Sunday, May 23, 2010

निर्मल और मैं....


23rd May 23, 2010
निर्मल- जब हम कहानी लिखते हैं-या उपन्यास- तो एक फिल्म चलने लगती है- इस फिल्म में छूटे हुए मकान हैं और मरे हुए मित्र, बदलते हुए मौसम हैं और लड़कियाँ, खिड़कियाँ, मकड़ियाँ हैं और वे सब अपमान हैं जो हमने अकेले मे सहे थे, और बचपन के डर हैं और क्रूरताएँ हैं जो हमने माँ-बाप को दी थी और माँ-बाप के चेहरे हैं, छत पर सोते हुए और छतें हैं, रेलों की आवाज़े हैं और हम यह एक अदृश्य स्क्रीन पर देखते रहते हैं मानो यह सब किसी दूसरे के साथ हुआ है, हमारे साथ नहीं- हम अपनी नहीं किसी दूसरे की ’फिल्म’ देख रहे हैं; यह ’दूसरा’ ही असल में लेखक है, मैं सिर्फ स्क्रीन हूँ, परदा, दीवार.... लेकिन अँधेरे में हम साथ-साथ बैठे हैं; कभी-कभी हम दोनों एक हो जाते हैं, तब पन्न खाली पड़ा रहता है और दीवार पर कुछ भी दिखाई नहीं देता!
मैं- सही है... पर यह ’दूसरा’ जब गायब होता है तो आप अकेलेपन के उस वीराने में खुद को पाते हो जहाँ महज़ खालीपन है.. पीड़ा है... और बहुत दूर कहीं अपको कुछ लोग खड़े दिखते हैं... जिनसे वापिस संबंध स्थापित करने की एक खाई है जो थका देती है।
निर्मल- जीवन में अकेलेपन की पीड़ा भोगने का क्या लाभ यदि हम अकेले में मरने का अधिकार अर्जित न कर सकें? किन्तु ऎसे भी लोग हैं जो जीवन-भर दूसरों के साथ रहने का कष्ट भोगते हैं, ताकि अंत में अकेले न मरना पड़े।
मैं- आप आज यह लिखी हुई बातें क्यों कर रहे हैं?
निर्मल- तुम ही पढ़ रहे हो।
मैं- मैं उन दिनों की बात कर रह हूँ जब आपसे लिखा नहीं जाता... या वह दिन जब आप कोई सघंन खत्म करके उठे होते हो... आप तृप्त होते हो... कुछ मौलिक सा लिख देने की खुशी होती है... पर ठीक उस खुमारी के बीच वह ’दूसरा’ आपके जीवन से अचानक गायब हो जाता है.. तब कोई भी आसरा नहीं रहता क्यों कि वह पिछले समय में सारे आसरों को धुंधला कर चुका था.. तब उन दिनों में क्या किया जा सकता है।
निर्मल- तुम क्या मुआवज़ा चाहते हो?
मैं- नहीं मैं कोई मुआवज़ा नहीं चाहता।
निर्मल- तो इतनी तड़प क्यों?
मैं- क्योंकि... कोई आस-पास नज़र नहीं आता। लिखने से जो एक खुशी का विस्फोट हुआ था वह भी अकेली गुफाओं से टकराकर दंम तोड़ देता है। आप अपनों की तरफ देखते है.. वहाँ आपको अपनी ही लिखी हुई कुछ पंक्तियाँ नज़र आ जाती है जो आपने अपनों के जीवन से चुरा-चुराकर लिखी थी। माँ-बाप, वह माँ-बाप नहीं रह जाते, उनसे अब पुरानी सहजता से नहीं मिला जा सकता है.. क्योंकि इस बीच आपके वह ’दूसरे’ आदमी ने उनका इस बुरी तरह से इस्तेमाल कर लिया है आप उन्हें संदेह की दृष्टी से देखते हो.... इतना ही नहीं आपको अपना पूरा जीवन एक कहानी लगने लगता है.. तो जहाँ कहीं स्थिरता नज़र आती है आपका पूरा शरीर इस कोशिश में लग जाता है कि कोई घटना हो.. कहीं से रिस्ति हुई पीड़ा टपके.... कुछ ओर हो.. जहाँ पूरा जीवन वापिस अस्थिर हो जाए... कहानी पढ़ने में मज़ा आए... जबकी वह कहानी पढ़ी नहीं जा रही है वह जी जा रही है।
निर्मल- मैंने कहीं पढ़ा था कि आप जैसा जीवन जी रहे है, असल में आप बिलकुल ऎसा ही जीवन जीना चाहते थे, चाहे अभी आप इस बात को माने या ना माने।
मैं- आपको कभी भी सांत्वना नहीं दे सकते?
निर्मल- सांत्वना झूठ है... लिखने से कुछ हासिल नहीं होता... अगर कुछ हासिल करना है तो वह काम करों जिसमें हर माह एक मुश्त मुआवज़ा मिले तुम्हें तुम्हारे काम का... और उसके लिए भी लगातार दौड़ते रहने का बल चाहिए। यहाँ चुप्पी है... शांति है... पागलपन की परिधी पर टहलता हुआ वह ’दूसरा’ है जो किसी भी कायरता की भनक पाते ही ग़ायब हो जाता है। जीने और लिखने के बीच हमेशा एक दूरी बनी रहती है... वही दूरी तुम्हारी और वह ’दूसरे’ के बीच की दूरी है। अपने जीने की गंदगी से ’दूसरे’ दूर ही रखो।
मैं- मेरी नई कहानी पढ़ी आपने?
निर्मल- हाँ...
मैं- कैसी लगी?
निर्मल- उसी के बारे में बात करने आया था... पर तुम अपनी कमज़ोरियाँ लेकर बैठ गए।
मैं- पर कैसी लगी..???
निर्मल- उसके बारे में बाद में बात करेगें... अभी एक चाय पीते हैं...।
मैं- हाँ...मेरी भी इच्छा है।

Thursday, May 20, 2010

‘अभी-अभी’ से ’कभी-का’ तक....


‘अभी-अभी’ से ’कभी-का’ तक....




सूरज ने कहा कि ’देर रात की बात थी। हम सब घबरा गए थे। कुछ समझ में नहीं आया क्या करें। तू समझ रहा है ना?’
मैं नहीं समझ रहा था। बहुत धुंधला सा सूरज दिख रहा था उसके चहरे पर मूछ नहीं थी। मैंने दो बार ज़बान पलटानी चाही कि उससे पूछू तेरी मूंछ का क्या हुआ? पर पलटा नहीं पाया। ’घों..घों...’ की आवाज़ मुँह से निकलती रही। सूरज मेरे बहुत पास आ गया। उसने अपने कान मेरे मुँह पर लगाभग चिपका दिये। मूंछ.. मूंछ... मूंछ... मैंने कई बार ज़ोर लगाकर कहाँ कि एक बार हलका निकल आया। धुंधला सा सूरज अलग हो गया... और हंसने लगा...। फिर मुझे कुछ और लोगों की हंसी सुनाई दी। उसके बगल में मेरे कुछ और दोस्त भी खड़े थे। शायद हंसा.. नील... और... और.. मेरी आँख वापिस बंद होने लगी, धीरे-धीरे सब गायब हो गया।
.........
सभी कुछ सफेद था। सामने की खिड़की से बहुत सारा प्रकाश भीतर आ रहा था। हरे पर्दों के बीच उस प्रकाश का तेज थोड़ा कम हो गया था। मुझे हमेशा हस्पताल का सारा वातावरण किसी नाटक का सेट जैसा कुछ लगता है। दोनों तरफ दरवाज़े हैं... मानों मंच पर आने-जाने का रास्ता। बीच में पूरा मंच खुला पड़ा है और अपने-अपने रोल सभी बखूबी निभा रहे हैं। एक नर्स ट्रे लेकर भीतर आती है... उसकी चाल ढ़ाल से लगता है कि उसे ज़बर्दस्ती यह रोल दे दिया गया है, वह यह रोल नहीं करना चाह रही थी। उसे शायद डॉक्टर बनना था। सामने के कुछ मरीज़ जो मुझे दिख रहे थे वह सभी बिलकुल मरीज़ो जैसे नहीं हैं... वह कराह नहीं रहे हैं, वह.. बस पड़े हुए हैं। मेरे बगल में एक प्लास्टिक बेग में कुछ फल रखे हुए हैं...। वह ट्रे वाली नर्स मेरे सामने से निकली.. मेरी आँखे खुली देखकर वह रुक गई।
’कैसे हो?”
मैं उसे घूरता रहा।
’तुम ठीक है?’
मैं नहीं मुस्कुराने जैसा मुस्कुरा दिया। वह कुछ देर यहाँ-वहाँ चीज़े टटोलती रही फिर चली गई। मुझे लगा कि मैंने एक काबिल मरीज़ की भूमिका ठीक से नहीं निभाई। मुझे उससे सवाल करने थे कि मैं यहाँ कब आ गया? कौन लाया मुझे? मुझे क्या हुआ है? पर मैंने कुछ भी नहीं पूछा।
’आपने मेरा चश्मा देखा?’
मैंने अपने दाहिनी ओर देखा एक बुज़ुर्ग मेरे बग़लवाले बेड़ पर थे...। वह कुछ बेड़ के नीचे घुसने की कोशिश कर रहे थे। मैं कुछ देर उन्हें देखता रहा।
’अरे यहीं रखा था अभी...। कहाँ चला गया? इधर कुछ भी नहीं मिलता है।’
वह किसी से भी बात नहीं कर रहे थे और सब से बात कर रहे थे। उनके हाथ में एक किताब थी.. फटी हुई। वह किसी किताब का बीच का हिस्सा जान पड़ता था। उस किताब के बीच से एक पीपल का सूखा हुआ पत्ता भी झांक रहा था...। मैं करवट लेकर दूसरी तरफ पलट गया... मैं किसी भी चीज़ का हिस्सा नहीं होना चाहता था। मैं शायद सच में यह मानने लगा था कि यह एक नाटक चल रहा है। अगर ऎसा है तो मैं इस नाटक में महज़ दर्शक बना रहना चाहता हूँ। मैं किसी भी घटना का हिस्सा नहीं होना चाहता। करवट बदलते ही मुझे बांय हाथ की तरफ दरवाज़े से भीतर आती हुई एक औरत दिखी... उसने बहुत पुरानी पीले रंग की साड़ी पहने हुई थी, चोटी इतनी कसकर बाधीं थी कि चहरा मांग से नाक की रेखा में.... दो अलग-अलग तरफ खिच गया था। उसके एक हाथ में रंग का एक डिब्बा था और दूसरे हाथ में कूंची..(कूंची जिससे पुताई की जाती है।) उसने कूंची को रंग में डुबोया और डरी हुई दीवार के कोनों की तरफ बढ़ गई। धीरे-धीरे उसने उस दीवार कोने को रंगना शुरु किया... नीला... सुंदर नीला रंग.. जैसा पहाडों में आसमान का साफ नीला रंग होता है वैसा नीला रंग धीरे-धीरे दीवार के कोने में फैलने लगा। ट्रे पकड़े एक नर्स भागती हुई आई और उसने उस औरत को कमर से पकड़ा और खींचती हुई बाहर ले गई... उसने जाते-जाते दो तीन हाथ दीवार पर मार ही दिये... और कूंची से नीला आसमान ज़मीन पर टपकता हुआ... बाहर चला गया। इस हलचल का कमरे पर कोई असर नहीं हुआ। कुछ मरीज़ों ने उस ओर देखा... और फिर वापिस अपने मरीज़िय अभिनय में घुस गए। मैं उस कोने को ही देख रहा था.. अब इस कमरे की मटमैली सी सफेद दीवार का एक कोना नीला था... आसमान जैसा नीला टुकड़ा इस सीलन भरे कमरे में उग आया था। मैं सीधा लेट गया। किसी भी घटना का हिस्सा नहीं होना कितना मुश्किल है... उसे देखना भर हमें उसका हिस्सा बना देता है... उसे सुनना हमें उसका हिस्सा बना देता है... कैसे बिना किसी भी चीज़ का हिस्सा बने हम रह सकते है। मैं दर्शक हूँ बस...मात्र दर्शक उससे ज़्यादा कुछ भी नहीं। मैंने फिर दर्शक बने रहने की कसम खाई और अपनी आँखें बंद कर ली।
............
जब आँख खुली तो नील सामने खड़ी थी। उसके हाथ में पीपल की एक सूखी हुई पत्ती थी। धीरे से उसने वह पत्ती मेरे तकिये के बगल में रख दी।
’तुम अब ठीक लग रहे हो।’
बगल में ही एक स्टूल रख था जिसे मैंने अभी तक नहीं देखा था, उसे खिसकाकर वह मेरे पास बैठ गई।
’हाँ मुझे भी अब ठीक लग रहा है।’
’तुम्हार कुछ हिसाब बचा हुआ है।’
’हिसाब?’
’जब तुम्हारी तबियत बिगड़ गई थी तो मैं हिसाब लगा रही थी... तुम्हारे ऊपर कुछ चीज़े निकलती है। चिंता मत करो.... जब तुम पूरी तरह ठीक हो जाओगे तो उस बारे में मैं बात करुगीं।’
’मैं अब ठीक हूँ... तुम कह सकती हो।’
’मैं इस तरह कहना नहीं चाहती...।’
’किस तरह?’
’मतलब... यह अच्छा नहीं लगता है ना... तुम हस्पताल में हो और मैं हिसाब लेकर बैठ गई।’
’किसे अच्छा नहीं लगता? कौन देख रहा है? यहाँ कोई ओर भी दर्शक है?’
वह चुप हो गई। मुझे लगा मुझे उससे दर्शक वाली बात नहीं कहनी थी। वह कुछ आतंकित हो गई। मानों उसे लगा हो कि मैं अभी भी ठीक नहीं हुआ। उसने वापिस पीपल की पत्ती मेरे तकिये के पास से उठा ली और उससे खेलने लगी।
नील को मैं कब से जानता हूँ...? कैसे वह मेरे जीवन का हिस्सा है? कितने हिसाब-किताब हो चुके है इसके साथ? मैंने बहुत ज़ोर दिया... कुछ एक कमरे याद आए, कुछ बिस्तर, उनपर बिछी हुए अलग-अलग रंग की चादरे.. बालकनी, बालकनी के बाहर जाती हुए सड़क, फिर बिस्तर, फिर.. फिर... सूरज। सूरज और नील दोनों हाथ में हाथ डाले हुए सड़क के किनारे चलते हुए। कुछ बहसें, कुछ शिक़ायते... बिल्ली, आँसू, थकान.. रतजगे.. अकेलापन, खालीपन, मौन।
‘सूरज कहाँ है?’
’वह शाम को आएगा।’
’मुझे हुआ क्या है?’
’तुम ठीक नहीं हो।’
’वह मैं भी जानता हूँ इसीलिए तो हस्पताल में हूँ.. पर मुझे हुआ क्या है?’
’डॉक्टरों का कहना है तुम ठीक नहीं हो.. और तुम्हारे टेस्ट चल रहे हैं।’
’कैसे टेस्ट?’
’वही नार्मल.. ब्लड, युरिन.. वगैराह।’
‘इसमें वह पता क्या कर रहे हैं?’
’वह तुम्हें डॉक्टर ही ठीक से बता पाएंगे।’
’तुम कैसी हो?’
’अच्छी हूँ....।’
’अच्छी हूँ’ कहकर वह बगले झाकने लगी। किसी भी पुराने इशारे को वह साफ नकार देना चाहती थी, जैसे कुछ घटा ही ना हो। उसका हाथ मेरे बिस्तर पर ही था, इच्छा हुई कि धीरे से उसे छू लूं... बाद में माफी मांग लूगा। मैंने हाथ आगे बढ़ाया पर वह हिला नहीं... थोड़ा और ज़ोर लगाया फिर भी कुछ फर्क नहीं पड़ा।
’नील मेरा दाहिना हाथ...।’
तभी मेरा हाथ हिला और मेरे हाथ ने बिना मेरी पूर्वाअनुमति के, नील का हाथ कसकर पकड़ लिया... जकड़ सा लिया। नील घबरा गई, वह अपने स्टूल से उठकर खड़ी हो गई। मैं खुद हाथ छुड़ाना चाह रहा था पर नील चीख़ने लगी...। ट्रे वाली नर्स भागती हुई भीतर आई... उसने छुड़ाने की पूरी कोशिश, मैं खुद बहुत ज़ोर की कोशिश कर रहा था। उस ट्रे वाली नर्स ने ट्रे से मेरे हाथों पर वार किया... जब उन वारों से कुछ नहीं हुआ तो उसने कुछ वार मेरे सिर पर किये। अचानक हाथ छूटा और मैं बिस्तर पर निढ़ाल सा पड़ गया।
…………..
रोज़ के इग्जेक्शन बढ़े, कुछ दवाईया भी ज़्यादा हो गई, दोस्त आना कम हो गए। बीच में सूरज आया था... मैं उससे पूछता रहा कि तूने मूंछ क्यों कटवा ली पर वह कहता रहा कि कहाँ मूँछ तो है। जब भी मैं उससे कहता कि नहीं मूँछ नहीं है... वह हंसता और मेरे बग़ल में पड़े हुए बुज़ुर्ग़ की तरफ देखने लगता। वह बूढ़ा आदमी सूरज को घूरता रहा। जब बात मूँछ पर अटक ही गई तो सूरज ने फिर आने का वादा किया और चल दिया। उसके जाने के कई दिनों बाद... एक रात मेरी आँखें खुली तो देखा वह बूढ़ा मेरे पलंग पर बैठा हुआ मेरे चहरे पर कुछ पढ़ने की कोशिश कर रहा है। मैं एक छोटी चीख़ के साथ उठ बैठा...। वह बूढ़ा वैसे ही मुझे देखता रहा फिर मेरे ओर करीब आकर उसने कहाँ... ’मूँछ नहीं थी....’ ओर अपने पलंग पर जाकर लेट गया। उस रात मुझे बहुत देर तक नींद नहीं आई।
……………
कहीं से पानी के बहने की आवाज़ आ रही थी। करीब दो मीटर की ऊंचाई से वह गिर रहा था। उसके गिरने के बीच कोई रुकावट भी थी.. शायद कोई पत्थर...ईंट.. दीवार... पाईप। यूं मुझे लोगों के चलने की आवाज़ कमरे में नहीं आती थी... पर इस पानी के कारण.. वह सुनाई देने लगी थी। जब भी किसी का पैर पानी पर पड़ता तो ’छ्प’ से आवाज़ आती.. फिर बहुत दूर तक मैं उस ’छ्प... छ्प..छ्प....’ का पीछा करता रहता। कमरे के बाहर का रास्ता दांए और बांए दोनों तरफ मुड़ता था। यह मुझे पेर की आवाज़ों से पता चला। left की तरफ जाने वाले बहुत से लोग थे... लगभग अस्सी प्रतिशत या उससे भी ज़्यादा... मैं उन्हें चप्पल वाले लोग कहता। सभी लगभग चप्पल पहने होते... और right की तरफ कम ही लोग जाते थे.. बूट वाले.. उनकी आवाज़ में ’छ्प...छप” नहीं.... ’खट.. खट’ थी..। जब भी कभी ’खट.. खट’ की आवाज़े आती तो सारी चप्पलों की ’छप..छप’ की आवाज़े धुंधली पड़ जाती। ’छ्प’ आवाज़ों के चहरों की कल्पना आसान थी। वह सामान्य लोग थे.. हर ’छ्प...’ की आवाज़ आते ही मुझे उस आवाज़ का चहरा भी दिखने लगता। ’छप..छप’ की आवाज़ों के भाव भी मैं पकड़ लेता पर ’खट...’ की आवाज़ का कोई चहरा नहीं था... होगा शायद, मगर मेरी कल्पना उसे पकड़ने में असमर्थ थी।
’अरे मेरा चश्मा... मेरा चश्मा देखा क्या?’
मुझे फिर बूढ़े की आवाज़ आने लगी। मैंने उसकी तरफ पलटकर देखा... इस बार वह मुझसे सीधे पूछ रहे थे। दर्शक बने रहना आसान नहीं है... खासकर जब आपके पास खुद करने के लिए कुछ भी ना हो और आपके अगल-बगल इतने बहतरीन अभिनेता अभिनय कर रहे हो।
’चश्मा आपके सिर पर पड़ा है।’
उनका हाथ सिर पर गया। उन्हें चश्मा मिल गया। वह उसे कुछ देर देखते रहे। उस चश्में की एक डंड़ी गायब थी। कुछ ही देर में वह खराब पढ़ने के अभिनय में व्यस्त हो गए। मैंने उस दृश्य में अपना हस्तक्षेप रद्द किया। तभी बांए दरवाज़े से मुझे वह औरत झांकती हुई नज़र आई, जिसने नीले आसमान का एक कोना पोत रखा था। वह डरी हुई ट्रे वाली नर्स की तरफ देख रही थी...। वह भीतर नहीं आई... जब तक ट्रे वाली नर्स मंच पर है, कूंची वाले औरत प्रवेश नहीं कर सकती है। कूंची वाली औरत ग़ायब हो गई। तभी मुझे उन बुज़ुर्ग की आवाज़ आई... मैं औरत के दृश्य से निकलकर वापिस... बूढ़े आदमी के दृश्य में आ गया....
’चश्मा मिल जाना कितना दुखद है।’
’आप उसे ही तो ढ़ूढ़ रहे थे...?’
’ढूढ़ा और पाया!!!’
यहाँ मैंने तय कर लिया था, जीवन में यदि दर्शक ही बने रहूगाँ तो जो सब दिखाएगें मुझे देखना पड़ेगा। सो मैंने एक लंबी सांस भीतर खेंची और अभिनय की इस विराट दुनियाँ में मैं कूद गया।
’आपको देखने कोई भी नहीं आता?’ मैंने कहा...
’बाहर कोई भी नहीं है।’
उन्होने तपाक से जवाब दिया...। बतौर अभिनेता आपके पास बहुत से सवाल होने चाहिए... नए सवाल, सवालों के सवाल, बिना बात के सवाल।
’अरे यह तो अजीब है?’
’नहीं.. बाहर सच में कोई नहीं है।’
उनके हाथ में किताब थी, सिर उसमें ही घुसा हुआ था, मेरे जवाब मानों उस किताब में लिखें हो।
’मेरा नाम प्रयाग है।’
’प्रयाग?’
’हाँ... प्रयाग ही है, सच में।’
’मैं निरंजन...।’
’आप कब से हैं यहाँ.... निरंजन?’
’कई सालों से हूँ... ठीक ठीक याद नहीं है।’
’सालों से...?’
’मैं पहले उसी बेड़ पर था जिसपर तुम हो... पर पिछले एक साल से उन्होने मुझे यहाँ पटक दिया है।’
’आपको अगर वहाँ ठीक नहीं लगता है तो आप वापिस यहाँ आ सकते हैं। मुझे कोई आपत्ति नहीं है।’
’ऎसा नहीं हो सकता....’
’क्यों?’
’उस बेड़ की दवाईयाँ अलग हैं... डॉक्टर अलग हैं... वैसे भी अभी-अभी आए मरीज़ों को उसपर रखा जाता है।’
’तो मैं अभी-अभी का मरीज़ हूँ?’
’मैं भी पहले अभी-अभी का ही मरीज़ था... फिर जब मैं अभी-अभी का मरीज़ नहीं रहा तो उन्होंने मुझे यहाँ पटक दिया।’
’जब मैं अभी-अभी का मरीज़ नहीं रहूगाँ तो वह मुझे कहाँ रखेगें?’
’फिर तुम यहाँ, मेरे पलंग पर आ जाओगे।’
’और आप?’
’मैं सामने वाले पलंग पर फैंक दिया जाऊगाँ।’
’पर सामने वाला पलंग भी तो भरा हुआ है... फिर वह महाशय कहाँ जाएगें?’
यहाँ अचानक निरंजन ने किताब से अपना चहरा निकाला और मेरे पलंग की तरफ घूमकर बोले...
’अरे भाई... जैसे तुम अभी-अभी के मरीज़ हो... वैसे ही वह आख़री पलंग.. जो उस दरवाज़े के पास है उसपर ’कभी का’ मरीज़ है... वह जब मर जाएगा... तो घड़ी के काटे की तरह हम सब एक मिनिट आगे बढ़ जाएगें... तुम मेरे पलंग पर, मैं सामने वाले पलंग पर.... और तुम्हारे बेड़ पर कोई नया अभी-अभी का मरीज़ होगा।’
’पर मैं हमेशा अभी-अभी का मरीज़ रहना चाहता हूँ।’
’तुम्हारी किस्मत बहुत अच्छी है... पिछले एक साल से तुम अभी-अभी के मरीज़ हो। दरसल तुम्हें शुक्रगुज़ार होना चाहिए उस ’कभी-का’ के मरीज़ का जो पिछले एक साल से कभी-का मरीज़ है...। बहुत ढ़ीठ है.. बिस्तर खाली ही नहीं कर रहा है।’
’मुझे यहाँ एक साल हो चुका है?’
निरंजन ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। मैं अपने पलंग पर अब चुप था...। तो क्या बस यही होगा... हर एक मिनिट जब आगे बढ़ेगा, मैं उस पलंग पर होऊगाँ... फिर सामने वाले, फिर... एक दिन मैं भी ’कभी का’ मरीज़ होकर मर जाऊगाँ। नहीं.. नहीं इसमें कोई बीच में ठीक भी तो होता होगा तब? मैंने सोचा यह निरंजन से पूछूं...
’निरंजन...?’
’क्या है?’
’कुछ नहीं...।’
मैंने नहीं पूछा। अगर निरंजन ने कह दिया कि यहाँ कोई ठीक नहीं होता, तो मुश्किल हो जाएगी। कितना तकलीफ देह है यह.... हर आदमी का सफर आपको पता है, ’अभी-अभी’ से लेकर ’कभी का’ तक का... और आपको भी उस पूरे सफर के सारे पलंगों से होकर जाना है। अगर आप थोड़े ढ़ीठ हैं तो ’कभी-का’ पर रुके रहेगें.... नहीं तो एक मिनिट में बाहर......ओफ! ओफ! ओफ!
.................
प्रातः आँख खुली तो नील और सूरज को अपने पलंग के बग़ल में पाया। अब मेरे पलंग के बग़ल में स्टूल ना होकर एक बेंच रखी है। दोनों बेंच पर बैठे है... (black & white) सूरज का हाथ नील के कंधे पर है, और दोनों ’दूर गगन की छॉव में’ देख रहे हैं। (यह बिलकुल मुझे वैसे ही दिख रहे थे जैसे हमारे गांव के फोटोग्राफरों ने हमारे माँ बाप की रोमांटिक तस्वीरे ख़ीची थी, black & white… जिसे हम ’दूर गगन की छांव’ वाली तस्वीरें कहते थे… इन तस्वीरों में सभी कहीं दूर कुछ देख रहे होते थे।)
’सूरज तुम लोग कब आए?’
जब नील और सूरज दोनों साथ मिलते थे तो मैं सूरज से ही ज़्यादा बात करता था, अगर नील से बात करनी भी है तो पहले सूरज नाम लेकर फिर नील से बात करता था। सीधा नील कह देने से मैं पुरानी दुनियाँ में पहुच जाता हूँ... जो दुखद है..... अब...... सब...... बस।
’हम लोग बहुत देर से आए हुए हैं... तुम सो रहे थे तो सोचा तुम्हें परेशान ना करें।’
संजीदा अभिनेता होने के बतौर सूरज ने अपना वाक्य कह दिया।
’हम बस जाने ही वाले थे।’
बतौर चंचला... नील ने हल्की हसी के साथ अपनी बात कही।
पर अजीब था वह दोनों मुझे नहीं देख रहे थे... दोनों ’दूर गगन की छॉव’ में कहीं देख रहे थे... B & W...।
’तुम दोनों ने शादी कर ली है क्या?’
’कोर्ट मेरिज थी... ज़्यादा शोर शराबा नहीं किया.. सिर्फ परिवार के लोग थे।’
सूरज ने सफाई दी।
’तुम्हारी कमी लगी थी। मैं तुम्हारे घर गई थी कार्ड देने... पता था वहाँ ताला होगा, पर फिर गई...दरवाज़े से कार्ड भीतर सरका दिया।’
नील ने बहुत अपनेपन से कहाँ... पुरानी दुनियाँ वाले अपनेपन से। मैं ठिठक गया।
’क्यों... जब तुम्हें पता था मैं यहाँ हूँ... तुम हस्पताल में क्यों नहीं आई?’
’मेरी इच्छा थी कि जब मेरी शादी हो तो मैं तुम्हें अपनी शादी का कार्ड, तुम्हारे घर तुम्हें देने आऊं।’
’यह कैसी इच्छा है?’
मैं चौंक गया नील की आँखें देखकर। यह कहते हुए उनमें एक चमक थी, जबकि वह मुझे नहीं देख रही थी। सूरज एक अजीब मुस्कुराहट लिए हुए था। मैं दूसरी तरफ करवट लेना चाह रहा था पर ले नहीं पाया.. कुछ मुझे रोक रहा था। मैंने झटका दिया तो दिखा, मेरे दाहिने हाथ और दाहिने पांव को पलंग से बांध के रखा हुआ है। मुझे क्यों बांधा हुआ है... मैंने दो-तीन बार झटका दिया। नील और सूरज खड़े हो गए।
’तुम्हारा, तुम्हारे दाहिने हिस्से पर बस नहीं है।’
’क्या?’
नील और भी कुछ कहना चाह रही थी पर सूरज ने उसके कंधे पर हाथ रख दिया और वह दोनों वापिस ’दूर गगन की छांव’ में देखने लगे। मुझसे यह सहन नहीं हुआ। मैं चिल्लाने लगा।
’क्या है यह?.. क्यों मुझे मेरे दाहिने हिस्से पर बस नहीं है? मुझे डॉक्टर से मिलना है। डॉक्टर.... डॉक्टर... डॉक्टर...... ।’
ट्रे वाली नर्स भागकर आई... इंग्जेक्शन... गुस्सा... धुंध... ’दूर गगन की छांव’... B&W… थम।
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दरवाज़े !!! मैंने पता नहीं कितने घर बदले हैं। पता नहीं कितने लोगों के साथ मैं अलग-अलग जगह, अलग-अलग परिस्थितियों में रहा हूँ। इस सभी जगहों में मेरा सबसे खूबसूरत संबंध दरवाज़ों से रहा है। मुझे लगभग हर घर के (जिनमें मैं रहा हूँ) दरवाज़े रोमांच से भर देते थे... महज़ एक खट-खट पर....। ज्यों ही दरवाज़े में ’खट-खट’ होती... मेरा पूरा शरीर एक रोमांच से भर जाता। कौन होगा उस तरफ? दरवाज़ा खोलने पर कौन सा आश्चर्य दिखेगा? मेरे भीतर बहुत सारी कहानिया शुरु हो जाती और कहानियों का दायरा बढ़ता ही चला जाता। हर ’खट’ की अलग कहानी, अलग चहरे। दरवाज़ा खोलने के ठीक पहले मैं महसूस करता कि मैं सालों से किसी की प्रतिक्षा कर रहा हूँ... कोई ओर जिसे कभी देखा नहीं, जाना नहीं... कोई जो मेरे दरवाज़े के उस तरफ, पूरे संसार में कहीं था और अब शायद उसने मुझे ढूढ़ लिया है, वह मेरे दरवाज़े पर दस्तक दे रहा है।
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देर रात आँखे खुली तो देखा सामने की पूरी दीवार नीली हो चुकी है... आसमानी नीली। पीले बल्ब की रोशनी में नीला रंग भुतहा दिख रहा था। तभी मुझे खट-खट की आवाज़ आई.... वह औरत अब छत को पौत रही थी...बिना सीड़ी के। वह बहुत लंबी दिख रही थी... ख़ासकर उसकी टांगे। मैंने नीचे देखा तो पैर की जगह दो बांस के डंडे दिखे... वह stilts पर खड़ी थी। इस बार उसके एक हाथ में नीला और दूसरे हाथ में सफेद डिब्बा था। कुछ देर वह नीले रंग की कूंची चलाती, फिर सफेद रंग की कूंची से इधर-उधर दो चार हाथ मार देती। यह सब वह बहुत तेज़ी से किये जा रही थी... सो सारा करतब एक नृत्य की तरह दिख रहा था। ज़मीन पर बांस की खट-खट... एक तरह का डरावना संगीत पैदा कर रहा था। इस सब में उसके बाल थोड़े बिखर गए थे... पर चहरा अभी भी.. मांग से नाक की सीध में दोनों तरफ खिंचा हुआ था। सफेद बादल पूरे आसमान में बिखरने लगे थे।
मैं उठके बैठ गया...। मेरे हाथ पैर नहीं बंधे थे, पर दाहिना हिस्सा थोड़ा सुन्न ज़रुर था। मैं उस औरत से बात करना चाह रहा था।
’सुनों... सुनों.. तुम कौन हो?’
उसने मेरी और गुस्से से देखा। मैं घबराया हुआ एकटक उसे देख रहा था। वह फिर काम करने में जुट गई। मैं अपने पलंग के कोने तक खिसक आया... थोड़ा आगे बढ़कर बोला...
’सुनों.. सुनों.... ???’
इस बार उसने मुझे देखा नहीं, बल्कि सफेद रंग की कूंची से मेरे हाथ पर एक वार कर दिया। मैं घबराकर अपने पलंग पर दुबक गया। चादर... सिर के ऊपर चढ़ा ली। कुछ देर मुझे बांस की ठक-ठक की आवाज़ आई फिर उस आवाज़ में ट्रे वाली नर्स की.. ट्रे की आवाज़ जबरन घुसने लगी। ट्रे के वार.., धंम्म से किसी के बहुत ऊपर से गिरना.. ’खड़-खड़’.. ’पट-पट’... ’धम-धम’.... फिर सबकुछ शांत...।
मैंने अपने मुँह से चादर हटाई... कमरे में कोई नहीं था। सारे मरीज़ ’कुछ भी नहीं हुआ’ वाले अभिनय में व्यस्त सो रहे थे।
कूंची से वार का एक सफेद धब्बा मेरे हाथ में दिखा... मैंने उसे मिटाने की कोशिश की पर वह मिटा नहीं... मैं उसे ज़ोर-ज़ोर से रगड़ने लगा। वह सफेद धब्बा हल्का गुलाबी हो गया... पर मिटा नहीं। मैंने छत की तरफ देखा... वहाँ मुझे बादल नहीं, बल्कि नीले आसमान में बहुत बड़ा हंस दिखाई दिया।
..................
मेरा एक दोस्त हंसा था (जो हस्पताल सिर्फ एक बार ही आया था....) जिसमें ’ना’ करने का गुण नदारद था। वह हमेशा, हर बात का जवाब ’हाँ..’ से देता और फस जाता। पचताना उसका मुख्य धर्म था। उसकी आँखों के नीचे गहरे काले दाग़ पड़ चुके थे... मुझे कभी-कभी लगता था कि वह काजल लगाता था... पर चूंकि उसे काजल लगाना नहीं आता था, इसलिए क़ाजल फैल जाता होगा। पर ऎसा नहीं था... । गहरे काले दाग़ की वजह से उसकी आँखें कभी सुंदर कभी डरावनी लगती थी। उसने एक बार मुझसे कहा था कि जब से वह पैदा हुआ है तब से वह व्यस्त है। उसने कभी किसी भी काम के लिए किसी को भी मना नहीं किया सो वह दूसरों के काम करने में हमेशा व्यस्त रहता था। जो लोग उसे जानते थे वह उससे अपना काम करने को नहीं कहते थे.. वह उसके बदले ’एक ज़रुरी काम की पर्ची..’ उसकी जेब में डाल देते थे, जिसे वह समय रहते पूरा करता चलता था। उसके पास एक जेब की कई सारी शर्टे थी... दो जेब वाली शर्ट पनने से वह घबराता था। मैंने उससे एक बार कहा था कि तुम बिना जेब की शर्ट पहना करो... तो उसने कहा कि काम की पर्चे वह हाथ में नहीं रखना चाहता है... काम के पर्चे पेंट की जेब में मुड़ जाते हैं... फिर क्या काम करना है ठीक से समझ में नहीं आता है। वह अपने घर के कामों की भी पर्चियाँ बनाकर जेब में रख लेता। अपने काम भी वह बाक़ी ज़रुरी कमों की तरह करता... समय रहते। इन पर्चियों के बीच उसका एक खेल भी था... एक दिन उसने मुझसे कहा था कि वह कई बार कोरी पर्चियाँ अपनी जेब में, किसी महत्वपूर्ण काम की तरह रख लेता... जब वह कोई महत्वपूर्ण काम के लिए कोई कोरी पर्चि निकालता तो खुश हो जाता... वह उस महत्वपूर्ण काम के समय... कुछ भी नहीं करता... और उसे यह बहुत अच्छा लगता था। काम के वक्त काम नहीं करने की आज़ादी बहुत बड़ी आज़ादी थी।
......................
हंसा ने आते ही अपनी इतने दिनों से ना आने की वजह बताई...
’बहुत काम था प्रयाग... अभी-अभी जेब से दो कोरी पर्ची निकल आई तो मैं उस खाली समय में तुमसे मिलने चला आया।’
मैं हमेशा हंसा को देखकर खुश हो जाता था। दुनिया जैसे उससे मिलने आती है वह उसे उसकी पूरी निष्ठा के साथ जीता है...। दुनिया के सत्य उसकी जेब में रहते हैं और वह उनका सामना करता चलता है।
’तुम अपनी कोरी पर्चिया यूं बरबाद मत करों... मैं तो यहां हूँ ही, तुम किसी काम से मुझसे मिलने आओ... ’
’किस काम से...?’
हंसा यूं सकपका जाता था। उसकी समझ में ही नहीं आया कि वह मुझसे किस काम के तहत मिल सकता है। मैं खुद सोचने लगा कि हंसा मुझसे किस काम से मिल सकता है। तभी निरंजन अपने पलंग से उछलता हुआ हम दोनों के बीच में आ गया।
’मैं मद्‍द करुं?’ निरंजन बोला..
’किस बारे में?’ मैं हंसा की अचकचाहट में बोला।
’काम बताने में...’
’हाँ... हमें मद्द चाहिए।’ हंसा बोला..
निरंजन चालाक नहीं था, पर दुनिया से वह कुछ इस तरह कब्बड्डी खेल चुका था कि.. अब वह हमेशा, आदतन, या तो खुद ’कब्बड्डी-कब्बड्डी’ करता हुआ दुनिया के पाले में जाता, या दुनिया का कोई खिलाड़ी कब्बड्डी-कब्बड्डी करता हुआ उसके पाले में घुस आता.. जहाँ वह एकदम अकेला था, हार-जीत मानी नहीं रखते थे.. पर वह खेलते वक्त हमेशा सतर्क हो जाता। यहाँ पिछले कुछ समय से वह मेरे साथ खेलना बंद कर चुका था। जब भी वह मेरे पलंग पर आता तो अपनी सतर्कता अपने पलंग पर छोड़कर आता था।
’भाग जाओ यहाँ से... कैसे भी।’
निरंजन, मुस्कुराते हुए बोला। हंसा और मैं उसकी ओर आश्चर्य से देखने लगे।
’अरे! यह कोई कैद में है क्या? हस्पताल में है। यहाँ से यह जब चाहे जा सकता है।’
हंसा, निरंजन को जानता नहीं था सो वह सीधी बहस पर उतर आया। निरंजन ने उसकी तरफ देखा भी नहीं, वह मेरे जवाब का इंतज़ार कर रहा था।
’निरंजन.. मैं ठीक नहीं हूँ... बाहर गया तो मारा जाऊंगा।’
निरंजन यह सुनते ही वापिस अपने पलंग पर चला गया और अपनी किताब पढ़ने लगा। हंसा अवाक सा निरंजन को देख रहा था। तभी निरंजन बोला...
’तुम जानते हो मूंछ नहीं है। लोग कहते हैं कि मूंछ है। फिर मेरे जैसे कुछ और लोग तुम्हारी तरफ हो जाएगें और तुम्हारे साथ कहेगें कि मूंछ नहीं है... जबकि लोग मूंछ है का बयान देकर, तुम ठीक नहीं हो, सिद्धा कर देगें... और तुम यहीं पड़े रहोगे। इसमें मूंछ है कि नहीं है.... हिंसा है। तुम देख लो।’
इस बात पर हंसा धीरे से मेरे करीब आया।
’क्या कह रहे हैं यह?’
’मैंने तुमसे कहाँ था कि तुम किसी काम से मुझसे मिलने आओ... लाओ मुझे एक पर्ची दो... मैं एक ज़रुरी काम तुम्हें दे देता हूँ।’
हंसा ने मुझे एक पर्ची निकालकर दी... तभी निरंजन फिर बोल पड़ा...
’”कभी-का” की तबियत नासाज़ है। पता नहीं कब.. एक मिनट आगे बढ़ेगा... तुम ’अभी-अभी’ का पलंग छोड़ दोगे.. और यहां आ जाओगे। तुम जानते हो यह कितना खतरनाक हैं। तुम ठीक नहीं हो... पर यहा इस पलंग पर आते ही सब ठीक है लगने लगेगा। फिर ’कभी-का’ तक, इसका कोई अंत नहीं है।’
’मैं ठीक होते ही यहाँ से चला जाऊंगा।’
मैंने कुछ गुस्से में जवाब दिया। फिर पर्ची खोलकर सामने बैठ गया। क्या लिखूं?
हंसा ने मेरा हाथ पकड़ा और कूंची से पड़े सफेद निशांन को देखने लगा।
’यह क्या हुआ है?’
’एक औरत... आसमान बनाने आती है... इस बार वह बादल भी बना रही थी... मैंने उससे बात करनी चाही तो उसने बादल भरी कूंची से मुझपर वार किया... उसी का निशान है यह।’
’क्या? कब हुआ यह?’
’रात को... ठीक-ठीक याद नहीं कब।’
हंसा उस निशान पर अपना अंगूठा घुमाने लगा।
’यह मिट नहीं रहा है... मैंने बहुत कोशिश की है... रहने दो।’
पर हंसा नहीं माना... वह अंगूठे के बाद हथेली ज़ोर-ज़ोर से रगड़ने लगा। मेरे मुंह से चीख़ निकल आई। हंसा ने रगड़ना बंद कर दिया। वह निशान गुलाबी पड़ चुका था। तभी हंसा उठा और दाहिनी तरफ दे दरवाज़े से प्रस्थान कर गया।
हंसा अचानक उठ गया था। निरंजन का सिर किताब में घुसा पड़ा था। मैं कोरी पर्ची और पेन लिए कोई महत्वपूर्ण काम के बारे में सोच रहा था। इच्छा हुई कि पर्ची पर लिख दूं ’मैं ठीक नहीं हूँ....’ या ’मूंछे हैं...’ या ’दाहिना हिस्सा मेरे बस में नहीं है....’ या ’नील... नील.. नील..’ या ’नीला आसमान... बादल... हंस...।’
तभी हंसा साबुन, एक मग्गा पानी और एक कपड़ा लेकर बांए दरवाज़े से प्रवेश करता है। मैं हंसा की इस चाल और इस गंभीरता को बखूबी पहचानता हूँ... वह एक ज़रुरी काम में व्यस्त है।
’हंसा.. मैंने अभी कोई काम नहीं लिखा है। यह पर्ची अभी कोरी है।’
पर हंसा को काम मिल चुका था। वह मेरा सफेद दाग़ निकालने में जुट गया था।
’वह नहीं निकलेगा।’
निरंजन की आवाज़ आई। हंसा कुछ देर के लिए रुका..
’निकले गा.. निकल रहा है।’
हंसा फिर घिसने लगा। कुछ देर में उसने साबुन के झाग को पानी से धोया... दाग़ वैसा का वैसा था.. पर अब वह अपना गुलाबी रंग छोड़कर थोड़ा लाल हो गया था। छुट-पुट बूंदे खून की भी उभरने लगी था। हंसा डर गया... उसने हार मान ली।
’तुम ठीक नहीं हो यह blessing है। तुम ठीक नहीं हो इसलिए मूंछे नहीं है। तुम ठीक नहीं हो... क्यों कि तुम हो। तुम ठीक नहीं हो... इसलिए भाग सकते हो।... भाग जाओ।’
निरंजन मानों किताब का अंतिम पेरेग्राफ पढ़ रहा था। हंसा पहली बार अपना काम नहीं कर पाया था। वह गुस्से में उठ खड़ा हुआ।
’सुनो प्रयाग, तुम्हें जो भी काम करवाना है इस पर्ची पर लिख दो मैं उसे पूरा करुगाँ...चाहे कुछ भी हो जाए।’
’मैं सोच रहा हूँ।’
’जल्दी करों...।’
हंसा अपनी हार से हकबका सा गया था। वह कमरे में धूमने लगा...। निरंजन पीपल का पत्ता और किताब हाथ में लेकर मेरे पास आया।
’मैंने इसे पढ़ लिया। इसका अंत और इसकी शुरुआत ग़ायब है।’
’तो?’
’तुम पर्ची में लिखकर इसकी शुरुआत और अंत मंगा दो।’
निरंजन मिन्नते करने लगा था। मैं मान गया। मुझे लगा मैं भी हंसा ही हूँ... मुझे भी ’ना..’ कहने की कला नहीं आती है। मैंने शायद आखरी बार ’ना...’ नील को कहा था।
’क्या लिखूं? कौन सी किताब है यह?’
’गोदो.... वेटिंग फॉर गोदो..।’
’अरे! निरंजन गोदो का शरुआत और अंत नहीं है।’
’है... होगा ही... ऎसा कैसे।’
’बेकेट(BECKETT) ने नहीं लिखा है।’
‘ऎसा कैसे हो सकता है?’
’वह लिखना चाहता था...।’
’मुझे इसका शुरुआत और अंत चाहिए... बस।’
’ठीक है मैं लिख देता हूँ, हंसा ले आएगा।’
मैंने लिख दिया... “गोदो का शुरुआत और अंत चाहिए। महत्वपूर्ण है।“ जैसे ही मैंने पर्ची लिखी, हंसा ने आकर उसे अपनी जेब में रख लिया।
’चलता हूँ। जल्द ही तुम्हारा काम पूरा होने पर मिलूगाँ।’
यह कहकर हंसा प्रस्थान कर गया। उसके प्रस्थान करते ही ट्रे वाली नर्स बिना ट्रे के भागती हुई प्रवेश करती है... वह सीधी ’कभी-का’ के बिस्तर पर चली जाती है। ’कभी-का’ के आदमी को वह सीधा करती है, उसके ऊपर चादर ढ़क देती है। तभी ’खट-खट-खट-खट’ की आवाज़ के साथ डॉक्टर प्रवेश करता है। वह सीध ’कभी-का’ के बिस्तर के पास जाता है। कुछ देर की खुसुर-पुसुर के बाद बिना ट्रे वाली नर्स और डॉक्टर चले गए।
मेरी इच्छा थी कि मैं डॉक्टर से पूछू कि मुझे क्या हुआ है? पर सब जगह इतना खुफियापन फैला हुआ था कि मेरी पूछने की हिम्मत नहीं हुई। मैं कमरे में एक अजीब सा सन्नाटा महसूस कर सकता था। कुछ हुआ है। क्या है? निरंजन चश्मा पहने, छत पर बने हंस को घूर रहा था। मैंने भी उस हंस को देखा, वह हंस बस उड़ने को था... जैसा अटका पड़ा था।
’एक मिनिट आगे बढ़ रहा है।’
निरंजन ने हंस को देखते हुए बोला। मैं अपने बिस्तर पर लेट गया। निरंजन बड़बड़ाता रहा।
’तुमने देर कर दी। अब तुम जल्द ही ठीक हो जाओगे। मैं हंसा का इंतज़ार करुगाँ... वह जल्द कहानी की शुरुआत और अंत लेकर आएगा... मैं इंतज़ार करुगाँ।’
मैं हंसा के बारे में सोचने लगा।
कुछ ही देर में कमरे में बहुत उठक-पटक होने लगी।.. चादरें बदली गई... बिस्तर यहाँ-वहाँ हुए...। निरंजन सामने के बिस्तर पर चला गया, मैं निरंजन के बिस्तर पर आ गया, ’कभी-का’ के बिस्तर पर... उसके पहले वाले बिस्तर वाला मरीज़ पहुंच गया। कुछ समय तक ’अभी-अभी’ का बिस्तर खाली पड़ा रहा...फिर एक लड़का बेहोशी की हालत में वहाँ लाया गया। वह कई दिनों तक सोता रहा। उसे देखने बस उसकी बूढ़ी माँ धीरे-धीरे चलती हुई आती थी, उसके बगल में बैठी रहती... उसके हाथों की रेखाओं को टटोलती रहती... उनमें कुछ ढूढ़ती रहती।
जब उस लड़के को होश आया तो उसकी माँ उसके पास नहीं थी।
वह लड़का मुझे देखने से कतराता रहता। निरंजन के बिस्तर के पास अब एक खिड़की थी... वह घंटों खिड़की पर बैठा हुआ हंसा का इंतज़ार करता रहता।
मैं अब ठीक महसूस करने लगा था... मेरे शरीर का दाहिना हिस्सा वापिस मेरे बस में आने लगा था।
कूंची वाली औरत ने पूरे कमरे को आसमान बना दिया था... मैं इंतज़ार में था कि कब वह ’अभी-अभी उड़ने को..’ का दूसरा हंस बनाएगी।

Tuesday, May 18, 2010

म्मताज़ भाई पतंगवाले.....


म्मताज़ भाई पतंगवाले.....

15th feb, 2010…
एक
काश मैं आनंद को मना कर देता। कैसे बचपन की बेवकूफियों पर मैं अचानक भावनाओं में बह गया?
....छुट्टीयाँ बर्बाद हुई सो अगल। मुझे आश्चर्य हुआ तनु ने मुझे रोका नहीं| तनु को क्या पता कौन आनंद है, कौन म्मताज़ भाई हैं। मैंने बचपन के इन बचकाने दिनों का ज़िक्र उससे कभी नहीं किया। पर मुझे उसे सब बताना पड़ा... क्योंकि जब आनंद का फोन आया.. उसे तनु ने ही रिसीव किया था.. ’बिक्की है?’ आनंद ने पूछा था और तनु ने ‘wrong number’ कहकर फोन काट दिया था। उसने फिर फोन किया... ’बिक्की है?’ तनु ने फिर काट दिया... जब तीसरी बार उसने फोन किया तो तनु चिढ़ गई... उसने मुझसे पूछा। ’यह बिक्की कौन है? यह आदमी बार बार फोन कर रहा है।’ और मैं दंग रह गया। ’बिक्की... असल में विक्की...और वैसे विवेक...।’ मैं धीरे से रिसीवर की तरफ बढ़ा.. तनु को लगा था कि मैं मज़ाक कर रहा हूँ उसने आनंद से कहाँ... ’लीजिए बिक्की से बात करिये...’ मैंने फोन लिया तो तनु अपनी हंसी दबाते हुए मेरे बगल में खड़ी हो गई थी... उसे लग रहा था कि हम वह wrong number वाला खेल खेल रहे हैं। मैंने कहाँ.... ’मैं विक्की बोल रहा हूँ।’ तनु कहने लगी ’अरे वो बिक्की है।’ मैंने उसकी तरफ देखा और वह चुप हो गई थी। आनंद ने कहाँ था कि ’म्मताज़ भाई की हालत बहुत खराब है... पर अजीब बात है कि वह तुम्हारा नाम ले रहे थे। तुम अगर एक दिन के लिए आ जाओ तो... तुम देख लो... वैसे आ जाते तो यहाँ सबको अच्छा लगता।’ फोन काटने के बाद तनु ने सवालो की रेल लगा दी। मुझे बहुत कुछ अब याद नहीं था.. पर मैंने जितना कुछ भी उसे बताया, उसके बाद मैं खुद भावुक हो गया और मैंने उससे कहाँ कि ’मेरी इच्छा तो है कि मैं एक बार वहाँ चला जांऊ...।’ तनु मेरी बात से तुरंत सहमत हो गई... वह अगले दिन ऑफिस गई, उसने बॉस से छुट्टी की बात कर ली.. मेरा रिज़र्वेशन करवा दिया...(हम दोनों एक ही ऑफिस में काम करते हैं।) और अब मैं ट्रेन में अपनी भावनाओं में बह जाने पर पश्याताप कर रहा हूँ....।
हर बार जब भी मैं ट्रेन में सफर करता हूँ तो कोई ना कोई बच्चा मेरे अगल-बगल वाली बर्थ पर ज़रुर होता है। मुझे बच्चे अच्छे नहीं लगते... ख़ासकर ट्रेनों में। वह रात भर सोने नहीं देते है... हर बार मैं बहुत गंदे बहाने बनाकर अपनी बर्थ बदल लेता हूँ। इस बार मैंने एक औरत से यह कहकर अपनी बर्थ बदली कि मुझे हर आधे घंटे में बाथरुम जाना होता है... मेरी बीमारी है, इसलिए मुझे बाथरुम के पास वाली बर्थ चाहिए। वह पहले नहीं मानी... फिर मुझे कहना पड़ा कि अगर मेरी दूरी बाथरुम से ज़्यदा दूर हुई तो... मैं कभी-कभी संभाल नहीं पाता हूँ और...। वह डर गई और उसने बर्थ बदल दी। जब मैं खाना खाने के बाद सोने की तैयारी में जुट गया तो देखा वह औरत बार-बार मेरी तरफ देख रही है...। उसे दिखाने के लिए मैं हर थोड़ी देर में उठकर बाथरुम में चला जाता..। बाथरुम में जाकर मैं कुछ देर आईने के सामने खड़ा रहता और बाहर निकल आता। यह सिलसिला देर रात तक चलता रहा। बमुश्किल वह सो गई और मैंने चैन की सांस ली... उस चैन की सांस लेते ही मुझे सच में बाथरुम लगने लगी.... मैं वापिस उठा बाथरुम गया... बाथरुम करने के बाद मैं कुछ देर आईने के सामने यूं ही खड़ा रहा... मेरी कलमें सफेद होने लगी है। मैंने अपने माथे के बालों उठाकर देखा तो दो-तीन सफेद बाल वहाँ भी नज़र आ गए। मैं तुरंत बाथरुम से बाहर निकल आया। अपनी बर्थ पर लेटे हुए मैं खिड़की के बाहर देख रहा था... एक शहर अपनी पूरी रोशनी लिए... मेरे सामने से मानों भाग रहा था... कुछ ही देर में शहर खत्म हो गया... वापिस अंधेरा... अब शीशे में मुझे अपनी शक्ल दिख रही थी। कौन सा शहर था वह? क्या मैं कभी उस शरह में गया हूँ? फिर मैं सोचने लगा कि अगर अपने घर में मैं इन सफेद बालों को देखता तो तुरंत काट देता..। मैं घर में क्यों नहीं हूँ? मैं खुद को कोसने लगा। कोसते-कोसते कब नींद आ गई पता ही नहीं चला।

दो
शक्कर की लाईन बहुत लंबी थी। मैं बहुत देर तक लाईन से दूर खड़ा रहा, मेरी निग़ाहें आसमान पर थी....म्मताज़ की पतंग पर। यह राशन कार्ड से सामान लेने का समय मेरे पतंग उडाने का ही समय क्यों होता है? मैने देखा लाईन में खड़ा एक आदमी मुझे घूर-घूर कर देखे जा रहा है... अरे यह तो सुधीर शास्त्री हैं, मेरे मामा...। मैं तुरंत हंसता हुआ उनके बगल में जाकर खड़ा हो गया... उनका कुर्ता पकड़कर उनसे कहाँ...
’मामा जी.. मामा जी.. आप शक्कर... शक्कर ले लेगें...’
मेरे इतना कहने पर उन्होने एक चपत मुझे जमा दी... मुँह में गुटखा होने की वजह से वह मुझे गाली नहीं दे पाए... गुस्से से पीछे लाईन में खड़े होने का ईशारा किया..। मैं झोला रगडाता हुआ वापिस लाईन से थोड़ा हटकर खड़ा हो गया। म्मताज़ भाई की पतंग... मैं वापिस आसमान में था... लाल तुर्रे वाली काली पतंग...ऊची आसमान में थमी खड़ी थी। मैं खिसकर लाईन में खड़ा हो गया जिससे मेरे मामा मुझे ना देख सकें। तभी म्मताज़ की पतंग एक जंगी जहाज़ की तरह नीचे आई और अपने एक बहाव में तीन पतंगों को काटती हुई वापिस ऊपर आसमान में... वैसी की वैसी थम गई, मानों नीचे कुछ हुआ ही ना हो। तीनों कटी हुई पतंग मेरे सिर के ऊपर से चली जा रही थी। यह मेरे सब्र की ऎसी परिक्षा थी जिसमे मेरी हार तय थी। मैंने एक बार अपने मामा को देखा... जिनका नंबर आने ही वाला था और एक बार उन पतंगों को... मैंने एक गहरी सांस भीतर ली और मामा की ओर लपका....। इससे पहले कि वह कुछ समझ पाते...मैंने अपना झोला और राशन कार्ड उनके हाथ में थमाया और पतंग की और भाग लिया। पीछे से मुझे मेरे मामा आवाज़ सुनाई दी थी कि ’तेरी माँ को बोलूगाँ..., मैं यह झोला यहीं पटक के जा रहा हूँ.. अबे रुक.. हरामी साला!’
एक पतंग गुप्ता जी के घर पर चली गई। दूसरी पतंग अवस्थी जी के बग़ीचे में चली गई थी। मेरी आज तक समझ में नहीं आया जिन लोगों के घर पर बच्चे नहीं होते या जिन्हें पतंग उड़ाने में कोई दिलचस्पी नहीं होती... पतंग कटने के बाद हमेशा उन्हीं लोगों के घर पर क्यों जाती है। लेकिन तीसरी पतंग टाल की तरफ जा रही थी। मैं उस ओर भागा... साथ में कई लड़के उस ओर जा रहे थे। कुछ लोगो के हाथ में झाड़-झंकाड़ भी थे। वह पतंग नीचे आ रही थी पर ठीक एन वक्त पर वह गोता खा गई और बगल की गली की तरफ मुड़ गई। सभी पतंग के पीछे भागे.. पर अचानक मेरी निग़ाह उसके माझें की ओर गई। मंमताज़ भाई ने पतंग को लंबे गोते के बाद काटा था.. सो मांझा पतंग में काफी था। सभी पतंग की ओर भागे, लेकिन मैं उल्टे माझे की तरफ भागा... दो लंबी छलांग लेनी पड़ी, पहली छलागं में मैं टाल के दूसरी तरफ था पर दूसरी छलांग में मैं नाली में गिर गया... लेकिन मांझा मेरे हाथ में था। मैंने तेज़ी से मांझा खीचा पतंग मेरे हाथ में आ चुकी थी। मैं नाली में खड़ा हुआ हंसने लगा.. ज़ोर-ज़ोर से... इस जीत का कोई गवाह नहीं था सो मैं अकेले ही नाली में खड़े होकर चिल्ला पड़ा ’म्मताज़ भाई मैंने पतंग लूट ली... म्मताज़ भाई... या... या... हू...हू...।’
कीचड़ में सना हुआ, एक हाथ में पतंग लेकर मैं भागता हुआ तुरंत राशन की दुकान पर पहुँचा। वहाँ सन्नाटा था। मामा गायब, राशन की दुकान पर ताला लगा हुआ था। मैं ठंड़ा पड़ गया। आधा शरीर कीचड़ में सना हुआ है, एक हाथ में पतंग...। मेरे सामने माँ का गुस्से से लाल-पीला चहरा घूमने लगा। पतंग मेरी जीत थी सो उसे मैं छोड़ नहीं सकता था। मैंने बाहर के नल में खुद को थोड़ा सा साफ किया और डरता हुआ घर पहुचा। दरवाज़े पर ही सिग्रेट की खुशबू आ रही थी... मतलब अवस्थी जी घर आए हुए हैं। मैं चोरी से किचिन में जाना चाह रहा था पर मेरे घर में घुसते ही माँ ने देख लिया। अवस्थी जी सिग्रेट के कश लगाते हुए मुझपर हंसने लगे। मैंने पतंग दरवाज़े के पीछे छुपाने की असफल कोशिश की... फिर अवस्थी जी के पैर पड़े..। अवस्थी जी ने मुझे अपने बगल में बिठा लिया। मैंने देखा की माँ की बगल में शक्कर भरा हुआ बेग और राशन कार्ड रखा हुआ है। मैंने माँ की तरफ देखा वह मुझे देखकर मुस्कुरा रही थी। यह तूफान के पहले की शांति थी। दूर टीवी के पास बैठी मेरी बहन अपना होमवर्क कर रही थी... उसने मुझे इशारे से कहा कि बहुत पिटाई होने वाली है। मैं समझ गया पूरा घर अवस्थी जी के जाने का इंतज़ार कर रहा है। तभी अवस्थी जी कहने लगे कि यह बदबू कहाँ से आ रही है... मैं ठंड़ा पहले ही पड़ चुका था... अब मैं पीला पड़ता जा रहा था। यह ठंड़ा पड़ने के बाद की स्टेज है, इसके बाद आदमी लाल पड़ता है और फिर काम तमाम। माँ ने तुरंत मुझे अवस्थी जी के बगल से उठा दिया। मैं भागता हुआ किचिन में चला गया। घर में छुपने की कोई ओर जगह ही नही थी। मैं भीतर बैठा-बैठा अपनी सज़ाओ के बारे में सोचने लगा। तभी अवस्थी जी के दरवाज़े पर पहुचने की आवाज़ आई। “अच्छा आईयेगा’ यह वाक्य मेरे कानों में गूंजने लगा। और फिर कुछ ही देर में मैं पीला पड़ जाने के बाद वाली स्टेज पर पहुच गया.. मैं पिट-पिट के लाल पड़ चुका था। माँ जानती थी कि मारने का इसपर अब ज़्यादा असर नहीं होता है सो उन्होंने मारने के बाद मेरे कपड़े उतारे और मुझे नंगा घर के बाहर खड़ा कर दिया। शर्म के मारे मैंने आंखें नहीं खोली... कौन मेरे बगल में रुका, किसने मुझे देखा मुझे कुछ भी पता नहीं... बस मुझे मेरे मामा (सुधीर शास्त्री) की आवाज़ आई... ’और उड़ाओ पतंग..।’ कुछ देर बाद मेरी सिसकियों के बीच में दूसरी आवाज़ आई मेरी बहन की... ’चलो माँ ने अंदर बुलाया है।’ मैंने सिसकियों की आवाज़ को बनाए रखा, कपड़े पहने और होमवर्क करने बैठ गया...। तभी माँ.. मेरी पतंग लेकर मेरे सामने आई और उन्होने उस पतंग के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। तब मुझे असल में रोना आया.. मैं बहुत रोया.. बहुत। रोते-रोते कब मुझे नींद आ गई पता ही नहीं चला।
अगले दिन दोपहर में मैं सराफे में सब्ज़ी लेने गया। ठीक सब्ज़ी बज़ार के पीछे ही म्मताज़ की पतंग की दुकान है। कल की शाम की मार मेरे पूरे शरीर को याद थी... पर म्मताज़ भाई को अपनी जीत के बारे में विस्तार से बताने की इच्छा थी। एक पतंगबाज़ ही दूसरे पतंगबाज़ का दर्द समझ सकता है। इस मंत्र का उच्चार करते हुए मैं सब्ज़ीबज़ार से होता हुआ सीधा म्मताज़ भाई की पतंग की दुकान की तरफ चल दिया।
रंगों का जमघट म्मताज़ की दुकान थी। छोटा सा लकड़ी का टप था, उसके एक तरफ साईकल की दुकान और दूसरी तरफ आटा चक्की थी। उस सफेद और काले के बीच में तितलियों सी म्मताज़ भाई की दुकान। मैं भागता हुआ म्मताज़ भाई की दुकान के बाहर रखे फट्टे पर बैठ गया। दोपहर में म्मताज़ भाई की दुकान पर कम भीड़ होती थी। शाम को तो म्मताज़ भाई की शक्ल देखना भी मुश्किल होता था। म्मताज़ भाई हमेशा साफ सफेद हाफ शर्ट और सफेद पेंट पहनता था। सुन्दर पतली दाढ़ी, घने काले बड़े बाल... और इस सब के ऊपर उसके मुँह में पान। मुझे देखते ही म्मताज़ भाई ने पान थूका...
’अरे को भाई? क्या ख्याल है?’
’ख्याल दुरुस्त है म्मताज़ भाई।’
यह हमारा एक दूसरे को अभिवादन था। यह संवाद कभी भी नहीं बदला था। मेरी इच्छा थी कि म्मताज़ भाई को पिटाई वाली बात पहले बताऊं... क्योंकि एक पतंगबाज़ ही दूसरे पतंगबाज़ का दुख समझता है... पर उनके चहरे की मुस्कान को देखकर सोचा वह बात आखीर में बताऊगाँ।
’म्मताज़ भाई कल जो आपने एक ग़ोते में तीन पतंग काटी थी उसमें से एक पतंग कल मैंने लूटी....।’
’क्या बात कर रिये हो? तो इस बार तू लेके नी आया पतंग?’
’मुझे रास्ते में याद आया।’
तभी म्मताज़ ने कुछ कपड़ों के नीचे से एक हिचका (जिसमें मांझा लिपटा होता है) निकाला। मांझा सुर्ख लाल रंग का था।
’यह इसे छू के देख... देख।’
मैंने डरते-डरते हाथ आगे बढ़ाया।
’देखके हाथ कट जाएगा।’
मांझे को छूने के बाद, मेरा हाथ खुद-ब-खुद जेब में चला गया। एक पर्ची निकली जिसमें साड़े तीन रुपये रखे थे। पर्ची पर लिखा था- एक किलो आलू, आधा किलो प्याज़, आधा टमाटर, धनिया-मिर्ची-अदरक मुफ्त। मैंने वापिस उस पर्ची को पैसे समेत जेब में डाल दिया।
’म्मताज़ भाई... पिछली बार आपने मांझा दिया था और कहाँ था कि ऊपर से रखकर ढ़ील दे देना...बस दुश्मन का काम तमाम।’
मैं मांझे के लिए मना करना चाह रहा था पर म्मताज़ भाई से सीधा मना करने की हिम्मत नहीं थी। वैसे भी यह मेरी पुरानी शिक़ायत भी थी।
’पर जैसे ही मैंने ऊपर से रखकर ढ़ील दी, उसने नीचे से खेच दिया।’
म्मताज़ भाई तब तक लाल मांझे को अपने हाथो में लपेट रहे थे। मुझे डर लग रहा था कि कहीं यह मेरे लिए तो नहीं है।
’कौन सा मांझा था वह?’
’वही कत्थई वाला।’
मैंने जवाब दिया। म्मताज़ भाई ने हाथों में मांझा लपेटना बंद किया और ऊपर लटके हिचकों को बहुत देर तक देखते रहे। फिर कत्थई मांझे वाले हिचके को नीचे खींचा...
’यह वाला था ना...?’ मैंने हाँ में सिर हिलाया।
’साला... मियां लूटते है यह बरेली वाले भी... इस मांझे की बड़ी शिक़ायत मिली है...। अगली बार से मैं अगर यह मांझा दूँ भी ना.. तो तुम मत लेना ... साफ मना कर देना। इसे मैं वापिस बरेली भिजवाता हूँ। अपन हमेशा क्वाल्टी की चीज़ ही लेते है। इस लाल मांझे को देख रिया है? इसे सिर्फ मैं ही इस्तेमाल करता हूँ.. बस... किसी को नहीं दिया मियां आज तक यह.... छुपा के रखता हूँ। आज पहली बार तुम्हें दे रिया हूँ...संभालके। म्मताज़ भाई ने दिया है यह किसी को बक मत देना... यहाँ भीड़ लग जाएगी।... जब पचास पेंच(पतंग) काट दो तो म्मताज़ भाई को याद रखना... भूलना नहीं। यह लो... दो रुपये... पतंग भी निकाल के रखी है अपुन ने तेरे वास्ते। इस्पेसल है... बस ढ़ील देते रहना हवा से बातें करेगी।’
’नहीं म्मताज़ भाई... पतंग है मेरे पास... बस मांझा काफ़ी होगा।’
’पतंग कहाँ से आई... वह लढ़्ढू चोर की दुकान से ले ली क्या मिया?’
’क्या कह रहे हो म्मताज़ भाई.. मैं तो लढ़्ढू की दुकान की तरफ देखता भी नहीं हूँ। कल वाली लूटी हुई पतंग रखी है।’
मैंने जेब से दो रुपये निकालकर म्मताज़ भाई को दिये। म्मताज़ भाई ने सलीके से मांझा एक काग़ज़ में लपेटा और मेरी तरफ बढ़ा दिया...।
’वैसे मिंया इस मांझे से वह लूटी हुई पतंग उड़ाओगे तो लोग हंसेगें।’
’म्मताज़ भाई अभी पैसे नहीं है पतंग के...।’
और मैं चुप हो गया। पतंग बाज़ी के बीच में पैसे की बात करना भी मुझे गुनाह लगता है और वह भी म्मताज़ जैसे पतंगबाज़ के सामने..।
’पैसे कौन मांग रहा है मिंया... पैसे जब हो तब दे देना... अभी तो उस मांझे की इज्जत रखो।’
म्मताज़ भाई ने वह पतंग दे दी। मेरे समझ से यह एक उभरते हुए पतंगबाज़ की सबसे बड़ी बेइज़्ज़त थी। क्यों मैंने पैसे की बात भी निकाली म्मताज़ भाई के सामने?
मैं पचताया सा, म्मताज़ भाई से विदा ले वहाँ से निकला। जैसे ही सब्ज़ी बज़ार में घुसा मुझे जेब में रखी पर्ची याद आ गई। बस ढ़ेढ रुपये बचे थे। मैंने ढ़ेढ़ रुपये के आलू लिए और अपने पक्के दोस्त आनंद के घर भागा। आनंद घर पर नहीं मिला। अगर माँ ने पतंग देख ली तो इस धरती पर यह मेरा आखीरी दिन होगा। सोचा पतंग फाड़ देता हूँ और मांझा घर में घुसते ही किताबों के पीछे छुपा दूगाँ। मैंने आलू से भरा झोला नीचे रखा... मांझे को जेब में और अपने दोनों हाथों से पतंग को अपनी आँखों के सामने लाया... पतंग खूबसूरत हरे रंग की थी... ठीक बीचों-बीच सफेद अर्धचंद्र था। कैसे फाड़ दूं? मैंने ’घुर्र.. घुर्र... ’ आवाज़ निकालते हुए, अपने दोनों हाथों की पूरी ताकत लगा दी... कुछ नहीं हुआ... मेरे हाथ कांपने लगे। म्मताज़ भाई की दी हुई पतंग मैं कैसे फाड़ सकता हूँ? मैंने अपनी आंखे बंद कर ली... और फिर ज़ोर लगाया। पर पतंग वैसी की वैसी मुस्कुराते हुए मेरे सामने थी। मैं रोने लगा... सोचा म्मताज़ भाई के पास जाऊँ और उनसे कह दूं कि मैं एक सच्चा पतंग बाज़ नहीं हो सकता। आप किसी और से दोस्ती कर लें। मैं पतंग लेकर गली में ही बैठ गया और म्मताज़ भाई का नाम ले लेकर भभक कर रोने लगा।
सांतवीं की परिक्षा सिर पर थी। माँ मेरे पंतग उड़ाने के टाईम को खा जाना चाहती थी। माँए कितनी चालाक होती है। अब हर शाम को मुझे ट्युशन जाना पड़ता है.... वह भी अंग्रेज़ी की। चौहान सर, जो अंग्रज़ी की ट्यूशन पढ़ाते थे.. उन्हें लगता था दौ सौ किलो मीटर के इलाके में उनके अलावा कोई और अंग्रेज़ी का ’अ’ भी नहीं जानता है। शायद वह सही भी हो क्यों कि मैंने आजतक अपने दौ सौ मीटर के मोहल्ले में किसी को भी अंग्रेज़ी का ’अ’ बोलते हुए नहीं सुना। वह हर शाम अपने आंगन में ट्यूशन लेते थे, उनके हाथ और ज़बान एक साथ चलते थे। मेरी जान हलक़ को आ जाती जब मैं कोई भी कटी हुई पतंग को सामने से जाते हुए देखता। पिछ्ली खाई हुई मारों का इतना डर भीतर भरा हुआ था कि मुझे लगने लगा.... अगर मैं पतंग शब्द भी अपने मुँह से निकालूगाँ तो मेरी माँ कहीं से भी प्रकट हो जाएगी और मुझे मारना शुरु कर देगी...। यूं भी चौहान सर के कारण मेरे कान अपना असली रंग छोड़ चुके थे वह म्मताज़ के मांझे के लाल रंग के समान हो गए थे जिसे मैंने अभी तक अपनी किताबों की अलमिरा के पीछे छुपा के रखा है।
ट्युशन पढ़ते हुए मेरी निग़ाह आसमान और चौहान सर दोनों पर रहती थी। तभी आंगन की झाडियों के बीच से मुझे एक सफेद चप्पल दिखाई दी, फिर सफेद पेंट, और सफेद हाफ शर्ट... ’अरे यह तो म्मताज़ भाई हमारी गली से गुज़र रहे हैं।’ मेरे मुँह से निकल पड़ा, आनंद ने मुझे एक चपत लगाई। मैं चुप हो गया। मैं खड़ा हुआ, चौहान सर को पिशाब का इशारा किया और म्मताज़ भाई के पीछे भाग लिया। म्मताज़ भाई को मैंने पहली बार उनकी दुकान के बाहर यूं चलते हुए देखा था। कितने लंबे हैं मुमताज़ भाई। बहुत सी गलियों से होते हुए वह एक छोटे से हरे दरवाज़े के सामने रुक गए। मैं पीछे छिपा हुआ था। उन्होने दरवाज़ा खटखटाया... एक छोटी बच्ची ने दरवाज़ा खोला। म्मताज़ भाई ने उसे गोद में उठा लिया। उनके घर का दरवाज़ा बहुत छोटा था... सिर झुकाकर वह अपने घर में घुसे, दरवाज़ा आधा खुला हुआ था। मैं वहीं खड़ा रहा, अंदर कुछ पतंग दिखी... मैं उस दरवाज़े के कुछ और पास पहुच गया। एक औरत भीतर से आई, जिसने ममताज़ भाई को पानी लाकर दिया। वह बच्ची भागकर अंदर गई और उसने एक कापी लाकर म्मताज़ भाई को दिखाई... म्मताज़ भाई ने उसे अपनी गोद में उठाया और उसे चूमने लगे। वह बच्ची म्मताज़ भाई को अपनी पेंटिग की किताब दिखा रही थी.... तभी उस बच्ची की आँखें मुझसे मिली...। मैं निग़ाहे हटाना चाह रहा था पर हटा नहीं पाया... वहाँ से जाना चाह रहा था पर जा नहीं पाया। वह एक टक मुझे धूरती रही... मानो पूछ रही हो ’तू कौन?’ यह म्मताज़ भाई का परिवार था और मैं कोई नहीं था... नहीं... नहीं यह म्मताज़ भाई नहीं थे, पतंगबाज़ी एक झूठा खेल था, और मैं हार चुका था। मेरे आँसू निकलते ही म्मताज़ भाई की बच्ची भागती हुई मेरी तरफ आई और उसने घर का दरवाज़ा मेरे मुँह पर बंद कर दिया।.... मुझे सब कुछ इतना शर्मनाक़ लगाने लगा कि मैं वहाँ से भाग लिया... भागता हुआ मैं सीधा आपने घर पर गया। अपनी अलमिरा के पीछे छुपा कर रखे हुए लाल मांझे निकाला और उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये।
कुछ देर बाद आनंद मेरा बस्ता लेकर घर पर आया। ’बेटा कल चौहान सर तेरे कान लाल नहीं... हरे कर देगें।’ यह कहते हुए उसने बस्ता मेरी तरफ फेंक दिया। मैंने उसकी तरफ देखा भी नहीं। ’क्यों रें आन्टी ने मारा क्या?’ मैं चुप था। ’मैं जाऊ क्या?’ इस बात पर मैंने उसका हाथ पकड़ लिया। ’अबे क्या हो गया?’ यह कहते ही आनंद मेरे बगल में बैठ गया। ’म्मताज़ भाई का अपना घर है, उनकी एक बेटी है, बीबी है......’ यह कहते ही मैं फूट-फूटकर रोने लगा। ’....तो?’ आनंद ने ’तो’ कहा और चुप हो गया। मैंने आनंद को आश्चर्य से देखा, क्या सच में वह यह सीधी सी बात नहीं समझा... ’तो? तो म्मताज़ भाई झूठे हैं, पूरी तरह झूठे।’ आनंद ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगा, मैं यह बर्दाश्त नहीं कर पाया, मैं चिल्लने लगा.... ’म्मताज़ भाई के बीबी बच्चे कैसे हो सकते हैं..??? वह एक पतंगबाज़ है.. बड़े पतंगबाज़....। वह.. वह... सुपरमैन है।’ उसके बाद मेरे मुँह से कुछ और नहीं निकल सका... और मैंने अपना बेग़ उठाकर पूरी ताकत से आनंद के मुँह पर दे मारा।
सातवीं की परिक्षा बिना पतंग, बिना म्मताज़ भाई, और बिना आनंद के गुज़र गई। छुट्टियाँ शुरु हो चुकी थी... आसमान म्मताज़ भाई की पतंग की दुकान हो चुका था... पर मैं पतंग नहीं उड़ाता था। मैं... आसमान का खेल छोड़कर ज़मीन के खेल पर आ चुका था... मैं कंचे खेलने लगा था। बाक़ी वक़्त मैं घर के काम करता रहता। माँ बहुत खुश रहने लगी थी... सुधीर शास्त्री (मेरे मामा) मेरे बग़ल से निकलते हुए मेरी जेब में चाकलेट रख देते थे... अवस्थी जी ने मुझे क्रिकेट का बेट गिफ्ट किया। मेरे पतंगबाज़ी छोड़ने के बाद यह पूरा गांव मुझसे खुश रहने लगा। पर... बीच-बीच में घोर बदले की भावना मेरे भीतर उठने लगती...मेरी इच्छा होती कि म्मताज़ भाई की आँखों के सामने... लड़्डू की दुकान से पतंग खरीदू या लंगड़ डालकर म्मताज़ भाई की काली खूबसूरत पतंग को नीचे खींच, उसे धूल चटा दूं या देर रात... एक बाल्टी पानी लेकर जाऊं और म्मताज़ भाई की पतंग की दुकान को भीतर-बाहर हर जगह से गीली कर दूं। ’भगवान सब देखता है’ का डर माँ ने ठूस-ठूस कर मेरे भीतर भर दीया था... सो चाहकर भी मैं कुछ नहीं कर पाया।
एक पतंगबाज़ पतंग उड़ाना बंद कर सकता है... पर उसके बारे में सोचना वह कभी भी बंद नहीं कर सकता। शाम होने पर मैं कंचे खेलता तो था... पर उसमें मेरा मन कम ही लगता था...। जब घर मे कोई काम नहीं होता तो दिन भर.... मैं घर के भीतर वाले कमरे में ही बैठा रहता... क्योंकि बाहर वाला कमरा सड़क के एकदम किनारे पर था, कोई भी बच्चा भागता तो लगता कि वह पतंग के पीछे ही भाग रहा है, हर हंसी पतंग की हंसी लगती, बाहर खुसुर-पुसुर की बातचीत जो भीतर साफ सुनाई देती, लगता कि सभी मुझे ’डरपोक पतंगबाज़’ कह रहे हैं। एक दिन मैं अपनी गणित की किताबों में अपना सर धुसाए भीतर किचिन में बैठा था...छुट्टीयों में दिये गए होमवर्क को पूरा करने की असफल कोशिश....तभी दरवाज़े पर खट-खट हुई। माँ अवस्थी जी के घर गई हुई थी, बहन बाहर के कमरे में पढ़ने का नाटक कर रही थी। उसने भागकर दरवाज़ा खोला। बहन की बाहर से आवाज़ आई ’भाई तुमसे कोई मिलने आया है।’ मैं बाहर गया तो देखा म्मताज़ भाई दरवाज़े पर खड़े हैं।
’अरे को भाई? क्या ख्याल है?’
’ख्याल दुरुस्त है म्मताज़ भाई।’
मैं यह जवाब देना नहीं चाहता था।
’क्या मियां अंदर आने को नहीं कहोगे?’
’आओ म्मताज़ भाई.. आओ...।’
मैंने देखा म्मताज़ भाई हमारे घर में सिर झुकाकर भीतर आए.. जबकि दरवाज़ा, उनके उछलने के बाद भी उनके सिर से नहीं टकराता। वह भीतर आकर सोफे पर बैठ गए...। मैंने अपनी बहन को धक्का देकर किचिन में ढ़केल दिया। मैं खड़ा रहा।
’क्या मिया पतंगबाज़ी का शोक़ काफूर हो गया? बहुत दिन से दिखाई नहीं दिये।’
मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था। इच्छा तो हुई कि कह दूं ’म्मताज़ भाई आप.. आप.. गंदे है..ग़लत है... झूठे हैं।’
’माँ ने मना किया हुआ हैं।’
यह आसान सा जवाब था... म्मताज़ भाई चुप हो गए।
’क्या? मियां ने पुरानी दोस्ती और पतंग बाज़ी सब छोड़ दी क्या?’
मैं म्मताज़ भाई की तरफ आश्चर्य से देखता रहा। तभी मेरी बहन भीतर से पानी लेकर आई। म्मताज़ भाई पानी लेकर बाहर गए, उन्होने पहले पान थूंका... आधे पानी से कुल्ला किया और आधा पानी पी गए।
’लाल मांझे से कितनी पतंग काटे तुम? बताया ही नहीं भाई?’
’वह लाला मांझा गलती से पानी में गिर के खराब हो गया था।’
’अरे मुझे बताया होता मिया?’
’मैंने पतंगबाज़ी छोड़ दी है म्मताज़ भाई, अब मैं कंचे खेलता हूँ।’
यह वाक्य के मुँह से निकते ही मैंने अपनी आँखे फेर ली। वापिस देखा तो म्मताज़ भाई मुझे देखकर मुस्कुरा रहे थे... इच्छा हुई कि अभी इसी वक्त उनके गले लग जाऊं.. उन्हें चूम लूं.. उनकी गोदी में बैठ जाऊं.. और.. और... उनसे कहुं कि मैं आपकी खूबसूरत काली पतंग... लाल मांझे के साथ उड़ाना चाहता हूँ।
’आनंद आया था दुकान पर.. उससे ही तुम्हारे घर का पता पूछा।’
’वह क्यों आया था..?’
’पतंग लेने आया था।’
’पतंग लेने? उसका पतंगबाज़ी से क्या लेना-देना???’ मैंने गुस्से में कहाँ।
’क्या मियां खुद तो पतंगबाज़ी छोड़के कंचे खेलने लगे हो, कम से कम दूसरों को तो पंतग उड़ाने दो, मेरे बीबी बच्चों को भूखा मारोगे क्या?’
बीबी बच्चों का नाम आते ही मेरा गुस्सा आसमान छूने लगा। तो क्या म्मताज़ भाई अपना घर चलाने के लिए पंतग बेचते है...? पतंगबाज़ी महज़ एक खेल है? म्मताज़ भाई महज़ एक और आदमी है? नहीं यह सब झूठ है... झूठ है।
’आप झूठे हैं।’
म्मताज़ भाई ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। तभी बाहर एक स्कूटर रुकने की आवाज़ आई... यह अवस्थी जी का स्कूटर था।
’भाई माँ आ गई।’ भीतर से बहन की आवाज़ आई...जो दरवाज़े के कोने में खड़े होकर सब सुन रही थी। उसके सुर में चेतावनी थी। मैं म्मताज़ भाई से थोड़ा दूर जाकर बैठ गया। माँ दरवाज़े पर पहुचते ही स्तब्ध रह गई। म्मताज़ भाई ने खड़े हो कर नमस्कार किया.. माँ ने उसका कोई जवाब नहीं दिया। म्मताज़ भाई मुझे देखने लगे.. मैं अपने पैरों को देखने लगा... मानों मुझसे कोई ग़लती हो गई है... तभी मम्ताज़ भाई की आवाज़ आई...
’तो.. क्या ख्याल है?’ यह उन्होने माँ से पूछा था..
’जी...?’ माँ आश्चर्यचकित रह गई।
’ख्याल दुरुस्त हैं...’ यह मैंने माँ और म्मताज़ भाई दोनों से एक साथ कहाँ.. कुछ मध्यस्ता जैसा..।
’माँ यह म्मताज़ भाई हैं।...’ माँ हम दोनों के बीच में आकर बैठ गई.. मेरी बहन भी हिम्मत करके बाहर आ गई और मेरे सामने आकर बैठ गई। सभी शांत बैठे थे... झूठी मुस्कुराहट माँ के अलावा हम तीनों के चहरों पर थी।
’माँ यह म्मताज़ भाई है, सराफे के पीछे इनकी पतंग की दुकान है।’ बहन ने अति उत्सुकता में शांति भंग करनी चाही।
’मैं जानती हूँ.. तू चुप रह।’ बहन के चहरे से मुस्कुराहट गायब हो चुकी थी.. मेरी मुस्कुराहट भी दम तोड़ रही थी... बस म्मताज़ भाई मुस्कुराए जा रहे थे.. शायद इसलिए कि वह माँ को अभी जानते नहीं थे। माँ, बहन से निपटकर म्मताज़ भाई की तरफ देखने लगी... लेकिन म्मताज़ भाई मुझे देख रहे थे।
’हाँ मैंने तुमसे थोड़ा झूठ बोला था मिंया... वह लाल मांझे से मैं पतंग नहीं उड़ाता हूँ... वह तो उसी वक़्त नया मांझा आया था। पर मिंया कथई मांझा उतना खराब नहीं है, मैं उससे पतंग उड़ा चुका हूँ।’
माँ सन्न थी.. उनकी कुछ भी समझ में नहीं आया। अपने पूरे आश्चर्य से वह मुझे देखने लगी। मुझे पता था माँ को इस वक़्त कुछ भी समझाना नामुमकिन था। सो मैं सीधे म्मताज़ भाई की तरफ मुखातिफ हुआ...
’मैं उस झूठ की बात नहीं कर रहा हूँ।’
’तो और क्या बात है मिंया?’
’म्मताज़ भाई मैं.. मैं...’
मेरी कुछ समझ में नहीं आया कि मैं क्या कहूं.. क्यों है म्मताज़ भाई झूठे? और मैं चुप हो गया।
’मैं समझा मिंया... पेंच काटने की बात ना (पतंग काटने)... तो ऎसा है कि मैं तुम्हारे बड़े होने का इंतज़ार कर रिया था। पंतगबाज़ी... सिखाई नहीं जा सकती है मिंया... वह आती है या नहीं आती है।’
’मुझे आती है क्या?’
’अगर नहीं आती तो मैं यहाँ क्यों आता मिंया?’
’पर आपने कहाँ था कि कथई मांझे से ऊपर से रखकर ढ़ील देना... और हरे से नीचे से खेंच देना।’
’मिंया यह सब कहने की बातें है.. जब पतंग लड़ रही होती है...तो उस लड़ाई में पढ़ाई भूलना पड़ता है।’
इस बात पर मेरी माँ बिदग गई... बहुत देर से वह सिर घुमा-घुमा कर कभी मेरी कभी म्मताज़ भाई की बातें समझने की कोशिश कर रही थी।
’क्या है यह?... आप यह क्या बात कर रहे हैं?’
मुझे माँ की बात सुनाई नहीं दी... पहली बार म्मताज़ भाई इतनी गहराई से पतंगबाज़ी की बातें कर रहे थे।
’म्मताज़ भाई आप तो हमेशा ख़ीच के पतंग काटते हो?’
’नहीं तो....।’
’मैंने आपके हर पेच देखें हैं।’
’अच्छा?’
’हाँ म्मताज़ भाई...।’
’मुझे कभी पता नहीं चला... पतंग लड़ाते वक़्त मुझे कुछ भी याद नहीं रहता।’
’मुझे भी म्मताज़ भाई, मुझे भी कुछ याद नहीं रहता...। मैं तो पतंग को देखता हूँ और सब कुछ भूल जाता हूँ।’
माँ अचानक खड़ी हो गई और म्मताज़ भाई के चहरे के ठीक सामने आकर, मर्दों वाली आवाज़ में उन्होंने पूछा।
’तुम यहाँ क्यों आए हो.. म्मताज़?
उन्होने भाई नहीं कहाँ... मुझे लगा वह किसी ओर से यह पूछ रही हैं।
’इन साहबज़ादे से मिलने।’
’कोई ख़ास वजह?’
’नहीं कोई ख़ास वजह तो नहीं है...।’
’तो आप ऎसे ही चले आए?’
’नहीं, ऎसे ही तो नहीं आया मैं... वजह है.. मगर वह ख़ास वजह नहीं है।’
’तो..? क्या वजह है?’
’यह साहबज़ादे बहुत दिन से दिखे नहीं थे सो...।’
’इनकी परिक्षा चल रही थी।’
’हाँ मुझे पता था..। पर वह तो खत्म हुए काफ़ी समय हो गया है... तो मैंने सोचा..।’
’क्या सोचा?’
’सोचा....पतंगबाज़ी का मौसम है.. और यह जनाब नदारद।’
’इन्होने पतंग बाज़ी छोड़ दी है।’
’हाँ अभी बताया इन्होने, यह आजकल कंचे खेलने लगे है।’
’क्या?’
माँ अचानक म्मताज़ भाई को भूलकर मुझे देखने लगी। मैंने तुरंत ’ना’ में सिर हिला दिया। म्मताज़ भाई इस पूरे सवाल-जवाब के दौरांन खड़े होते गए थे और माँ अंत में म्मताज़ भाई की जगह बैठ गई थी...। माँ वापिस म्मताज़ भाई की तरफ मुड़ी...
’इसने पतंग उड़ाना बंद कर दिया है। अब यह कभी भी पतंग नहीं उड़ाएगा।’
इस घोषणा के होते ही म्मताज़ भाई की मुस्कुराहट उनके चहरे से गायब हो गई। मुझे लगा जैसे माँ ने मेरे सामने म्मताज़ भाई की काली पतंग के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। मैं सहन नहीं कर सका..। मेरी इच्छा हुई कि माँ के सामने चिल्लकर कह दूं कि ’आप चुप रहिए, यह मेरे और म्मताज़ भाई के बीच की बात है.. आप एकदम चुप रहिए।’ कुछ सहारा तलाशने में मेरी आँखें मेरी बहन से मिल गई... वह तुरंत भागकर माँ के बगल में बैठ गई मानों कह रही हो कि मैं माँ की तरफ हूँ। मैं क्या कर सकता था, कुछ भी नहीं... मैं म्मताज़ भाई के प्रेम में था... इतना कि उन्हें तक़लीफ में देखना चाहता था... बेइज़्ज़त होते नहीं।
’मैं चलता हूँ...।’
यह वाक्य म्मताज़ भाई ने मानो खुद ही कहाँ.. पर वह वहीं खड़े रहे। माँ, बहन और मैं हम तीनों कमरे की अलग-अलग दिशाओं में देख रहे थे... और म्मताज़ भाई की आँखें... घर की छत में कुछ तलाश रही थी।...कुछ वक़्फे के बाद मैं खड़ा हुआ मैंने म्मताज़ भाई का हाथ पकड़ा... उनकी तरफ देखने की मेरी हिम्मत नहीं थी। मैं उनकी उंगलियों को देखता रहा जिसमें मांझे से कटने के बहुत सारे निशान बने हुए थे। फिर मैंने अपनी उंगलियों को देखा... उसमें भी कुछ वैसे ही निशांन थे।
’म्मताज़ भाई मैं एक पतंगबाज़ हूँ।’
और मैं उनके गले लग गया... कसकर...। उनके पान की सुगंध उनके पूरे शरीर में थी। मैं म्मताज़ भाई की पूरी सफेदी में.. उनकी पान की खुशबू में... उनमें घुल जाना चाहता था। अचानक मेरे मुँह से ’घुर्र...घुर्र...’ की आवाज़ निकलने लगी।
’यह क्या कर रहे हो?’
माँ अचानक खड़ी हो गई और उन्होने मुझे खींच के म्मताज़ भाई से अलग कर दिया। माँ को लगा शायद मैं म्मताज़ भाई को मारना चाहता हूँ.... पर असल में तो मैं म्मताज़ भाई के भीतर घुसने की जगह ढ़ूंढ़ रहा था।
माँ ने मुझे ज़बरदस्ती अपनी गोद में बिठा लिया। म्मताज़ भाई बहुत धीरे से दरवाज़े की तरफ मुड़े.. फिर रुक गए.. फिर एक कदम चले और रुक गए। पलटे और मुझे देखने लगे...
’मैं आपसे एक बात कहूं?’
इस बार वह मुझसे नहीं मेरी माँ से कह रहे थे।
’कहिए.. पर जल्दी मुझे घर में बहुत काम है।’
म्मताज़ भाई एक कदम आगे बढ़े। पता नहीं क्या हुआ वह मेरी बहन को देखने लगे.. कुछ देर चुप रहे... फिर मेरी तरफ देखकर हँसने लगे... उनकी हँसी अचानक तेज़ होने लगी.. और उन्होने कहाँ..
’रहने दीजिए...’
और वह चल दिये।
माँ कुछ देर तक सन्न बैठी रही.. ’रहने दीजिए?’माँ के मुँह से निकला, उन्होने मुझसे पूछा..
’रहने दीजिए?’
मैं दरवाज़े की तरफ देखने लगा.. मानो म्मताज़ भाई अभी भी वहीं खड़े हुए हों। माँ अचानक चिल्लाने लगी... ’रहने दीजिए?’.. वह दरवाज़े की तरफ गई.. ’इसका क्या मतलब है... रहने दीजिए? .. क्या मतलब है इसका? म्मताज़.. अगर दम है तो कहो जो कहना था...म्मताज़ क्या?..’
माँ चिल्लते हुए घर के बाहर निकल गई मानों म्मताज़ भाई कुछ चुराके भागे हों। जब बाहर माँ चीख रही थी तो मैं और मेरी बहन एक दूसरों को देखने लगे.. पहली बार हमने एक दूसरे के प्रति साहनुभूति सा कुछ महसूस किया...। मैं अपनी बहन के पास जाकर बैठ गया। उसने कुछ देर में मेरे गले में अपना हाथ डाल दिया।
पतंग मैं भूल चुका था.. पर म्मताज़ भाई को भुला देना इतना आसान नहीं था। आजकल आनंद पतंगबाज़ी करने लगा था। वह म्मताज़ भाई का शागिर्द हो चुका था। जब भी मेरी उससे मुलाकात होती वह सिर्फ पतंगबाज़ी या म्मताज़ भाई की बातें करता। मेरा खून खौल जाता। मैं हर बार बात बदलने की कोशिश करता पर वह वापिस घूम फिरकर पतंगबाज़ी पर आ जाता। मैंने आनंद से मिलना बंद कर दिया। पर जब भी कभी ’पतंग’ सुनाई देती, जब कभी एक झुंड बच्चों का पतंग लूटने के लिए मेरे सामने दौड़ पड़ता, कोई मांझा, सद्दी, हिचका... कुछ भी कहता... मेरे सामने मुस्कुराते हुए म्मताज़ भाई आ जाते और पूछते ’अरे को भाई? क्या ख्याल है?’ मैं कहता ’ख़्याल दुरुस्त नहीं है म्मताज़ भाई... ख़्याल एकदम दुरुस्त नहीं है।’ पर यह सब सुनने वाला कोई नहीं था। कुछ दोपहरों को मैं यूं ही सब्ज़ी बज़ार के दूसरी तरफ चला जाता। दूर से म्मताज़ भाई की पतंग की दुकान को घूरता रहता। कभी-कभी म्मताज़ भाई देख लेते, पर उनके देखते ही मैं वहा से भाग जाता। मैं चिड़चिड़ा हो गया था। किसी भी बात पर रोने लगता... अपनी बहन पर हाथ उठा देता, अपने दोस्तों से लड़ लेता। यह सब मेरे बर्दाश्त के बाहर होता जा रहा था।
एक रात मुझे नींद नहीं आ रही थी। आँखें बंद होती तो मैं खुद को म्मताज़ भाई की गोदी में बैठा पता... मैं उन्हें पतंग की पेंटिंग्स दिखा रहा होता... वह हंस रहे होते... तभी कहीं से आनंद और उनकी बेटी भागते हुए आते, उन्हें देखते ही म्मताज़ भाई मुझे अपनी गोदी से नीचे गिरा देते। मैं ज़मीन पर पड़ा रहता। म्मताज़ भाई अपनी बेटी को चूमते और आनंद को अपनी काली पतंग और लाल मांझा गिफ्ट कर देते। मेरी आँख खुल जाती।
एक रात मैं कुछ ऎसे ही सपने से हड़बड़ा कर उठा.... पता नहीं क्या समय हुआ होगा? मैं पसीने-पसीने था... मैं किचिन में चला गया, मटके से पानी निकाला पर पीने की इच्छा नहीं हुई। तभी मुझे गेस के बगल में माचिस पड़ी दिखी। मैंने उस माचिस को जेब में रखा, धीरे से दरवाज़ा खोला और बाहर निकल गया। पता नहीं मुझे क्या हो गया था... मैं कहा चला जा रहा था। रास्ते में जो भी अख़बार, काग़ज़ मुझे दिखते मैं उन्हें बटोरता चलता। अंत में बहुत सी रद्दी के साथ मैं म्मताज़ भाई की दुकान के सामने खड़ा था। उनका छोटा सा लकड़ी का टप था। मैं खिसककर उस टप के नीचे घुस गया... रद्दी का एक छोटा सा पहाड़ बनाया, अपनी जेब से माचिस निकाली और उस रद्दी में आग लगा दी। यह सब मैं क्यों कर रहा था? क्या हो रहा था मेरे भीतर? मुझे कुछ भी नहीं पता। मैं बस बिना पलके झपकाए एक रोबोट सा किसी के आदेश का पालन कर रहा था। मैं ऎसा नहीं था... बिलकुल भी नहीं... मैं बहुत डरपोक हूँ... पर मुझे डर नहीं लग रहा था। मैं रात में पिशाब करने लिए भी अकेले बाहर नहीं जाता था पर अभी मैं उस वीरान सब्ज़ी बज़ार के कोने में म्मताज़ भाई के टप को जलता हुआ देख रहा था। पता नहीं कहाँ से बहुत तेज़ हवा चलने लगी... मैं अचानक लड़खड़ाकर गिर पड़ा। गिरते ही मुझे लगा मैं जाग गया... मैं कहाँ हूँ? यह क्या हो रहा है? सामने म्मताज़ भाई का टप जल रहा था...आग बहुत ज़ोर से फैलने लगी थी। वह बगल की साईकल की दुकान और आटा चक्की को भी अपने घेरे में लेने लगी। यह मैंने क्या कर दिया? मैं आग बुझाने म्मताज़ भाई की दुकान की तरफ बढ़ा.. यहाँ वहाँ पानी तलाशने लगा.. पर कुछ भी नहीं दिखा... तो मैं मिट्टी उठाकर आग पर फेंकने लगा... पर आग पर कुछ भी असर नहीं हुआ... मैं पागलो की तरह मिट्टी फेंके जा रहा था। तभी कुछ लोग इधर को भागते दिखे... मैं बुरी तरह घबरा गया। मैंने तुरंत घर की ओर दौड़ लगा दी।
घर में घुसते ही मैंने धीरे से दरवाज़ा बंद किया... माँ और बहन दोनों सो रहे थे। हलके कदमों से चलता हुआ मैं चुप-चाप अपने बिस्तर में धुस गया। मैं बुरी तरह हाफ रहा था... तभी मुझे मेरी बहन की आवाज़ आई...
’भाई कहाँ गए थे?’
मैं अपनी बहन की आवाज़ सुनकर चौक पड़ा... मानो मैं रंगे हाथों पकड़ा गया हूँ। मुझे विश्वास नहीं हुआ कि वह जगी हुई है.... मैंने उसकी तरफ देखा.. अंधेरे में उसकी डरी हुई आँखें मुझे साफ दिख रही थी। मुझे लगा उसकी आँखें मुझसे पूछ रही हैं कि... ’यह तूने क्या कर दिया?’ तभी मेरी बहन ने मेरे सिर पर अपना हाथ रखा और मैंने अपनी आँखें बंद कर ली।

तीन
मैं हड़बड़ाकर उठा...। मेरे सामने वही औरत खड़ी जिस्से मैंने रात में अपनी जगह बदली थी। मैं डर गया मुझे लगा कि क्या यह अभी भी देख रही है कि मैं बाथरुम करने जा रहा हूँ या नहीं?
’क्या है? कया हो गया?
’Are you feeling okay?’
’जी..? मैं क्या feel कर रहा हूँ।’
’मैं आपको बहुत देर से उठाने की कोशिश कर रही हूँ। क्या यही आपको उतरना था?’
’हें... हें...?’
ट्रेन खड़ी हुई थी... कुछ ही देर में मुझे सब कुछ समझ में आने लगा...। मैं भागर दरवाज़े की तरफ लपका। और इधर-उधर सब से पूछने लगा।
’कौन सा स्टेशन है यह? कौन सा स्टेशन है यह?’
तभी मेरी निग़ाह हड़बड़ाए हुए आनंद पर पड़ी... वह एक डिब्बे से निकलकर दूसरे डिब्बे में घुस ही रहा था कि उसने मुझे देख लिया...
’बिक्की.... बिक्की...’
उसने वहीं से चीख़ना शुरु कर दिया। तभी ट्रेन चलने लगी... मैं भगकर अपना सामान लेने भीतर घुसा। आनंद बिक्की चिल्लाता हुआ मेरे पीछे भागा... उसे लगा मैं उसे देखकर वापिस ट्रेन में चढ़ गया। पर उसे समझाने का वक्त नहीं था। मैंने अपनी सीट के नीचे से अपने जूते उठाए, बेग़ हाथ में लिया और दरवाज़े की ओर लपका। तभी मुझे लगा कि मैं कुछ भूल रहा हूँ... हाँ मुझे उस औरत को ’धन्यवाद’ कहना था.... मैं पलटा.. वह अपनी सीट पर बैठे मुझे ही देख रही थी। मैं उसकी तरफ देखकर मुस्कुरा दिया और उसे ’धन्यवाद’ कहा। पर उसने उसका कोई जवाब नहीं दिया.. वह मुझे वह मुझे एक प्रश्नवाचक दृष्टी से देखती रही। मेरी इच्छा हुई कि उसे कह दूं कि कल रात में मैंने आपसे झूठ बोलकर बर्थ ली थी। मुझे पिशाब की कोई बिमारी नहीं है। तभी आनंद आ गया और उसने मुझे घसीटकर बाहर निकाल लिया। शायद मैने sorry कहा था या वह मैंने खुद से ही कहा... पता नहीं।
जूते पहनने के बाद मैं स्टेशन से बाहर आया... आनंद की बाईक बाहर ही खड़ी थी।
’सीधे म्मताज़ भाई के पास ही चलते हैं।’
’हाँ... सीधे वहीं चलते हैं।’
मैं बाईक पर बैठ गया, जैसे ही मैंने अपना हाथ उसके कंधे पर रखा... अजीब से चित्र मेरे सामने घूमने लगे। हमारे बचपन के खेल... मेरी इच्छा हुई कि एक बार उसे पूंछू तुझे कुछ हमारे बचपन की कितनी याद है? मगर मैं चुप रहा....।
यह मेरे बचपन का सबसे पक्का दोस्त्त है... कितना बड़ा लग रहा है, उसका माथ काफी निकल आया है, बड़ी-बड़ी मूँछे रख ली हैं। फिर मैंने सोचा हमारे बीच अब और क्या बात हो सकती है.... बचपने के खेल की? हमारे अंग्रेज़ी के चौहान सर की? पतंगबाज़ी की? उसे कितना याद होगा? क्या आनंद सच में सब कुछ भूल चुका है? मैं तो भूल ही चुका था।
मुझे बहुत गर्मी लगने लगी थी। उलझन, पसीना पता नहीं वह क्या था कि मुझे लगा म्मताज़ भाई के यहाँ नहीं जाना चाहिए... क्या करुगाँ मैं वहाँ जाकर.? यह अपने बचपन के कपड़े ज़बरदस्ती पहनने जैसा है, वह फट जाएगें... हम बड़े हो चुके हैं अब..। ऊफ! नहीं मुझे म्मताज़ भाई से नहीं मिलना... ।
’आनंद... बाईक रोक ज़रा।’
’क्या हुआ?’
’तू बाईक रोक ना।’
आनंद ने तुरंत बाईक किनारे खड़ी कर दी।
’क्या हुआ?’
’सोच रहा था... पहले एक चाय पी लेते हैं?’
’चाय? अरे म्मताज़ भाई से मिलने के बाद पी लेना?’
’नहीं पहले चाय।’
’ठीक है।’
वहीं बगल में एक चाय की टपरी थी। आनंद ने दो चाय मंगा ली। मैं कैसे आनंद से कहूं कि मैं म्मताज़ भाई के पास नहीं जाना चाहता हूँ... रहने दे... तू मुझे वापिस स्टेशन छोड़ दे।
’तू वापिस कब जा रहा है?’
’शाम की ट्रेन है।’
’कुछ दिन रुक जाता...।’
आनंद का यह अजीब सा अपनापन है..। ’कुछ दिन रुक जाता...’ इस वाक्य में अपनापन है लेकिन कहने के तरीके में एक स्पष्ट सी बात, जिसे कहते ही वह दूसरे कामों में व्यस्त हो सकता था। मैंने जवाब नहीं दिया तो उसी ने कह दिया।
’खेर तू आ गया यही काफी है।’’
उसने जल्दी से चाय खत्म की और बाईक की तरफ बढ़ गया। मैं जब तक उससे कुछ कह पाता उसने बाईक स्टार्ट कर दी।
’चल चलते हैं।’
मैं बेमन सा उसकी बाईक पर बैठ गया। बाईक पर पीछे बैठा हुआ मैं अपना गांव देख रहा था, लगभग सब कुछ बदल चुका है। गलियाँ सड़को मे तबदील हो चुकी है. सड़के... मुख्य मार्ग में... छोटे-छोटी दुकाने चिल्लाते हुए विज्ञापनों के पीछे कहीं छुप गई हैं। इस सबके बीच में मैं भी वह नहीं हूँ... जो इन गलियों में दौड़ता फिरता था। अब मेरा गांव मेरे लिए और मैं अपने गांव के लिए, बस एक विस्मय मात्र हैं। हम अवस्थी जी के घर के सामने से निकले जहाँ सबसे ज़्यादा पतंग गिरा करती थी... आनंद ने बताया कि वह घर भी अब बिकने वाला है... यहाँ बिल्ड़िंग बनेगी। मैं जैसा छोड़के गया था, कुछ भी वैसा नहीं है...। अंत में एक बहुत ही टूटे फूटे मकान के सामने आनंद ने अपनी बाईक रोक दी।
’अरे यह म्मताज़ भाई का घर नहीं है?’
’पुराना घर वह बहुत पहले छोड़ चुके हैं।’
दरवाज़ा खुला हुआ था। आनंद भीतर घुसा...
’म्मताज़ भाई... म्मताज़ भाई।’
वह आवाज़ लगाता हुआ एक अंधेरे कमरे के अंदर चला गया। मैं दहलीज़ पर ही खड़ा रहा। कुछ ही देर में सब शांत हो गया। मुझे लगा उस अंधेरे कमरे से सफेद शर्ट, सफेद पेंट में अभी म्मताज़ भाई, पान खाते हुए बाहर निकल आएगें। मैंने निग़ाह फेर ली... मैं ज़्यादा देर तक उस दरवाज़े के अंधेरे को नहीं देख पाया। आनंद की भीतर से आवाज़ आई...
’बिक्की.. अंदर आ जा...।’
मैं वहीं खड़ा रहा। कुछ ही देर में आनंद की फिर आवाज़ आई।
’रुक वहीं म्मताज़ भाई खुद बाहर आ रहे हैं।’
मैं हिला भी नहीं... तभी उस अंधेरे दरवाज़े से खट की आवाज़ आई.... पहले आनंद आया वह उन्हें संभालते हुए बाहर लेकर आ रहा था। एक जर्जर शरीर... पतली सी काया.. कमर झुकी हुई.. पर बदन पर वही सफेद कपड़े..। वैसी ही बड़े कालर वाली सफेद शर्ट और वही सफेद बेलबाटम... वह धीरे-धीरे रेंगते से मेरे पास आए। ठीक मेरी आँखों के सामने खड़े हो गए... कमर झुकने के बाद भी उनका क़द मेरे बराबर था।
’क्या मिंया? क्या ख़्याल है?’
मैं हक्का बक्का सा खड़ रहा। क्या ख़्याल है? मैं कुछ समझ ही नहीं पाया...
’इनके ख्याल दुरुस्त है म्मताज़ भाई।’ पीछे से आनंद की आवाज़ आई....
’ख़्याल दुरुस्त है म्मताज़ भाई।’ मैंने तुरंत आनंद की बात दौहरा दी।
’तुम तो मिंया बिलकुल भी नहीं बदले।’
यह कहते ही उनके होठों के आसपास वहीं सुंदर मुस्कान के अंश खिच आए..। यह वहीं हैं... मेरे म्मताज़ भाई। मैं धीरे से उनके गले लग लिया। उस जर्जर शरीर की लगभग हर हड्डी मैं महसूस कर सकता था।
’आनंद मिंया ज़रा बज़ार से जलेबियाँ ले आऒ दौड़के...।’
’अभी लाया।’
’म्मताज़ भाई इसकी कोई ज़रुरत नहीं है।’
’अरे मिंया इतने दिनों बाद आए हो... मुँह नहीं मीठा करोगे?’
तब तक आनंद जा चुका था। म्मताज़ भाई टूटी हुई कुर्सी पर बैठ चुके थे। मैं एक छोटे से टीन के डिब्बे को खिसकार उनके बगल में बैठ गया।
’शादी हो गई?’
’हाँ... तनु उसका नाम है। बंबई की लड़की है।’
’पतंग उड़ाते हो मिंया कभी-कभी?’
पतंग के बारे में उनसे क्या कहूं? एक शाप सी वह मेरे जीवन से चिपकी हुई है। मैंने सोचा कह दूं सब... सब कुछ कि जब भी रास्ते में, बाज़ार में.. आसमान में पतंग को उड़ते हुए देखता हूँ तो आप ही याद आते हो। आप, मेरे म्मताज़ भाई...और याद आता है अपना पूरा बचपन.. पतंगों के पीछे भागना.. दोपहर को आपकी दुकान में बैठके पतंग काटने के गुर सीखना... सब कुछ एक ठंड़ी हवा सा पूरे शरीर को छू जाता है। लानत है मुझ पर कि मैं किसी को भी नहीं बता पाया कि मेरा एक गांव है... और उस गांव में मेरे एक म्मताज़ भाई हैं... जो इस दुनियाँ के सबसे बड़े पतंगबाज़ हैं।
’नहीं म्मताज़ भाई समय कहाँ मिलता है... बंबई तो आप जानते ही हैं... रोटी की दौड़ में ही सारा समय कट जाता है।’
’रोटी नहीं मिंया... ब्रेड़ और बटर में... हाँ वैसे भी पतंग तो आसमान की बात है... ज़मीन पर भागते रहने से आसमान की सुध कोई कैसे ले सकता है।’
’आपकी पतंग बाज़ी कैसी चल रही है?’
’मिंया पतंगबाज़ी कभी की नदारद है जीवन से... पतंग बाज़ी का किस्सा तो उसी दिन तमाम हो गया था जिस दिन मेरी दुकान जली थी। उसके बाद मैं अपने भाई की साईकल की दुकान पर काम करने लगा.. दुकान जलने से कर्ज़ा बहुत था। भाई से पैसे उधार लेकर सब चुकता किया...। मिंया साईकिल की दुकान में मेरा कभी जी नहीं लगा...पर रोज़ी-रोटी का वही आसरा रह गया था। सोचा था धीरे-धीरे पैसे जमा करुगाँ और फिर से पतंग की दुकान खोलूगां...? आज तक उसी की प्लानिंग करता रहता हूँ... मिंया पतंगबाज़ी ऎसी बला है कि छूटे नहीं छूटते है... खोलूगां... मरने के पहले दुकान ज़रुर खुलेगी मिंया... तुम आना अपनी बीबी बच्चों के साथ पतंग लेने... बढिया तुर्रे वाली......।’
और वह खांसने लगे.. पहले बात छोटी ख़ासी से शुरु हुई... फिर बढ़ते-बढ़ते इतनी ज़्यादा हो गई कि उनका पूरा शरीर कांपने लगा... मैंने उन्हें जैसे-कैसे उठाकर मैं भीतर उसी अंधेरे कमरे मे ले गया। वहाँ एक सुराही और एक पलंग था। कुछ कपड़े यहाँ-वहाँ बेतरतीब से बिखरे पड़े थे। उन्हें भीतर पलंग पर लेटाकर मैं कुछ देर वहाँ खड़ा रहा। वहाँ बैठने की कोई जगह नहीं थी...मैंने सोचा बाहर से टिन का डिब्बा ले आंऊ... या बस नमस्कार करके उनसे विदा ले लू। तभी मुझे कहीं से जलने की बदबू आई... कहीं कुछ जल रहा था...। मैंने कमरे में चारों तरफ देखा.... वहाँ ऎसी कोई चीज़ नहीं दिखी... पर बदबू तेज़ थी। मुझे लगा आसपास किसी ने कचरा जलाया होगा... शायद उसी की बदबू यहाँ तक चली आई। तभी आनंद जलेबियाँ ले आया। उसे देखते ही मैं अपनी सफाई सी देने लगा...
’इन्हें बहुत तेज़ खांसी आने लगी थी.. सो इन्हें मैं भीतर ले आया...।’
’अच्छा किया... लो यह जलेबी खा लो...।’
मेरी बहुत इच्छा नहीं थी... पर मैं इस बातचीत के झमेले में नहीं पड़ना चाहता था कि.... अरे थोड़ी ले लो.. यह बहुत अच्छी है.. इतनी दूर से लाया हूँ... वगैराह वगैराह... सो मैंने तुरंत एक जलेबी का टुकड़ा उठा लिया। बाक़ी जलेबी आनंद ने अपने हाथ में ही रखी थी... वह पलंग पर बैठ गया और म्मताज़ भाई को धीरे से कहा...
’जलेबियाँ हैं... ताज़ी, गरम... चख़ लें?’
जलेबियों को देखते ही म्मताज़ भाई तुरंत मुस्कुराते हुए उठ बैठे...मानों उन्हें कभी ख़ासी का दौरा पड़ा ही ना हो? एक जलेबी का बड़ा सा टुकड़ा उन्होंने उठा लिया...। मैं जलेबी खाने ही जा रहा था कि उन्होने मेरा हाथ पकड़़ लिया....
’रुको.. वह मत खाओ... जली हुई है... यह लो.. यह एकदम सही है..।’
मैंने जल्दी से वह जलेबी ली और लगभग एक बार में बिना स्वाद लिए खा गया। कुछ जलने की बदबू बढ़ती ही जा रही थी...। मेरा इस कमरे में दम घुटने लगा था। मैंने धीरे से बाहर कदम बढ़ा दिये... दरवाज़े पर ही पहुँचा था कि पीछे से म्मताज़ भाई की आवाज़ आई।
’मैंने तुझे बहुत याद किया... मेरी समझ में नहीं आया कि तेरी याद अचानक क्यों आने लगी।’
मैं वापिस पलट लिया। म्मताज़ भाई का एक हाथ आनंद के कंधे पर था...
’मैं जब बहुत छोटा था’... म्मताज़ भाई, मुझसे और आनंद दोनों से मुख़ातिफ हो रहे थे.... ’उस वक़्त मेरे अब्बा की साईकल की दुकान थी... बहुत सख़्त आदमी थे मेरे अब्बा...। वह मुझे एक बार घूरकर देखते थे और मैं मूत देता था। तब मैं सिर्फ पंचर ठीक करना जानता था.. फिर मैंने साईकल बनाना सीखा... मडगाड लगाना.. स्पोक ठीक करना.. जब मैं पूरी तरह साईकिल की दुकान संभालने लगा तब तक मैं बड़ हो गया मिंया.. आदमी। पर पंचर ठीक करने के समय से ही, मतलब एकदम छोटे से ही मेरे दिमाग़ में पतंग थी.. मैं पतंग के अलावा कुछ भी नहीं सोचता था.. पर कभी उड़ा नहीं पाया..। फिर अब्बा ने मेरी शादी कर दी...। सुहागरात को मैं अपनी बेग़म से दूर बेठा था। मेरी बेग़म बहुत इस्मार्ट थी, उसने बहुत देर इंतज़ार किया फिर मुझसे पूछ ही लिया ’क्या चाहते हो मिंया?’ पहली बार मुझसे किसी ने पूछा था ’क्या चाहते हो मिंया?’ मैंने कहाँ ’पतंग...पतंग.. और सिर्फ पतंग.....’
म्मताज़ भाई चुप हो गए। मैं भी धीरे से चारपाई के दूसरी तरफ बैठ गया। वह मुझे ही देख रहे थे... मेरी उनसे आँख मिलाने की हिम्मत नहीं थी... मैं बार-बार खिसियाता हुआ आनंद की तरफ देखने लगता। म्मताज़ भाई ने अपना एक हाथ उठाया और मेरे गाल थपथपा दिये।
’मिंया छुटपन में जिस पागलपन से ये पतंग के पीछे दीवाने थे... मेरी भी वही हालत थी..। यह मुझे मेरे बचपन की याद दिलाता था। पिछले कुछ दिनों से पतंगबाज़ी की बड़ी इच्छा हुई... तो तेरी याद आ गई... मैंने आनंद से कहाँ... कहाँ है मेरा पतंगबाज़....ज़रा पता तो कर...।’
मेरे गाल पर उठे हाथ को मैंने अपने दोनों हाथों में ले लिया... फिर उन्हें धीरे से अपनी गोदी में रख लिया। उनकी उंगलियों में मांझे से कटने के बहुत हल्के निशान बाक़ी थे... खंड़हरों जैसे। मेरी उग्लिया साफ थी...। मैं उन हाथों को सहलाता रहा। सब खामोश थे... तभी पानी की कुछ बूंदे उनकी हथेली पर टपक पड़ी... और मैं वहाँ से उठ गया।
अभी ट्रेन आने में करीब एक घंटा बाकी था, पर मैंने आनंद से कहा कि मुझे स्टेशन पर छोड़ दे, वह ज़िद्द नहीं कर सका। वह स्टेशन पर मेरे साथ रुकना चाह रहा था पर मैंने मना कर दिया। उसके जाते ही मैंने तनु को फोन लगाया, मैं उसे सब कुछ सच-सच बता देना चाहता था...पर उसकी आवाज़ सुनते ही मैं कुछ ओर ही बातें करने लगा। मैंने उससे इधर उधर की बातें की, सब कुछ ठीक-ठाक हो गया कहाँ... म्मताज़ भाई के बारे में वह पूछे जा रही थी पर मैंने जवाब इतने नीरस ढ़ंग से दिये कि उसने पूछना बंद कर दिया। मैंने कहाँ सुबह मिलता हूँ... और मैने फोन काट दिया। स्टेशन पर बैठे-बैठे दो चार चाय पी... बंबई के दोस्तों को फोन लगाकर बेक़ार की बातें की... पर मेरे लाख़ जतन करने पर भी मेरी नथुनों में घुसी यह जलने की बदबू जा ही नहीं रही थी। बमुशकिल ट्रेन आई, मैंने सोचा गांव छोड़ते ही सब ठीक हो जाएगा... ट्रेन में घुसते ही वही हुआ जो हमेशा से होता था...। बच्चे मेरी बर्थ के अगल-बगल थे...। मैंने सामान रखा और दरवाज़े पर आकर खड़ा हो गया... ट्रेन गांव छोड़ रही थी। मैं दर तक गांव को ओझल होते देख रहा था... ’अब यहाँ शायद कभी भी आना ना हो...मैंने मन में सोचा और वापिस अंदर आ गया। सीट पर बैठते ही मुझे दरवाज़े के बगल वाली बर्थ पर बैठा एक अकेला आदमी दिखा... बाथरुम वाला बहाना पिछली बार काम कर गया था सो मैंने उसी पर टिके रहना ठीक समझा। एक गहरी सांस भीतर ली और झूठ बोलने खड़ा हो गया।

Friday, May 7, 2010

निर्मल और मैं....


मैं- इतनी रात गए.. खामोश बैठे हैं?
निर्मल- कितना बज रहा होगा?
मैं- करीब एक...।
निर्मल- कितने रतजगों की कालिख आँखों के नीचे फैली पड़ी है... है ना?
मैं- हाँ।
निर्मल- किस लिए? क्यों? क्या है वह चीज़ जिसे लगातार टटोलते रहना होता है। कौन सा खिलौना है वह जिससे खेलते हुए हम थकते नहीं हैं... ऊबते नहीं?
मैं- मैं तो इसे खेल समझता था।
निर्मल- खेल अलग-अलग हैं पर खिलोना एक ही है।
मैं- “हाथ की आई शून्य...” यह वाक्य कई दिनों से चिपका हुआ है।
निर्मल- अच्छा है यह।
मैं- मुझे लगता है इस संवाद में एक पूरा नाटक छिपा है।
निर्मल- पर तुम्हें तो कहानिया लिखने में मज़ा आ रहा था?
मैं- मैं नाटकियता की बात कर रहा था।
निर्मल- शब्द कुछ ओर कहें! परिस्थितियाँ कुछ ओर हों।..... दॄश्य कुछ दिखाए! पर वाक्यों में पूरा खेल हो। संवाद यहाँ के हो! पर नाटक कहीं ओर हो।
मैं- बिलकुल ऎसा ही... यहीं नया प्रयोग होगा... यही मैं करना चाहता हूँ।
निर्मल- पर कैसे?
मैं- ओफ यह सवाल। होगा... जैसे आपने कहीं कहाँ था कि... “हमें उन चीज़ो के बारे में लिखने से अपने को रोकना चाहिए, जो हमें बहुत उद्वेलित करती हैं जैसे- बादलों में बहता हुआ चाँद, हवा की रात और हवा, अँधेरे में झूमते हुए पेड़, पहाड़ों पर चाँदनी का आलोक, स्वयं पहाड़ और उनकी निस्तब्धता..... “... इन सब के ’इम्प्रेशन’ हमारे भीतर होने चाहिए...एक तरह का ठोस आलोक-मंडल- जो चीज़ों की गहराई और पार्थिकता को बरकरार रखता है और उन्हें स्वतः शब्दों में बदल देता है।
निर्मल- तो?
मैं- तो मैं इस नए प्रयोग के ’इम्प्रेशन’ को अपने भीतर पाल रहा हूँ.. अब जो भी नाटक मैं लिखूगाँ... वह कुल मिलाकर ऎसी ही बात कहेगा...। सीधे प्रयोग ना लिखकर भी मैं प्रयोग ही कर रहा होऊगाँ।
निर्मल- क्या पढ़ रहे हो आजकल?
मैं- BILL BRYSON... और....TENNESSEE WILLIAMS.
निर्मल- non-fiction.
मैं- मैं धीरे-धीरे fiction से ऊबता जा रहा हूँ...। कहानियाँ मुझे बोर करती है। पुराने उपन्यास पढ़े नहीं जाते... कविताए काफ़ी झूठ कहती हैं। कम से कम non-fiction में कुछ पकड़ में तो आता है।
निर्मल- वैसे non-fiction और fiction… एक ही बात है... यह कहो कि तुम्हें non-fiction की कुछ अच्छी किताबें मिलि हैं। fiction में लेखक कहीं ज़्यादा इंमानदार होता है... non-fiction से।
मैं- हाँ.. यह सही बात है।
निर्मल- तो तुम पढ़ो अपनी किताबें... इसपर चर्चा करेगें।
मैं- जी... ।
निर्मल- मुझे रामकृष्ण परमहंस की बात याद हो आई-“नदियाँ बहती हैं, क्योंकि उनके जनक पहाड़ अटल रहते हैं।“ –मैं एक के साथ खड़ा हूँ, दूसरे के साथ बहता हूँ।................................... चलता हूँ।

Sunday, May 2, 2010

इति और उदय..


इति और उदय...

वह फिर वहीं बैठी थी... उसी पार्क की उसी बेंच पे। उसका हाथ उदय के हाथ में था। होंठ कभी तन जाते, तो कभी ढ़ीले पड़ जाते। आँखों के निचले हिस्से में पानी भर आया था। बाक़ी आँखें सूखी पड़ीं थीं। इस अजीब स्थिति के कारण उसका बार-बार पलक झपकने का मन करता... पर पानी छलकने के डर से वो उन्हें झपक नहीं पा रही थी। सो पलकों का सारा तनाव, उसके आँखों के नीचे पड़े गहरे, काले गढ्ढ़ों से सरकता हुआ होंठों तक आ गया था। सो होंठ कभी तन जाते कभी ढ़ीले पड़ जाते। चहरे के इतने तनाव में होने के बावजूद, कान असामान्य रुप से शांत थे, क्योंकि वो उदय की गोल-मोल बातों के आदी हो चुके थे। बाक़ी पूरा शरीर छूट के भाग जाने की ज़िद्द पर अड़ा था.. सो असामान्य रुप से ढ़ीला पड़ा हुआ था।
इति की निग़ाह अचानक उदय के हाथों पर पड़ी... इन सब में उदय की एक चीज़ जो इति को शुरु से अच्छी लगती है, वो हैं उदय के हाथ, जो आज भी वैसे-के-वैसे ही हैं, उसकी वो नर्म-गर्म लंबी उंगलियाँ, मखमली हथेली। इति के साथ इन सालों की यात्रा में उदय के हाथ वहीं के थे.... उन्हीं पुराने सालों के, जिन सालों में इति, इस संबंध को जीने के कारणों को बटोरा करती थी। कारण आज भी पूरे नहीं पड़ते...। ये संबंध पहले भी अमान्य था, आज भी अमान्य है। अब, इतने साल गुज़र जाने के बाद, इसमें संबंध जैसा भी कुछ नहीं रहा है। यह एक बीमारी हो गया है, जिसका इलाज इति, हर उदय की मुलाक़ात के बाद ढूँढ़ने में लग जाती है।
उदय के साथ सोये हुए भी इति को अब साल होने को आया है। ’यहाँ, उदय अब हम इसी पार्क में मिला करेंगें।’ इस बात की घोषणा इति ने ही की थी। इति को इस लंबी चली आ रही बीमारी में यह हल्की सी राहत देती थी।
’मैं लेखक हूँ।’ ये उदय शुरु से मानता रहा है। वो कभी भी अपना construction का काम छोड़कर सालों से अधूरा पड़ा उपन्यास लिखना शुरु कर देगा। इति ने तो अब उपन्यास का ज़िक्र करना भी बंद कर दिया है। पहले वह उदय को डरपोक, compromising वगैरह बोलती थी, पर अब वह बस उदय की तरफ एक बार देखती है और उदय बात पलट चुका होता है।
’मिली तुम्हारे बारे में पूछ रही थी? एक दिन घर मिलने आ जाओ...।’
अपनी बहुत सारी बातों के बीच में ही कहीं उदय ने अचानक अपनी बेटी का ज़िक्र छेड़ दिया।
’... और जिया..?’
इति ने सीधे उदय की आँखों में देखते हुए पूछा था। जिया, उदय की पत्नि है।
’उसे अपने टी.वी. सीरियल से फूर्सत ही कहाँ मिलती है।’
उदय ने ऎसे कहाँ, जैसे वो मौसम की बात कर रहा हो। इति को ये सब एकदम हास्यास्पद लगने लगा, वो सोचने लगी ’अब ये कैसे संवाद हैं, क्या है ये सब... इनसे कोई छुटकारा नहीं है।हर बार क्यों मुझे धूम फिर कर इन्हीं संवादों का सामना करना पड़ता है।“जिया कैसी है..?”,”मिली तुमसे मिलने की ज़िद कर रही थी”, यह क्या है, जिया उदय की पत्नि है और मैं उदय की कीप जैसी, नहीं... कीप जैसी क्यों, कीप कहने में मुझे अब क्या शर्म महसूस हो रही है। मैं कीप हूँ... रख़ैल।’
इति की निगाह उदय के चहरे पर गई... फिर होठों पे आकर ठहर गई... उदय के होठ किसी निरंतरता से बराबर हिल रहे थे, अपना कोई किस्सा सुनाने में व्यस्त। उसका एक हाथ, जो इति के हाथ में नहीं था, बीच में थोड़ा बहुत हिल जाता... शब्द कुछ अजीब फुसफुसाहट से मुहँ से निकल रहे थे।अगर यहीं इसी पार्क में इति, उदय के साथ दो दिन बैठी रहे, तो उदय दो दिन तक लगातार बोलने की क्षमता रखता है।पहले इति उदय की फुसफुसाती हुई बातों में पूरी तरह गुम हो जाती थी... ये बातें एक अजीब तरह का घेरा बनाती थी, जिसमें इति गोल-गोल धूमती रहती थी।अब उदय बोलता रहता है और इति, अपनी ही किसी गुफा में, उस इति को तलाश कर रही होती है जो बहुत पहले फिसल कर गुम गई थी।
’हम खर्च हो गये.. उदय।’-
पता नहीं इस बीच कब ये वाक्य इति के मूहँ से निकल गया।
’क्या...?’-
उदय अपनी बातों में शायद बहुत आगे जा चुका था.. कुछ देर बाद वापिस आकर उसने पूछा।
’तुमने कुछ कहाँ..?’
’नहीं..।’
इति ’नहीं’ भी नहीं कहना चाहती थी, वो सिर्फ सिर हिलाना चाहती थी, पर इस बार भी ये शब्द इति की इजाज़त लिए बगैर ही उसके मूहँ से निकल गया।
’इति, मैं तुम्हारे घर चलने की सोच रहा था, तुम्हारी माँ से मिले भी बहुत समय हो गया। वहाँ आराम से बैठके बात करते हैं।यहाँ पार्क में मुझे अजीब सा परायापन लगता है... मानों मैं तुम्हें जानता ही ना होऊं।’
ये उदय का पुराना गिड़्गिड़ाना है, जिसके तय स्वर हैं।घर में मिलो तो सेक्स के लिए, बाहर मिलों तो घर में मिलने के लिए, और अगर नहीं मिलो तो एक बार मिलने के लिए।इति भी पिछले एक साल से एक ही तय स्वर पर टिकी रहती थी-’ना कहना।’ उदय की लगभग हर गिड़गिड़ाहट पर वो यह ही सुर लगाती थी।
तभी बहुत धीमी गति से, डोलता हुआ एक सूखा पत्ता, पेड़ से नीचे गिर रहा था। इस पूरी स्थिरता इति उस पत्ते की आखिरी उड़ान देख रही थी... वह डोलता हुआ बहुत से पत्तों के बीच गिर गया। वह शायद गिरते ही उस पतझड़ में शामिल हो जाना चाहता था, जिसमें बाक़ी सारे पत्ते शामिल थे...। वह बाक़ी सारे पत्तों के बीच में था, लगभग उसी पतझड़ में था, फिर भी अलग था। उसे इति ने रोक रखा था.. इति की आँखों ने, जो उस पर आकर अटक गयी थी। वह कभी इस तरफ उड़ता कभी उस तरफ, पर इति की निग़ाह उसका पीछा नहीं छोड़ रही थी।
अचानक इति को लगने लगा कि, उदय वो पत्ता है... जिसे वो उसकी पतझड़ में शामिल होने से रोके हुए है...। इस तरह, कभी-कभार उनका मिलना, उदय को अटकाए हुए है।
’फिर मैं क्या हूँ...’ इति सोचने लगी ’शायद मेरी भी कहीं अपनी पतझड़ है, यह मेरी सारी छटपटाहट शायद उस पतझड़ में गुम हो जाने का डर है, इसी डर से मैं बार बार उदय की निग़ाह ढ़ूढ़ती हूँ, कि वह रोक ले मुझे, इन पतझड़ के पत्तों में पूरी तरह गुम हो जाने से..।’
इति ने धीरे से अपना हाथ उदय के हाथ से अलग कर दिया।उदय चुप था। यह शायद उसकी बात खत्म होने के बाद की चुप्पी थी या नई बात शुरु करने के पहले की। इति ने उदय के हाथ से अपना हाथ तब हटाया जब उदय शांत था, सो उदय एक प्रश्नवाचक दृष्टि से इति को देखने लगा। ’हाथ क्यों हटाया?’ इसका क्या जवाब इति देती..? इति उन सारी बातों से बहुत पहले ही थक गई थी, जिनके जवाब कभी किसी के पास नहीं होते थे। उसके बदले बहुत सारे बहाने होते थे... दोनों मिलकर ढेरों बहाने पहले इकट्टठा करते थे.. फिर उन सारे बहानों का एक काग़ज़ का हवाई जहाज़ बनाते थे..फिर उसे उड़ाने के खेल में दोनों मसरुफ़ हो जाते।
-’उदय भूख लगी है.. कुछ लाओगे खाने को..।’
-’चलो कहीं चलकर खाते हैं।’
उदय खड़ा हो गया था।
-’एक समोसा बस.. और हाँ पानी भी लाना प्लीज़।’
इति के आग्रह में आदेश जैसी कठोरता थी, सो उदय थोड़े संकोच के बाद ’ठीक है’ कहकर चला गया।
उसके जाते ही इति ने एक गहरी साँस ली। उदय का होना उसके लिए इतना भारी था कि उसके जाते ही उसे लगा जैसे वो पहाड़ चढ़ते-चढ़ते अचानक समतल मैदान में चलने लगी है।उसकी इच्छा हुई कि वो इसी बेंच पर थोड़ी देर लेट जाए... पर वो इस समतल मैदान में चलना चाहती थी..।
इति बेंच से दूर, पार्क के दूसरी तरफ चली गई। यहाँ वो पहले कभी नहीं आई थी। उसे बच्चों के झूले दिखे... ये झूले उसे बेंच से नहीं दिखते थे। उस बेंच और झूलों के बीच, वो घना पेड़ था, जिसके पत्ते पतझड़ में शामिल हो रहे थे।इति को एक बच्ची की हँसी सुनाई दी, जो झूला झूल रही थी। उसने देखा एक लड़का... जो शायद उसका भाई था, वो उसे झूला झुला रहा था। उसकी हँसी में डर का कंपन था, गिर जाने के डर का कंपन। वो लड़का, अपनी पूरी ताकत से झूले को धक्का दे रहा था। इति उस लड़के को रोकना चाहती थी।तभी उस लड़की की हँसी में से डर का कंपन गायब हो गया। हर झूले की उछाल पर, उस लड़की की हँसी और तेज़ होने लगी।उस लड़के ने अचानक झूला झुलाना बंद कर दिया। झूला धीमा पड़ने लगा... और धीमा होते-होते वो रुक गया। लड़का भागता हुआ,दूसरे झूले पर बैठ गया। लड़की उसे मनाने भागी, उसे झूला झूलने में मज़ा आने लगा था... शायद वो और झूलना चाहती थी।लड़के की दिलचस्पी उसे झूला झुलाने में तभी तक थी जब तक वो डर रही थी... पर लड़की उसकी मनऊवल में लगी हुई थी... चिड़ के, डाँटकर, रो कर। पर वो नहीं माना। वो लड़की धीमी चाल से चलती हुई वापिस उस झूले में आकर बैठ गई। वो कुछ देर चुपचाप बैठी रही।इति के होंठ फिर तनने लगे,आँखों में जलन सी शुरु हो गई।उसने तय किया कि वो उसे झूला झुलाएगी।वो आगे बढ़ी पर उसके पैर नहीं उठे... वो वहीं खड़ी रही।उसे ये किसी नाटक का बहुत धीमी गति से चलने वाला एक दृश्य लगा... जिसे वो सिर्फ दर्शक बनकर देख सकती है।वहाँ मंच पर जाकर जी नहीं सकती। तभी उस लड़की ने ज़मीन पर पैर मारना शुरु किया। धीरे-धीरे झूले की रफ़्तार तेज़ होने लगी। लड़की की हँसी इति के कानों में बजने लगी।इस बार भी उस लड़की की हँसी में डर था, पर वो डर, हँसी के घर में दरवाज़े जैसा था, जिसे उस लड़की ने खोल रखा था। झूला झूलते हुए, उस घर में हँसी एक हवा की तरह प्रवेश करती और डर का दरवाज़ा काँपने लगता।
वो लड़का भी, लड़की की हँसी की आवाज़ सुनकर, उसके झूले के पास आकर खड़ा हो गया था। पर उस लड़की को अब किसी की परवाह नहीं थी, हर बार ज़मीन पर पैर मारने से झूले की उछाल और बढ़ती जाती... वो झूले जा रही थी..तेज़.. और तेज़..और तेज़।
-’अरे, तुम यहाँ हो, मैं तुम्हें पूरे पार्क में ढूँढ़ रहा था।’
इति को लगा, जैसे वो झूला झूलते-झूलते गिर पड़ी।
-’तुम पानी लाए?’
उदय ने इति को पानी दिया और उसने लगभग एक बार में पूरी बोतल खाली कर दी।दोनों वापिस बेंच की तरफ चलने लगे।इति की साँस थोड़ी तेज़ चल रही थी मानो वो कहीं से भाग कर वापिस आई हो।
-’उदय तुम्हें याद है ना मुझे रोस्कोलनिकोव बहुत पसंद था।’(crime and punishment-Dostoevsky)
-’हाँ।’
उदय हाथ में समोसों की थैली लिए था।इति ने पानी की बाँटल कचरे के डिब्बे में फेंक दी, पर वो अभी भी झूले में ही बैठी थी।
-’कहाँ जा रही हो, बैठोगी नहीं?’
इति आगे निकल चुकी थी... वो वहाँ नहीं बैठना चाहती थी, जहाँ वो पहले बैठे थे।
-’वहाँ आगे वाली बेंच पर बैठते हैं।’
इति कुछ और चाहती थी। घटे हुए से अलग... कुछ दूसरा... जो उसके भीतर कहीं घट रहा था।
-’तुम्हें अचानक दोस्तोवस्की कैसे याद आ गया?’
उदय ने बैठते हुए पूछा। वो समोसा निकालकर इति को देने लगा, इति ने मना कर दिया।
-’एक हत्या के बाद, जिसे उस हत्या करने के पहले, बहुत से कारण देकर हम सही सिद्ध कर चुके होते हैं, उस हत्या के बाद, हम ना जाने और कितनी हत्याएँ ओर करते हैं।हे ना।’
ये इति उदय से कहना चाहते थी, पर उसने ’ऎसे ही..’ कहकर बात टाल दी।दोनों बेंच पर बैठ गए थे... यहाँ से इति को वो बच्चों के झूले साफ दिख रहे थे।पर वो लड़की वहाँ नहीं थी... बस खाली झूले लटके पड़े थे।
इति उदय से उस लड़की के बारे में पूछना चाहती थी... ’कहाँ चली गई वो?’, ’क्या वो वहाँ थी भी या मैं ही उसे देख रही थी?’। उसने उदय को देखा...उदय अपने किसी किस्से में, कहीं ओर ही जा चुका था... इति की निगाह फिर उसके होठों पर गई, वह अपनी निरंतरता से हिल रहे थे।
एक लम्बें समय तक साथ रहने के बाद... हमारे किसी भी संबंधो में शब्द खत्म हो जाते हैं... शब्द, संगीत हो जाते है। शब्दों का महत्व ख़त्म हो जाता है। शायद यह वह संगीत ही है जो इति को कहीं ओर ले जाता है...। अचानक इति को उस पत्ते की याद हो आई, जो पतझड़ में शामिल नहीं हो पा रहा था। वह उसे कहीं नहीं दिखा, वह शायद अपनी पतझड़ में शामिल हो चुका था।इति के चहरे पर हल्की सी मुस्कान आ गई,वह अभी भी उस रुके हुए झूले में बैठी थी, वो पूरे पार्क को देखने लगी... इस, चारों तरफ फैले कांक्रीट के जंगल में, एक हरा टापू...। उसने पहली बार कब इस पार्क को देखा था। उसे ठीक से याद नहीं... हाँ शायद उसकी नौकरी का पहला दिन... उस दिन उसने उदय के साथ, इसी पार्क के गेट के सामने चाय पी थी।तब तक इति और उदय महज़ अच्छे दोस्त थे... अच्छे दोस्त की सीमाओं को उन्होने, इति की पहली तनख्वाह मिलने के दिन ही लंगना शुरु किया था। उस दिन इति, उदय को dinner पर ले गई थी...786 नम्बर का एक सौ रुपये का नोट इति को,अपनी तनख्वाह के नोटों के बीच दिखा था।उदय ने वो नोट इति से लिया और उसे चूम लिया.. कहाँ ’ये एक नई शुरुआत की निशानी है, इसे संभालकर रखना।’आज भी इति के पर्स की चोर जेब में वो नोट उसने संभालकर रखा है।
इति ने अपना पर्स खोला और उस नोट को देखा... वो वहीं था... वैसा का वैसा...।
-’उदय, मैं तुम्हें dinner पे ले जाना चाहती हूँ... चलोगे?’
उदय को इति के इन छोटे-छोटे excitement’s की आदत थी.... उसने कभी इन उत्तेजनाओं के पीछे की कहानी नहीं जाननी चाही...। पर इस बात से वो खुश था।
-’ठीक है... पर मैं तुम्हें लेकर चलूगाँ...।’
-’नहीं... ये मेरी तरफ से है.. और हम उसी होटल में जाएगें जहाँ मैंने तुम्हें पहली बार डिनर कराया था... हम वहीं बैठेगें... उसी टेबिल पर, वो ही सब कुछ आडर करेगें... जो हमने उस दिन खाया था।... मैं वेटर को सौ रुपये टिप देना चाहती हूँ।’
-‘वेटर को सौ रुपये टिप?’
-’जब हमने पहली बार वहाँ डिनर किया था, तभी मुझे उसे सौ रुपये की टिप देनी चाहिए थी... नहीं दे पाई..। वह मैं उसे अब दे दूगीं।’
इति ने जब-जब इस 786 वाले नोट को याद किया है, उसे हमेशा ’हम खर्च हो गए’ वाली बात याद आई है।उदय शायद उस सौ रुपये को बहुत पहले ही भुला चुका होगा। उसने उस दिन की मोटी-मोटी बातें छेड़ दी जब वह दोनों पहली बार वहाँ dinner पर गए थे, बातों ही बातों में उदय तुरंत, दोनों के साथ सोने वाली बात पर पहुँच गया। इति के लिए उदय का संगीत फिर शुरु हो गया। अचानक इति को लगा कि...उसने ज़मीन पे एक पैर मारा है... उसका झूला... चीं... चूं... की आवाज़ करता हुआ हिलने लगा है।... उसे उदय का संगीत सुनते हुए लगा जैसे एक तेज़ हवा का झोका आया.. और उसने पूरे पत्तों को हवा में उड़ा दिया। यह सब इति के साथ पहली बार हो रहा था। फिर उसने देखा कि वो.. तेज़ भागती हुई कहीं से आई और उन उड़ते हुए पत्तों के बीच उसने नाचना शुरु कर दिया, धीमा... बहुत धीमी गति से चलने वाला कोई नाच, उसने नाचते-नाचते हँसना शुरु कर दिया। वो खुद को नाचते हुए देख रही थी, और झूले में तेज़... बहुत तेज़ झूलती हुई हँसे जा रही थी...।

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल