Wednesday, September 24, 2014

’पीले स्कूटर वाला आदमी’

मैंने कहीं पढ़ा था- ’वेस्ट में अकेलापन एक स्थिति है, पर हमारे देश में, हम लोगों को हमारा अकेलापन चुनना पड़ता है, और इस बात के लिए हमें कोई माफ नहीं करता है... ख़ासकर आपके अपने..।’ इस देश में लेखक होने के बहुत कम मुआवज़े मिलते हैं उनमें से एक है कि हम अपने भीतर पड़ी हुई गठानों को अपने हर नए लिखे से खोलते चलते हैं। जैसे बड़े से ब्लैकबोर्ड पर गणित का एक इक्वेशन लिखा हुआ है और हम नीचे उसे चॉक से हल कर रहे होते हैं... डस्टर हमारी बीति हुई ज़िदग़ी को लगातार मिटा रहा होता है.. पर कुछ शब्द, कुछ अधूरे वाक़्य जिसे डस्टर ठीक से मिटा नहीं पाता, हम उन टूटी-फूटी बातों का रिफ्रेंस ले लेकर अपने जीवन की इक्वेशन को हल कर रहे होते हैं लगातार। ’पीले स्कूटर वाला आदमी’ इसी कड़ी का एक प्रयास था। ’शक्कर के पाँच दाने’ के बाद यह मेरा दूसरा नाटक था। उस वक़्त बतौर लेखक कुछ भीतर फूट पड़ा था, इतना सारा कहने को था कि मैं लगातार लिखता ही रहता था... इस बीच मैंने कई कविताएं लिखी... कई कहानियां... और मेरा दूसरा नाटक..। कविताएं मुझे बोर करने लगी थीं... मेरी बात कविता की सघनता में अपने मायने खो देती थी... सो मैंने कविताएं लिखनी बंद कर दी... मुझे नाटकों और कहानियों में अपनी बात कहने में मज़ा आने लगा था। असल में मज़ा सही शब्द नहीं है... सही शब्द है ईमानदारी... मैं कविताओं में खुद को बेईमानी करते पकड़ लेता था... मरी क़लम वहीं रुक जाती थी। ईमानदारी से मेरा कतई मतलब नहीं है कि मैं अपनी निजी बातों को नाटकों में लिखना पसंद करता था... ईमानदारी का यहां अर्थ कुछ भिन्न है.... एक लेखक के सोचने, जीने, महसूस करने और लिखने के बीच कम से कम ख़ाई होनी चाहिए.... हर लेखक (ख़ासकर जिनका लेख़न मुझे बहुत पसंद है) अपने नए लिखे से उस ख़ाई को कुछ ओर कम करने का प्रयास करता है। पीले स्कूटर वाला आदमी एक लेखक की इसी जद्दोजहद की कहानी है... वह कितना ईमानदार है? वह जो लिखना चाहता है और असल में उसे इस वक़्त जो लिखना चाहिए के बीच का तनाव है। मैं उन दिनों काफ़्का और वेनग़ाग के लिखे पत्रों को पढ़ रहा था.. वेनग़ाग की पेंटिग़ Room at Arles ने मुझे बहुत प्रभावित किया था.. पीले स्कूटर वाले आदमी का कमरा भी मैं कुछ इसी तरह देखता था। मेरे लिए वेनग़ाग के स्ट्रोक्स उस कमरे में कहे गए शब्द हैं, पात्र हैं और संगीत है...। अपने लेखन के समय के रतजगों में मैंने हमेशा खुद को संवाद करते हुए सुना है... आप इसे पागलपन भी कह सकते हैं.. पर मेरे लिए यह अकेलेपन के साथी हैं। मेरे अधिक्तर संवाद किसी न किसी लेखक से या किसी कहानी/उपन्यास के पात्रों से होते रहे हैं... मुझे लगता है कि मेरे पढ़े जाने के बाद कुछ लेखक, कुछ पात्र मेरे कमरे में छूट गए हैं। देर रात चाय पीने की आदत में मैं हमेशा दो कप चाय बनाता हूँ.. एक प्याला चाय मुझे जिस तरह का अकेलापन देता है उसे मैं पसंद नहीं करता... दो प्याला चाय का अकेलापन असल में अकेलेपन का महोत्सव मनाने जैसे है...। दूसरे प्याले का पात्र अपनी मौजूदग़ी खुद तय करता है... आप किसी का चयन नहीं करते.. आप बहते है उनके साथ जो आपके साथ हम-प्याला होने आए हैं। यही पीले स्कूटरवाले आदमी का सुर है. और दो चाय के प्यालों के संवाद है।

LinkWithin

Related Posts with Thumbnails

मानव

मानव

परिचय

My photo
मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल