े, कुछ दवाईया भी ज़्यादा हो गई, दोस्त आना कम हो गए। बीच में सूरज आया था... मैं उससे पूछता रहा कि तूने मूंछ क्यों कटवा ली पर वह कहता रहा कि कहाँ मूँछ तो है। जब भी मैं उससे कहता कि नहीं मूँछ नहीं है... वह हंसता और मेरे बग़ल में पड़े हुए बुज़ुर्ग़ की तरफ देखने लगता। वह बूढ़ा आदमी सूरज को घूरता रहा। जब बात मूँछ पर अटक ही गई तो सूरज ने फिर आने का वादा किया और चल दिया। उसके जाने के कई दिनों बाद... एक रात मेरी आँखें खुली तो देखा वह बूढ़ा मेरे पलंग पर बैठा हुआ मेरे चहरे पर कुछ पढ़ने की कोशिश कर रहा है। मैं एक छोटी चीख़ के साथ उठ बैठा...। वह बूढ़ा वैसे ही मुझे देखता रहा फिर मेरे ओर करीब आकर उसने कहाँ... ’मूँछ नहीं थी....’ ओर अपने पलंग पर जाकर लेट गया। उस रात मुझे बहुत देर तक नींद नहीं आई।
……………
कहीं से पानी के बहने की आवाज़ आ रही थी। करीब दो मीटर की ऊंचाई से वह गिर रहा था। उसके गिरने के बीच कोई रुकावट भी थी.. शायद कोई पत्थर...ईंट.. दीवार... पाईप। यूं मुझे लोगों के चलने की आवाज़ कमरे में नहीं आती थी... पर इस पानी के कारण.. वह सुनाई देने लगी थी। जब भी किसी का पैर पानी पर पड़ता तो ’छ्प’ से आवाज़ आती.. फिर बहुत दूर तक मैं उस ’छ्प... छ्प..छ्प....’ का पीछा करता रहता। कमरे के बाहर का रास्ता दांए और बांए दोनों तरफ मुड़ता था। यह मुझे पेर की आवाज़ों से पता चला। left की तरफ जाने वाले बहुत से लोग थे... लगभग अस्सी प्रतिशत या उससे भी ज़्यादा... मैं उन्हें चप्पल वाले लोग कहता। सभी लगभग चप्पल पहने होते... और right की तरफ कम ही लोग जाते थे.. बूट वाले.. उनकी आवाज़ में ’छ्प...छप” नहीं.... ’खट.. खट’ थी..। जब भी कभी ’खट.. खट’ की आवाज़े आती तो सारी चप्पलों की ’छप..छप’ की आवाज़े धुंधली पड़ जाती। ’छ्प’ आवाज़ों के चहरों की कल्पना आसान थी। वह सामान्य लोग थे.. हर ’छ्प...’ की आवाज़ आते ही मुझे उस आवाज़ का चहरा भी दिखने लगता। ’छप..छप’ की आवाज़ों के भाव भी मैं पकड़ लेता पर ’खट...’ की आवाज़ का कोई चहरा नहीं था... होगा शायद, मगर मेरी कल्पना उसे पकड़ने में असमर्थ थी।
’अरे मेरा चश्मा... मेरा चश्मा देखा क्या?’
मुझे फिर बूढ़े की आवाज़ आने लगी। मैंने उसकी तरफ पलटकर देखा... इस बार वह मुझसे सीधे पूछ रहे थे। दर्शक बने रहना आसान नहीं है... खासकर जब आपके पास खुद करने के लिए कुछ भी ना हो और आपके अगल-बगल इतने बहतरीन अभिनेता अभिनय कर रहे हो।
’चश्मा आपके सिर पर पड़ा है।’
उनका हाथ सिर पर गया। उन्हें चश्मा मिल गया। वह उसे कुछ देर देखते रहे। उस चश्में की एक डंड़ी गायब थी। कुछ ही देर में वह खराब पढ़ने के अभिनय में व्यस्त हो गए। मैंने उस दृश्य में अपना हस्तक्षेप रद्द किया। तभी बांए दरवाज़े से मुझे वह औरत झांकती हुई नज़र आई, जिसने नीले आसमान का एक कोना पोत रखा था। वह डरी हुई ट्रे वाली नर्स की तरफ देख रही थी...। वह भीतर नहीं आई... जब तक ट्रे वाली नर्स मंच पर है, कूंची वाले औरत प्रवेश नहीं कर सकती है। कूंची वाली औरत ग़ायब हो गई। तभी मुझे उन बुज़ुर्ग की आवाज़ आई... मैं औरत के दृश्य से निकलकर वापिस... बूढ़े आदमी के दृश्य में आ गया....
’चश्मा मिल जाना कितना दुखद है।’
’आप उसे ही तो ढ़ूढ़ रहे थे...?’
’ढूढ़ा और पाया!!!’
यहाँ मैंने तय कर लिया था, जीवन में यदि दर्शक ही बने रहूगाँ तो जो सब दिखाएगें मुझे देखना पड़ेगा। सो मैंने एक लंबी सांस भीतर खेंची और अभिनय की इस विराट दुनियाँ में मैं कूद गया।
’आपको देखने कोई भी नहीं आता?’ मैंने कहा...
’बाहर कोई भी नहीं है।’
उन्होने तपाक से जवाब दिया...। बतौर अभिनेता आपके पास बहुत से सवाल होने चाहिए... नए सवाल, सवालों के सवाल, बिना बात के सवाल।
’अरे यह तो अजीब है?’
’नहीं.. बाहर सच में कोई नहीं है।’
उनके हाथ में किताब थी, सिर उसमें ही घुसा हुआ था, मेरे जवाब मानों उस किताब में लिखें हो।
’मेरा नाम प्रयाग है।’
’प्रयाग?’
’हाँ... प्रयाग ही है, सच में।’
’मैं निरंजन...।’
’आप कब से हैं यहाँ.... निरंजन?’
’कई सालों से हूँ... ठीक ठीक याद नहीं है।’
’सालों से...?’
’मैं पहले उसी बेड़ पर था जिसपर तुम हो... पर पिछले एक साल से उन्होने मुझे यहाँ पटक दिया है।’
’आपको अगर वहाँ ठीक नहीं लगता है तो आप वापिस यहाँ आ सकते हैं। मुझे कोई आपत्ति नहीं है।’
’ऎसा नहीं हो सकता....’
’क्यों?’
’उस बेड़ की दवाईयाँ अलग हैं... डॉक्टर अलग हैं... वैसे भी अभी-अभी आए मरीज़ों को उसपर रखा जाता है।’
’तो मैं अभी-अभी का मरीज़ हूँ?’
’मैं भी पहले अभी-अभी का ही मरीज़ था... फिर जब मैं अभी-अभी का मरीज़ नहीं रहा तो उन्होंने मुझे यहाँ पटक दिया।’
’जब मैं अभी-अभी का मरीज़ नहीं रहूगाँ तो वह मुझे कहाँ रखेगें?’
’फिर तुम यहाँ, मेरे पलंग पर आ जाओगे।’
’और आप?’
’मैं सामने वाले पलंग पर फैंक दिया जाऊगाँ।’
’पर सामने वाला पलंग भी तो भरा हुआ है... फिर वह महाशय कहाँ जाएगें?’
यहाँ अचानक निरंजन ने किताब से अपना चहरा निकाला और मेरे पलंग की तरफ घूमकर बोले...
’अरे भाई... जैसे तुम अभी-अभी के मरीज़ हो... वैसे ही वह आख़री पलंग.. जो उस दरवाज़े के पास है उसपर ’कभी का’ मरीज़ है... वह जब मर जाएगा... तो घड़ी के काटे की तरह हम सब एक मिनिट आगे बढ़ जाएगें... तुम मेरे पलंग पर, मैं सामने वाले पलंग पर.... और तुम्हारे बेड़ पर कोई नया अभी-अभी का मरीज़ होगा।’
’पर मैं हमेशा अभी-अभी का मरीज़ रहना चाहता हूँ।’
’तुम्हारी किस्मत बहुत अच्छी है... पिछले एक साल से तुम अभी-अभी के मरीज़ हो। दरसल तुम्हें शुक्रगुज़ार होना चाहिए उस ’कभी-का’ के मरीज़ का जो पिछले एक साल से कभी-का मरीज़ है...। बहुत ढ़ीठ है.. बिस्तर खाली ही नहीं कर रहा है।’
’मुझे यहाँ एक साल हो चुका है?’
निरंजन ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। मैं अपने पलंग पर अब चुप था...। तो क्या बस यही होगा... हर एक मिनिट जब आगे बढ़ेगा, मैं उस पलंग पर होऊगाँ... फिर सामने वाले, फिर... एक दिन मैं भी ’कभी का’ मरीज़ होकर मर जाऊगाँ। नहीं.. नहीं इसमें कोई बीच में ठीक भी तो होता होगा तब? मैंने सोचा यह निरंजन से पूछूं...
’निरंजन...?’
’क्या है?’
’कुछ नहीं...।’
मैंने नहीं पूछा। अगर निरंजन ने कह दिया कि यहाँ कोई ठीक नहीं होता, तो मुश्किल हो जाएगी। कितना तकलीफ देह है यह.... हर आदमी का सफर आपको पता है, ’अभी-अभी’ से लेकर ’कभी का’ तक का... और आपको भी उस पूरे सफर के सारे पलंगों से होकर जाना है। अगर आप थोड़े ढ़ीठ हैं तो ’कभी-का’ पर रुके रहेगें.... नहीं तो एक मिनिट में बाहर......ओफ! ओफ! ओफ!
.................
प्रातः आँख खुली तो नील और सूरज को अपने पलंग के बग़ल में पाया। अब मेरे पलंग के बग़ल में स्टूल ना होकर एक बेंच रखी है। दोनों बेंच पर बैठे है... (black & white) सूरज का हाथ नील के कंधे पर है, और दोनों ’दूर गगन की छॉव में’ देख रहे हैं। (यह बिलकुल मुझे वैसे ही दिख रहे थे जैसे हमारे गांव के फोटोग्राफरों ने हमारे माँ बाप की रोमांटिक तस्वीरे ख़ीची थी, black & white… जिसे हम ’दूर गगन की छांव’ वाली तस्वीरें कहते थे… इन तस्वीरों में सभी कहीं दूर कुछ देख रहे होते थे।)
’सूरज तुम लोग कब आए?’
जब नील और सूरज दोनों साथ मिलते थे तो मैं सूरज से ही ज़्यादा बात करता था, अगर नील से बात करनी भी है तो पहले सूरज नाम लेकर फिर नील से बात करता था। सीधा नील कह देने से मैं पुरानी दुनियाँ में पहुच जाता हूँ... जो दुखद है..... अब...... सब...... बस।
’हम लोग बहुत देर से आए हुए हैं... तुम सो रहे थे तो सोचा तुम्हें परेशान ना करें।’
संजीदा अभिनेता होने के बतौर सूरज ने अपना वाक्य कह दिया।
’हम बस जाने ही वाले थे।’
बतौर चंचला... नील ने हल्की हसी के साथ अपनी बात कही।
पर अजीब था वह दोनों मुझे नहीं देख रहे थे... दोनों ’दूर गगन की छॉव’ में कहीं देख रहे थे... B & W...।
’तुम दोनों ने शादी कर ली है क्या?’
’कोर्ट मेरिज थी... ज़्यादा शोर शराबा नहीं किया.. सिर्फ परिवार के लोग थे।’
सूरज ने सफाई दी।
’तुम्हारी कमी लगी थी। मैं तुम्हारे घर गई थी कार्ड देने... पता था वहाँ ताला होगा, पर फिर गई...दरवाज़े से कार्ड भीतर सरका दिया।’
नील ने बहुत अपनेपन से कहाँ... पुरानी दुनियाँ वाले अपनेपन से। मैं ठिठक गया।
’क्यों... जब तुम्हें पता था मैं यहाँ हूँ... तुम हस्पताल में क्यों नहीं आई?’
’मेरी इच्छा थी कि जब मेरी शादी हो तो मैं तुम्हें अपनी शादी का कार्ड, तुम्हारे घर तुम्हें देने आऊं।’
’यह कैसी इच्छा है?’
मैं चौंक गया नील की आँखें देखकर। यह कहते हुए उनमें एक चमक थी, जबकि वह मुझे नहीं देख रही थी। सूरज एक अजीब मुस्कुराहट लिए हुए था। मैं दूसरी तरफ करवट लेना चाह रहा था पर ले नहीं पाया.. कुछ मुझे रोक रहा था। मैंने झटका दिया तो दिखा, मेरे दाहिने हाथ और दाहिने पांव को पलंग से बांध के रखा हुआ है। मुझे क्यों बांधा हुआ है... मैंने दो-तीन बार झटका दिया। नील और सूरज खड़े हो गए।
’तुम्हारा, तुम्हारे दाहिने हिस्से पर बस नहीं है।’
’क्या?’
नील और भी कुछ कहना चाह रही थी पर सूरज ने उसके कंधे पर हाथ रख दिया और वह दोनों वापिस ’दूर गगन की छांव’ में देखने लगे। मुझसे यह सहन नहीं हुआ। मैं चिल्लाने लगा।
’क्या है यह?.. क्यों मुझे मेरे दाहिने हिस्से पर बस नहीं है? मुझे डॉक्टर से मिलना है। डॉक्टर.... डॉक्टर... डॉक्टर...... ।’
ट्रे वाली नर्स भागकर आई... इंग्जेक्शन... गुस्सा... धुंध... ’दूर गगन की छांव’... B&W… थम।
....................
दरवाज़े !!! मैंने पता नहीं कितने घर बदले हैं। पता नहीं कितने लोगों के साथ मैं अलग-अलग जगह, अलग-अलग परिस्थितियों में रहा हूँ। इस सभी जगहों में मेरा सबसे खूबसूरत संबंध दरवाज़ों से रहा है। मुझे लगभग हर घर के (जिनमें मैं रहा हूँ) दरवाज़े रोमांच से भर देते थे... महज़ एक खट-खट पर....। ज्यों ही दरवाज़े में ’खट-खट’ होती... मेरा पूरा शरीर एक रोमांच से भर जाता। कौन होगा उस तरफ? दरवाज़ा खोलने पर कौन सा आश्चर्य दिखेगा? मेरे भीतर बहुत सारी कहानिया शुरु हो जाती और कहानियों का दायरा बढ़ता ही चला जाता। हर ’खट’ की अलग कहानी, अलग चहरे। दरवाज़ा खोलने के ठीक पहले मैं महसूस करता कि मैं सालों से किसी की प्रतिक्षा कर रहा हूँ... कोई ओर जिसे कभी देखा नहीं, जाना नहीं... कोई जो मेरे दरवाज़े के उस तरफ, पूरे संसार में कहीं था और अब शायद उसने मुझे ढूढ़ लिया है, वह मेरे दरवाज़े पर दस्तक दे रहा है।
.......................
देर रात आँखे खुली तो देखा सामने की पूरी दीवार नीली हो चुकी है... आसमानी नीली। पीले बल्ब की रोशनी में नीला रंग भुतहा दिख रहा था। तभी मुझे खट-खट की आवाज़ आई.... वह औरत अब छत को पौत रही थी...बिना सीड़ी के। वह बहुत लंबी दिख रही थी... ख़ासकर उसकी टांगे। मैंने नीचे देखा तो पैर की जगह दो बांस के डंडे दिखे... वह stilts पर खड़ी थी। इस बार उसके एक हाथ में नीला और दूसरे हाथ में सफेद डिब्बा था। कुछ देर वह नीले रंग की कूंची चलाती, फिर सफेद रंग की कूंची से इधर-उधर दो चार हाथ मार देती। यह सब वह बहुत तेज़ी से किये जा रही थी... सो सारा करतब एक नृत्य की तरह दिख रहा था। ज़मीन पर बांस की खट-खट... एक तरह का डरावना संगीत पैदा कर रहा था। इस सब में उसके बाल थोड़े बिखर गए थे... पर चहरा अभी भी.. मांग से नाक की सीध में दोनों तरफ खिंचा हुआ था। सफेद बादल पूरे आसमान में बिखरने लगे थे।
मैं उठके बैठ गया...। मेरे हाथ पैर नहीं बंधे थे, पर दाहिना हिस्सा थोड़ा सुन्न ज़रुर था। मैं उस औरत से बात करना चाह रहा था।
’सुनों... सुनों.. तुम कौन हो?’
उसने मेरी और गुस्से से देखा। मैं घबराया हुआ एकटक उसे देख रहा था। वह फिर काम करने में जुट गई। मैं अपने पलंग के कोने तक खिसक आया... थोड़ा आगे बढ़कर बोला...
’सुनों.. सुनों.... ???’
इस बार उसने मुझे देखा नहीं, बल्कि सफेद रंग की कूंची से मेरे हाथ पर एक वार कर दिया। मैं घबराकर अपने पलंग पर दुबक गया। चादर... सिर के ऊपर चढ़ा ली। कुछ देर मुझे बांस की ठक-ठक की आवाज़ आई फिर उस आवाज़ में ट्रे वाली नर्स की.. ट्रे की आवाज़ जबरन घुसने लगी। ट्रे के वार.., धंम्म से किसी के बहुत ऊपर से गिरना.. ’खड़-खड़’.. ’पट-पट’... ’धम-धम’.... फिर सबकुछ शांत...।
मैंने अपने मुँह से चादर हटाई... कमरे में कोई नहीं था। सारे मरीज़ ’कुछ भी नहीं हुआ’ वाले अभिनय में व्यस्त सो रहे थे।
कूंची से वार का एक सफेद धब्बा मेरे हाथ में दिखा... मैंने उसे मिटाने की कोशिश की पर वह मिटा नहीं... मैं उसे ज़ोर-ज़ोर से रगड़ने लगा। वह सफेद धब्बा हल्का गुलाबी हो गया... पर मिटा नहीं। मैंने छत की तरफ देखा... वहाँ मुझे बादल नहीं, बल्कि नीले आसमान में बहुत बड़ा हंस दिखाई दिया।
..................
मेरा एक दोस्त हंसा था (जो हस्पताल सिर्फ एक बार ही आया था....) जिसमें ’ना’ करने का गुण नदारद था। वह हमेशा, हर बात का जवाब ’हाँ..’ से देता और फस जाता। पचताना उसका मुख्य धर्म था। उसकी आँखों के नीचे गहरे काले दाग़ पड़ चुके थे... मुझे कभी-कभी लगता था कि वह काजल लगाता था... पर चूंकि उसे काजल लगाना नहीं आता था, इसलिए क़ाजल फैल जाता होगा। पर ऎसा नहीं था... । गहरे काले दाग़ की वजह से उसकी आँखें कभी सुंदर कभी डरावनी लगती थी। उसने एक बार मुझसे कहा था कि जब से वह पैदा हुआ है तब से वह व्यस्त है। उसने कभी किसी भी काम के लिए किसी को भी मना नहीं किया सो वह दूसरों के काम करने में हमेशा व्यस्त रहता था। जो लोग उसे जानते थे वह उससे अपना काम करने को नहीं कहते थे.. वह उसके बदले ’एक ज़रुरी काम की पर्ची..’ उसकी जेब में डाल देते थे, जिसे वह समय रहते पूरा करता चलता था। उसके पास एक जेब की कई सारी शर्टे थी... दो जेब वाली शर्ट पनने से वह घबराता था। मैंने उससे एक बार कहा था कि तुम बिना जेब की शर्ट पहना करो... तो उसने कहा कि काम की पर्चे वह हाथ में नहीं रखना चाहता है... काम के पर्चे पेंट की जेब में मुड़ जाते हैं... फिर क्या काम करना है ठीक से समझ में नहीं आता है। वह अपने घर के कामों की भी पर्चियाँ बनाकर जेब में रख लेता। अपने काम भी वह बाक़ी ज़रुरी कमों की तरह करता... समय रहते। इन पर्चियों के बीच उसका एक खेल भी था... एक दिन उसने मुझसे कहा था कि वह कई बार कोरी पर्चियाँ अपनी जेब में, किसी महत्वपूर्ण काम की तरह रख लेता... जब वह कोई महत्वपूर्ण काम के लिए कोई कोरी पर्चि निकालता तो खुश हो जाता... वह उस महत्वपूर्ण काम के समय... कुछ भी नहीं करता... और उसे यह बहुत अच्छा लगता था। काम के वक्त काम नहीं करने की आज़ादी बहुत बड़ी आज़ादी थी।
......................
हंसा ने आते ही अपनी इतने दिनों से ना आने की वजह बताई...
’बहुत काम था प्रयाग... अभी-अभी जेब से दो कोरी पर्ची निकल आई तो मैं उस खाली समय में तुमसे मिलने चला आया।’
मैं हमेशा हंसा को देखकर खुश हो जाता था। दुनिया जैसे उससे मिलने आती है वह उसे उसकी पूरी निष्ठा के साथ जीता है...। दुनिया के सत्य उसकी जेब में रहते हैं और वह उनका सामना करता चलता है।
’तुम अपनी कोरी पर्चिया यूं बरबाद मत करों... मैं तो यहां हूँ ही, तुम किसी काम से मुझसे मिलने आओ... ’
’किस काम से...?’
हंसा यूं सकपका जाता था। उसकी समझ में ही नहीं आया कि वह मुझसे किस काम के तहत मिल सकता है। मैं खुद सोचने लगा कि हंसा मुझसे किस काम से मिल सकता है। तभी निरंजन अपने पलंग से उछलता हुआ हम दोनों के बीच में आ गया।
’मैं मद्‍द करुं?’ निरंजन बोला..
’किस बारे में?’ मैं हंसा की अचकचाहट में बोला।
’काम बताने में...’
’हाँ... हमें मद्द चाहिए।’ हंसा बोला..
निरंजन चालाक नहीं था, पर दुनिया से वह कुछ इस तरह कब्बड्डी खेल चुका था कि.. अब वह हमेशा, आदतन, या तो खुद ’कब्बड्डी-कब्बड्डी’ करता हुआ दुनिया के पाले में जाता, या दुनिया का कोई खिलाड़ी कब्बड्डी-कब्बड्डी करता हुआ उसके पाले में घुस आता.. जहाँ वह एकदम अकेला था, हार-जीत मानी नहीं रखते थे.. पर वह खेलते वक्त हमेशा सतर्क हो जाता। यहाँ पिछले कुछ समय से वह मेरे साथ खेलना बंद कर चुका था। जब भी वह मेरे पलंग पर आता तो अपनी सतर्कता अपने पलंग पर छोड़कर आता था।
’भाग जाओ यहाँ से... कैसे भी।’
निरंजन, मुस्कुराते हुए बोला। हंसा और मैं उसकी ओर आश्चर्य से देखने लगे।
’अरे! यह कोई कैद में है क्या? हस्पताल में है। यहाँ से यह जब चाहे जा सकता है।’
हंसा, निरंजन को जानता नहीं था सो वह सीधी बहस पर उतर आया। निरंजन ने उसकी तरफ देखा भी नहीं, वह मेरे जवाब का इंतज़ार कर रहा था।
’निरंजन.. मैं ठीक नहीं हूँ... बाहर गया तो मारा जाऊंगा।’
निरंजन यह सुनते ही वापिस अपने पलंग पर चला गया और अपनी किताब पढ़ने लगा। हंसा अवाक सा निरंजन को देख रहा था। तभी निरंजन बोला...
’तुम जानते हो मूंछ नहीं है। लोग कहते हैं कि मूंछ है। फिर मेरे जैसे कुछ और लोग तुम्हारी तरफ हो जाएगें और तुम्हारे साथ कहेगें कि मूंछ नहीं है... जबकि लोग मूंछ है का बयान देकर, तुम ठीक नहीं हो, सिद्धा कर देगें... और तुम यहीं पड़े रहोगे। इसमें मूंछ है कि नहीं है.... हिंसा है। तुम देख लो।’
इस बात पर हंसा धीरे से मेरे करीब आया।
’क्या कह रहे हैं यह?’
’मैंने तुमसे कहाँ था कि तुम किसी काम से मुझसे मिलने आओ... लाओ मुझे एक पर्ची दो... मैं एक ज़रुरी काम तुम्हें दे देता हूँ।’
हंसा ने मुझे एक पर्ची निकालकर दी... तभी निरंजन फिर बोल पड़ा...
’”कभी-का” की तबियत नासाज़ है। पता नहीं कब.. एक मिनट आगे बढ़ेगा... तुम ’अभी-अभी’ का पलंग छोड़ दोगे.. और यहां आ जाओगे। तुम जानते हो यह कितना खतरनाक हैं। तुम ठीक नहीं हो... पर यहा इस पलंग पर आते ही सब ठीक है लगने लगेगा। फिर ’कभी-का’ तक, इसका कोई अंत नहीं है।’
’मैं ठीक होते ही यहाँ से चला जाऊंगा।’
मैंने कुछ गुस्से में जवाब दिया। फिर पर्ची खोलकर सामने बैठ गया। क्या लिखूं?
हंसा ने मेरा हाथ पकड़ा और कूंची से पड़े सफेद निशांन को देखने लगा।
’यह क्या हुआ है?’
’एक औरत... आसमान बनाने आती है... इस बार वह बादल भी बना रही थी... मैंने उससे बात करनी चाही तो उसने बादल भरी कूंची से मुझपर वार किया... उसी का निशान है यह।’
’क्या? कब हुआ यह?’
’रात को... ठीक-ठीक याद नहीं कब।’
हंसा उस निशान पर अपना अंगूठा घुमाने लगा।
’यह मिट नहीं रहा है... मैंने बहुत कोशिश की है... रहने दो।’
पर हंसा नहीं माना... वह अंगूठे के बाद हथेली ज़ोर-ज़ोर से रगड़ने लगा। मेरे मुंह से चीख़ निकल आई। हंसा ने रगड़ना बंद कर दिया। वह निशान गुलाबी पड़ चुका था। तभी हंसा उठा और दाहिनी तरफ दे दरवाज़े से प्रस्थान कर गया।
हंसा अचानक उठ गया था। निरंजन का सिर किताब में घुसा पड़ा था। मैं कोरी पर्ची और पेन लिए कोई महत्वपूर्ण काम के बारे में सोच रहा था। इच्छा हुई कि पर्ची पर लिख दूं ’मैं ठीक नहीं हूँ....’ या ’मूंछे हैं...’ या ’दाहिना हिस्सा मेरे बस में नहीं है....’ या ’नील... नील.. नील..’ या ’नीला आसमान... बादल... हंस...।’
तभी हंसा साबुन, एक मग्गा पानी और एक कपड़ा लेकर बांए दरवाज़े से प्रवेश करता है। मैं हंसा की इस चाल और इस गंभीरता को बखूबी पहचानता हूँ... वह एक ज़रुरी काम में व्यस्त है।
’हंसा.. मैंने अभी कोई काम नहीं लिखा है। यह पर्ची अभी कोरी है।’
पर हंसा को काम मिल चुका था। वह मेरा सफेद दाग़ निकालने में जुट गया था।
’वह नहीं निकलेगा।’
निरंजन की आवाज़ आई। हंसा कुछ देर के लिए रुका..
’निकले गा.. निकल रहा है।’
हंसा फिर घिसने लगा। कुछ देर में उसने साबुन के झाग को पानी से धोया... दाग़ वैसा का वैसा था.. पर अब वह अपना गुलाबी रंग छोड़कर थोड़ा लाल हो गया था। छुट-पुट बूंदे खून की भी उभरने लगी था। हंसा डर गया... उसने हार मान ली।
’तुम ठीक नहीं हो यह blessing है। तुम ठीक नहीं हो इसलिए मूंछे नहीं है। तुम ठीक नहीं हो... क्यों कि तुम हो। तुम ठीक नहीं हो... इसलिए भाग सकते हो।... भाग जाओ।’
निरंजन मानों किताब का अंतिम पेरेग्राफ पढ़ रहा था। हंसा पहली बार अपना काम नहीं कर पाया था। वह गुस्से में उठ खड़ा हुआ।
’सुनो प्रयाग, तुम्हें जो भी काम करवाना है इस पर्ची पर लिख दो मैं उसे पूरा करुगाँ...चाहे कुछ भी हो जाए।’
’मैं सोच रहा हूँ।’
’जल्दी करों...।’
हंसा अपनी हार से हकबका सा गया था। वह कमरे में धूमने लगा...। निरंजन पीपल का पत्ता और किताब हाथ में लेकर मेरे पास आया।
’मैंने इसे पढ़ लिया। इसका अंत और इसकी शुरुआत ग़ायब है।’
’तो?’
’तुम पर्ची में लिखकर इसकी शुरुआत और अंत मंगा दो।’
निरंजन मिन्नते करने लगा था। मैं मान गया। मुझे लगा मैं भी हंसा ही हूँ... मुझे भी ’ना..’ कहने की कला नहीं आती है। मैंने शायद आखरी बार ’ना...’ नील को कहा था।
’क्या लिखूं? कौन सी किताब है यह?’
’गोदो.... वेटिंग फॉर गोदो..।’
’अरे! निरंजन गोदो का शरुआत और अंत नहीं है।’
’है... होगा ही... ऎसा कैसे।’
’बेकेट(BECKETT) ने नहीं लिखा है।’
‘ऎसा कैसे हो सकता है?’
’वह लिखना चाहता था...।’
’मुझे इसका शुरुआत और अंत चाहिए... बस।’
’ठीक है मैं लिख देता हूँ, हंसा ले आएगा।’
मैंने लिख दिया... “गोदो का शुरुआत और अंत चाहिए। महत्वपूर्ण है।“ जैसे ही मैंने पर्ची लिखी, हंसा ने आकर उसे अपनी जेब में रख लिया।
’चलता हूँ। जल्द ही तुम्हारा काम पूरा होने पर मिलूगाँ।’
यह कहकर हंसा प्रस्थान कर गया। उसके प्रस्थान करते ही ट्रे वाली नर्स बिना ट्रे के भागती हुई प्रवेश करती है... वह सीधी ’कभी-का’ के बिस्तर पर चली जाती है। ’कभी-का’ के आदमी को वह सीधा करती है, उसके ऊपर चादर ढ़क देती है। तभी ’खट-खट-खट-खट’ की आवाज़ के साथ डॉक्टर प्रवेश करता है। वह सीध ’कभी-का’ के बिस्तर के पास जाता है। कुछ देर की खुसुर-पुसुर के बाद बिना ट्रे वाली नर्स और डॉक्टर चले गए।
मेरी इच्छा थी कि मैं डॉक्टर से पूछू कि मुझे क्या हुआ है? पर सब जगह इतना खुफियापन फैला हुआ था कि मेरी पूछने की हिम्मत नहीं हुई। मैं कमरे में एक अजीब सा सन्नाटा महसूस कर सकता था। कुछ हुआ है। क्या है? निरंजन चश्मा पहने, छत पर बने हंस को घूर रहा था। मैंने भी उस हंस को देखा, वह हंस बस उड़ने को था... जैसा अटका पड़ा था।
’एक मिनिट आगे बढ़ रहा है।’
निरंजन ने हंस को देखते हुए बोला। मैं अपने बिस्तर पर लेट गया। निरंजन बड़बड़ाता रहा।
’तुमने देर कर दी। अब तुम जल्द ही ठीक हो जाओगे। मैं हंसा का इंतज़ार करुगाँ... वह जल्द कहानी की शुरुआत और अंत लेकर आएगा... मैं इंतज़ार करुगाँ।’
मैं हंसा के बारे में सोचने लगा।
कुछ ही देर में कमरे में बहुत उठक-पटक होने लगी।.. चादरें बदली गई... बिस्तर यहाँ-वहाँ हुए...। निरंजन सामने के बिस्तर पर चला गया, मैं निरंजन के बिस्तर पर आ गया, ’कभी-का’ के बिस्तर पर... उसके पहले वाले बिस्तर वाला मरीज़ पहुंच गया। कुछ समय तक ’अभी-अभी’ का बिस्तर खाली पड़ा रहा...फिर एक लड़का बेहोशी की हालत में वहाँ लाया गया। वह कई दिनों तक सोता रहा। उसे देखने बस उसकी बूढ़ी माँ धीरे-धीरे चलती हुई आती थी, उसके बगल में बैठी रहती... उसके हाथों की रेखाओं को टटोलती रहती... उनमें कुछ ढूढ़ती रहती।
जब उस लड़के को होश आया तो उसकी माँ उसके पास नहीं थी।
वह लड़का मुझे देखने से कतराता रहता। निरंजन के बिस्तर के पास अब एक खिड़की थी... वह घंटों खिड़की पर बैठा हुआ हंसा का इंतज़ार करता रहता।
मैं अब ठीक महसूस करने लगा था... मेरे शरीर का दाहिना हिस्सा वापिस मेरे बस में आने लगा था।
कूंची वाली औरत ने पूरे कमरे को आसमान बना दिया था... मैं इंतज़ार में था कि कब वह ’अभी-अभी उड़ने को..’ का दूसरा हंस बनाएगी।

Tuesday, May 18, 2010

म्मताज़ भाई पतंगवाले.....


म्मताज़ भाई पतंगवाले.....

15th feb, 2010…
एक
काश मैं आनंद को मना कर देता। कैसे बचपन की बेवकूफियों पर मैं अचानक भावनाओं में बह गया?
....छुट्टीयाँ बर्बाद हुई सो अगल। मुझे आश्चर्य हुआ तनु ने मुझे रोका नहीं| तनु को क्या पता कौन आनंद है, कौन म्मताज़ भाई हैं। मैंने बचपन के इन बचकाने दिनों का ज़िक्र उससे कभी नहीं किया। पर मुझे उसे सब बताना पड़ा... क्योंकि जब आनंद का फोन आया.. उसे तनु ने ही रिसीव किया था.. ’बिक्की है?’ आनंद ने पूछा था और तनु ने ‘wrong number’ कहकर फोन काट दिया था। उसने फिर फोन किया... ’बिक्की है?’ तनु ने फिर काट दिया... जब तीसरी बार उसने फोन किया तो तनु चिढ़ गई... उसने मुझसे पूछा। ’यह बिक्की कौन है? यह आदमी बार बार फोन कर रहा है।’ और मैं दंग रह गया। ’बिक्की... असल में विक्की...और वैसे विवेक...।’ मैं धीरे से रिसीवर की तरफ बढ़ा.. तनु को लगा था कि मैं मज़ाक कर रहा हूँ उसने आनंद से कहाँ... ’लीजिए बिक्की से बात करिये...’ मैंने फोन लिया तो तनु अपनी हंसी दबाते हुए मेरे बगल में खड़ी हो गई थी... उसे लग रहा था कि हम वह wrong number वाला खेल खेल रहे हैं। मैंने कहाँ.... ’मैं विक्की बोल रहा हूँ।’ तनु कहने लगी ’अरे वो बिक्की है।’ मैंने उसकी तरफ देखा और वह चुप हो गई थी। आनंद ने कहाँ था कि ’म्मताज़ भाई की हालत बहुत खराब है... पर अजीब बात है कि वह तुम्हारा नाम ले रहे थे। तुम अगर एक दिन के लिए आ जाओ तो... तुम देख लो... वैसे आ जाते तो यहाँ सबको अच्छा लगता।’ फोन काटने के बाद तनु ने सवालो की रेल लगा दी। मुझे बहुत कुछ अब याद नहीं था.. पर मैंने जितना कुछ भी उसे बताया, उसके बाद मैं खुद भावुक हो गया और मैंने उससे कहाँ कि ’मेरी इच्छा तो है कि मैं एक बार वहाँ चला जांऊ...।’ तनु मेरी बात से तुरंत सहमत हो गई... वह अगले दिन ऑफिस गई, उसने बॉस से छुट्टी की बात कर ली.. मेरा रिज़र्वेशन करवा दिया...(हम दोनों एक ही ऑफिस में काम करते हैं।) और अब मैं ट्रेन में अपनी भावनाओं में बह जाने पर पश्याताप कर रहा हूँ....।
हर बार जब भी मैं ट्रेन में सफर करता हूँ तो कोई ना कोई बच्चा मेरे अगल-बगल वाली बर्थ पर ज़रुर होता है। मुझे बच्चे अच्छे नहीं लगते... ख़ासकर ट्रेनों में। वह रात भर सोने नहीं देते है... हर बार मैं बहुत गंदे बहाने बनाकर अपनी बर्थ बदल लेता हूँ। इस बार मैंने एक औरत से यह कहकर अपनी बर्थ बदली कि मुझे हर आधे घंटे में बाथरुम जाना होता है... मेरी बीमारी है, इसलिए मुझे बाथरुम के पास वाली बर्थ चाहिए। वह पहले नहीं मानी... फिर मुझे कहना पड़ा कि अगर मेरी दूरी बाथरुम से ज़्यदा दूर हुई तो... मैं कभी-कभी संभाल नहीं पाता हूँ और...। वह डर गई और उसने बर्थ बदल दी। जब मैं खाना खाने के बाद सोने की तैयारी में जुट गया तो देखा वह औरत बार-बार मेरी तरफ देख रही है...। उसे दिखाने के लिए मैं हर थोड़ी देर में उठकर बाथरुम में चला जाता..। बाथरुम में जाकर मैं कुछ देर आईने के सामने खड़ा रहता और बाहर निकल आता। यह सिलसिला देर रात तक चलता रहा। बमुश्किल वह सो गई और मैंने चैन की सांस ली... उस चैन की सांस लेते ही मुझे सच में बाथरुम लगने लगी.... मैं वापिस उठा बाथरुम गया... बाथरुम करने के बाद मैं कुछ देर आईने के सामने यूं ही खड़ा रहा... मेरी कलमें सफेद होने लगी है। मैंने अपने माथे के बालों उठाकर देखा तो दो-तीन सफेद बाल वहाँ भी नज़र आ गए। मैं तुरंत बाथरुम से बाहर निकल आया। अपनी बर्थ पर लेटे हुए मैं खिड़की के बाहर देख रहा था... एक शहर अपनी पूरी रोशनी लिए... मेरे सामने से मानों भाग रहा था... कुछ ही देर में शहर खत्म हो गया... वापिस अंधेरा... अब शीशे में मुझे अपनी शक्ल दिख रही थी। कौन सा शहर था वह? क्या मैं कभी उस शरह में गया हूँ? फिर मैं सोचने लगा कि अगर अपने घर में मैं इन सफेद बालों को देखता तो तुरंत काट देता..। मैं घर में क्यों नहीं हूँ? मैं खुद को कोसने लगा। कोसते-कोसते कब नींद आ गई पता ही नहीं चला।

दो
शक्कर की लाईन बहुत लंबी थी। मैं बहुत देर तक लाईन से दूर खड़ा रहा, मेरी निग़ाहें आसमान पर थी....म्मताज़ की पतंग पर। यह राशन कार्ड से सामान लेने का समय मेरे पतंग उडाने का ही समय क्यों होता है? मैने देखा लाईन में खड़ा एक आदमी मुझे घूर-घूर कर देखे जा रहा है... अरे यह तो सुधीर शास्त्री हैं, मेरे मामा...। मैं तुरंत हंसता हुआ उनके बगल में जाकर खड़ा हो गया... उनका कुर्ता पकड़कर उनसे कहाँ...
’मामा जी.. मामा जी.. आप शक्कर... शक्कर ले लेगें...’
मेरे इतना कहने पर उन्होने एक चपत मुझे जमा दी... मुँह में गुटखा होने की वजह से वह मुझे गाली नहीं दे पाए... गुस्से से पीछे लाईन में खड़े होने का ईशारा किया..। मैं झोला रगडाता हुआ वापिस लाईन से थोड़ा हटकर खड़ा हो गया। म्मताज़ भाई की पतंग... मैं वापिस आसमान में था... लाल तुर्रे वाली काली पतंग...ऊची आसमान में थमी खड़ी थी। मैं खिसकर लाईन में खड़ा हो गया जिससे मेरे मामा मुझे ना देख सकें। तभी म्मताज़ की पतंग एक जंगी जहाज़ की तरह नीचे आई और अपने एक बहाव में तीन पतंगों को काटती हुई वापिस ऊपर आसमान में... वैसी की वैसी थम गई, मानों नीचे कुछ हुआ ही ना हो। तीनों कटी हुई पतंग मेरे सिर के ऊपर से चली जा रही थी। यह मेरे सब्र की ऎसी परिक्षा थी जिसमे मेरी हार तय थी। मैंने एक बार अपने मामा को देखा... जिनका नंबर आने ही वाला था और एक बार उन पतंगों को... मैंने एक गहरी सांस भीतर ली और मामा की ओर लपका....। इससे पहले कि वह कुछ समझ पाते...मैंने अपना झोला और राशन कार्ड उनके हाथ में थमाया और पतंग की और भाग लिया। पीछे से मुझे मेरे मामा आवाज़ सुनाई दी थी कि ’तेरी माँ को बोलूगाँ..., मैं यह झोला यहीं पटक के जा रहा हूँ.. अबे रुक.. हरामी साला!’
एक पतंग गुप्ता जी के घर पर चली गई। दूसरी पतंग अवस्थी जी के बग़ीचे में चली गई थी। मेरी आज तक समझ में नहीं आया जिन लोगों के घर पर बच्चे नहीं होते या जिन्हें पतंग उड़ाने में कोई दिलचस्पी नहीं होती... पतंग कटने के बाद हमेशा उन्हीं लोगों के घर पर क्यों जाती है। लेकिन तीसरी पतंग टाल की तरफ जा रही थी। मैं उस ओर भागा... साथ में कई लड़के उस ओर जा रहे थे। कुछ लोगो के हाथ में झाड़-झंकाड़ भी थे। वह पतंग नीचे आ रही थी पर ठीक एन वक्त पर वह गोता खा गई और बगल की गली की तरफ मुड़ गई। सभी पतंग के पीछे भागे.. पर अचानक मेरी निग़ाह उसके माझें की ओर गई। मंमताज़ भाई ने पतंग को लंबे गोते के बाद काटा था.. सो मांझा पतंग में काफी था। सभी पतंग की ओर भागे, लेकिन मैं उल्टे माझे की तरफ भागा... दो लंबी छलांग लेनी पड़ी, पहली छलागं में मैं टाल के दूसरी तरफ था पर दूसरी छलांग में मैं नाली में गिर गया... लेकिन मांझा मेरे हाथ में था। मैंने तेज़ी से मांझा खीचा पतंग मेरे हाथ में आ चुकी थी। मैं नाली में खड़ा हुआ हंसने लगा.. ज़ोर-ज़ोर से... इस जीत का कोई गवाह नहीं था सो मैं अकेले ही नाली में खड़े होकर चिल्ला पड़ा ’म्मताज़ भाई मैंने पतंग लूट ली... म्मताज़ भाई... या... या... हू...हू...।’
कीचड़ में सना हुआ, एक हाथ में पतंग लेकर मैं भागता हुआ तुरंत राशन की दुकान पर पहुँचा। वहाँ सन्नाटा था। मामा गायब, राशन की दुकान पर ताला लगा हुआ था। मैं ठंड़ा पड़ गया। आधा शरीर कीचड़ में सना हुआ है, एक हाथ में पतंग...। मेरे सामने माँ का गुस्से से लाल-पीला चहरा घूमने लगा। पतंग मेरी जीत थी सो उसे मैं छोड़ नहीं सकता था। मैंने बाहर के नल में खुद को थोड़ा सा साफ किया और डरता हुआ घर पहुचा। दरवाज़े पर ही सिग्रेट की खुशबू आ रही थी... मतलब अवस्थी जी घर आए हुए हैं। मैं चोरी से किचिन में जाना चाह रहा था पर मेरे घर में घुसते ही माँ ने देख लिया। अवस्थी जी सिग्रेट के कश लगाते हुए मुझपर हंसने लगे। मैंने पतंग दरवाज़े के पीछे छुपाने की असफल कोशिश की... फिर अवस्थी जी के पैर पड़े..। अवस्थी जी ने मुझे अपने बगल में बिठा लिया। मैंने देखा की माँ की बगल में शक्कर भरा हुआ बेग और राशन कार्ड रखा हुआ है। मैंने माँ की तरफ देखा वह मुझे देखकर मुस्कुरा रही थी। यह तूफान के पहले की शांति थी। दूर टीवी के पास बैठी मेरी बहन अपना होमवर्क कर रही थी... उसने मुझे इशारे से कहा कि बहुत पिटाई होने वाली है। मैं समझ गया पूरा घर अवस्थी जी के जाने का इंतज़ार कर रहा है। तभी अवस्थी जी कहने लगे कि यह बदबू कहाँ से आ रही है... मैं ठंड़ा पहले ही पड़ चुका था... अब मैं पीला पड़ता जा रहा था। यह ठंड़ा पड़ने के बाद की स्टेज है, इसके बाद आदमी लाल पड़ता है और फिर काम तमाम। माँ ने तुरंत मुझे अवस्थी जी के बगल से उठा दिया। मैं भागता हुआ किचिन में चला गया। घर में छुपने की कोई ओर जगह ही नही थी। मैं भीतर बैठा-बैठा अपनी सज़ाओ के बारे में सोचने लगा। तभी अवस्थी जी के दरवाज़े पर पहुचने की आवाज़ आई। “अच्छा आईयेगा’ यह वाक्य मेरे कानों में गूंजने लगा। और फिर कुछ ही देर में मैं पीला पड़ जाने के बाद वाली स्टेज पर पहुच गया.. मैं पिट-पिट के लाल पड़ चुका था। माँ जानती थी कि मारने का इसपर अब ज़्यादा असर नहीं होता है सो उन्होंने मारने के बाद मेरे कपड़े उतारे और मुझे नंगा घर के बाहर खड़ा कर दिया। शर्म के मारे मैंने आंखें नहीं खोली... कौन मेरे बगल में रुका, किसने मुझे देखा मुझे कुछ भी पता नहीं... बस मुझे मेरे मामा (सुधीर शास्त्री) की आवाज़ आई... ’और उड़ाओ पतंग..।’ कुछ देर बाद मेरी सिसकियों के बीच में दूसरी आवाज़ आई मेरी बहन की... ’चलो माँ ने अंदर बुलाया है।’ मैंने सिसकियों की आवाज़ को बनाए रखा, कपड़े पहने और होमवर्क करने बैठ गया...। तभी माँ.. मेरी पतंग लेकर मेरे सामने आई और उन्होने उस पतंग के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। तब मुझे असल में रोना आया.. मैं बहुत रोया.. बहुत। रोते-रोते कब मुझे नींद आ गई पता ही नहीं चला।
अगले दिन दोपहर में मैं सराफे में सब्ज़ी लेने गया। ठीक सब्ज़ी बज़ार के पीछे ही म्मताज़ की पतंग की दुकान है। कल की शाम की मार मेरे पूरे शरीर को याद थी... पर म्मताज़ भाई को अपनी जीत के बारे में विस्तार से बताने की इच्छा थी। एक पतंगबाज़ ही दूसरे पतंगबाज़ का दर्द समझ सकता है। इस मंत्र का उच्चार करते हुए मैं सब्ज़ीबज़ार से होता हुआ सीधा म्मताज़ भाई की पतंग की दुकान की तरफ चल दिया।
रंगों का जमघट म्मताज़ की दुकान थी। छोटा सा लकड़ी का टप था, उसके एक तरफ साईकल की दुकान और दूसरी तरफ आटा चक्की थी। उस सफेद और काले के बीच में तितलियों सी म्मताज़ भाई की दुकान। मैं भागता हुआ म्मताज़ भाई की दुकान के बाहर रखे फट्टे पर बैठ गया। दोपहर में म्मताज़ भाई की दुकान पर कम भीड़ होती थी। शाम को तो म्मताज़ भाई की शक्ल देखना भी मुश्किल होता था। म्मताज़ भाई हमेशा साफ सफेद हाफ शर्ट और सफेद पेंट पहनता था। सुन्दर पतली दाढ़ी, घने काले बड़े बाल... और इस सब के ऊपर उसके मुँह में पान। मुझे देखते ही म्मताज़ भाई ने पान थूका...
’अरे को भाई? क्या ख्याल है?’
’ख्याल दुरुस्त है म्मताज़ भाई।’
यह हमारा एक दूसरे को अभिवादन था। यह संवाद कभी भी नहीं बदला था। मेरी इच्छा थी कि म्मताज़ भाई को पिटाई वाली बात पहले बताऊं... क्योंकि एक पतंगबाज़ ही दूसरे पतंगबाज़ का दुख समझता है... पर उनके चहरे की मुस्कान को देखकर सोचा वह बात आखीर में बताऊगाँ।
’म्मताज़ भाई कल जो आपने एक ग़ोते में तीन पतंग काटी थी उसमें से एक पतंग कल मैंने लूटी....।’
’क्या बात कर रिये हो? तो इस बार तू लेके नी आया पतंग?’
’मुझे रास्ते में याद आया।’
तभी म्मताज़ ने कुछ कपड़ों के नीचे से एक हिचका (जिसमें मांझा लिपटा होता है) निकाला। मांझा सुर्ख लाल रंग का था।
’यह इसे छू के देख... देख।’
मैंने डरते-डरते हाथ आगे बढ़ाया।
’देखके हाथ कट जाएगा।’
मांझे को छूने के बाद, मेरा हाथ खुद-ब-खुद जेब में चला गया। एक पर्ची निकली जिसमें साड़े तीन रुपये रखे थे। पर्ची पर लिखा था- एक किलो आलू, आधा किलो प्याज़, आधा टमाटर, धनिया-मिर्ची-अदरक मुफ्त। मैंने वापिस उस पर्ची को पैसे समेत जेब में डाल दिया।
’म्मताज़ भाई... पिछली बार आपने मांझा दिया था और कहाँ था कि ऊपर से रखकर ढ़ील दे देना...बस दुश्मन का काम तमाम।’
मैं मांझे के लिए मना करना चाह रहा था पर म्मताज़ भाई से सीधा मना करने की हिम्मत नहीं थी। वैसे भी यह मेरी पुरानी शिक़ायत भी थी।
’पर जैसे ही मैंने ऊपर से रखकर ढ़ील दी, उसने नीचे से खेच दिया।’
म्मताज़ भाई तब तक लाल मांझे को अपने हाथो में लपेट रहे थे। मुझे डर लग रहा था कि कहीं यह मेरे लिए तो नहीं है।
’कौन सा मांझा था वह?’
’वही कत्थई वाला।’
मैंने जवाब दिया। म्मताज़ भाई ने हाथों में मांझा लपेटना बंद किया और ऊपर लटके हिचकों को बहुत देर तक देखते रहे। फिर कत्थई मांझे वाले हिचके को नीचे खींचा...
’यह वाला था ना...?’ मैंने हाँ में सिर हिलाया।
’साला... मियां लूटते है यह बरेली वाले भी... इस मांझे की बड़ी शिक़ायत मिली है...। अगली बार से मैं अगर यह मांझा दूँ भी ना.. तो तुम मत लेना ... साफ मना कर देना। इसे मैं वापिस बरेली भिजवाता हूँ। अपन हमेशा क्वाल्टी की चीज़ ही लेते है। इस लाल मांझे को देख रिया है? इसे सिर्फ मैं ही इस्तेमाल करता हूँ.. बस... किसी को नहीं दिया मियां आज तक यह.... छुपा के रखता हूँ। आज पहली बार तुम्हें दे रिया हूँ...संभालके। म्मताज़ भाई ने दिया है यह किसी को बक मत देना... यहाँ भीड़ लग जाएगी।... जब पचास पेंच(पतंग) काट दो तो म्मताज़ भाई को याद रखना... भूलना नहीं। यह लो... दो रुपये... पतंग भी निकाल के रखी है अपुन ने तेरे वास्ते। इस्पेसल है... बस ढ़ील देते रहना हवा से बातें करेगी।’
’नहीं म्मताज़ भाई... पतंग है मेरे पास... बस मांझा काफ़ी होगा।’
’पतंग कहाँ से आई... वह लढ़्ढू चोर की दुकान से ले ली क्या मिया?’
’क्या कह रहे हो म्मताज़ भाई.. मैं तो लढ़्ढू की दुकान की तरफ देखता भी नहीं हूँ। कल वाली लूटी हुई पतंग रखी है।’
मैंने जेब से दो रुपये निकालकर म्मताज़ भाई को दिये। म्मताज़ भाई ने सलीके से मांझा एक काग़ज़ में लपेटा और मेरी तरफ बढ़ा दिया...।
’वैसे मिंया इस मांझे से वह लूटी हुई पतंग उड़ाओगे तो लोग हंसेगें।’
’म्मताज़ भाई अभी पैसे नहीं है पतंग के...।’
और मैं चुप हो गया। पतंग बाज़ी के बीच में पैसे की बात करना भी मुझे गुनाह लगता है और वह भी म्मताज़ जैसे पतंगबाज़ के सामने..।
’पैसे कौन मांग रहा है मिंया... पैसे जब हो तब दे देना... अभी तो उस मांझे की इज्जत रखो।’
म्मताज़ भाई ने वह पतंग दे दी। मेरे समझ से यह एक उभरते हुए पतंगबाज़ की सबसे बड़ी बेइज़्ज़त थी। क्यों मैंने पैसे की बात भी निकाली म्मताज़ भाई के सामने?
मैं पचताया सा, म्मताज़ भाई से विदा ले वहाँ से निकला। जैसे ही सब्ज़ी बज़ार में घुसा मुझे जेब में रखी पर्ची याद आ गई। बस ढ़ेढ रुपये बचे थे। मैंने ढ़ेढ़ रुपये के आलू लिए और अपने पक्के दोस्त आनंद के घर भागा। आनंद घर पर नहीं मिला। अगर माँ ने पतंग देख ली तो इस धरती पर यह मेरा आखीरी दिन होगा। सोचा पतंग फाड़ देता हूँ और मांझा घर में घुसते ही किताबों के पीछे छुपा दूगाँ। मैंने आलू से भरा झोला नीचे रखा... मांझे को जेब में और अपने दोनों हाथों से पतंग को अपनी आँखों के सामने लाया... पतंग खूबसूरत हरे रंग की थी... ठीक बीचों-बीच सफेद अर्धचंद्र था। कैसे फाड़ दूं? मैंने ’घुर्र.. घुर्र... ’ आवाज़ निकालते हुए, अपने दोनों हाथों की पूरी ताकत लगा दी... कुछ नहीं हुआ... मेरे हाथ कांपने लगे। म्मताज़ भाई की दी हुई पतंग मैं कैसे फाड़ सकता हूँ? मैंने अपनी आंखे बंद कर ली... और फिर ज़ोर लगाया। पर पतंग वैसी की वैसी मुस्कुराते हुए मेरे सामने थी। मैं रोने लगा... सोचा म्मताज़ भाई के पास जाऊँ और उनसे कह दूं कि मैं एक सच्चा पतंग बाज़ नहीं हो सकता। आप किसी और से दोस्ती कर लें। मैं पतंग लेकर गली में ही बैठ गया और म्मताज़ भाई का नाम ले लेकर भभक कर रोने लगा।
सांतवीं की परिक्षा सिर पर थी। माँ मेरे पंतग उड़ाने के टाईम को खा जाना चाहती थी। माँए कितनी चालाक होती है। अब हर शाम को मुझे ट्युशन जाना पड़ता है.... वह भी अंग्रेज़ी की। चौहान सर, जो अंग्रज़ी की ट्यूशन पढ़ाते थे.. उन्हें लगता था दौ सौ किलो मीटर के इलाके में उनके अलावा कोई और अंग्रेज़ी का ’अ’ भी नहीं जानता है। शायद वह सही भी हो क्यों कि मैंने आजतक अपने दौ सौ मीटर के मोहल्ले में किसी को भी अंग्रेज़ी का ’अ’ बोलते हुए नहीं सुना। वह हर शाम अपने आंगन में ट्यूशन लेते थे, उनके हाथ और ज़बान एक साथ चलते थे। मेरी जान हलक़ को आ जाती जब मैं कोई भी कटी हुई पतंग को सामने से जाते हुए देखता। पिछ्ली खाई हुई मारों का इतना डर भीतर भरा हुआ था कि मुझे लगने लगा.... अगर मैं पतंग शब्द भी अपने मुँह से निकालूगाँ तो मेरी माँ कहीं से भी प्रकट हो जाएगी और मुझे मारना शुरु कर देगी...। यूं भी चौहान सर के कारण मेरे कान अपना असली रंग छोड़ चुके थे वह म्मताज़ के मांझे के लाल रंग के समान हो गए थे जिसे मैंने अभी तक अपनी किताबों की अलमिरा के पीछे छुपा के रखा है।
ट्युशन पढ़ते हुए मेरी निग़ाह आसमान और चौहान सर दोनों पर रहती थी। तभी आंगन की झाडियों के बीच से मुझे एक सफेद चप्पल दिखाई दी, फिर सफेद पेंट, और सफेद हाफ शर्ट... ’अरे यह तो म्मताज़ भाई हमारी गली से गुज़र रहे हैं।’ मेरे मुँह से निकल पड़ा, आनंद ने मुझे एक चपत लगाई। मैं चुप हो गया। मैं खड़ा हुआ, चौहान सर को पिशाब का इशारा किया और म्मताज़ भाई के पीछे भाग लिया। म्मताज़ भाई को मैंने पहली बार उनकी दुकान के बाहर यूं चलते हुए देखा था। कितने लंबे हैं मुमताज़ भाई। बहुत सी गलियों से होते हुए वह एक छोटे से हरे दरवाज़े के सामने रुक गए। मैं पीछे छिपा हुआ था। उन्होने दरवाज़ा खटखटाया... एक छोटी बच्ची ने दरवाज़ा खोला। म्मताज़ भाई ने उसे गोद में उठा लिया। उनके घर का दरवाज़ा बहुत छोटा था... सिर झुकाकर वह अपने घर में घुसे, दरवाज़ा आधा खुला हुआ था। मैं वहीं खड़ा रहा, अंदर कुछ पतंग दिखी... मैं उस दरवाज़े के कुछ और पास पहुच गया। एक औरत भीतर से आई, जिसने ममताज़ भाई को पानी लाकर दिया। वह बच्ची भागकर अंदर गई और उसने एक कापी लाकर म्मताज़ भाई को दिखाई... म्मताज़ भाई ने उसे अपनी गोद में उठाया और उसे चूमने लगे। वह बच्ची म्मताज़ भाई को अपनी पेंटिग की किताब दिखा रही थी.... तभी उस बच्ची की आँखें मुझसे मिली...। मैं निग़ाहे हटाना चाह रहा था पर हटा नहीं पाया... वहाँ से जाना चाह रहा था पर जा नहीं पाया। वह एक टक मुझे धूरती रही... मानो पूछ रही हो ’तू कौन?’ यह म्मताज़ भाई का परिवार था और मैं कोई नहीं था... नहीं... नहीं यह म्मताज़ भाई नहीं थे, पतंगबाज़ी एक झूठा खेल था, और मैं हार चुका था। मेरे आँसू निकलते ही म्मताज़ भाई की बच्ची भागती हुई मेरी तरफ आई और उसने घर का दरवाज़ा मेरे मुँह पर बंद कर दिया।.... मुझे सब कुछ इतना शर्मनाक़ लगाने लगा कि मैं वहाँ से भाग लिया... भागता हुआ मैं सीधा आपने घर पर गया। अपनी अलमिरा के पीछे छुपा कर रखे हुए लाल मांझे निकाला और उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये।
कुछ देर बाद आनंद मेरा बस्ता लेकर घर पर आया। ’बेटा कल चौहान सर तेरे कान लाल नहीं... हरे कर देगें।’ यह कहते हुए उसने बस्ता मेरी तरफ फेंक दिया। मैंने उसकी तरफ देखा भी नहीं। ’क्यों रें आन्टी ने मारा क्या?’ मैं चुप था। ’मैं जाऊ क्या?’ इस बात पर मैंने उसका हाथ पकड़ लिया। ’अबे क्या हो गया?’ यह कहते ही आनंद मेरे बगल में बैठ गया। ’म्मताज़ भाई का अपना घर है, उनकी एक बेटी है, बीबी है......’ यह कहते ही मैं फूट-फूटकर रोने लगा। ’....तो?’ आनंद ने ’तो’ कहा और चुप हो गया। मैंने आनंद को आश्चर्य से देखा, क्या सच में वह यह सीधी सी बात नहीं समझा... ’तो? तो म्मताज़ भाई झूठे हैं, पूरी तरह झूठे।’ आनंद ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगा, मैं यह बर्दाश्त नहीं कर पाया, मैं चिल्लने लगा.... ’म्मताज़ भाई के बीबी बच्चे कैसे हो सकते हैं..??? वह एक पतंगबाज़ है.. बड़े पतंगबाज़....। वह.. वह... सुपरमैन है।’ उसके बाद मेरे मुँह से कुछ और नहीं निकल सका... और मैंने अपना बेग़ उठाकर पूरी ताकत से आनंद के मुँह पर दे मारा।
सातवीं की परिक्षा बिना पतंग, बिना म्मताज़ भाई, और बिना आनंद के गुज़र गई। छुट्टियाँ शुरु हो चुकी थी... आसमान म्मताज़ भाई की पतंग की दुकान हो चुका था... पर मैं पतंग नहीं उड़ाता था। मैं... आसमान का खेल छोड़कर ज़मीन के खेल पर आ चुका था... मैं कंचे खेलने लगा था। बाक़ी वक़्त मैं घर के काम करता रहता। माँ बहुत खुश रहने लगी थी... सुधीर शास्त्री (मेरे मामा) मेरे बग़ल से निकलते हुए मेरी जेब में चाकलेट रख देते थे... अवस्थी जी ने मुझे क्रिकेट का बेट गिफ्ट किया। मेरे पतंगबाज़ी छोड़ने के बाद यह पूरा गांव मुझसे खुश रहने लगा। पर... बीच-बीच में घोर बदले की भावना मेरे भीतर उठने लगती...मेरी इच्छा होती कि म्मताज़ भाई की आँखों के सामने... लड़्डू की दुकान से पतंग खरीदू या लंगड़ डालकर म्मताज़ भाई की काली खूबसूरत पतंग को नीचे खींच, उसे धूल चटा दूं या देर रात... एक बाल्टी पानी लेकर जाऊं और म्मताज़ भाई की पतंग की दुकान को भीतर-बाहर हर जगह से गीली कर दूं। ’भगवान सब देखता है’ का डर माँ ने ठूस-ठूस कर मेरे भीतर भर दीया था... सो चाहकर भी मैं कुछ नहीं कर पाया।
एक पतंगबाज़ पतंग उड़ाना बंद कर सकता है... पर उसके बारे में सोचना वह कभी भी बंद नहीं कर सकता। शाम होने पर मैं कंचे खेलता तो था... पर उसमें मेरा मन कम ही लगता था...। जब घर मे कोई काम नहीं होता तो दिन भर.... मैं घर के भीतर वाले कमरे में ही बैठा रहता... क्योंकि बाहर वाला कमरा सड़क के एकदम किनारे पर था, कोई भी बच्चा भागता तो लगता कि वह पतंग के पीछे ही भाग रहा है, हर हंसी पतंग की हंसी लगती, बाहर खुसुर-पुसुर की बातचीत जो भीतर साफ सुनाई देती, लगता कि सभी मुझे ’डरपोक पतंगबाज़’ कह रहे हैं। एक दिन मैं अपनी गणित की किताबों में अपना सर धुसाए भीतर किचिन में बैठा था...छुट्टीयों में दिये गए होमवर्क को पूरा करने की असफल कोशिश....तभी दरवाज़े पर खट-खट हुई। माँ अवस्थी जी के घर गई हुई थी, बहन बाहर के कमरे में पढ़ने का नाटक कर रही थी। उसने भागकर दरवाज़ा खोला। बहन की बाहर से आवाज़ आई ’भाई तुमसे कोई मिलने आया है।’ मैं बाहर गया तो देखा म्मताज़ भाई दरवाज़े पर खड़े हैं।
’अरे को भाई? क्या ख्याल है?’
’ख्याल दुरुस्त है म्मताज़ भाई।’
मैं यह जवाब देना नहीं चाहता था।
’क्या मियां अंदर आने को नहीं कहोगे?’
’आओ म्मताज़ भाई.. आओ...।’
मैंने देखा म्मताज़ भाई हमारे घर में सिर झुकाकर भीतर आए.. जबकि दरवाज़ा, उनके उछलने के बाद भी उनके सिर से नहीं टकराता। वह भीतर आकर सोफे पर बैठ गए...। मैंने अपनी बहन को धक्का देकर किचिन में ढ़केल दिया। मैं खड़ा रहा।
’क्या मिया पतंगबाज़ी का शोक़ काफूर हो गया? बहुत दिन से दिखाई नहीं दिये।’
मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था। इच्छा तो हुई कि कह दूं ’म्मताज़ भाई आप.. आप.. गंदे है..ग़लत है... झूठे हैं।’
’माँ ने मना किया हुआ हैं।’
यह आसान सा जवाब था... म्मताज़ भाई चुप हो गए।
’क्या? मियां ने पुरानी दोस्ती और पतंग बाज़ी सब छोड़ दी क्या?’
मैं म्मताज़ भाई की तरफ आश्चर्य से देखता रहा। तभी मेरी बहन भीतर से पानी लेकर आई। म्मताज़ भाई पानी लेकर बाहर गए, उन्होने पहले पान थूंका... आधे पानी से कुल्ला किया और आधा पानी पी गए।
’लाल मांझे से कितनी पतंग काटे तुम? बताया ही नहीं भाई?’
’वह लाला मांझा गलती से पानी में गिर के खराब हो गया था।’
’अरे मुझे बताया होता मिया?’
’मैंने पतंगबाज़ी छोड़ दी है म्मताज़ भाई, अब मैं कंचे खेलता हूँ।’
यह वाक्य के मुँह से निकते ही मैंने अपनी आँखे फेर ली। वापिस देखा तो म्मताज़ भाई मुझे देखकर मुस्कुरा रहे थे... इच्छा हुई कि अभी इसी वक्त उनके गले लग जाऊं.. उन्हें चूम लूं.. उनकी गोदी में बैठ जाऊं.. और.. और... उनसे कहुं कि मैं आपकी खूबसूरत काली पतंग... लाल मांझे के साथ उड़ाना चाहता हूँ।
’आनंद आया था दुकान पर.. उससे ही तुम्हारे घर का पता पूछा।’
’वह क्यों आया था..?’
’पतंग लेने आया था।’
’पतंग लेने? उसका पतंगबाज़ी से क्या लेना-देना???’ मैंने गुस्से में कहाँ।
’क्या मियां खुद तो पतंगबाज़ी छोड़के कंचे खेलने लगे हो, कम से कम दूसरों को तो पंतग उड़ाने दो, मेरे बीबी बच्चों को भूखा मारोगे क्या?’
बीबी बच्चों का नाम आते ही मेरा गुस्सा आसमान छूने लगा। तो क्या म्मताज़ भाई अपना घर चलाने के लिए पंतग बेचते है...? पतंगबाज़ी महज़ एक खेल है? म्मताज़ भाई महज़ एक और आदमी है? नहीं यह सब झूठ है... झूठ है।
’आप झूठे हैं।’
म्मताज़ भाई ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। तभी बाहर एक स्कूटर रुकने की आवाज़ आई... यह अवस्थी जी का स्कूटर था।
’भाई माँ आ गई।’ भीतर से बहन की आवाज़ आई...जो दरवाज़े के कोने में खड़े होकर सब सुन रही थी। उसके सुर में चेतावनी थी। मैं म्मताज़ भाई से थोड़ा दूर जाकर बैठ गया। माँ दरवाज़े पर पहुचते ही स्तब्ध रह गई। म्मताज़ भाई ने खड़े हो कर नमस्कार किया.. माँ ने उसका कोई जवाब नहीं दिया। म्मताज़ भाई मुझे देखने लगे.. मैं अपने पैरों को देखने लगा... मानों मुझसे कोई ग़लती हो गई है... तभी मम्ताज़ भाई की आवाज़ आई...
’तो.. क्या ख्याल है?’ यह उन्होने माँ से पूछा था..
’जी...?’ माँ आश्चर्यचकित रह गई।
’ख्याल दुरुस्त हैं...’ यह मैंने माँ और म्मताज़ भाई दोनों से एक साथ कहाँ.. कुछ मध्यस्ता जैसा..।
’माँ यह म्मताज़ भाई हैं।...’ माँ हम दोनों के बीच में आकर बैठ गई.. मेरी बहन भी हिम्मत करके बाहर आ गई और मेरे सामने आकर बैठ गई। सभी शांत बैठे थे... झूठी मुस्कुराहट माँ के अलावा हम तीनों के चहरों पर थी।
’माँ यह म्मताज़ भाई है, सराफे के पीछे इनकी पतंग की दुकान है।’ बहन ने अति उत्सुकता में शांति भंग करनी चाही।
’मैं जानती हूँ.. तू चुप रह।’ बहन के चहरे से मुस्कुराहट गायब हो चुकी थी.. मेरी मुस्कुराहट भी दम तोड़ रही थी... बस म्मताज़ भाई मुस्कुराए जा रहे थे.. शायद इसलिए कि वह माँ को अभी जानते नहीं थे। माँ, बहन से निपटकर म्मताज़ भाई की तरफ देखने लगी... लेकिन म्मताज़ भाई मुझे देख रहे थे।
’हाँ मैंने तुमसे थोड़ा झूठ बोला था मिंया... वह लाल मांझे से मैं पतंग नहीं उड़ाता हूँ... वह तो उसी वक़्त नया मांझा आया था। पर मिंया कथई मांझा उतना खराब नहीं है, मैं उससे पतंग उड़ा चुका हूँ।’
माँ सन्न थी.. उनकी कुछ भी समझ में नहीं आया। अपने पूरे आश्चर्य से वह मुझे देखने लगी। मुझे पता था माँ को इस वक़्त कुछ भी समझाना नामुमकिन था। सो मैं सीधे म्मताज़ भाई की तरफ मुखातिफ हुआ...
’मैं उस झूठ की बात नहीं कर रहा हूँ।’
’तो और क्या बात है मिंया?’
’म्मताज़ भाई मैं.. मैं...’
मेरी कुछ समझ में नहीं आया कि मैं क्या कहूं.. क्यों है म्मताज़ भाई झूठे? और मैं चुप हो गया।
’मैं समझा मिंया... पेंच काटने की बात ना (पतंग काटने)... तो ऎसा है कि मैं तुम्हारे बड़े होने का इंतज़ार कर रिया था। पंतगबाज़ी... सिखाई नहीं जा सकती है मिंया... वह आती है या नहीं आती है।’
’मुझे आती है क्या?’
’अगर नहीं आती तो मैं यहाँ क्यों आता मिंया?’
’पर आपने कहाँ था कि कथई मांझे से ऊपर से रखकर ढ़ील देना... और हरे से नीचे से खेंच देना।’
’मिंया यह सब कहने की बातें है.. जब पतंग लड़ रही होती है...तो उस लड़ाई में पढ़ाई भूलना पड़ता है।’
इस बात पर मेरी माँ बिदग गई... बहुत देर से वह सिर घुमा-घुमा कर कभी मेरी कभी म्मताज़ भाई की बातें समझने की कोशिश कर रही थी।
’क्या है यह?... आप यह क्या बात कर रहे हैं?’
मुझे माँ की बात सुनाई नहीं दी... पहली बार म्मताज़ भाई इतनी गहराई से पतंगबाज़ी की बातें कर रहे थे।
’म्मताज़ भाई आप तो हमेशा ख़ीच के पतंग काटते हो?’
’नहीं तो....।’
’मैंने आपके हर पेच देखें हैं।’
’अच्छा?’
’हाँ म्मताज़ भाई...।’
’मुझे कभी पता नहीं चला... पतंग लड़ाते वक़्त मुझे कुछ भी याद नहीं रहता।’
’मुझे भी म्मताज़ भाई, मुझे भी कुछ याद नहीं रहता...। मैं तो पतंग को देखता हूँ और सब कुछ भूल जाता हूँ।’
माँ अचानक खड़ी हो गई और म्मताज़ भाई के चहरे के ठीक सामने आकर, मर्दों वाली आवाज़ में उन्होंने पूछा।
’तुम यहाँ क्यों आए हो.. म्मताज़?
उन्होने भाई नहीं कहाँ... मुझे लगा वह किसी ओर से यह पूछ रही हैं।
’इन साहबज़ादे से मिलने।’
’कोई ख़ास वजह?’
’नहीं कोई ख़ास वजह तो नहीं है...।’
’तो आप ऎसे ही चले आए?’
’नहीं, ऎसे ही तो नहीं आया मैं... वजह है.. मगर वह ख़ास वजह नहीं है।’
’तो..? क्या वजह है?’
’यह साहबज़ादे बहुत दिन से दिखे नहीं थे सो...।’
’इनकी परिक्षा चल रही थी।’
’हाँ मुझे पता था..। पर वह तो खत्म हुए काफ़ी समय हो गया है... तो मैंने सोचा..।’
’क्या सोचा?’
’सोचा....पतंगबाज़ी का मौसम है.. और यह जनाब नदारद।’
’इन्होने पतंग बाज़ी छोड़ दी है।’
’हाँ अभी बताया इन्होने, यह आजकल कंचे खेलने लगे है।’
’क्या?’
माँ अचानक म्मताज़ भाई को भूलकर मुझे देखने लगी। मैंने तुरंत ’ना’ में सिर हिला दिया। म्मताज़ भाई इस पूरे सवाल-जवाब के दौरांन खड़े होते गए थे और माँ अंत में म्मताज़ भाई की जगह बैठ गई थी...। माँ वापिस म्मताज़ भाई की तरफ मुड़ी...
’इसने पतंग उड़ाना बंद कर दिया है। अब यह कभी भी पतंग नहीं उड़ाएगा।’
इस घोषणा के होते ही म्मताज़ भाई की मुस्कुराहट उनके चहरे से गायब हो गई। मुझे लगा जैसे माँ ने मेरे सामने म्मताज़ भाई की काली पतंग के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। मैं सहन नहीं कर सका..। मेरी इच्छा हुई कि माँ के सामने चिल्लकर कह दूं कि ’आप चुप रहिए, यह मेरे और म्मताज़ भाई के बीच की बात है.. आप एकदम चुप रहिए।’ कुछ सहारा तलाशने में मेरी आँखें मेरी बहन से मिल गई... वह तुरंत भागकर माँ के बगल में बैठ गई मानों कह रही हो कि मैं माँ की तरफ हूँ। मैं क्या कर सकता था, कुछ भी नहीं... मैं म्मताज़ भाई के प्रेम में था... इतना कि उन्हें तक़लीफ में देखना चाहता था... बेइज़्ज़त होते नहीं।
’मैं चलता हूँ...।’
यह वाक्य म्मताज़ भाई ने मानो खुद ही कहाँ.. पर वह वहीं खड़े रहे। माँ, बहन और मैं हम तीनों कमरे की अलग-अलग दिशाओं में देख रहे थे... और म्मताज़ भाई की आँखें... घर की छत में कुछ तलाश रही थी।...कुछ वक़्फे के बाद मैं खड़ा हुआ मैंने म्मताज़ भाई का हाथ पकड़ा... उनकी तरफ देखने की मेरी हिम्मत नहीं थी। मैं उनकी उंगलियों को देखता रहा जिसमें मांझे से कटने के बहुत सारे निशान बने हुए थे। फिर मैंने अपनी उंगलियों को देखा... उसमें भी कुछ वैसे ही निशांन थे।
’म्मताज़ भाई मैं एक पतंगबाज़ हूँ।’
और मैं उनके गले लग गया... कसकर...। उनके पान की सुगंध उनके पूरे शरीर में थी। मैं म्मताज़ भाई की पूरी सफेदी में.. उनकी पान की खुशबू में... उनमें घुल जाना चाहता था। अचानक मेरे मुँह से ’घुर्र...घुर्र...’ की आवाज़ निकलने लगी।
’यह क्या कर रहे हो?’
माँ अचानक खड़ी हो गई और उन्होने मुझे खींच के म्मताज़ भाई से अलग कर दिया। माँ को लगा शायद मैं म्मताज़ भाई को मारना चाहता हूँ.... पर असल में तो मैं म्मताज़ भाई के भीतर घुसने की जगह ढ़ूंढ़ रहा था।
माँ ने मुझे ज़बरदस्ती अपनी गोद में बिठा लिया। म्मताज़ भाई बहुत धीरे से दरवाज़े की तरफ मुड़े.. फिर रुक गए.. फिर एक कदम चले और रुक गए। पलटे और मुझे देखने लगे...
’मैं आपसे एक बात कहूं?’
इस बार वह मुझसे नहीं मेरी माँ से कह रहे थे।
’कहिए.. पर जल्दी मुझे घर में बहुत काम है।’
म्मताज़ भाई एक कदम आगे बढ़े। पता नहीं क्या हुआ वह मेरी बहन को देखने लगे.. कुछ देर चुप रहे... फिर मेरी तरफ देखकर हँसने लगे... उनकी हँसी अचानक तेज़ होने लगी.. और उन्होने कहाँ..
’रहने दीजिए...’
और वह चल दिये।
माँ कुछ देर तक सन्न बैठी रही.. ’रहने दीजिए?’माँ के मुँह से निकला, उन्होने मुझसे पूछा..
’रहने दीजिए?’
मैं दरवाज़े की तरफ देखने लगा.. मानो म्मताज़ भाई अभी भी वहीं खड़े हुए हों। माँ अचानक चिल्लाने लगी... ’रहने दीजिए?’.. वह दरवाज़े की तरफ गई.. ’इसका क्या मतलब है... रहने दीजिए? .. क्या मतलब है इसका? म्मताज़.. अगर दम है तो कहो जो कहना था...म्मताज़ क्या?..’
माँ चिल्लते हुए घर के बाहर निकल गई मानों म्मताज़ भाई कुछ चुराके भागे हों। जब बाहर माँ चीख रही थी तो मैं और मेरी बहन एक दूसरों को देखने लगे.. पहली बार हमने एक दूसरे के प्रति साहनुभूति सा कुछ महसूस किया...। मैं अपनी बहन के पास जाकर बैठ गया। उसने कुछ देर में मेरे गले में अपना हाथ डाल दिया।
पतंग मैं भूल चुका था.. पर म्मताज़ भाई को भुला देना इतना आसान नहीं था। आजकल आनंद पतंगबाज़ी करने लगा था। वह म्मताज़ भाई का शागिर्द हो चुका था। जब भी मेरी उससे मुलाकात होती वह सिर्फ पतंगबाज़ी या म्मताज़ भाई की बातें करता। मेरा खून खौल जाता। मैं हर बार बात बदलने की कोशिश करता पर वह वापिस घूम फिरकर पतंगबाज़ी पर आ जाता। मैंने आनंद से मिलना बंद कर दिया। पर जब भी कभी ’पतंग’ सुनाई देती, जब कभी एक झुंड बच्चों का पतंग लूटने के लिए मेरे सामने दौड़ पड़ता, कोई मांझा, सद्दी, हिचका... कुछ भी कहता... मेरे सामने मुस्कुराते हुए म्मताज़ भाई आ जाते और पूछते ’अरे को भाई? क्या ख्याल है?’ मैं कहता ’ख़्याल दुरुस्त नहीं है म्मताज़ भाई... ख़्याल एकदम दुरुस्त नहीं है।’ पर यह सब सुनने वाला कोई नहीं था। कुछ दोपहरों को मैं यूं ही सब्ज़ी बज़ार के दूसरी तरफ चला जाता। दूर से म्मताज़ भाई की पतंग की दुकान को घूरता रहता। कभी-कभी म्मताज़ भाई देख लेते, पर उनके देखते ही मैं वहा से भाग जाता। मैं चिड़चिड़ा हो गया था। किसी भी बात पर रोने लगता... अपनी बहन पर हाथ उठा देता, अपने दोस्तों से लड़ लेता। यह सब मेरे बर्दाश्त के बाहर होता जा रहा था।
एक रात मुझे नींद नहीं आ रही थी। आँखें बंद होती तो मैं खुद को म्मताज़ भाई की गोदी में बैठा पता... मैं उन्हें पतंग की पेंटिंग्स दिखा रहा होता... वह हंस रहे होते... तभी कहीं से आनंद और उनकी बेटी भागते हुए आते, उन्हें देखते ही म्मताज़ भाई मुझे अपनी गोदी से नीचे गिरा देते। मैं ज़मीन पर पड़ा रहता। म्मताज़ भाई अपनी बेटी को चूमते और आनंद को अपनी काली पतंग और लाल मांझा गिफ्ट कर देते। मेरी आँख खुल जाती।
एक रात मैं कुछ ऎसे ही सपने से हड़बड़ा कर उठा.... पता नहीं क्या समय हुआ होगा? मैं पसीने-पसीने था... मैं किचिन में चला गया, मटके से पानी निकाला पर पीने की इच्छा नहीं हुई। तभी मुझे गेस के बगल में माचिस पड़ी दिखी। मैंने उस माचिस को जेब में रखा, धीरे से दरवाज़ा खोला और बाहर निकल गया। पता नहीं मुझे क्या हो गया था... मैं कहा चला जा रहा था। रास्ते में जो भी अख़बार, काग़ज़ मुझे दिखते मैं उन्हें बटोरता चलता। अंत में बहुत सी रद्दी के साथ मैं म्मताज़ भाई की दुकान के सामने खड़ा था। उनका छोटा सा लकड़ी का टप था। मैं खिसककर उस टप के नीचे घुस गया... रद्दी का एक छोटा सा पहाड़ बनाया, अपनी जेब से माचिस निकाली और उस रद्दी में आग लगा दी। यह सब मैं क्यों कर रहा था? क्या हो रहा था मेरे भीतर? मुझे कुछ भी नहीं पता। मैं बस बिना पलके झपकाए एक रोबोट सा किसी के आदेश का पालन कर रहा था। मैं ऎसा नहीं था... बिलकुल भी नहीं... मैं बहुत डरपोक हूँ... पर मुझे डर नहीं लग रहा था। मैं रात में पिशाब करने लिए भी अकेले बाहर नहीं जाता था पर अभी मैं उस वीरान सब्ज़ी बज़ार के कोने में म्मताज़ भाई के टप को जलता हुआ देख रहा था। पता नहीं कहाँ से बहुत तेज़ हवा चलने लगी... मैं अचानक लड़खड़ाकर गिर पड़ा। गिरते ही मुझे लगा मैं जाग गया... मैं कहाँ हूँ? यह क्या हो रहा है? सामने म्मताज़ भाई का टप जल रहा था...आग बहुत ज़ोर से फैलने लगी थी। वह बगल की साईकल की दुकान और आटा चक्की को भी अपने घेरे में लेने लगी। यह मैंने क्या कर दिया? मैं आग बुझाने म्मताज़ भाई की दुकान की तरफ बढ़ा.. यहाँ वहाँ पानी तलाशने लगा.. पर कुछ भी नहीं दिखा... तो मैं मिट्टी उठाकर आग पर फेंकने लगा... पर आग पर कुछ भी असर नहीं हुआ... मैं पागलो की तरह मिट्टी फेंके जा रहा था। तभी कुछ लोग इधर को भागते दिखे... मैं बुरी तरह घबरा गया। मैंने तुरंत घर की ओर दौड़ लगा दी।
घर में घुसते ही मैंने धीरे से दरवाज़ा बंद किया... माँ और बहन दोनों सो रहे थे। हलके कदमों से चलता हुआ मैं चुप-चाप अपने बिस्तर में धुस गया। मैं बुरी तरह हाफ रहा था... तभी मुझे मेरी बहन की आवाज़ आई...
’भाई कहाँ गए थे?’
मैं अपनी बहन की आवाज़ सुनकर चौक पड़ा... मानो मैं रंगे हाथों पकड़ा गया हूँ। मुझे विश्वास नहीं हुआ कि वह जगी हुई है.... मैंने उसकी तरफ देखा.. अंधेरे में उसकी डरी हुई आँखें मुझे साफ दिख रही थी। मुझे लगा उसकी आँखें मुझसे पूछ रही हैं कि... ’यह तूने क्या कर दिया?’ तभी मेरी बहन ने मेरे सिर पर अपना हाथ रखा और मैंने अपनी आँखें बंद कर ली।

तीन
मैं हड़बड़ाकर उठा...। मेरे सामने वही औरत खड़ी जिस्से मैंने रात में अपनी जगह बदली थी। मैं डर गया मुझे लगा कि क्या यह अभी भी देख रही है कि मैं बाथरुम करने जा रहा हूँ या नहीं?
’क्या है? कया हो गया?
’Are you feeling okay?’
’जी..? मैं क्या feel कर रहा हूँ।’
’मैं आपको बहुत देर से उठाने की कोशिश कर रही हूँ। क्या यही आपको उतरना था?’
’हें... हें...?’
ट्रेन खड़ी हुई थी... कुछ ही देर में मुझे सब कुछ समझ में आने लगा...। मैं भागर दरवाज़े की तरफ लपका। और इधर-उधर सब से पूछने लगा।
’कौन सा स्टेशन है यह? कौन सा स्टेशन है यह?’
तभी मेरी निग़ाह हड़बड़ाए हुए आनंद पर पड़ी... वह एक डिब्बे से निकलकर दूसरे डिब्बे में घुस ही रहा था कि उसने मुझे देख लिया...
’बिक्की.... बिक्की...’
उसने वहीं से चीख़ना शुरु कर दिया। तभी ट्रेन चलने लगी... मैं भगकर अपना सामान लेने भीतर घुसा। आनंद बिक्की चिल्लाता हुआ मेरे पीछे भागा... उसे लगा मैं उसे देखकर वापिस ट्रेन में चढ़ गया। पर उसे समझाने का वक्त नहीं था। मैंने अपनी सीट के नीचे से अपने जूते उठाए, बेग़ हाथ में लिया और दरवाज़े की ओर लपका। तभी मुझे लगा कि मैं कुछ भूल रहा हूँ... हाँ मुझे उस औरत को ’धन्यवाद’ कहना था.... मैं पलटा.. वह अपनी सीट पर बैठे मुझे ही देख रही थी। मैं उसकी तरफ देखकर मुस्कुरा दिया और उसे ’धन्यवाद’ कहा। पर उसने उसका कोई जवाब नहीं दिया.. वह मुझे वह मुझे एक प्रश्नवाचक दृष्टी से देखती रही। मेरी इच्छा हुई कि उसे कह दूं कि कल रात में मैंने आपसे झूठ बोलकर बर्थ ली थी। मुझे पिशाब की कोई बिमारी नहीं है। तभी आनंद आ गया और उसने मुझे घसीटकर बाहर निकाल लिया। शायद मैने sorry कहा था या वह मैंने खुद से ही कहा... पता नहीं।
जूते पहनने के बाद मैं स्टेशन से बाहर आया... आनंद की बाईक बाहर ही खड़ी थी।
’सीधे म्मताज़ भाई के पास ही चलते हैं।’
’हाँ... सीधे वहीं चलते हैं।’
मैं बाईक पर बैठ गया, जैसे ही मैंने अपना हाथ उसके कंधे पर रखा... अजीब से चित्र मेरे सामने घूमने लगे। हमारे बचपन के खेल... मेरी इच्छा हुई कि एक बार उसे पूंछू तुझे कुछ हमारे बचपन की कितनी याद है? मगर मैं चुप रहा....।
यह मेरे बचपन का सबसे पक्का दोस्त्त है... कितना बड़ा लग रहा है, उसका माथ काफी निकल आया है, बड़ी-बड़ी मूँछे रख ली हैं। फिर मैंने सोचा हमारे बीच अब और क्या बात हो सकती है.... बचपने के खेल की? हमारे अंग्रेज़ी के चौहान सर की? पतंगबाज़ी की? उसे कितना याद होगा? क्या आनंद सच में सब कुछ भूल चुका है? मैं तो भूल ही चुका था।
मुझे बहुत गर्मी लगने लगी थी। उलझन, पसीना पता नहीं वह क्या था कि मुझे लगा म्मताज़ भाई के यहाँ नहीं जाना चाहिए... क्या करुगाँ मैं वहाँ जाकर.? यह अपने बचपन के कपड़े ज़बरदस्ती पहनने जैसा है, वह फट जाएगें... हम बड़े हो चुके हैं अब..। ऊफ! नहीं मुझे म्मताज़ भाई से नहीं मिलना... ।
’आनंद... बाईक रोक ज़रा।’
’क्या हुआ?’
’तू बाईक रोक ना।’
आनंद ने तुरंत बाईक किनारे खड़ी कर दी।
’क्या हुआ?’
’सोच रहा था... पहले एक चाय पी लेते हैं?’
’चाय? अरे म्मताज़ भाई से मिलने के बाद पी लेना?’
’नहीं पहले चाय।’
’ठीक है।’
वहीं बगल में एक चाय की टपरी थी। आनंद ने दो चाय मंगा ली। मैं कैसे आनंद से कहूं कि मैं म्मताज़ भाई के पास नहीं जाना चाहता हूँ... रहने दे... तू मुझे वापिस स्टेशन छोड़ दे।
’तू वापिस कब जा रहा है?’
’शाम की ट्रेन है।’
’कुछ दिन रुक जाता...।’
आनंद का यह अजीब सा अपनापन है..। ’कुछ दिन रुक जाता...’ इस वाक्य में अपनापन है लेकिन कहने के तरीके में एक स्पष्ट सी बात, जिसे कहते ही वह दूसरे कामों में व्यस्त हो सकता था। मैंने जवाब नहीं दिया तो उसी ने कह दिया।
’खेर तू आ गया यही काफी है।’’
उसने जल्दी से चाय खत्म की और बाईक की तरफ बढ़ गया। मैं जब तक उससे कुछ कह पाता उसने बाईक स्टार्ट कर दी।
’चल चलते हैं।’
मैं बेमन सा उसकी बाईक पर बैठ गया। बाईक पर पीछे बैठा हुआ मैं अपना गांव देख रहा था, लगभग सब कुछ बदल चुका है। गलियाँ सड़को मे तबदील हो चुकी है. सड़के... मुख्य मार्ग में... छोटे-छोटी दुकाने चिल्लाते हुए विज्ञापनों के पीछे कहीं छुप गई हैं। इस सबके बीच में मैं भी वह नहीं हूँ... जो इन गलियों में दौड़ता फिरता था। अब मेरा गांव मेरे लिए और मैं अपने गांव के लिए, बस एक विस्मय मात्र हैं। हम अवस्थी जी के घर के सामने से निकले जहाँ सबसे ज़्यादा पतंग गिरा करती थी... आनंद ने बताया कि वह घर भी अब बिकने वाला है... यहाँ बिल्ड़िंग बनेगी। मैं जैसा छोड़के गया था, कुछ भी वैसा नहीं है...। अंत में एक बहुत ही टूटे फूटे मकान के सामने आनंद ने अपनी बाईक रोक दी।
’अरे यह म्मताज़ भाई का घर नहीं है?’
’पुराना घर वह बहुत पहले छोड़ चुके हैं।’
दरवाज़ा खुला हुआ था। आनंद भीतर घुसा...
’म्मताज़ भाई... म्मताज़ भाई।’
वह आवाज़ लगाता हुआ एक अंधेरे कमरे के अंदर चला गया। मैं दहलीज़ पर ही खड़ा रहा। कुछ ही देर में सब शांत हो गया। मुझे लगा उस अंधेरे कमरे से सफेद शर्ट, सफेद पेंट में अभी म्मताज़ भाई, पान खाते हुए बाहर निकल आएगें। मैंने निग़ाह फेर ली... मैं ज़्यादा देर तक उस दरवाज़े के अंधेरे को नहीं देख पाया। आनंद की भीतर से आवाज़ आई...
’बिक्की.. अंदर आ जा...।’
मैं वहीं खड़ा रहा। कुछ ही देर में आनंद की फिर आवाज़ आई।
’रुक वहीं म्मताज़ भाई खुद बाहर आ रहे हैं।’
मैं हिला भी नहीं... तभी उस अंधेरे दरवाज़े से खट की आवाज़ आई.... पहले आनंद आया वह उन्हें संभालते हुए बाहर लेकर आ रहा था। एक जर्जर शरीर... पतली सी काया.. कमर झुकी हुई.. पर बदन पर वही सफेद कपड़े..। वैसी ही बड़े कालर वाली सफेद शर्ट और वही सफेद बेलबाटम... वह धीरे-धीरे रेंगते से मेरे पास आए। ठीक मेरी आँखों के सामने खड़े हो गए... कमर झुकने के बाद भी उनका क़द मेरे बराबर था।
’क्या मिंया? क्या ख़्याल है?’
मैं हक्का बक्का सा खड़ रहा। क्या ख़्याल है? मैं कुछ समझ ही नहीं पाया...
’इनके ख्याल दुरुस्त है म्मताज़ भाई।’ पीछे से आनंद की आवाज़ आई....
’ख़्याल दुरुस्त है म्मताज़ भाई।’ मैंने तुरंत आनंद की बात दौहरा दी।
’तुम तो मिंया बिलकुल भी नहीं बदले।’
यह कहते ही उनके होठों के आसपास वहीं सुंदर मुस्कान के अंश खिच आए..। यह वहीं हैं... मेरे म्मताज़ भाई। मैं धीरे से उनके गले लग लिया। उस जर्जर शरीर की लगभग हर हड्डी मैं महसूस कर सकता था।
’आनंद मिंया ज़रा बज़ार से जलेबियाँ ले आऒ दौड़के...।’
’अभी लाया।’
’म्मताज़ भाई इसकी कोई ज़रुरत नहीं है।’
’अरे मिंया इतने दिनों बाद आए हो... मुँह नहीं मीठा करोगे?’
तब तक आनंद जा चुका था। म्मताज़ भाई टूटी हुई कुर्सी पर बैठ चुके थे। मैं एक छोटे से टीन के डिब्बे को खिसकार उनके बगल में बैठ गया।
’शादी हो गई?’
’हाँ... तनु उसका नाम है। बंबई की लड़की है।’
’पतंग उड़ाते हो मिंया कभी-कभी?’
पतंग के बारे में उनसे क्या कहूं? एक शाप सी वह मेरे जीवन से चिपकी हुई है। मैंने सोचा कह दूं सब... सब कुछ कि जब भी रास्ते में, बाज़ार में.. आसमान में पतंग को उड़ते हुए देखता हूँ तो आप ही याद आते हो। आप, मेरे म्मताज़ भाई...और याद आता है अपना पूरा बचपन.. पतंगों के पीछे भागना.. दोपहर को आपकी दुकान में बैठके पतंग काटने के गुर सीखना... सब कुछ एक ठंड़ी हवा सा पूरे शरीर को छू जाता है। लानत है मुझ पर कि मैं किसी को भी नहीं बता पाया कि मेरा एक गांव है... और उस गांव में मेरे एक म्मताज़ भाई हैं... जो इस दुनियाँ के सबसे बड़े पतंगबाज़ हैं।
’नहीं म्मताज़ भाई समय कहाँ मिलता है... बंबई तो आप जानते ही हैं... रोटी की दौड़ में ही सारा समय कट जाता है।’
’रोटी नहीं मिंया... ब्रेड़ और बटर में... हाँ वैसे भी पतंग तो आसमान की बात है... ज़मीन पर भागते रहने से आसमान की सुध कोई कैसे ले सकता है।’
’आपकी पतंग बाज़ी कैसी चल रही है?’
’मिंया पतंगबाज़ी कभी की नदारद है जीवन से... पतंग बाज़ी का किस्सा तो उसी दिन तमाम हो गया था जिस दिन मेरी दुकान जली थी। उसके बाद मैं अपने भाई की साईकल की दुकान पर काम करने लगा.. दुकान जलने से कर्ज़ा बहुत था। भाई से पैसे उधार लेकर सब चुकता किया...। मिंया साईकिल की दुकान में मेरा कभी जी नहीं लगा...पर रोज़ी-रोटी का वही आसरा रह गया था। सोचा था धीरे-धीरे पैसे जमा करुगाँ और फिर से पतंग की दुकान खोलूगां...? आज तक उसी की प्लानिंग करता रहता हूँ... मिंया पतंगबाज़ी ऎसी बला है कि छूटे नहीं छूटते है... खोलूगां... मरने के पहले दुकान ज़रुर खुलेगी मिंया... तुम आना अपनी बीबी बच्चों के साथ पतंग लेने... बढिया तुर्रे वाली......।’
और वह खांसने लगे.. पहले बात छोटी ख़ासी से शुरु हुई... फिर बढ़ते-बढ़ते इतनी ज़्यादा हो गई कि उनका पूरा शरीर कांपने लगा... मैंने उन्हें जैसे-कैसे उठाकर मैं भीतर उसी अंधेरे कमरे मे ले गया। वहाँ एक सुराही और एक पलंग था। कुछ कपड़े यहाँ-वहाँ बेतरतीब से बिखरे पड़े थे। उन्हें भीतर पलंग पर लेटाकर मैं कुछ देर वहाँ खड़ा रहा। वहाँ बैठने की कोई जगह नहीं थी...मैंने सोचा बाहर से टिन का डिब्बा ले आंऊ... या बस नमस्कार करके उनसे विदा ले लू। तभी मुझे कहीं से जलने की बदबू आई... कहीं कुछ जल रहा था...। मैंने कमरे में चारों तरफ देखा.... वहाँ ऎसी कोई चीज़ नहीं दिखी... पर बदबू तेज़ थी। मुझे लगा आसपास किसी ने कचरा जलाया होगा... शायद उसी की बदबू यहाँ तक चली आई। तभी आनंद जलेबियाँ ले आया। उसे देखते ही मैं अपनी सफाई सी देने लगा...
’इन्हें बहुत तेज़ खांसी आने लगी थी.. सो इन्हें मैं भीतर ले आया...।’
’अच्छा किया... लो यह जलेबी खा लो...।’
मेरी बहुत इच्छा नहीं थी... पर मैं इस बातचीत के झमेले में नहीं पड़ना चाहता था कि.... अरे थोड़ी ले लो.. यह बहुत अच्छी है.. इतनी दूर से लाया हूँ... वगैराह वगैराह... सो मैंने तुरंत एक जलेबी का टुकड़ा उठा लिया। बाक़ी जलेबी आनंद ने अपने हाथ में ही रखी थी... वह पलंग पर बैठ गया और म्मताज़ भाई को धीरे से कहा...
’जलेबियाँ हैं... ताज़ी, गरम... चख़ लें?’
जलेबियों को देखते ही म्मताज़ भाई तुरंत मुस्कुराते हुए उठ बैठे...मानों उन्हें कभी ख़ासी का दौरा पड़ा ही ना हो? एक जलेबी का बड़ा सा टुकड़ा उन्होंने उठा लिया...। मैं जलेबी खाने ही जा रहा था कि उन्होने मेरा हाथ पकड़़ लिया....
’रुको.. वह मत खाओ... जली हुई है... यह लो.. यह एकदम सही है..।’
मैंने जल्दी से वह जलेबी ली और लगभग एक बार में बिना स्वाद लिए खा गया। कुछ जलने की बदबू बढ़ती ही जा रही थी...। मेरा इस कमरे में दम घुटने लगा था। मैंने धीरे से बाहर कदम बढ़ा दिये... दरवाज़े पर ही पहुँचा था कि पीछे से म्मताज़ भाई की आवाज़ आई।
’मैंने तुझे बहुत याद किया... मेरी समझ में नहीं आया कि तेरी याद अचानक क्यों आने लगी।’
मैं वापिस पलट लिया। म्मताज़ भाई का एक हाथ आनंद के कंधे पर था...
’मैं जब बहुत छोटा था’... म्मताज़ भाई, मुझसे और आनंद दोनों से मुख़ातिफ हो रहे थे.... ’उस वक़्त मेरे अब्बा की साईकल की दुकान थी... बहुत सख़्त आदमी थे मेरे अब्बा...। वह मुझे एक बार घूरकर देखते थे और मैं मूत देता था। तब मैं सिर्फ पंचर ठीक करना जानता था.. फिर मैंने साईकल बनाना सीखा... मडगाड लगाना.. स्पोक ठीक करना.. जब मैं पूरी तरह साईकिल की दुकान संभालने लगा तब तक मैं बड़ हो गया मिंया.. आदमी। पर पंचर ठीक करने के समय से ही, मतलब एकदम छोटे से ही मेरे दिमाग़ में पतंग थी.. मैं पतंग के अलावा कुछ भी नहीं सोचता था.. पर कभी उड़ा नहीं पाया..। फिर अब्बा ने मेरी शादी कर दी...। सुहागरात को मैं अपनी बेग़म से दूर बेठा था। मेरी बेग़म बहुत इस्मार्ट थी, उसने बहुत देर इंतज़ार किया फिर मुझसे पूछ ही लिया ’क्या चाहते हो मिंया?’ पहली बार मुझसे किसी ने पूछा था ’क्या चाहते हो मिंया?’ मैंने कहाँ ’पतंग...पतंग.. और सिर्फ पतंग.....’
म्मताज़ भाई चुप हो गए। मैं भी धीरे से चारपाई के दूसरी तरफ बैठ गया। वह मुझे ही देख रहे थे... मेरी उनसे आँख मिलाने की हिम्मत नहीं थी... मैं बार-बार खिसियाता हुआ आनंद की तरफ देखने लगता। म्मताज़ भाई ने अपना एक हाथ उठाया और मेरे गाल थपथपा दिये।
’मिंया छुटपन में जिस पागलपन से ये पतंग के पीछे दीवाने थे... मेरी भी वही हालत थी..। यह मुझे मेरे बचपन की याद दिलाता था। पिछले कुछ दिनों से पतंगबाज़ी की बड़ी इच्छा हुई... तो तेरी याद आ गई... मैंने आनंद से कहाँ... कहाँ है मेरा पतंगबाज़....ज़रा पता तो कर...।’
मेरे गाल पर उठे हाथ को मैंने अपने दोनों हाथों में ले लिया... फिर उन्हें धीरे से अपनी गोदी में रख लिया। उनकी उंगलियों में मांझे से कटने के बहुत हल्के निशान बाक़ी थे... खंड़हरों जैसे। मेरी उग्लिया साफ थी...। मैं उन हाथों को सहलाता रहा। सब खामोश थे... तभी पानी की कुछ बूंदे उनकी हथेली पर टपक पड़ी... और मैं वहाँ से उठ गया।
अभी ट्रेन आने में करीब एक घंटा बाकी था, पर मैंने आनंद से कहा कि मुझे स्टेशन पर छोड़ दे, वह ज़िद्द नहीं कर सका। वह स्टेशन पर मेरे साथ रुकना चाह रहा था पर मैंने मना कर दिया। उसके जाते ही मैंने तनु को फोन लगाया, मैं उसे सब कुछ सच-सच बता देना चाहता था...पर उसकी आवाज़ सुनते ही मैं कुछ ओर ही बातें करने लगा। मैंने उससे इधर उधर की बातें की, सब कुछ ठीक-ठाक हो गया कहाँ... म्मताज़ भाई के बारे में वह पूछे जा रही थी पर मैंने जवाब इतने नीरस ढ़ंग से दिये कि उसने पूछना बंद कर दिया। मैंने कहाँ सुबह मिलता हूँ... और मैने फोन काट दिया। स्टेशन पर बैठे-बैठे दो चार चाय पी... बंबई के दोस्तों को फोन लगाकर बेक़ार की बातें की... पर मेरे लाख़ जतन करने पर भी मेरी नथुनों में घुसी यह जलने की बदबू जा ही नहीं रही थी। बमुशकिल ट्रेन आई, मैंने सोचा गांव छोड़ते ही सब ठीक हो जाएगा... ट्रेन में घुसते ही वही हुआ जो हमेशा से होता था...। बच्चे मेरी बर्थ के अगल-बगल थे...। मैंने सामान रखा और दरवाज़े पर आकर खड़ा हो गया... ट्रेन गांव छोड़ रही थी। मैं दर तक गांव को ओझल होते देख रहा था... ’अब यहाँ शायद कभी भी आना ना हो...मैंने मन में सोचा और वापिस अंदर आ गया। सीट पर बैठते ही मुझे दरवाज़े के बगल वाली बर्थ पर बैठा एक अकेला आदमी दिखा... बाथरुम वाला बहाना पिछली बार काम कर गया था सो मैंने उसी पर टिके रहना ठीक समझा। एक गहरी सांस भीतर ली और झूठ बोलने खड़ा हो गया।

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल