Wednesday, June 17, 2009

निर्मल वर्मा- बुखार


यूं तो मैं निर्मल वर्मा की हर रचना पर कुछ लिखना चाहता हूँ... पर अभी-अभी पढ़ी उनकी कहानी ’बुखार...’ पढ़ी, इच्छा हुई कि यूं ही कुछ इसके बारे में लिखू...।

 इतनी सरलता से यह कहानी खिसकते-खिसकते भीतर ऎसी जगह जाकर बैठ जाती है कि आपको लगता है कि आप कोई बहुत ही खूबसूरत सिनेमा देख रहे हैं जो आप ही की यादों को मिला जुलाकर बना है। बातों की इतनी छोटी-छोटी छवीयाँ बनती है कि वह मिलकर एक गाँव, एक शहर... हनुमान का मंदिर, रेल्वे स्टेशन... सब कुछ बना देती है। आप पेंट और शर्ट पहनकर धूमते हुए निर्मल जी को हर तरफ देख सकते हैं। पूरे चित्र में एक पीलापन दिखाई देता है... उदासी, थकान के परे.. कुछ आपके सपनों सा आलोक लिए। कहानी कुछ ऎसा सपना सा जान पड़ती है जिसे आप खत्म होते नहीं देखना चाहते हो। कहानी का एक हिस्सा पढ़ती ही उसे फिर से पढ़ने की इच्छा भीतर जागती है...। कहानी खत्म होते ही... हाथ खाली दिखते है। क्या था यह??? लगता है कि मेरा ही जिया हुआ कुछ है... बहुत पास का रहस्य। जिसे मैंने अभी-अभी पढ़ा और जिसे किसी को भी बताना बेईमानी होगा।

Tuesday, June 16, 2009

इंसान जैसा... इंसान...


ठीक इसी वक़्त क्या हो रहा है भीतर... सारी व्यवस्था में अपने होने की त्रासदी नज़र आ रही है। आस-पास घट रहे बहुत सारे में, कुछ है जो घर कर रहा है। यह सब एक चित्र सा है... सामने बैठा एक आदमी पढ़ रहा है, पर ध्यान कहीं ओर है। एक लड़की कॉफी पी रही है, लड़का पैसे देने कॉऊटर पर गया है.. ठीक इसी वक़्त एक वड़ा लेकर लड़की की तरफ बढ़ रहा है। मेरी निग़ाह उससे मिली... वह मुझे ही देख रहा था...उसके देखने में घूरने सा भाव थोड़ी मात्रा में था। मैंने निग़ाह हटा ली... कुछ देर बाद वापिस उसकी तरफ देखा तो वह मुझे ही देख रहा था। अभी उसके देखने में घूरने का भाव ज़्यादा बढ़ गया था। ’मैं उसे लिख रहा हूँ...’ यह शायद वह भांप गया था। मेरे ठीक पीछे एक लड़का बहुत धीमी आवाज़ में लड़की से बात कर रहा था.... उसके सुर में सफाई देने का भाव ज़्यादा था, लड़की शांत थी।

      मैं उठा और मैंने एक कॉफी ऑडर की... जो रंग शंकरा (बैंग्लोर का थियेटर...) कैफे का मालिक है मैं उसे पसंद करने लगा हूँ, उसका अभिवादन मुझे बहुत पसंद है, अभिवादन के साथ उसके चहरे की सहज मुस्कान के तो क्या कहने। कॉफी देते हुए उसने, इतने दिनों में पहली बार मुझसे पूछा कि आप कौन सा नाटक कर रहे है... मैंने नाटक के बारे में जानकारी दी...। मैं जब अपनी टेबल पर वापिस आया तो मुझे लगा कि... मैं तो अभी तक उसका नाम भी नहीं जानता हूँ। मैं भागकर कॉऊटर पर गया उसका नाम पूछा... उसने वही अपनी सहज मुस्कान ओड़े हुए कहाँ...”ऎलन...”, मैंने नाम की तारीफ की और वापिस अपनी जगह आकर बैठ गया।

      शाम के साड़े पाँच बज रहे हैं.... सूरज मेरे पीछे है...। कैफे में, किसी के भी प्रवेश करने के पहले उसकी परछाई रेंगते हुए मेरे बगल से निकलती है..., फिर वह आदमी प्रगट होता है.... महज़ परछाई को देखने से लगता है कि कोई विशाल आदमी प्रवेश करने वाला है...  पर प्रगट होते ही वह हमेशा इंसानों जैसा ही एक साधारण इंसान निकलता है... जिसकी तसल्ली है।

      मेरे सामने बैठे ’जय’ ने, घड़ी की तरफ इशारा करके कहाँ कि... रिहर्सल का टाईम हो रहा है.... और मेरी निद्रा टूट गई...। हाँ, फिर रिहर्सल.... एक और नाटक और उसकी एक और रिहर्सल... नहीं यह थकान नहीं है... यह जीवन है... जैसे.. फिर एक और सुबह और फिर एक और पूरा का पूरा दिन सामने... जैसे कोई बात...। मैं उस चित्र के बाहर निकला... फिर कैफे के... फिर रंग शंकरा के... और फिर... खद के...। 

Saturday, June 13, 2009

ख़ाना और गाना...


“बेंग्लौर में एक महीने रहने के बाद यात्रा पहाड़ों की ओर बन चुकी है। जुलाई अंत और आधा अगस्त पहाड़ों में ही बीतेगा...” यह सोचते हुए मैं भीतर खुश हो रहा था...। भीतर खुशी के साथ-साथ भूख की भी एक हूक़ उठी... मेरी आँखें खुद-ब-खुद खाने की जगह टटोलने लगी। सोचा आगे दो महीने का इतना अच्छा प्लान आज ही बना है तो मुझे खुद को treat देना चाहिए। सो एक छोटे से ढ़ाबे में मैंने मछली चावल ऑडर किया... मेंग्लौरेयन होटल था... केले के पत्ते में उन्होंने खाना परोसा.... वाह!

       मैं हमेशा इन छोटे ढ़ाबों में.. छोटी जगह ही खाना पसंद करता... इसकी मुख्य वजह है उन लोगों का कम formal होना...। वह बिंदास आपको खाना देते है... उनका आपको देखकर मुस्कुराना हमेशा आपको व्यक्तिगत रुप से मुस्कुराना लगता है। वह किसी होटल मेनेजमेंट की मर्यादा के तहत आपकी आव भगत नहीं कर रहे होते हैं। खाना देने के बाद वह आपके ऊपर से ध्यान भी हटा लेते है... मेरे जैसे आदमी के लिए यह गुण बहुत बड़ा है.. क्योंकि मैं बहुत ही सभ्य तरीक़े से खाना नहीं खा पाता हूँ। आपके हाथ से यदि पानी, खान, चम्मच कुछ भी गिर जाए तो यह वहाँ सामान्य सी बात की तरह टाल दी जाती है...।

इस मेंग्लोरियम होटल का मालिक मुझे दो दिन से आता हुआ देख रहा था... आज उसने मेरे आते ही रेडियों पर कन्नड़ की बजाए एक हिन्दी चैनल लगा दिया... उसे काफी देर लगी वह चैनल ढ़ूढ़ने में... किसी पुरानी फिल्म का गाना था... और कुछ इस तरह बज रहा था कि बजना ना चाहता हो...। अगल बगल बहुत से लोग अपने खाने में व्यस्त थे... पर हिन्दी गाने के साथ ही कुछ लोगों के खाने का तारतम्य थोड़ा टूटा...चैनल  के बदलाव पर मैं भी कुछ आश्चर्य में था... मेरी निगाह मालिक पर पड़ी... वह मुझे देखकर मुस्कुरा दिया... मैं भी मुस्कुरा दिया, अगल-बगल देखा....अचानक कुछ लोग मेरी तरफ देखने लगे थे... मैं थोड़ा सहम गया, मैं जानता था इस बदलाव का मुख्य कारण मैं ही हूँ, और मालिक के साथ मुस्कुराहट की अदला-बदली इस बात की पूरी तरह पुष्टी भी कर चुकी थी। मेरी इच्छा हुई कि मैं मालिक के पास जाकर कहूँ कि भाई आप वापिस कन्नड़ चैनल लगा दीजिए... मुझे यहा एक महीना और रहना है.... मतलब बेवजह लोग मुझे धूरे, मुझे यह बहुत पसंद नहीं है... पर यह करना शायद उसके आतिथ्य का अपमान करना होगा... सो मैंने मछली के कांटो की परवाह किये बगैर उन्हें निगलना चालू किया... खाना खाने की रफ्तार लगभग दोगुनी कर दी। बीच ही में बिल लाने के लिए भी इशारा कर दिया....। एक वेटर मेरे पास मुस्कुराते हुए बढ़ा... मैं उसकी मुस्कुराहट में ही उसका सवाल देख सकता था.... ’आराम से भाई... कोई आपसे खान छीन नहीं रहा है।’ मैंने उसे जल्दी जाना है... ज़रुरी काम है का इशारा कर के.. बात टाल दी। खाना आधा छोड़कर... जल्दी-जल्दी बिल देकर मैं फौरन वहाँ से बाहर निकल गया..... मेरे बाहर निकलते ही... कन्नड़ गाना वापिस पूरे होटल में गूंजने लगा...।

       मैंने तय किया कि अगले दिन कन्नड़ गाने की धुन गुनगुनाते हुए ही होटल मे प्रवेश करुगाँ... और मालिक से सबसे पहले, चल रहे कन्नड़ गाने की तारीफ करुगाँ.... पूरे समय खाना खाते हुए मैं कन्नड़ गाने पर झूमता रहूगाँ... मानों मुझे खाने से ज़्यादा गाना पसंद आ रहा हो। यह और ऎसी बहुत सारी कसम खाते हुए मैं वहाँ से रवाना हुआ।

Friday, June 12, 2009

उदासी....

       
वह कहानी पढ़ते-पढ़ते रुक गया... बाहर बहुत बारिश हो रही थी। उसने किताब टेबल पर रखी और कमरे में टहलने लगा। अंधेरे में, जब बारिश हो रही हो तो कोई भी शहर कितना अजीब लगता है... वह सोचने लगा। पेड़ों के झुंड़ के बीच से, स्ट्रीट लेंप का पीलापन झांक रहा था.. मानों किसी पेंटर ने काले रंग के ऊपर बहुत सा उदास पीला सा रंग फेंक दिया हो। उसे पता ही नहीं चला कि कब उसने टहलना बंद कर दिया और कब वह खिड़की के पास आकर खड़ा हो गया। कुछ ही देर में उसने बारिश को, अंधेरे को देखना भी छोड़ दिया और वह उस कहानी के बारे में सोचने लगा जो वह अभी-अभी पढ़ रहा था। देर रात तक लड़का और लड़की धूमते रहते है... लड़की होस्टल में रहती है... अकेले मिलने की कोई जगह नहीं... सड़को की ख़ाक छानने के अलावा कोई चारा नहीं, इस बीच लड़का कई बार लड़की का हाथ पकड़ता है... लड़की उसे हाथ पड़ने देती है और बीच-बीच में उसे ज़्यादा करीब भी आने देती है...पर चूमने नहीं देती।

कहानी का एक अजीब सा असर... उसपर हुआ था... नहीं उसे कोई लड़की की याद नहीं आई। वह एक किस्म की उदासी से भर गया था। यह उस कहानी की दी हुई उदासी ही थी जो एक अच्छा लेखक आपके ऊपर छोड़ सकता है। उस कहानी में बारिश नहीं थी... पर यहाँ बाहर हो रही बारिश उसे उसी कहानी का हिस्सा लगी। उसे लगा कि अगर वह थोड़ी देर तक खड़ा रहा तो वह कहानी के दोनों पात्र उसे लेंप-पोस्ट के नीचे खड़े दिखेगें...। उसकी खिड़की से दो लेंप-पोस्ट उसे दिख रहे थे...। उसने अपने कमरे की लाईट बंद कर दी... यह सोचकर कि कहीं वह पात्र अगर सही में वहाँ आए तो ’कोई उन्हें देख रहा है’ का उन्हें कोई डर ना हो। खिड़की पर खड़े होते ही उसे हँसी आने लगी... “वह कहानी को ज़्यादा गंभीरता से ले रहा है“ वह सोचने लगा। थोड़ी देर वह वहीं खड़ा रहा... कोई आहट नहीं हुई, बस बारिश अपनी पूरी रफ्तार से गिर रही थी। यह अजीब ही था... कहानी उसके जीवन से किसी भी तरह जुड़ी हुई नहीं थी... ऎसा कुछ भी उसके जीवन में नहीं हुआ था, फिर भी कहानी किस हद्द तक उसके भीतर थी, उसे लग रहा था कि अगर उसने अभी इस कहानी को नहीं पढ़ा होता तो शायद कल इसे वह लिख चुका होता। “क्या वह उस लड़की को जानता है??? या उस जैसी किसी लड़की को???” बहुत देर तक सोचते रहने के बाद भी वह चुप ही रहा। हाँ वह ऎसी किसी लड़की को जानना चाहता है... यह वह अपने भीतर पूरी इंमानदारी से महसूस कर रहा था। उसे इस कहानी से उपजी उदासी की थोड़ी वजह भी समझ में आई.... यह शायद उसके पिछले कुछ खराब संबंधों का ही नतीजा है शायद... पर वह पूरे विश्वास के साथ कुछ भी नहीं कह सकता था। फिर भीतर एक अजीब सी इच्छा कुलबुलाने लगी कि “शायद वह अकेली आए... वह शायद आज रात अकेली धूम रही हो...और वह लड़का कोई और नहीं मैं ही हूँ। जो अपने कमरे से निकलकर उसके साथ पूरी शहर की ख़ाक छाने।“ उसे अच्छा लगा कि उसने वह कहानी पूरी नहीं पढ़ी थी.. अंत अभी बाक़ी था। वह कहानी के आखीर में कहीं था।

अचानक बिजली कड़कने लगी... वह डर गया। बचपन में उसकी माँ से एक ज्योतिष ने कहा था कि “इसकी मौत बिजली के गिरने से होगी।“ बचपन में सुनी हुई बातें हमें अंत तक याद रहती है। उसे मौत का उतना भय नहीं था... पर बचपन में बिजली कड़ते ही उसकी माँ के भागकर आने और उसे अपने पल्लु में छुपा लेने की उसे आदत पड़ी हुई थी। वह बिजली के कड़कने से कभी उस तरह डरा नहीं पर पल्लु में छुप जाने की उसे आदत लगी हुई थी। वह उस कमरे में छुप जाना चाहता था... पर वह नहीं छुपा। उसने सोचा कि वह लाईट चालू कर दे... पर ’कोई उन्हें देख रहा है का भय’ वह उस लड़की को नहीं देना चाहता था। वह पहली बार बिजली के कड़कने के सामने खड़ा था।

तभी एक हलचल हुई... एक आहट सी, बारिश के उस शोर में भी उसने उस आहट को सुन लिया। दो लोग बहुत धीमे कदमों से चलते हुए... लेप-पोस्ट के नीचे से गुज़र रहे थे। उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा... यह वही थे... वही दोनों। वह एक लेंप-पोस्ट के नीचे से गुज़रे...कुछ देर के लिए अधेंरे में कहीं ओझल हुए और फिर अचान दूसरे लेंप-पोस्ट के पास प्रगट हुए और वहीं आकर रुक गए। वह लड़की अकेली नहीं थी- का भी उसे कोई दुख नहीं था... वह उन दोनों को देखकर प्रसन्न हो चुका था। वह दोनों लेंप-पोस्ट के नीचे पानी में भीगते हुए खड़े थे। तभी उस लड़के ने, उस लड़की का हाथ पकड़ा... और उसे अपने पास खींच लिया...लड़की ने कुछ भी नहीं कहाँ... वह शायद हल्की सी शरमाई, पर उसे सब कुछ साफ-साफ नहीं दिख रहा था... इसलिए वह कुछ भी ठीक से नहीं कह सकता था। कुछ ही देर में दोनों एक दूसरे को चूम रहे थे। वह हक्का-बक्का रह गया... कहानी में दोनों ने बस एक दूसरे को छुआ था चूमा नहीं था। वह थोड़ी देर तक दोनों को देखता रहा...दोनों एक दूसरे को लगातार चूमे जा रहे थे। उसने खिड़की का पर्दा लगा दिया... भागकर लाईट चालू की.. और कहानी का अंत पढ़ने लगा........।

Thursday, June 11, 2009

भय...


       धीरे-धीरे सरकते हुए हम यहाँ पहुँच गए है। कई किस्म के Permutation combinations के बाद हम कुछ इस तरीके के बन गए हैं। आपस में एक किस्म की सतर्कता है, फिर सतर्कता का अपना एक भय है.... भय के आते ही उसके बहुत से नियम आ जाते हैं। उन नियमों को टटोलते-टटोलते... हमसे आकर कुछ नियम चिपक जाते हैं... बाद में हम इन्हें, हमारे जीने के नियम कहना शुरु कर देते हैं। हम हमारे भय को पता करने के पहले ही, कहीं और से उपजे भय के नियमों में से अपने नियम बटोर लेते है। त्रासदी वहाँ से शुरु होती है जब हम उन नियमों के लिए लड़ना शुरु कर देते हैं। लड़ने का कोई संस्कार नहीं होता है।

       कुछ समय बाद, किसी एक एकांत में, हम बैठे-बैठे सोचते हैं कि इस धीरे-धीरे सरक कर यहाँ तक पहुँचने में हमने कितना कुछ खो दिया है? तभी नींद आँखों में तैरने लगती है और हम उस आदमी को शत्‍ शत्‍ धन्यवाद देना चाहते हैं जिसने नींद का आविष्कार किया था। इस नींद से निकलने वाले सपनों की कतारों के बारे में सोचते-सोचते हम कल्पना जैसे दुनियाँ... को खोज लेते है, जो कि हमारे ठीक अगल बगल बहने लगती है... हम जब चाहते है उसका हिस्सा हो लेते हैं... भीड़ में, बात करते हुए.. चलते-चलते.. हँसते-खेलते...। यह imagine करने की क्षमता ही शायद हमारा जीते रहना संभव बनाती हैं। 

Wednesday, June 10, 2009

घर-घर


बचपन में मैं कुछ तकियों और चादरों का मिला कर घर बना लिया करता था... उसमें थोड़ा पानी और खाना आने की एक जगह छोड़ दिया करता था। बहुत समय तक मुझे यह लगता था कि....मैं पूरी ज़िदगी ऎसे ही रह सकता हूँ....माँ चिल्ला-चिल्ला कर कहती कि-’बस बहुत हो गया अब निकल आओ बाहर।’ मैं कहता कि मुझे एक सांकल या घंटी चाहिए अपने घर के लिए। घर छूटे ज़माना हो गया....सांकल की तलाश में एक दिन सांकल मिल गई.... पर तब तक तकियों और चादरों का घर खत्म हो चुका था... सांकल साथ रहती थी जो हमेशा चलते हुए बजने लगती थी। हर खड़-खड़ पर लगता, कि कोई घर में आना चाहता है। जब घर में बहुत समय तक कोई नहीं आया.. तब कोई आया है कि कल्पना शुरु कर दी....। आया, बैठा, खाया-पीया... और चला गया तक की कहानी रच दी.... यहीं, उस सांकल और उस तकियों और चादरों के घर ने ही लिखना शुरु करवाया।

रोज़ मर्रा सा कुछ....


खुला हुआ कुछ नहीं है सामने, एक बंधे हुए से कमरे में बैठा हूँ... बाहर धूमकर आता हूँ... फिर बैठा रहता हूँ... शहर एक अजनबीपन की चादर ओढ़े रहता है... बाहर जाते ही पर्यटक सा महसूस करता हूँ सो भागकर वापिस अपने दड़बे में धुस आता हूँ...बिखरा हुआ सा जीवन सामने पड़ा दिखता है.. इसमें तरतीब या व्यवस्था ढूढ़ना भी धोखा देना सा लगता है...धोखा मैं किसको दे रहा हूँ... पता नहीं...। जो सोचता हूँ उसे लिखने से डर लगता है... जो लिखता हूँ वह दूसरो की कही हुई बातें सी सुनाई देती है।आज बहुत ठंड़ हैजैसी छोटी बातों से अपनी बात कहना चाहता हूँ... और उसी पर रहना चाहता हूँ... बस, बाक़ी सारा बेईमानी सा लगता है... जो महसूस कर रहा हूँ भीतर वह है ठंड़ बस ना उससे ज़्यादा कुछ और ना ही कम... जो महसूस कर रहा हूँ बस उसी पर रहना चाहता हूँ। ठंड़ की कोई कहानी नहीं बनाना चाहता...। जो भी किताबें इस वक़्त पढ़ रहा हूँ उनमें भी यही ढ़ूढ रहा हूँ... ठंड़। ठंड़ महसूस करता हूँ... एक शब्द ठंड़ लिखता हूँ और बाहर निकल जाता हूँ।

दूर एक आदमी चिल्लाता हुआ जाता है... मैं उसे देखकर चुप हो जाता हूँ... भीतर मैं भी चिल्लाना चाहता हूँ...। उसपर लोग हँस रहे है.. सो मैं अपना चिल्लाना स्थगित करता हूँ। एक अंजान लड़की रिक्शे में गुज़र रही होती है... उसे चूम लेने की इच्छा होती है...। बगल में एक चर्च दिखता है वहाँ चला जाता हूँ... प्रेयर हो रही है... यीशू की तक़लीफ और पाप ना करने की कसमों के बीच हँसी आती है... हँसी सुनकर एक बच्चा पास में आता है, मैं che की टीशर्ट पहना हूँ, वह पूछता है यह कौन है...? मैं कहता हूँ... बाप... पापा... यीशू का बाप...। बच्चा चर्च में चिल्लाने लगता है यीशू का बाप..” सभी उसे धूमकर देखते है... उसका बाप आकर बच्चे को मेरे बगल से उठाकर ले जाता है ... कुछ देर बाद में वापिस अपने दड़बे में आकर बैठ जाता हूँ।

Tuesday, June 9, 2009

बेंग्लौर....


 

देर तक रुम में रहा... दिन में लंच करने चला गया। वँहा menu में rabbit लिखा हुआ था... मैंने खरगोश कभी भी किसी menu में नहीं देखा था मैं चौंक गया। मैंने पूछा तो पता लगा कि खरगोश नहीं है...। खाना ठीक था... तभी एक सज्जन मेरे सामने आकर बैठ गए। कन्नड़ थे... मैं मुस्कुरा दिया.. यूं इस तरह किसी अजनबी के साथ खाना खाने की आदत नहीं रही, पर उन्होने मेरी मुस्कुराहट को नज़रअंदाज़ कर दिया। खाना खाते हुए थोड़ी ही देर में, उन सज्जन की उपस्थिति के बावजूद मैं अकेला हो गया, अपने लिखने की प्रक्रिया के बारे में सोचने लगा। मैं कहीं किसी एक जगह पर जाकर क्यों बार बार रुक जाता हूँ। सोचता हूँ orhan pamuk की तरह कहानी को पहले हिस्सों में बांटू, फिर उसे सिलसिलेबार लिखना चालू करुँ। जिससे शायद यह पता हो कि कहाँ शुरुआत है और कहाँ जाना है। इसी तरीक़े की लेखनी मुझे पसंद नहीं आई है कभी... मैं शायद यह कभी भी नहीं कर सकता हूँ। मुझॆ लेखन इसलिए अच्छा लगता है कि वह जीवन के बहुत करीब है, आगे क्या होगा कुछ भी पता नहीं है, नाटक भी इसीलिए अच्छे लगते है, वह भी बिल्कुल जीवन के क़रीब हैं, उन्हें रोज़ जीना पड़ता है... जैसे जीवन चाहे जैसा भी हो आपको रोज़ जीना पड़ता है, ठीक वैसे ही नाटक चाहे आपने कितना भी अच्छा क्यों ना कर लिया हो... आपको उसे हर नए दिन में फिर से करना पड़ता है।

खाना खने के बाद मैं अपने कमरे में आया... कुछ देर llosa पढ़ता रहा... फिर लगा कि नाटक पर थोड़ा काम कर लेना चाहिए...। तेंदुलकर की स्क्रिप्ट (पंछी ऎसे आते हैं...) उठाकर रंग शंकरा थियेटर चल दिया। मेरे होटल के बाहर ही पार्क़ है, दोपहर में जवान जोड़े अलग-अलग बिख़रे हुए... अपने कोनों में दुबके नज़र आते है...। लगभग हर जोड़े में लड़की लड़के की तरफ देख रही होती है और लड़का उसकी आँखों को बचाते हुए... उसके जवाब ढूढ़ रहा होता है। मैं अपनी ग़ली के बाहर निकला... पैदल करीब बीस मिनिट का रास्ता है रंग-शंकरा तक। रास्ते में कुछ कन्नड़ फिल्म के पोस्टर्स दीवारों पर देखने की मेरी आदत पड़ी हुई है... आज एक नई फिल्म का पोस्टर था... पर कह वही बात रहा था... नायक खून में लथपथ.... नाईका चुलबुली सी, जीवन की सारी सुख-सुविधाओं से खुश...। मैं हर बार इन पोस्टर्स को देखकर हँसने लगता हूँ... कि फिर एक अजीब सी पीड़ा भी महसूस करता हूँ... कितना खूबसूरत आर्ट है फिल्म बनाने का... और हम कैसे बच्चों जैसी फिल्में बनाते हैं। आगे कुछ झुग्गीं पड़ती हैं मैंने हमेशा इसमें लोगों को या तो खाना बनाते हुए देखा है या पानी की एक लंबी लाईन में खड़े होते। आगे ही एक मंदिर आता है जो काफी बड़ा है... चौड़ाई में...। उसमें लगातार कुछ ना कुछ काम चलता रहता है...उसे और बड़ा और विशाल बनाने का। मैं हमेशा आश्चर्य करता हूँ... हमारे unknown की तलाश हमें कभी-कभी कितना अंधा बना देती है कि ... हम जीवित लोगों के बारे में कभी कुछ सोचते ही नहीं है... हम निर्जीव में अपना पूरा ध्यान लगाए रहते है... यह स्वर्ग के लिए प्वाईंट्स बटोने की कला मुझे बहुत ही हास्यास्पद लगती है... फिल्मों के पोस्टर सी।

रंग शंकरा पहुँचा... कन्नड़ में तेंदुलकर कर रहा हूँ... लगभग 70% प्ले काट चुका हूँ... कुछ दस-बारह सीन नए लिखे हैं... जय थियेटर का अच्छा लड़का है वह मेरे हिन्दी में लिखे दृश्यों को कन्नड़ में ट्रांस लेट कर रहा है।

      बहुत दिनों से कुछ लिखा नहीं का दुख मेरे पूरे शरीर से छलक रहा है। मैं खुद भी इंतज़ार कर रहा हूँ... किसी का... किसका? यह मेरी समझ के बाहर है। कुछ ही देर में रुम अभिनेताओं से भर गया... सभी लगभग कन्नड़ में बात कर रहे थे। मैं इन कबूतरों में कौवे सा अपनी जगह ढूढं रहा हूँ।

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मानव

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परिचय

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल