Sunday, March 16, 2008

अपने से...


हमें हमेशा कहानी का अंत चाहिए, हम आधे वाक्यों... आधी बातों.. अधूरे संकेतों को कभी पचा नहीं पाते हमें चीज़ पूरी चाहीए। खत्म हुई बात का सुख लेकर हम निजाद पा लेते हैं। हम आराम से सो सकते है.. दिनों दिन, सालों साल।ये एक तरह का पर्दा है जिसे हम मूल समस्या पर औढ़कर सो जाते हैं।
हमें, बहुत सी एसी बातें हैं, जिसका अंत कभी भी नहीं मिलता है।
जैसे ये देश असल में किसका है?
हम, वो कौन सी एसी चीज़े हैं जिन्हें नहीं करके पूरी जिन्दगी सुरक्षित रह सकते हैं?
हर बड़ी या छोटी घटनाओं में असल में गलती किसकी थी?
कई साल पुरानी घटी घटनाओं पे हम अभी भी क्यों लड़ रहे होते हैं?
हमारी तीसरी दुनियाँ के सवालों के जवाबों की अपेक्षा, हम हमेशा पहली दुनियाँ के देशों से क्यों कर रहे होते हैं?
वो कौन सा इतिहास है जिसकी वजह से हम, आज हम हैं?
हम क्या दूसरे इन्सांन का खून करके बचे रह सकते हैं(या कुछ ज़्यादा पा सकते हैं)?
हमारा असल में दुश्मन कौन है?
जानवरों के (से) डर में और इन्सांनो के(से) डर में क्या अंतर है?
अंत में दोषी कौन है?
वगैराह.. वगैराह....
क्या हम दूसरों को मार कर बचे रह सकते हैं, इतिहास बताता है कि हमने हर बार दूसरी जाती को इसलिए मारा, खतम करना चाहा, क्योंकि हम बचे रह सकें (या ज़्यादा अच्छे से जी सकें), तो क्या हम बचे रहे उनके बिना ( ज़्यादा फाय़दे के साथ)? या दूसरी जाती का डर बहुत ही जल्द, दूसरे देश का डर बना और हमने उन्हें भी खत्म करना तय किया?क्या हम इस पूरी दूनियाँ में अकेले रहना चाहते हैं?
किसी विचारक ने कहा है कि 'ये दुनियाँ... एक दूसरे से डर की वजह से बची हुई है.. न कि शांति की वजह से।'
और हम हमारे अगल बगल घट रही घटनाओं में कितनी जल्दी अंत ढूंढ लेते है। ये इसलिए हुआ क्योंकि बला.. बला.. बला...।ये इन लोगों की वजह से हुआ बला.. बला... बला।
हम दूसरों पे इलज़ाम लगाकर अपना पलडा नहीं झाड़ सकते। कभी नहीं।अंत मिलने का सुख जैसे हमारी कहानीयों को बोरियत से भर रहा है, वैसे ही ये हमारे जीवन पर भी झूठे जवाबों का पर्दा डाले रखता हैं। उस पर्दे के पीछे असल में कौन है?, हम पूरी ज़िन्दगी इस बात की अट्कले लगाने में ही बिता देंगे।जबकी हर पर्दे के पीछे हमारा ही चहरा छिपा बैठा है।हर घटना के ज़िम्मेदार हम खुद है। ये हमारी कहानी है, जिसे हम लिख रहे हैं, हम जी रहे हैं, इसमें दूसरों की पीड़ा भी हमारी ही कहानी में घट रही, हमारी ही पीड़ा है। हमारा होना इस संसार का होना है, हमरे पहले या हमारे बाद, कुछ नहीं था और कुछ भी नहीं होगा।

Friday, March 14, 2008

अपने से...


बहुत देर तक समुद्र को देखते रहने से भी, समुद्र ने कोई सहायता नहीं की, वो सदियों से चले आ रहे- 'अपनी लहरों के हथीयार से, ज़मीन से चल रहे अपने संधर्ष'- में उलझा हुआ था। उसकी सदियों से चली आ रही नीरसता, उसके ही प्रति मेरी सांत्वना को बढा रही थी। पलके हल्की भारी हो रही थी.. नींद अपनी उम्मीद बढा रही थी.. मैं अपनी जर्जर देह लिए इन भीतर की समस्यांओं से जूझ रहा था। उम्मीद, समुद्र में बहुत दूर दीख रही छोटी छोटी नावों में जल रहे बल्ब की तरह थी... जिनकी काफ़ी समय किनारे आने की कोई आशा नहीं थी। मैं काफ़ी समय तक खड़ा रहा था... फिर बैठ गया। मेरी नीरसता एक तरह बायोस्कोप हो गई थी... जिसमें मूँह फसाए मैं, अपना ही जिया हुआ सबकुछ देख रहा था। अचानक मुझे लगा कि यहां समुद्र तक आने के बाद भी मैं वैसा ही सब कुछ सोच रहा हूँ जैसा मैं शायद अपने घर में सोच रहा होता, तो मैं यहां तक क्यों चला आया। फिर लगा नहीं ये नीरसता नहीं है, जिसके कारण मैं अपना जीया हुआ सबकुछ देख रहा हूँ.मुझे नींद आ रही है... ये अर्धनिद्रा की स्थिती के कारण मुझे ये सब दीख रहा है , ये नींद यहीं इस समुद्र के पास आने पर आई है।मैं बहुत देर से समुद्र को देख रहा था, उसकी आवाज़ सुन रहा था, समुद्र की लगातार, एक निरंन्तरता में उठ रही लहरॊं की आवाज़.. माँ की धड़कनों की निरंन्तरता से मेल खाती है। जिन्हें सुनते ही मैं हमेशा सो जाता था। मुझे ट्रेनों,बसों की लम्बीं यात्रा में भी शायद इसलिए नींद आ जाती है...। माँ की कोख़ में सुनी माँ की धड़कनें, शायद मेरे मरने तक मुझे सुलाती रहेंगी।अभी मैं सोना चाहता हूँ, लम्बी, गहरी, गाढ़ी नींद...मृत्यू जैसी। जब सुबह उठूं तो नया जीवन लगें... पूराने जिये हुए की पुनरावृत्ती नहीं। शुभरात्री।

Tuesday, March 11, 2008

अपने से...


मैं हार क्यों नहीं सकता... या मुझे हारने क्यों नहीं दिया जा रहा है।मुझे हमेशा उन गुरुओं,अभिभावकों से ये गुस्सा रहा है जिन्होंने हमें हमेशा हारने से बचाया है। वो हमें हमारी हार भी पूरी तरह से जीने नहीं देते...। असल में ये एक तरह से उनका दो ज़िन्दगीयाँ एक साथ जीना है। कला (जीवन) लगातार एक जैसी(भले ही अच्छी ही क्यों न हो) हमें बोर करने लगेगी। बात है कि सभी अपनी-अपनी जगह से खड़े होकर जीवन देख रहे होते हैं। हर आदमी का पोईट आफ़ वियूह एकदम अलग होता है। मैं अगर अपनी कला से अपने जीवन की बात नहीं कह पाया (या कह चुका हूँ) तो उस बात को, दूसरे के जीवन का इस्तेमाल करके क्यों कहना चाहता हूँ(या क्यों फिर से कहना चाहता हूँ)।
बच्चे कभी आग में अपने हाथ नहीं जला लेते हैं। आदिवासी महिलाएं जब अपने तेज़ धार-दार औज़ारों से काम कर रही होती हैं, तो उनके बच्चे उन्हीं के बगल में बैठकर उन्हीं औज़ारों से खेल रहे होते हैं। वो सिर्फ उनपर नज़र रखती है... पर उस उम्र में भी वो उन बच्चों की, खुद जानने की इच्छा का खून नहीं करती है... या ये डर उसके अंदर नहीं बिठा देती हैं.. 'कि ये खतरनाक़ औज़ार है कट जाओगे...'। क्योंकि बाद में उन्हें इन्हीं औज़ारों से तो काम करना हैं। हम कला की दुनियां में धुसते हैं... और हमें सबसे पहले बता दिया जाता है कि ये सब कठिन है... बहुत कठिन।
मैं दिल्ली में एक लेखक मित्र से बात कर रहा था... वो अपने लगभग हर वाक्य के बाद, एक एसी बात कह दें कि जिससे लगे कि -' लिखना असल में दूसरे ग्रह के लोगों का काम है.. हमारे बस की बात नहीं हैं.' और फिर वो धीरे से बताएं कि असल में मैं मंगल का हूँ (ग्रह)।
मेरे हिसाब से बात बस रमने की है... खुद अपनी जगह तलाशने की है.. जहां से खड़े होकर आपको दुनियाँ देखना है। हार.. जीत ... कुछ समय के बात यूँ भी नगण्य हो जाती है।

अपने से...


मैं काफ़ी समय से ये सोच रहा था, कि हम- अपने शरीर की- खुद को ज़िदा रखने या बनाए रखने की कला का, कितना अधिक फलसफ़ा बघारते है...।जबकि वो शरीर महज़ अपने आपको बचा रहा होता है। शरीर अपने आपमें सबसे अधिक शांति प्रिय प्रणाली है... जब हम खुद, बाहर शांति खोज रहे होते है, तो असल में ये हमारी अपने शरीर के प्रति हिंसा है..उसकी प्रणाली के प्रति एक तरह का विश्वासघात... जिसे शरीर अपने ढ़ंग से विद्रोंह करता है... उसके विद्रोह से उपजतें है नए तरह के अनुभव, एहसास... जिसको असल में शारीर बाहर फैंक रहा होता है। पर हम उन सारे शरीर के विद्रोहो को आध्यात्मिक एहसास या अनुभवों के रुप में शरीर में ढूसं देते हैं।
जैसा कि मैं बात कर रहा था, शरीर की सरवाइव करने की क्षमता... । हम कहते है कि- 'हमें सीखना कभी बंद नहीं करना चाहिए'। मैं कहता हू बंद कर दो.. अभी.. इसी वक्त... मैं खुद देखना चाहता हूँ कि क्या होगा। क्या हम सीखना बंद कर देंगे...।
हम मन.. आस्था.. विश्वास.. भगवान... की बात कुछ इस तरह कर रहे होते है कि.. अभी हम इन सबसे बाहर बाज़ार में मिलकर आए हैं। हर शब्द एक इंन्सान है... जो असल में है नहीं.. चूंकि है नहीं सो इन्सानी दिमाग़.... हर उस चीज़ को, जो है नहीं, को लगातार बड़ा बना रहा होता है।
दिमाग़, एक बार जिए गए हमारे किसी भी अच्छे अनुभव को (जो असल में मृत है) बार बार वापिस जीवित करना चाहता है। वो फिर से वैसा का वैसा अनुभव वापिस चाहता है... इसी कारण हम अपने ही जिए हुए को वापिस जीने की कोशिश में लगे रहते है। कोशिश कभी कामयाब नहीं होती... क्योंकि हम अभी भी जीवित है हम अभी मरे नहीं हैं... हम लाख़ कोशिश क्यों न कर लें हम वैसा का वैसा कभी कुछ नहीं जी सकते हैं।

Saturday, March 8, 2008

अपने से...


कुछ अलग कर दिखाने की उम्र, हम सबने जी है, जी रहे हैं, या अभी जीएगें।
मुझे हमेशा लगता है, ये ही वो उम्र होती है... जब हम सामान्य से अलग दिखने की कोशिश में, खुद को पूरा का पूरा बदल देते हैं। इसी समय खुद के अस्तित्व को मध्य में रखते ही हमें दुनिया गोल नज़र आने लगती है, और 'पृथ्वी गोल ही है'- में -'पृथ्वी ध्रुवों पर से चपटी है' की जानकारी हमें हमेशा बोर करती है। 'पृथ्वी गोल है' में एक ज़िद दिखती है... एक बात जिसपर फिर से लड़ा जा सकता है।
अभी कुछ समय पहले मैं 'नक्सल' पर कुछ लिखना चाह रहा था। उसके बारे में पढ़ना शुरु किया तो पता नहीं क्यों मुझे कुछ प्रश्नों की ध्वनी लगभग एक जैसी सुनाई देने लगी (जिसमें वो उम्र महत्वपूर्ण है।) जैसे-
- कोई आदमी 'नक्सलवादी' क्यों हो जाता है?
- कोई आदमी 'साधू' क्यों बन जाता है?
- कोई 'रंगमंच' क्यों करता रहता है? ( रंगविचार या रंगसंवाद नहीं)
- कोई 'आतंकवादी' क्यों हो जाता है?
- कोई कभी कुछ क्यों नहीं कर पाया?
-वगैरा वगैरा।


कुछ अलग कर दिखाने की होड़, हमें किस सामान्यता पर लाकर छोड़ती है... ये शायद हमें जब तक पता चलता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।फिर हम शायद अपने कीये की निरंन्तरता में.. अपने होने की निरंन्तरता पा चुके होते हैं।

उस निरंन्तरता को बनाए रखने में ही हमारे होने का अस्तित्व भी फसा रहता है, जिसे तोडने के लिए हमें शायद फिर से उसी उम्र की ज़रुरत पड़ती है, जिसे हम 'कुछ अलग कर दिखाने' की कोशिश में बहुत पहले ही खर्च कर चुके होते है।

Thursday, March 6, 2008

नाटक...

अभी हाल ही में (दिल्ली में) कुछ नाटक देखे।हर नाटक की शुरुआत में मै और आशीष (मेरे मित्र) ये शर्त लगाते हैं कि- इस नाटक के दौरांन कितने मोबाईल बजेगें... अधिकतर शर्त वो ही जीतते हैं..मैं हमेशा एक या दो की संख्या पर रुक जाता हूँ, वो दिल्ली में रहे हैं सो हर बार उनकी दिल्ली के दर्शको की जानकारी, मेरी जानकारी को मात दे देती है।हमने कुछ नाटक देखे जिनमें, मराठी.. अंग्रेज़ी.. हिन्दी, दादी का पपेट थियेटर शामिल थे।
इसमें दर्शकों के बीच में बैठा हुआ, मैं उस नाटक में अपनी भूमिका के बारे में सोच रहा था, महज़ दर्शक की हैसियत से।किस तरह की अपेक्षा कर रहा होता हूँ मैं, नाटक चलने के पहले, नाटक शुरु होने के बाद, नाटक के अंत के ठीक पहले...।वो कौन से एसे क्षण होते हैं.. जिन्हें मैं जी लेता हूँ, जो उस सारे पागलपन के बीच अचानक सत्य जैसा कुछ फ़ैकने लगते हैं।
इसी सब में मुझे वो क्षण सबसे ज्यादा अच्छे लगते हैं, जिसमें नाटक नहीं चलता है, जिसमें वो नाटक अपनी परिधी के बाहर आकर आपसे बात करने लगता है। बात कुछ ऎसी जिसमें मैं एक पांच साल के बच्चे की तरह, अपने खुले मुंह से वो ही बातें देख रहा हूँ, सुन रहा हूँ, जिन्हें मैं खुद भीतर पूरी तरह जानता हूँ।

Sunday, March 2, 2008

अपने से...


यहां दिल्ली में बैठे-बैठे नई इच्छा से भरे नाटक, कहानीयों और कविताओं के बारे में सोच रहा था।जिनके बारे में लगातार सोचते रहना एक तरह से विवाह के बाद के आपके नाजायज़ संबंधो जैसा होता है...आप शादी तो उस जीवन से कर चुके हैं जो जी रहे हैं... पर दिमाग़ लगातार उस जीवन को जी रहा होता है... जिसकी गुदगुदी आप शरीर में यहां वहां महसूस कर रहे होते हैं।कुछ समय के संधर्ष के बाद शादी वाला जीवन एक तरह से आपसे कन्नी सी काटने लगता है... छोटी-छोटी गुदगुदीयों की मनमानी पे हमारा कोई बस नहीं होता, बस जो बचा रह जाता है वो है खालीपन... अकेलापन, जिसे अकेले खुजाते रहने के भी अपने सुख हैं।पर अभी.. अभी क्या?

मुझे कहानी लिखना है, इन कहानियों की तलाश मेरा पूरा शरीर हर वक्त कर रहा होता है....जुगनू जैसी चमक, और उसकी चकाचौंध में रहकर मुझे कहानी नहीं लिखना है।
मुझे अच्छी कहानी भी नहीं लिखना है, अच्छी कहानियाँ मुझे बोर करती हैं।मेरी कहानी की तलाश जुगनू के चमकने में नहीं है, मेरी कहानी की खोज.. जुगनू के उस अंधेरे में है... जिसे वो अपने दो चमकने के बीच में जीता है।

ऎसी कहानी जिसमें कहानी कहने की पीड़ा न हो... उसमें वो आकर्षक शुरुआत... खूबसूरत मध्य.. और आश्चर्यचकित कर देने वाला अंत, लिखने का बोझ न हो।

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल