Saturday, December 6, 2008

ईकोपा...




आज शायद आख़िरी बार मैं ईकोपा (मेरा घर....) के साथ बैठा हूँ...।
दरारें........
कुछ छोटे चहबच्चों से जाले, कुछ बड़े भी...
पीठ और सिर के निशानों से भीगी हुई दीवारें, और कुछ नाखूनों के खुरचने का दर्द ली हुई दीवारें....।
मैं शांत था... वहीं अपनी कुर्सी पर बैठा था। चार सालों की सी सदी.... यहीं इसी के साथ जी है। यहीं सारा कुछ लिखा, सारी चित्रकारी की, सारा का सारा यहीं बना और यहीं बिगड़ा भी हैं। यह घर एक लौ की तरह मेरे साथ रहा है...मैं इसमें नहीं यह मुझमे था। ’था’ का प्रयोग करना थोड़ा कठिन है... पर यह ’था’ ही सही है अब!!!
काफी देर से मैं एक दरार देख रहा था। हमारे संबंध में मुझे इसके, इस तरह के मूक संवादों की आदत सी है। यह टूटा नहीं... शायद इसे बहुत पहले टूट जाना था, पर यह बना रहा, अपनी लौ के दायरे में मुझे समेटे हुए। यह जितने सच का साक्षी होकर चमक रहा है... उतने ही झूठ इसने अपनी दीवारों के कोनों के जालों में लटकाए हुए है। यहाँ-वहाँ कोनों में सिमटी हुई नमी भी है.... जिसका एहसास सिर्फ हम दोनों को है।
पता नहीं क्यों मैं अपनी कुर्सी से खड़ा हो गया... और मेरे मूँह से ’sorry’ की एक अजीब बुदबुदाहट हुई। मैं माफी मांगना चाह रहा था... इस घर से... इसके ना टूटने से.. इसकी लौ से... इसके जालों, दरारों से...।कौन माफ करेगा मुझे? क्या माफी काफी है?
तभी मुझे मेरे गद्दे के पास की दीवारों पर कुछ निशांन दिखे... यह सारे निशांन अपनी-अपनी कहानियाँ लिए हुए है। यह मिटा दूँ?.. कैसे मिटते हैं यह?... यह असल में कहानी भी नहीं हैं... यह कहानी की कतरनें हैं... जो छूटी हुई है। इन कतरनों से जो कहानी बन रही है वह मैं अब सुनना नहीं चाहता।
मैं वापिस अपनी कुर्सी पर बैठ गया। इसके बाद कुछ निजी संवाद हुए, जिसकी ’आह’ हम दोनों के मूँह से निकलती रही।
कैसे छिन सकता है यह.... मुझसे?
मैंने यह लौ नोचकर अपने शरीर से बाहर की... और घर को विदा कहाँ.... नहीं विदा कह नहीं पाया...।अभी कुछ दिन और है.... शायद मैं इसे कभी विदा कह भी नहीं पाऊगाँ।
ईकोपा, मेरा गुलाबी सा जवान घर, हमेशा अकेले में मेरे साथ रोता है..... पता नहीं क्यों?

Wednesday, October 22, 2008

Father


’तबीयत खराब है भाई।’
आज ही सुबह मेरे भाई का फोन आया... वह मुझे भारत के जीतने पर ( क्रिकेट..) बधाई देना चाह रहा था। मेरी तबियत की बात सुनते ही उसका थोड़ा जोश कम हो गया। पर मैंने ज़ोर लगाकर बधाई दी तो उसने कुछ तफसील से ज़हीर खाँन के विकट लेने का आँखों देखा हाल (टी.वी.) सुना दिया। फिर कुछ इसी तरह का मेरे पिताजी का भी फोन आया और हमने एक दूसरे को, पूरी गरम जोशी से बधाईयाँ दी।
शाम को जैसे-तैसे धूमने सा निकला... तो लगातार क्रिकेट और अपने पिताजी के बारे में सोचता रहा। मेरे बचपन में... बारामुला, खोजाबाग़ (कश्मीर...) में पिताजी रेड़ियों पर क्रिकेट सुना करते थे। भारत और पाकिस्तान का मैच होता तो घर एक war room बन जाता...। सिग़रेट के कश पे कश लगाते हुए, मेरे पिताजी के कई हिन्दु दोस्त, रेड़ियों को घेरे हुए बैठे रहते...। भीतर माँ डरी हुई, चाय के प्याले बाहर पहुचवा रही होती। उस खेल का अंत हमेशा एक सा ही होता था। भारत अगर हार जाता तो पिताजी तुरंत रेड़ियों को दीवार पर मार कर तोड़ देते, घर के दरवाज़े, खिड़कियाँ बंद कर देने की हिदायत दी जाती, घर के बाहर पिताजी के ऑफिस के कुछ मुसलमान दोस्त आकर पटाखें फोड़ते और पिताजी ऑफिस से कुछ तीन-चार दिन की छुट्टी ले लेते। और अग़र भारत जीत जाता तो तुरंत मिठाई का एक ढिब्बा मंगवाया जाता और पिताजी अपने सारे ऑफिस के मुसलमान दोस्तों के घर जाकर तुरंत उनका मुँह मीठा कराते... कुछ रॉकेट जलाए जाते... अगले दिन पिताजी ऑफिस नए कपड़े पहनकर जाते थे। मैं काफी छोटा था तब...... उस वक़्त उतना ज़्यादा क्रिकेट भी नहीं होता था.... उस वक़्त क्रिकेट का अपना एक अलग मौसम होता था, और उस मौसम में जब भी भारत और पाकिस्तान भिड़ते थे... तो उसका तनाव पूरे मोहल्ले में नज़र आता था। बाक़ी दिनों में हम लोग पिताजी के उन्हीं मुसलमान दोस्तों के यह... या वह लोग हमारे यहाँ दावते उड़ाया करते थे।
यह सिलसिला सालों चलत रहा.... रेड़ियों टूटते गए... मिठाईयाँ बटती गईं। कई सालों बाद हम होशंगाबाद (मध्य प्रदेश) आ गए। पिताजी छुट्टीयों में आते जाते रहते थे। बचपन में रेड़ियों सुनते हुए मुझे हमेशा लगता था कि यह खेल शायद पहाड़ियॊं पर खेला जाता होगा। एक तरफ से गेंदें फेक़ी जाती होगीं और दूसरी तरफ से जवाब में छक्के और चौकों मारे जाते होगें, गर चूक गए तो हाथ पेर टूटे समझो। तभी एशियाड के समय घर में टी.वी. आया। उसके काफ़ी समय बाद एक दिन हमने क्रिकेट मेच देखा और लगने लगा कि यह तो महज़ एक खेल है... इसमें इतनी ज़्यादा तोड़ा-फोड़ी क्यों मची रहती है। खैर घर की हालत खस्ता थी, सो पिताजी ने अपने परिवार के साथ रहने के लालच और रिटायर होने के बाद मिलने वाले पैसों के चक्कर में जल्द अपना रिटायर्मेंट ले लिया। रिटायर्मेंट लेते ही आतंकियों ने पिताजी का ऑफिस एक ब्लास्ट में उड़ा दिया.... सारे दस्तावेज़ स्वाहा हो गए। पिताजी का पैसा तो दूर, वह वहाँ जॉब करते थे, इसका भी सबूत देना मुश्किल हो गया।
आज तक उन्हें वह पैसा नहीं मिला... जिसका गुस्सा उन्होंने सब पे निकाला....। इस गुस्से और निराशा के दौर में एक चीज़ अजीब हुई...। मैं और मेरा भाई... क्रिकेट के क़रीब आते गए और पिताजी क्रिकेट के नाम से ही चिड़ने लगे। मुझे पिताजी के जोश भरे दिन याद थे... मैं जब भी उन्हें, बहुत उत्साह में कहता कि आज भारत-पाकिस्तान का मैच है तो वह अपना मुँह बना कर, मैंने कश्मीर में जॉब किया है के सबूतों में खो जाते थे।
बीच में एक world cup मैच के दौरान उनका जोश मुझे वापिस दिखा था, जिस मैच में वेंकटेश प्रसाद हीरों हो गया था और भारत वह मैच हारते-हारते जीत गया था। पिताजी उछल पड़े थे... हम सबने उस मैच के बाद, बाज़ार जाकर आइस्क्रीम खाई थी।
पर उसके बाद भी वह क्रिकेट से उस तरीक़े से जुड़ नहीं पाए...। एक अजीब सी निराशा ने उन्हें घेर रखा था। बात चीत के दौरान कई बार उनके मुँह से निकल जाता कि मैं तुम लोगों के लिए कुछ नहीं कर पाया। टी.वी. देखते हुए जब भी कश्मीर के समाचार आते तो पिताजी या तो चैनल बदल देते या गाली देते हुए टी.वी. ही बंद कर देते, मानो कश्मीर से उनका कोई संबंध ही ना हो।
इन सबके बाद मैं मुबंई आ गया...। पिताजी और मेरे बीच की दूरियाँ, जो काफ़ी बढ़ चुकी थी.... में एक अजीब सा रुखापन आ गया। मैंने इसपर बहुत गौर नहीं किया क्यों कि हम सभी अपने माता पिता के संबंध को बहुत तय संवादों की तरह जीते हैं। तभी इसी बीच एक कमाल की बात हुई.... ’धोनी..’ नाम का एक युवा खिलाड़ी का नाम उभरा...कुछ ही समय में देखते-देखते वह भरतीय टीम का कप्तान बन गया। मेरे पिताजी को भी अब, मैं नौकरी करता था के सबूतों के साथ रहना आ गया था। अचानक मेरे पास एक दिन पिताजी का फोन आया... ’तुमने यह मैच देखा क्या खेला धोनी...। एक दम कपिल देव जैसा।’ उन्हें कपिल देव की वह पारी आज भी याद है जिसमें ने सारे बॉलरों की धुलाई की थी कुछ १७५ रन बनाए थे और एक बॉलर ने सफेद रुमाल कपिल के सामने हिलाया था। धोनी के कारण मेरे पिताजी वापिस क्रिकेट में उसी जोश से कूद पड़े। हमारे संबंध में भी यह... एक अजीब सी ताज़गी लाया है। अभी पिताजी के लिए पाकिस्तान उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि आस्ट्रेलिया... या इग्लेंड़...। मैच के जीतने के बाद हमारी बात होना तय है.... और हारने पर फोन ना करने में ही भलाई है।
मुझे क्रिकेट अच्छा लगता है... यह मेरे खून में है, पर मैं पिताजी के रोमांच का मुकाबला कतई नहीं कर सकता हूँ। उनके और मेरे बीच में धोनी, क्रिकेट... सचिन... बहुत ही महत्वपूर्ण किरदार है, जिनकी सफलता का सुख मैं अपने संबंध की सफलता में बटोरता हूँ।

Saturday, October 18, 2008

थकान...


फिर सामने एक कोरा पन्ना पड़ा हुआ है.... अपनी सारी अपेक्क्षाओं के साथ..। क्या भरुं इसमें? शब्दों के वह कौन से चित्र बनाऊँ जिन्हें बनाते ही मैं हल्का हो सकूँ..। शायद थकान की कहानी लिखनी चाहिए... एक अनवरत थाकान की जो सब से है... अपने से... आस-पास से... इन लगातार सीड़ी चढ़ते लोगों से... उन ज्ञान वर्धक बातों से.. और उन अनुभवों से जिन्हें घर में कहाँ रखूँ, के विचार से मैं दिनों, हफ्तों महींनों व्यस्त रहता हूँ। पड़े-पड़े दीवार पर निग़ाह टिकी रहती है...दीवार पर लोगों के चहरे ढूढ़ता हूँ... मैं इन दिवास्वप्न से भी बोर हो चुका हूँ..। कुछ शब्द लिखने बैठता हूँ तो ’एवंम इन्द्रजीत’ नाटक याद आ जाता है... उसे पढ़ता हूँ... तो ’देवयानी का कहना है...’ नाटक याद हो आता है..। एवंम इन्द्रजीत को वापिस रख देता हूँ...। फिर एक लंबीं यात्रा पर निकलना चाहता हूँ सो Anna Karenina पढ़ना शुरु कर देता हूँ। Stephen Oblonsky का पात्र तक़लीफ देने लगता है, सो उसे भी थोड़ी देर में रख देता हूँ। फिर से थकान के बारे में सोचना शुरु कर देता हूँ। कुछ पुराने कटु अनुभवों को याद करता हूँ... और मुसकुराने लगता हूँ... अच्छे अनुभव याद आते ही पीड़ा देने लगते हैं। सोचता हूँ कुछ तो लिखूँ... इस सामने पड़े कोरे पन्ने को कितनी देर तक देख सकता हूँ..। सो पहला शब्द लिखता हूँ ’थकान...’ और उसे देखता रहता हूँ। फिर कुछ लिखा नहीं जाता सो इच्छा जागती है कि चलो कोई फिल्म देख लेता हूँ.... पर ’थकान’ शब्द डेस्क से उठने नहीं देता है। इस शब्द को देखते रहने का सुख है...। इस सुख पर हसीं आ जाती है। वापिस किताबों के पास जाता हूँ जो किताब पढ़ी हुई है उसे फिर से पढ़ना चाहता हूँ, नई किताब नहीं..। नई किताब पढ़ना, किसी नए व्यक्ति से मिलना जैसा लगता है... सो बहुत समय तक डर बना रहता है... वह कैसे बात शुरु करेगा? किस विषय पर बात करेगा? पहला संवाद कैसा होगा? वगैराह वगैराह..। इसीलिए पुराने दोस्त सी कोई किताब ढूढ़ने लगता हूँ। R K Narayan के My Days (autobiography) पर निग़ाह पड़ती है... उसे उठाकर पढ़ने लगता हूँ और.... :-).।

Thursday, October 16, 2008

निर्मल वर्मा..


काफ़ी समय से अपने आप को एक कोस रहा हूँ कि मैं बहुत ही ज़्यादा समय बरबाद करता हूँ.... भीतर समय बीतते जाने का ज्वर सा भरा रहता है।और अधिक्तर यह तब ही होता है जब मैं निर्मल वर्मा, वर्जीनिया वुल्फ या काफ़्का को पढ़ रहा होता हूँ...इस बार यह काम निर्मल वर्मा ने किया। निर्मल वर्मा को दुबारा पढ़ने की इच्छा जागी थी... उनकी किताब पढ़ते हुए हमेशा हम कुछ ही देर में एक ऎसे एकांत में चले जाते हैं.... जहाँ वह हमसे फुसफुसाते हुए बात कर सकें। देर रात तक उनकी किताब पढ़ता रहा..’धुंध से उठती धुन..’। जब मैंने उस किताब को रखा... तो उसके पीछे के कवर पर निग़ाह गई... पाँच उपन्यास.... आठ निबंध... छ्ह कहानी संग्रह.... तीन यात्रा संस्मरण.... एक नाटक... और एक संभाषण/ साक्षात्कार... एवंम दो किताबें अवसानोपरांत। यह थे कुल जमा निर्मल वर्मा...। उन्हें कई सालों से लगातार पढ़ते हुए उनसे एक संबंध सा बन गया है... इस संबंध में एक अजीब सी खो जाने की पीड़ा है...। पता नहीं मैं इसे विस्तार से कह पाऊगाँ कि नहीं... उन्हें पढ़ते हुए मैं हमेशा एक अजीब सी पीड़ा महसूस करता हूँ, छूटी हुई चीज़ो की, बीच में छूट गए लोगों की, पीछे छूट गई जगहों की...। अभी इस किताब को रखते ही मैं अपने गाँव जाना चाह रहा हूँ... पीछे छूट गए लोगों से भागकर जाकर गले लगना चाहता हूँ...उनसे माफी मांगना चाहता हूँ.. और पता नहीं क्या.. क्या?
इतने भीतर जाकर निर्मल वर्मा बातें कर रहे होते हैं कि वो मुझे बार-बार उस सुर पर ले आते हैं जिससे मैं कभी-कभी भटक जाता हूँ...। वह लिखने की उस ईमांदारी पर बह रहे होते हैं कि आपको अपना सारा किया हुआ थोड़ा उथला जान पड़ता है। शायद हम सब इतने सधंन चिंतन की इच्छा मन में रखते है....अपने काम के प्रति..। उनका सारा लिखा हुआ हमेशा एक अच्छे दोस्त जैसा मेरे घर में रहता है.... जब भी विचलित होता हूँ... उन्हें पढ़ लेता हूँ।

Sunday, October 12, 2008

शुद्ध कला...

कला को बाज़ार ही चलाता है, शायद यह ही कला की त्रासदी है.... कला को सामान्य जीवन के बाहर के शौक के रुप में हमेशा रखा गया है। शुद्ध कला की जगह इस बाज़ार में कितनी है?
यह मानने को हमेशा जी चाहता है कि मैं वह ही लिखूगाँ या रचूगाँ जो बहुत भीतर से मैं सोचता हूँ या कहना चाहता हूँ। पर हमारी इस सारी व्यवस्था में उस शुद्ध कला की असल में कितनी ज़रुरत है... इस बात पर जब भी ग़ोर करता हूँ तो, वह जगह कहीं नज़र नहीं आती...। निर्मल वर्मा या विनोद कुमार शुक्ल जैसे लेखको को जब देखता हूँ तो कुछ बल मिलता है कि वह रचना के चरम पर रहकर... अपनी ही नई बोली में, अपनी कही जा सकने वाली सारी बातें कहीं...। अभी उम्मीद अगर नए लोगों से करों तो उनकी संख्या बहुत कम नज़र आती है। विनोद कुमार शुक्ल से एक बार मैं बात कर रहा था... तो उन्होंने मुझसे कहा कि ’सुनों पैसा कमाने के बारे में भी ध्यान देते हो कि नहीं.?’ उनकी चिंता मुझे जायज़ लगती है। पंडित सत्य देव दुबे... कई बार मुझसे कह चुके हैं कि- ’क्यों अटक गए तुम थियेटर में...?’ मैं अटक गया हूँ? इस बारे में मैंने कभी सोचा नहीं था... उनके कहने के बाद भी नहीं सोचा। पर यह ज़रुर सोचा कि वह कौन सी बात है जिससे यह लोग मुझे आगाह कर रहे हैं?
मैं अपने समकक्ष के लोगों को देखता हूँ जो छोटे शहरों में थियेटर कर रहे हैं... वह नाटक नहीं सरकारी प्रोजेक्ट बनाते है....जैसे... 1857 की क्रांति के ऊपर अगर आप कुछ करेंगें तो सरकार आपको पैसा देगी... तो मेरे कुछ युवा मित्र से लेकर बड़े-बड़े दिग्ग़ज सभी उसी पर प्रोजेक्ट (नाटक... अगर उन्हें नाटक कहा जा सकता है तो...।) करने लगे। ’मैं थियेटर करता हूँ?’ का दंभ भरने वाले.... हर ऎसे वाक्य कहने के बाद सरकारी आफ़िस के चक्कर काटते हुए नज़र आते हैं।
मुझे उन लोगों से कतई कोई भी बुराई नहीं लगती जो मनोरंजन से भरा... ओछा कॉमेडी नाटक करके पैसा कमाते है और विदेश धूमते है। उनका उद्देश्य बिलकुल साफ है, वह पैसा कमाना चाहते हैं।
इसमें अगर रचना के लिए... काफ़्का के मृत सन्नाटे की इच्छा रखें तो वह मज़ाक लगता है... हसीं आती है।
इस तरह की बातें काफ़ी सवालों को उठाती हैं। मैंने उसके जवाब ना तो ढूंढ़े और ना ही उसमें अपना समय ही बरबाद करना चाहता हूँ। यह एक प्रतिक्रिया है, जिसमें अभी चल रही स्थिति को मैं आंकना नहीं चाहता हूँ.. मैं बस इसपर प्रतिक्रिया देकर (ज़्यादा सही शब्द है उल्टी करकर...) इसे अपने सिस्टम से बाहर फैंक देना चाहता हूँ... जिससे यह विचार दौबारा सामने ना आए।

Saturday, October 11, 2008

प्रकृति हमें अच्छी लगती है...

'प्रकृति हमें अच्छी लगती है'- का एक पक्षी,
हमने अपने घर के पिंजरें में बंद कर रखा है।
और एक फूल ग़मले में उगा रखा है।

'हमें सुखी रहना चाहिए'- की हँसी,लोगों को बाहर तक सुनाई देती है।
दुख की लड़ाई और रोना भी है,पर वो सिर्फ इसलिए कि खुशी का पैमाना तय हो सके।

'बुज़ुर्गों की इज़्ज़त के माँ-बाप'- घर के कोनों में,ज़िंदा बैठे रहते हैं।

'जानवरों से प्रेम'- की एक बिल्ली,घर में यहाँ-वहाँ डरी हुई घूमती रहती है।
'इंसानों में आपसी प्रेम है'- के त्यौहार,हर कुछ दिनों में चीखते-चिल्लाते नज़र आते हैं।
पर वो सिर्फ इसलिए कि 'इंसान ने ही इंनसान को मारा है'-की आवाज़ें हमें कम सुनाई दें।

'हमको एक दूसरे की ज़रुरत है'- के खैल,हम चोर-पुलिस, भाई-बहन, घर-घर, आफ़िस-आफ़िस के रुप में, लगातार खेलते रहते हैं।

पर इस सारी हमारी खूबसूरत व्यवस्था में,
हमारे 'नाखू़न बढ्ते रहने का जानवर भी है।
जिसे हमने भीतर गुफा में,धर्म और शांति की बोटियाँ खिला-खिलाकर छुपाए रखा है।

और फिर इन्हीं दिनों में से एक दिन....
'प्रकृति हमें अच्छी लगती है'- के पक्षी को,
'जानवरों से प्रेम की बिल्ली'- पंजा मारकर खाँ जाती है।
'हमारे नाखून बढते रहने का जानवर'-गुफा से बाहर निकलकर बिल्ली को मार देता है।
'वहाँ बुज़ुर्गों की इज़्ज़त के माँ-बाप'-चुप-चाप सब देखते रहते है,
और घर में 'प्रकृति हमें अच्छी लगती है'- का पिंजरा,बरसों खाली पड़ा रहता है।

Thursday, October 9, 2008

डरपोक़....


काफ़ी समय से चाय पीता हुआ मैं... इन छोटे-छोटे आश्चर्यों को देख रहा था जो मेरी आँखों के सामने घट रहे थे.... मैं पहाड़ के एक गाँव में बैठा, चाय पी रहा था...। सामने अचानक बादल घिर आए थे... और बूंदाबांदी शुरु हो गई थी.... पर पीछे के दो पहाड़ो पर अभी भी धूप थी...। तेज़ सुनहरा रंग चारो तरफ बिखर गया था।मैं जिस दुकान में चाय पी रहा था वह एक बुज़ुर्ग दम्पत्ति की दुकान है... शायद इस गाँव के तीन किलोमीटर के इलाके में एक यही दुकान है...। दोनों अकेले रहते हैं... नीचे गाँव में उनकी खेती है जो दो बच्चे मिलकर चलाते है.... दो बेटीयों की शादी हो चुकी है... और एक बेटा दिल्ली में कहीं पढ़ता है जिसके बारे में वह बड़े फ़क्र से बता रहे थे। चुकी आस पास कोई दुकान नहीं है इसलिए .. यह चाय कि दुकान, चाय और किराने की दुकान हो गई थी। करीब तीन चाय के बाद अचानक मेरी निगाह उन छोटे पहाड़ों पर पड़ी जिनके पीछे से निकलकर बहुत सारी धुंध हमारी तरफ बढ़ी चली आ रही थी...। वह दोनों पति-पत्नि अपने काम में व्यस्त थे... मैने चिल्लाकर कहाँ -’वह देखो... धुंध कितनी अच्छी लग रही है।’
दोनों ने एक बार निग़ाह उठाकर देखा और फिर अपने काम में व्यस्त हो गए। मैं जल्दी-जल्दी कुछ तस्वीरे लेने लगा...। केमरे के लेन्स में से मुझे एक छोटा सा सफेद धब्बा जैसा कुछ दिखा... मैंने लेन्स पर से आँखें हटाकर देखा तो.. एक बूढ़ा आदमी नीचे किसी गाँव से हमारी तरफ चला आ रहा है... उसकी चाल उसकी उम्र के हिसाब से काफ़ी तेज़ थी...। वह कुछ ही देर में दुकान पर पहुँच चुका था। वह आते ही चाय वाले के साथ बातचीत में व्यस्त हो गया.... वह अपनी बोली में बात कर रहे थे...सो मैं वापिस पहाड़ो को देखने लगा। मुझे लगा कि उस छोटे से पहाड़ के पीछे किसी ने बहुत सारी आग जला रखी है, जिसका धुआ वहाँ से निकलकर हमारी तरफ बढ़ता आ रहा है। कुछ ही देर में उस पूरी धुंध के भीतर अब हम थे...और यह चाय की दुकान थी और यह पूरा गाँव था....। वह चाय वाला कहने लगा कि ’धुंध की अपनी एक खुश्बू होती है....।’ मैंने पूछा कि ’कैसी होती है?’ वह कहने लगा कि ’आप जब यहाँ ज़्यादा रहेगें तो आपको पता चल जाएगा।’
यह सुनते ही मुझे ध्यान आया कि पाँच बज चुके है और मुझे अभी करीब आठ-नौ किलोमीटर का फासला पैदल तेय करना है... अपने गेस्ट हाऊस पहुचने के लिए... और जैसा डरपोक मैं हूँ... रात को अकेले इस जंगल में चलना... इस विचार से ही मेरी रुह काँप गई थी। पता नहीं कैसे... वह चाय वाले ने मेरा डर सूंध लिया... और उन्होने कहा कि आप इनके साथ वहाँ तक जा सकते है... यह उसी गाँव में रहते है जहाँ आपका गेस्ट हॉऊस है...। मैंने तुरंत हाँ कह दिया, बेग़ अपने कंधे पर टांगा और इंतज़ार करने लगा कि वह बुढ़ा आदमी उठेगा.. पर वह वहीं बैठा रहा। उसने एक चाय मांगी... मैंने घड़ी की तरफ एक बार देखा। मैंने महसूस किया कि उसने मेरी तरफ बस एक बार, सरसरी निग़ाह से देखा था, वह भी जब वह इस चाय की दुकान में आया था... उसके बाद से या तो वह उस चाय वाले से बात कर रहा है या वह शून्य में कहीं देख रहा है। एक पर्यटक होने के नाते, यह हमेशा अपेक्षित रहता है कि लोग लगातार अपको देखें, आपसे बात करने के बहाने ढूढें...और बहुत जल्द आपको इसकी आदत भी पड़ जाती है.... पर यह बुज़ुर्गवार है कि इस चाय की दुकान में मेरा होना ही मानो टाल गए हैं। मुझे हल्का सा गुस्सा आने लगा... यह बिलकुल वैसा ही गुस्सा था जैसा गुस्सा मैंने पहली बार शेर को देखते हुए महसूस किया था... वह पिंजरे में था और मैं उसके एकदम सामने खड़ा था... पर उसका व्यवहार कुछ ऎसा था कि मानों मैं वहाँ नहीं हूँ या मैं पारदर्शी हूँ...! मैं उस शेर के सामने चिल्लाने लगा... अजीब सी हरक़ते करने लगा पर उसके कानों में जूं तक नहीं रेंगी...। मेरे दोस्त कहते हैं कि उस वक़्त मैं शेर के सामने बंदर जैसा लग रहा था।
जब वह बुज़ुर्गवार चाय पीने लगे तो मैंने अपना बेग़ उतारकर रख दिया... थोड़ा से गुस्से में रखा कि उन्हें पता चले कि मैं उनका इंतज़ार कर रहा हूँ...मैंने ज़्यादा गुस्सा नहीं किया, क्योंकि यहाँ मैं बंदर होने से बचना चाह रहा था। मैंने एक चाय और मांग ली...जिसपर उस दुकान की मालकिन ने मुझे ज़्यादा चाय ना पीने पर एक लेक्चर सुना दिया...। मैं उठकर उस चाय की दुकान के बाहर आ गया...। चाय खत्म की और अपने और उन महाश्य के चाय के पैसे दिये... इस बात पर उन्होने सिर्फ मुझे एक बार देखा, मुस्कुराए भी नहीं तो धन्यवाद देना तो दूर की बात है।
खैर करीब आधे घंटे बाद हम दोनों वहाँ से निकले.. साड़े पाँच बज चुका था।.... सुरज का दिखना बंद हो चुका था... वह बुज़ुर्गवार आगे चल रहे थे और मैं उनके पीछे था। इस बीच मैंने उनका नाम पूछा... करीब तीन बार...... पर उन्होने कोई जवाब नहीं दिया तो मैं चुपचाप चलता रहा। थोड़ी ही देर में अंधेरा बढ़ने लगा था मैंने अपनी टॉर्च अपने बेग़ से निकाली...। कुछ देर उसे हाथ में रही रखा... फिर धीरे से जलाकर देखा कि ठीक से काम कर रही है कि नहीं...। मेरी टार्च जलाते ही वह बोले... ’टॉर्च वापिस अंदर रख दो..।’ मैंने कहाँ ’अंधेरा बहुत है रास्ता नहीं देखेगा?’ वह चुप रहे...। मैं टॉर्च तो बंद कर चुका था पर कोई जवाब ना मिलने के कारण मैंने उसे अपने बेग़ में नहीं डाला, उसे अपने हाथों में ही दबाए रखा। फिर वह धीरे से बोले-’यहाँ टॉर्च की ज़रुरत नहीं पड़ती, उसे अंदर रख लो...। वह हाथ में रहेगी तो जलाने का लॉलच बना रहेगा।’ उनकी आवाज़ रात होने के साथ-साथ भारी होती जा रही थी। एक आश्चर्य की बात लगी कि उनकी हिन्दी कतई पहाड़ीपन लिए हुए नहीं थी... वह एकदम साफ हिन्दी बोल रहे थे। मैंने टॉर्च अंदर रख दी... सोचा अगर अकेले चल रहा होता तो टॉर्च के बाद भी यह अंधेरा सहन नहीं होता... इनके साथ चलने में कम से कम डर तो कम ही लगेगा।
दिन में यही जंगल, जो मुझे इतना खूबसूरत लगता कि मैं घंटो यहाँ अकेला टहल सकता हूँ वही जंगल, रात होते ही मानों एक भयानक भूत या पता नहीं किसमें तबदील हो जाता है..। ओह हो! मैं यह सब सोच ही क्यों रहा हूँ.... मैं अपने आपको कोसने लगा। तभी ऊपर पहाड़ पे किसी की आहट हुई.... मेरी ऊपर की तरफ देखने की हिम्मत नहीं हुई... मैंने दो तीन कदम तेज़ रखे और उन बुज़ुर्गवार के ठीक बग़ल में चलने लगा... लगभग चिपके हुए..। मैं कुछ कहना नहीं चाह रहा था पर एक अजीब से सुर में मेरे मुँह से निकला..’कितनी देर लगेगी गाँव तक पहुचने में...?’
रात अचानक हो गई... मानों किसी ने बटन दबाकर बल्ब बंद कर दिया हो। सच कहूँ ठीक इस वक्त मुझे किसी से भी डर नहीं लग रहा था... ना ही इस जंगल से... ना रात से... ना अगल बगल में आ रही अजीब सी आवाज़ो से... मुझे इस वक्त डर लग रहा था तो सिर्फ, इन बुज़ुर्गवार से जो मेरी बातों का जवाब ही नहीं दे रहे थे...। अरे! कह देते उस चाय की दुकान पर ही कि हम रास्ते में कोई बात नहीं करेगें... तो मैं भी समझ जाता कि भाई, इन्हें चलते हुए बात करना ठीक नहीं लगता है। पर उनकी यह चुप्पी मुझे बुरी तरह डराए जा रही थी.... मैं थोड़ा उनसे दूर होके चलने लगा... एक निग़ाह, पूरा अंधेरा छान रही थी... तो दूसरी निग़ाह उनपे लगी हुई थी। उनकी चुप्पी इस रात में एक ऎसा डरावना सन्नाटा पैदा कर रही थी कि वह बर्दाश्त नहीं हो रहा था...। मुझे इतना डर लगने लगा कि मैं अजीब-अजीब सी कल्पना करने लगा... कि मानो यह बुज़ुर्गवार अभी पलटकर मुझसे कहेगें कि बस मैं तो इसी पेड़ पर रहता हूँ अब तुम अकेले जाओ... और अचानक उछल के पेड़ पर चले जाए.... या अजीब सी आवाज़ में हसँना शुरु कर दें... मेरा दम दो सेकेन्ड में निकल जाएगा। मैंने धीरे से उनके पैर देखे..... खुशी हुई कि वह सीधे है। हाँ मैं जानता हूँ यह सब बहुत बचकाना है.... पर ठीक इस वक्त अगर मेरी जगह कोई भी होता और वह भी मेरी तरह डरपोक... तो वह भी यही सब सोच रहा होता। बहुत दूर एक बल्ब की रोशनी थी जो मोडों पर ग़ायब हो जाती थी और फिर कुछ देर में वापिस आ जाती थी... पर उस बल्ब की रोशनी की दूरी कम नहीं हो रही थी... अचानक मुझे लगने लगा कि यह आदमी मुझे यहीं गोल-गोल धुमा रहा है... रास्ता खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था.... दिन में मुझे इतना वक़्त तो नहीं लगा था..???... मैंने हिम्मत करके फिर पूछा....’कितनी दूरी और है?’ इस सन्नाटे में मुझे मेरी ही आवाज़ इतनी ज़्यादा लगी कि आधा वाक्य मैं डर के मारे अपने मुँह में ही बोल गया। आप यक़ीन नहीं करेगें वह तब भी चुप ही रहे। एक भीतर से इच्छा हुई कि अभी दौड़ लगाना शुरु कर दू...पर मैं चुपचाप उनके पीछे-पीछे चलता रहा... अब मेरी निग़ाह पूरी तरह उनके ऊपर थी...अगल-बगल के अंधेरे से अब मुझे कोई मतलब नहीं था।
मैंने इस बार गला साफ करके, अपने पूरे डरे हुए आत्म विश्वास को समेटते हुए पूछा... ’अरे! साहब कितना समय और लगेगा।’ इस बार उन्होंने मेरी तरफ एक बार देखा...। शायद मेरे प्राण-पखेरु के अभी पंख नहीं निकले थे... वरना वह अभी, इसी वक़्त उड़ चुके होते। मैंने खुद डर के मारे अपनी निग़ाह हटा ली..... वापिस पलटकर देखा तो वह अपनी गति से चल रहे है... आगे, अधेरे में शून्य की तरफ देखते हुए....। मेरी अब जॉन ही सूखती जा रही थी.... या तो वह कुछ बोले या मैं अभी इसी वक़्त अपने प्राण त्याग दूगां। उनके हाथ में एक डंडा था... पर वह उसे टिकाकर नहीं चल रहे थे... वह बस उनके हाथ में था.... चाल भी ऎसी कि चलने की आहट भी नहीं हो रही थी...। भीतेर एक इच्छा तीव्रता पर उठने लगी कि उनका डंडा छीनकर उन्हीं के सिर पर दे मारु और दौड़ लगा दूं....।
तभी एक आवाज़ आई... यह उन्हीं की आवाज़ थी....-’तुम कुछ सुन रहे हो....?’ मैं समझ ही नहीं पाया....!!! ’जी..?’ बस मेरे मुँह से बस इतना ही शब्द निकला...., वह भी इसिलिए कि कहीं वह यह बोलकर फिर चुप न हो जाए। ’यह छोटी-छोटी आवाज़े...यह लय...? तुम्हें सुनाई नहीं दे रही... इसी को रात का होना कहते हैं।’ मैं चुप था.... उनके बोलने में एक अजीब सा संगीत था...। ’गाँव बस आने ही वाला है....।’ वह धीरे से बोले... और थोड़ी दूर तक शांत रहे..। मेरे पीछे से जैसे कोई मेरे डर को खींचे जा रहा था...’गाँव बस आने ही वाला है।’ यह वाक्य सांत्वना पुरुस्कार की तरह काम कर गया, मेरा आधा डर जाता रहा...। मैं उनके बारे में अब बहुत बुरा भी नहीं सोच रहा था....। तभी वह रुक गये... बिना मुझे कुछ बताए सड़क से नीचे की तरफ उतर गए... मुझे फिर लगने लगा कि यह एक पेड़ के ऊपर चढ़ने वाले हैं। मैं सड़क पर, अधेरे में एक दम अकेला खड़ा था... मैंने धीरे से आवाज़ लगाई..’अरे साहब.... कहाँ चल दिये... सुनिये...।’ कुछ और भी संबोधन जैसे शब्दों को जोड़कर, कुछ टूटे-फूटे वाक्य बोलने के बाद, मैं चुप हो गया....। मेरा आधा डर जो पीछे कहीं छूट गया था वह वापिस मुझसे आ चिपका...। मैं अपने चारों तरफ देखने लगा... धीरे से बेग़ में हाथ गया और मैंने टटोलकर अपनी टॉर्च निकाल ली.... मैं उसे जलाने ही वाला था कि मुझे उनकी पेशाब करने की आवाज़ आने लगी...। मैंने टॉर्च नहीं जलाई... मैं थोड़ उनकी और जाकर खड़ा हो गया...। पेशाब की आवाज़ आना बंद हो गई.. पर वह ऊपर नहीं आए.. मैंने थोड़ा निग़ाह गड़ाकर देखने की कोशिश की... जिस तरफ वह गए थे... पर मुझे कोई नहीं दिखा..। मैंने अपनी टॉर्च जला ली और नीचे की तरफ देखा पर वह कहीं भी दिखाई नहीं दिये। टॉर्च की रोशनी में इस अधेरे को और भी भयानक बना रही थी...। मैंने आवाज़ लगाई....’ददा... दाजू... भाई साहब... आप ठीक तो हैं।’ तभी सड़क के आग से आवाज़ आई... ’चलो.. वहाँ क्यों खड़े हो...?’ अरे! वह आगे कब निकल गए? मैंने उनपर टॉर्च मारी... तो अजीब सा महसूस होने लगा... वह दूर खड़ए टॉर्च की रोशनी में और भी भयानक लग रहे थे, मेरी उनके पास जाने की हिम्मत नहीं हुए...। मैंने टॉर्च को बंद कर दिया... तेज़ कदमों से उनकी तरफ चलने लगा...। वह मुझे देखे जा रहे थे..., जैसे-जैसे मैं उनके पास पहुच रहा था... मुझे लगा मानों वह कुछ करने वाले हैं... पता नहीं पर उनकी आँखों में मुझे एक शेर की तैयारी दिखी... जब वह शिकार करने के पहले एक आखरी बार अपने शिकार को पेनी निग़ाह से देखता है...। मैं चलते-चलते कांप रहा था....सो मैंने दौड़ना शुरु कर दिया...। सीधे उनकी ही तरफ... वह सामने से हटे नहीं, मैंने भागते हुए उन्हें ज़ोर से टक्कर मारी... वह बुज़ुर्गवार नीचे गिर गए...। मैंने दौड़ना बंद नहीं किया... मैं भागता रहा.... जब तक कि मेरा गेस्ट हॉऊस नहीं आ गया। यह सब कुछ इतना जल्दी हुआ कि मैं जब अपने कमरे में सोने की तैयारी करने लगा तब मुझे अचानक उन बुज़ुर्गवार की चिता होने लगी...। रात काफ़ी देर तक जगता रहा पर रुम से निकलने की हिम्मत नहीं हुई, सोचा सुबह उठते ही पता करुगाँ।
सुबह उठते ही मैं सीधा उस जगह पहुचा... मैं वहाँ पहुचते ही अपने आपको कोसने लगा... इस खूबसूरती से मैं गई रात डर रहा था? लानत है मुझ पर। उन्हें ढूढंने की कोशिश की पर वह कहीं भी नहीं दिखे फिर वापिस मैं गाँव लोट आया। अंदर गेस्ट हॉऊस में जाने की इच्छा नहीं थी सो बाहर ही एक चाय की दुकान पर बैठा चाय पीने लगा....। अभी मुझे यहाँ करीब दस दिन और रहना है...। मैंने पेपर पढ़ने लगा। तभी मेरे सामने से एक आदमी, छोटे से बच्चे को साथ में लिए गुज़र रहा था... और मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, यह तो वह ही बुज़ुर्गवार हैं...। उन्होंने मेरी तरफ देखा... और थोड़ी ही देर में निग़ाह फेरते हुए सीधे जाने लगे... मैं उनसे माफ़ी मॉगना चाह रहा था....। मैंने उन्हें आवाज़ लगाई एक बार... दो बार पर वह नहीं मुड़े...। अलबत्ता, उनके साथ चल रहे बच्चे ने एक बार पलटकर मेरी तरफ देख लिया। तभी चाय वाले ने मुझे बताया... वह द्येउनदा हैं। मैं द्येउनदा के नाम से चिल्लाने लगा... तो उस चाय वाले ने मुझे टोकते हुए कहाँ कि वह तो बहरे हैं... उन्हें सुनाई नहीं देता। पर... मैंने चाय वाले से कहाँ कि रात में तो वह मेरे साथ थे... मुझे नहीं लगा कि वह नहीं सुन सकते हैं। मैंने उस बहस में ज़्यादा समय नहीं बर्बाद किया... मैं एक बहुत बड़े गिल्ट से मरा जा रहा था... मैंने अपनी चाय वहीं छोड़ी और मैं भागता हुआ उनके पास पहुँचा..। जब मैं उनके सामने जाकर खड़ा हुआ,तो वह रुक गए...। मैंने इशारे से उनसे माफ़ी माँगी... पर वह मुझे आश्चर्य से देखते रहे.. जैसे उन्हें कुछ भी याद नहीं हो। मैंने उनके पैर पड़ लिए... और बगल की दुक़ान से बहुत सारी टॉफ़ियाँ खरीदकर, उस बच्चे के हाथ में भर दी..और वापिस उनके सामने खड़ा हो गया... मैं उनके सामने से हटा नहीं...मैं माफ़ी चाह रहा था.. तभी, पहले उनकी आँखें, फिर उनके होठों पर एक हल्की सी मुस्कान आ गई.. मानों उतनी देर में उन्होंने, बीती हुई रात, मेरी आँखों में पढ़ ली। उनके मुस्कुराते ही मैंने एक गहरी सॉस ली... और उनके सामने से हट गया। वह उस बच्चे के साथ आगे चल दिये...।

Sunday, October 5, 2008

लेखक...


यह काफ़ी अजीब है कि मैं अपनी पूरी ईमान्दारी से जब भी किसी बहुत गहरे अनुभव/एहसास को जी रहा होता हूँ, चाहे वह दुख हो सुख हो.... या अकेलापन हो... मैं अचानक अपने ही आप को, दूर जाकर देखने लगता हूँ... एक तरीके का अभिनय वहाँ शुरु हो जाता है जहाँ सच मैं क्षोभ था, करुणा थी, पीड़ा थी। और फिर मेरे सारे एहसास एक दम मुझे किसी लिखी हुई कहानी का हिस्सा लगने लगते है, या अगर सही कहूँ तो किसी लिखी जाने वाली कहानी का हिस्सा। यह कौन लिख रहा है... या यह कौन सा लेखक है जो ठीक उस ईमांदारी के बीच में चला आता है.... और अपनी कहानी का सामान बटोरने लगता है। यह त्रासदी है, सच... मैं एक अजीब से डर से लगातार गुज़रता रहता हूँ.....। अब जब मेरा लेखक एक नया ताज़ा एहसास बटोरता है तो मैं उस वक़्त खुश होना चाहता हूँ, क्योंकि मैं उस बेचारे लेखक की छटपटाहट के साथ जीता हूँ... पर उस समय जिये जा रहे अपने सच्चे emotions का क्या करुँ? अब अगर मैं यहाँ धोखा देने या धोखा खाने की बात करुँ तो.... यह सवाल अपना अर्थ खो देगा।–

हमारे चित्र...


कहीं तो हमने वह चित्र देखें ही होगें जिन्हें, अब हम खुद बनाना चाहते हैं... वह सारे चित्र, जिनके अच्छे बुरे सारे रंग हममें समाए हुए हैं, उन्हें लेकर सिर्फ छटपटाने से अच्छा है कि हम उन सारे रंगों की उल्टी कर दें। सफेद, सीधा, सपाट सा हमें जो अपना भविष्य दिखता है, हम कम से कम... कुछ गंदला तो करें। कभी तो हमें हमारे रंगों पर शक सा होता है तो कभी दूसरे के चित्रों से जलन। हमारे अपने रंग, भले ही ढेरों प्रसिद्ध चित्रकारों की चित्रों के सामने मज़ाक जैसे लगें, पर कम से कम हमारे सारे रंग भीतर पड़े-पड़े ही सड़ गये का गम तो नहीं रहेगा। अब इस प्रयोग के अंत में चित्र कैसा बनता है... ये बात नगण्य है।

Saturday, October 4, 2008

सुबह की अंगड़ाई...


नींद शायद अपनी खुमारी पर हो, नींद को, पास बैठे रहने की सलाह हर बार नींद को शायद रास आ जाती हो। कहीं कह सकने की इच्छा... कहीं कह दिये जाने की पीड़ा, भीतर की एक दीवार खरोंच रही हो। हाँ, मैं ही हूँ जिसने रुलाया है... हर सुबह को....। हर सुबह को मैं जीना चाहता हूँ, अपनी एक भरी-पूरी अंगड़ाई के साथ उसमें प्रवेश करना चाहता हूँ। हर सुबह, सुबह ही क्यों नहीं रहती वह दिन क्यों हो जाती है? रात मेरे अकेलेपन की तरह है, वह कम-से-कम मेरे साथ तो रहती है, सुबह बदल जाती है, कुछ और हो जाती है। जहाँ मैं नहीं हूँ। मेरा खुद का जीना कितना मानी रखता है, इस सुबह और रात के होने की विशालता में..? मैं धोखा दे रहा हूँ, या धोखा खा रहा हूँ... एक लुका-छिपी का खेल है। अगर मैं ढूढ़ रहा हूँ तो धोका खा रहा हूँ.... और अगर मैं छिपा हुआ हूँ तो धोखा दे रहा हूँ। आज भी उस सुबह को मैं पूरी तरह जीना चाहता हूँ... पर यह खेल मैं खेलना नहीं चाहता। मेरी सुबह अगर रोती है तो उसकी वजह मैं ही हूँ, मैं ही हर सुबह सोया रहता हूँ। मैं नहीं सामना करना चाहता उसका। रात उस सीमा तक मेरे साथ रहती है जिस सीमा तक मैं रात का साथ देता हूँ। वहाँ यह लुका-छिपी का खेल नहीं है। मेरी कमज़ोरीयाँ है, मैं बहुत कमज़ोर हूँ। मैं भाग जाता हूँ, जब कुछ दे नहीं पाता.... या जब देने की क्षमता खो देता हूँ। रात को पसंद करने के पीछे कारण सिर्फ मेरा अहं है और कुछ नहीं.... क्योंकि ऎसा मुझे लगता है कि मैं रात को अपनी मर्ज़ी से धुमा-फिरा सकता हूँ, यह भ्रम है.. पर ऎसा भ्रम जिसमें मेरी कमज़ोरीयाँ छिप जाती हैं। मेरी हमेशा इच्छा रही है कि काश वह सुबह, ऎसी ही किसी रात को चुप-चाप मेरे घर के किसी कोने में कहीं चोरी से बैठे मुझे देखती रहे। वहाँ मैं.... कुछ मैं रह पाता हूँ। सुबह जैसे दिन होते ही बदल जाती है वैसे ही दिन में, मैं कुछ ओर हो जाता हूँ.... मैं वह रात का आदमी नहीं रह जाता जो अपनी तमाक कमज़ोरीयाँ... अपने सामने रखकर बात करता है। अगर मुझे चौबीस धंटो में से चुनने को कहा जाए कि किन बारह धंटों में तुम सोना चाहते हो तो मैं दिन के बारह धंटे ही चुनुगाँ। मैं शायद बात से भटक रहा हूँ... बात है कि- ’मेरे कारण सुबह रोती है’।...यह बात है जो अभी मेरे सामने है और मैं इस बात को या कमज़ोरी को बार-बार टाल रहा हूँ। जबकी मैं इस वक़्त रात में ही बैठ के बात कर रहा हूँ। मेरे कारण सुबह रोती है- पर बात करने की ताकत मैंने सुबह के रोने से ही पाई है। रात को धुमा-फिरा सकने का जो धमंड मेरे भीतर है (झूठा ही सही), शायद यह ही वह धमंड है जिसके कारण मैं रात के साथ और रात मेरे साथ... लगातार एक संबंध बना पाए हैं। पर सुबह का संबंध मेरे हाथ में नहीं है.... वह ठीक उस वक़्त बदल चुकी होती है जिस वक़्त मैं उसे जीना शुरु करता हूँ। नींद मेरे बस में हैं... सो मैं उसके साथ खेलता रहता हूँ। मैं इस सत्य को भी जानता हूँ कि सुबह जितनी भी है वह अपने आपमें पूरी है... उसका उससे ज़्यादा या उससे कम होने का प्रश्न ही नहीं उठता है। मैंने कई बार अपनी नासमझी मैं रात से अपने सुबह के धोखों के बारे में प्रश्न किये है और मैं रोया भी हूँ.... बहुत..मैंने रात से कई बार कहा है कि ’देखों मैं तो जी रहा था पर वो ही बीच में बदल गई वह दिन की हो गई?’... रात चुप रही... मैंने फिर कहा-’ यह गलत है, वह ऎसा कैसे कर सकती है।’ रात फिर भी चुप रही। पर मैं खामोश रहने वालो में से नहीं था मैं बोलता ही जा रहा था....। अंत में रात ने मुझसे कहा कि तुम सुबह को भला-बुरा कहकर अपने जीये हुए को ही गालियाँ दे रहे हो.... अगर तुम अभी यहाँ तक बहते हुए आ गए हो तो वह उस सुबह जैसी नदी का ही कमाल है....। सुबह तो बहती ही... वह तो तुम अपनी खैर मनाओ कि तुम उसके साथ उस वक़्त थे... जब वह बह रही थी... सो तुम यहाँ तक चले आए।..... मैं चुप हो गया। मैं एक तरह की गलानी में भी चला गया....। अब कल जब सुबह होगी तो मैं उससे कैसे निगाह मिला पाऊगाँ। सो यह संबंध कुछ इस तरह का हो गया कि मैं अपने होने में अब, सुबह का होना टाल जाता हूँ। मैं अपनी सारी ग्लानीयों और कमज़ोरीयों के साथ कैसे सुबह को बता सकता हूँ कि देखो मैं भी ठीक उसी बात पर गई रात रो रहा था... जिस बात को लेकर तुम अभी दुखी हो। वह सुबह कुछ ही देर के लिए ही सही एक बार रात मैं आकर मुझसे मिले तो सही...और मैं कह सकूं कि मैंने अपने जीवन की सारी अंगड़ाईयाँ तुम्हीं से सीखी हैं। यह सारे खेल जो हमने खेले हैं वह हम दोनों के खेल थे... वह किसी एक की हार या जीत कतई नहीं हो सकते। अब मैं इन खेलों से डरा हुआ हूँ और चुपचाप रात में अपने अकेलेपन के साथ बातें करता रहता हूँ। नींद फिर अपनी खुमारी पर आई है.... और मैं अभी और कुछ देर के लिए उसे अपने पास बिठाना चाहता हूँ। कल शायद सुबह से सामना हो... और मैं सुबह-सुबह एक नई अंगड़ाई ले सकूं... वह अंगड़ाई नहीं जो मैं ले चुका हूँ। या जिसकी सुबह को आदत है.... बल्कि नई अंगड़ाई जिससे मेरे और सुबह के बीच से एक और नदी फूटे... जो हम दोनों को बहा ले जाए... कहीं दूर और कहीं भी नहीं। मैं अपनी और सुबहो को रोते हुए नहीं देख सकता... मैं अब और नहीं भाग सकता हूँ... मैं अब और नहीं खेल सकता हूँ।

Saturday, July 19, 2008

”दया बाई" उर्फ Mercy Mathew को सलाम...


आज ही सुबह-सुबह दूरदर्शन पर एक documentary देख रहा था जो ’दया बाई’(mercy Mathew) पर थी।उन्हीं के संबंध में लिखने की इच्छा हो आई। सो कुछ जानकारी जो मुझे मिली, उसे बाटना चाहता हूँ, जो इस प्रकार है।(इसमें से कुछ अंश मैंने नंदितादास के संस्मरण से भी लिए है... वो करीब एक हफ्ते उनके साथ रहीं थीं..।)
’दया बाई’ एकदम tribal औरत दिखती हैं.... उनकी आवाज़ में एक पेनापन है... वो छोटे-छोटे नुकड़ नाटक करती है...तो उनका अभिनय देखकर अपको अपने होने पर लज्जा सी होने लगती है।वो एक ऎसा जीवन है जिसका एक-एक पल दया बाई ने, निचोड़कर जिया है। केरला के एक समपन्न परिवार में दया बाई का जन्म हुआ... एक अच्छी क्रिश्चयन होने के नाते.. लोगों की सेवा करने के उद्देश्य से उन्होनें NUN बनना तय किया...। वो बिहार के एक मिश्नरी स्कूल में गई, पर उन्हें वो दो अलग-अलग दुनियाँ लगी... और वो वहाँ रहते हुए उस बाहर की दुनियाँ से संबंध स्थापित करने में, अपने आपको नाकाम महसूस करती रहीं।एक दिन वो वहाँ से भाग गई... और धूमती रही.... उस दुनियाँ.. उन लोगों की तलाश में जहाँ वो उन्हीं के बीच की होके काम कर सकें। उन्होंने रिफ्यूजी केंप (बांग्लादेश) में सन 1971 की जंग के बाद काम किया। फिर कुछ NGO’s के लिए... उन्होंने इस बीच masters in social work की पढ़ाई भी की पर वो अधूरी ही रह गई। वहाँ से वो फिर निकल गई.... इस बार वो मध्य प्रदेश के जंगलों में धूमी..और अंत में वो छिंदवाड़ा पहूची... । पर यह सब उन्होने कुछ भी तय नहीं किया था... वो कुछ संयोग ऎसा हुआ कि वहाँ से उनको आगे जाने के लिए ट्रेन लेनी थी... और उनके पास पैसा नहीं था। जब पैसा था नहीं तो उन्होने चलना तय किया... वो करीब 25 kms! चलीं... जब उनके पेर जवाब देने लगे तब वो एक गावं में पहुची.. जिसका नाम ’बारुल’/चिटवाड़ा (Barul) था, लगभग अगले पंद्रह सालों तक वो यहीं रहीं।पहले उनको यहाँ किसी ने भी अपनाया नहीं.... वो किसी के भी बरामदे में सो जाती.. जो भी कोई कुछ दे देता खा लेती.... फिर धीरे-धीरे उनकी रात की गाने की महफिलों में लोगों ने उनसे बात करना शुरु किया। वो बताती हैं कि किसी एक आदमी ने उनसे कहाँ कि ’आप यहाँ क्यों आई है.. हम बंदरों के बीच...।’ और उनकी आँखों से आँसू निकल आए... शायद ये ही वो क्षण हो जब उन्होने तय किया कि मैं यहीं रहूगीं...।उन्हें शुरु में समझ में नहीं आया कि वो कहाँ से अपना काम शुरु करें... उन्हें खुद भी कानून का ज़्यादा ज्ञान नहीं था, वो उन लोगों के लिए लड़ने में अपने आपको असमर्थ पा रही थी, तो उन्होनें तय किया कि वो Bombay जाएगीं... उन्होनें बंबई में अपनी master’s degree, सामाजिक काम के लिए पूरी की, उसके बाद वो वापिस बारुल/चिटवाड़ा गई वहा उन्होने अपना काम शुरु किया और साथ ही साथ उन्होने law में correspondence कोर्स भी किया।
उनके काम में, वहाँ के बच्चे जो चरवाहे है, उनके लिए रात में स्कूल चलाना।वहाँ की औरतों के लिए काम करना.. नुक्कड नाटक कर-कर के लोगों को उनके अधिकारों के बारे में जानकारी देना।वहाँ वो बच्चों को ’अ’ से ’अनार’ नहीं बल्कि “अ” से “अंड़ा” पढ़ाती हैं, उनका कहना है कि गांव के बच्चों को ’अंड़ा’ पता है ’अनार’ नहीं। वहाँ के लोगों का कहना है... कि... ’दया बाई के रहते कोई भी पुलिस वाला यहाँ आकर कोई भी बत्तमीज़ी नहीं कर सकता।’
उनके पिताजी की मृत्यु के बाद उन्हें कुछ पैसा मिला... जिसे बहुत ही मुश्किल से इन्होंने स्वीकार किया.... और उस पैसे से पहली बार उन्होने उस गावं में अपनी थोड़ी सी ज़मीन खरीदी...। उनके परिवार में गाय है, बिल्ली है, बकरीयाँ है... मुर्गीयाँ ... और उनसे वो अपनी सारी परेशानियों के बारे में बात करती रहती हैं.... और वो सब ’दया बाई’ की बातें सुनती भी हैं।उन्होने कुछ चावल की खेती की है.. कुछ सब्ज़ीयाँ भी उगाईं है... एक दिन उन्हें, उन टमाटरों से भी बात करते हुए पाया गया।
गांव वाले कहते है कि इस उम्र में भी वो पैदल ही चलती हैं... किलोमीटर के किलोमीटर नाप जाती हैं। उनके बारे में बुरा बोलने वाले भी कम नहीं है उनकी जात से लेकर, उनकी काम को भी महज़ एक publicity का बहाना बताया गया है...। यहाँ तक कि उनको मारने की भी कोशिश की गई। वो कहती है जब भी मैं परेशानी में होती हूँ... ऊपर वाले को टेलीफोन कर के बात कर लेती हूँ। यूँ मैं भगवान में विश्वास नहीं करता हूँ.. पर इतना कह सकता हूँ कि अगर भगवान हैं तो उनसे टेलिफोन पर बात ज़रुर करते होगें।उन्हें 2007 का ’Vanitha Woman of the year’ award भी मिला है।किरन बेदी ने कहाँ कि –’ मेरी माँ के बाद ये ही मेरी role model हैं।’ मैं दया बाई के बारे में क्या सोचता हूँ.... मैंने कई बार लिखने की कोशिश कि.. पर हर बार कुछ वाक्य लिखने के बाद मुझे... सारा का सारा लिखा हुआ छोटा लगने लगा।मैं काफ़ी कोशिश करता रहा, तभी मुझे निर्मल वर्मा की बात याद आ गई... जो उन्होनें गांधी जी के लिए लिखा था।मैं बिलकुल ’दया बाई’ के लिए वैसा ही महसूस करता हूँ जैसा निर्मल जी गांधी जी के लिए करा करते थे। निर्मल वर्मा ने गांधी के बारे में लिखा है कि
–“जब भी मैं गांधी के बारे में सोचता हूँ, तो कौन-सी चीज़ सबसे पहले ध्यान में आती है? लौ-जैसी कोई चीज़- अंधेरे में सफेद, न्यूनतम जगह घॆरती हुई, पतली निष्कंप और पूरी तरह से स्थितप्रज्ञ!!! फिर भी जलती हुई, इतनी स्थिर कि वह जल रही है,इसका पता नहीं चलता। मोमबत्ती जलती है-लेकिन लौ? मैं जब कभी उनका चित्र देखता हूँ तो मुझे अपनी हर चीज़ भारी और बोझ लदी जान पड़ती है- अपने कपड़े, अपनी देह की मांस-मज्जा, अपनी आत्मा भी और सबसे ज़्यादा- अपना अब तक का सब लिखा हुआ। इसके साथ याद आता है गोएटे का कथन, जो उन्होंने आइकरमान से कहा था, ’हर स्थिति-नहीं, हर क्षण- अनमोल है, वह समूचे शाश्वत का परिचय देता है।’
Daya Bai in her speach said in her service to people she had faced several problems and even her life was threatened. However, 'I will continue to serve people.'My dream is that justice, equality and liberty becomes a reality to everyone in the nation'.

Daya Bai, whose original name was Mercy Mathew, was working for the last 27 years to educate tribals in Chintwada village and fighting for their rights.

Thursday, July 10, 2008

’अबाबील...’- कहानी



'तुम अगर कहो तो मैं तुम्हें एक बार और
प्यार करने की कोशिश करुगाँ,
फिर से,शुरु से।
तुम्हें वो गाहे-बगाहे आँखों के मिलने की
टीस भी दूगां।
तुम्हारा पीछा करते हुए,
तुम्हें गली के किसी कोने में रोकूगाँ,
और कुछ कह नहीं पाऊगाँ।
रोज़ मैं तुम्हें अपना एक झूठा सपना सुनाऊगाँ,
पर इस बार
'सपना सच्चा था'- की झूठी कसम नहीं खाऊगाँ।
अग़र तुम मुझे एक मौक़ा ओर दो...
तो मैं तुमसे...
सीधे सच नहीं कहूंगा,
और थोड़ी-थोड़ी झूठ की चाशनी,
तुम्हें चटाता रहूगाँ।




'बस रोक दो मुझे ये नहीं सुनना है।'

उसने कुर्सी पर से उठते हुए कहा, वो कुछ सुनना चाहती थी ये ज़िद्द उसी की थी।मैं चुप हो गया।वो कमरे में धूमती रही,उसे अपना होना उस कमरे में बहुत ज़्यादा लग रहा था,वो किसी कोने की तलाश कर रही थी जिसमें वो समा जाए, इस घर में रखी वस्तुओं में गुम हो जाए, इस घर का एक हिस्सा बन जाए, जैसे वो कुर्सी, जिसपर से वो अभी-अभी उठ गयी थी।

'क्या हुआ?'

मैंने अपनी आवाज़ बदलते हुए कहा, उस आवाज़ में नहीं जिसमें मैं अभी-अभी अपनी कविता सुना रहा था।

'तुम्हारी कविता से मुझे आजकल बदबू आती है। किसकी?... मैं ये नहीं जानती।'

उसे शायद मेरे छोटे से कमरे में एक कोना मिल गया था, या कोई चीज़ जिसे पकड़कर वो सहज हो गई थी और उसने ये कह देया था।... पर मेरे लिए वो कुर्सी नहीं हुई थी, वो मुझे अभी भी घर में लाई गई एक नई चीज़ की तरह लगती थी।मेरे घर की हर चीज़ के साथ 'पुराना' या 'फैला हुआ' शब्द जाता है, पर वो हमेशा नई लगती है, नई...धुली हुई, साफ सी।ऎसा नहीं है कि मेरे घर में कोई नयी चीज़ नहीं है, पर वो कुछ ही समय में इस घर का हिस्सा हो जाती है। यहाँ तक की, नई लाई हुई किताब भी, पढ़ते-पढ़्ते पुरानी पढ़ी हुई किताबों में शामिल हो जाती है।पर वो पिछले एक साल से यहाँ आते रहने के बाद भी, पढ़े जाने के बाद भी, पुरानी नहीं हुई थी... , जिसे मैं भी पूरे अपने घर के साथ पुराना करने में लगा हुआ था।

'मेरे लिखे में, तुम्हारे होने की तलाश का, मैं कुछ नहीं कर सकता हूँ।'

इस बात को मैं बहुत देर से अपने भीतर दौहरा रहा था, फिर एक लेखक की सी गंभीरता लिए मैंने इसे बोल दिया।
रात बहुत हो चुकी थी, उसे घर छोड़ने का आलस,उसके होने के सुख को हमेशा कम कर देता था।वो रात में,कभी भी मेरे घर में सोती नहीं थी, वो हमेशा चली जाती थी। बहुत पूछने पर उसने कहा था कि उसे सिर्फ अपने बिस्तर पर ही नींद आती है।उसने मेरी बात पर चुप्पी साध ली थी, कोने में जल रहे एक मात्र टेबिल लेंप की धीमी रोशनी में भी वो साफ नज़र आ रही थी, पूरी वो नहीं, बस उसका उजला चहरा, लम्बें सफेद हाथ। अचानक मैं अबाबील नाम की एक चिड़िया के बारे में सोचने लगा, जिसे मैंने उत्तरांचल में चौकोड़ी नाम के एक गांव में देखा था। वो उस गांव की छोटी-छोटी दुकानों में अपना घोसला बनाती थी, छोटी सी बहुत खूबसूरत। शुरु शुरु में मुझे वो उन अधेरी,ठंड़ी दुकानों के अंदर बैठी, अजीब सी लगती थी,मानो किसी बूढ़े थके, झुर्रीदार चहरे पर किसी ने रंगबिरंगी चमकदार बिंदी लगा दी हो। पर बाद बाद में मैं उन दुकानों में सिर्फ इसलिए जाता था कि उसे देख सकूं, जो उसी दुकान का एक खुबसूरत हिस्सा लगती थी।

'मुझे पता है ये केवल कल्पना मात्र है, उससे ज्यादा कुछ नहीं, पर मुझे लगता है कि तुम मुझे धोखा दे रहे हो, नहीं धोखा नहीं कुछ और। कल रात जब मैं तुम्हारे साथ सो रहे थे तो मुझे लगा कि तुम किसी और के बारे में सोच रहे हो, तुम मेरे चहरे को छू रहे थे पर वंहा किसी और को देख रहे थे।उस वक्त मुझॆ लगा, ये सब मेरी इन्सिक्योरटीज़ है और कुछ नहीं। पर अभी ये कविता सुनते हुए मुझे वो बात फिर से याद आ गई।मैं इसका कोई जवाब नहीं चाहती हूँ, मैं बस तुम्हें ये बताना चाहती हूँ।'

रात में उसके सारे शब्द अपनी गति से कुछ धीमे और भारी लग रहे थे। मुझे लगा मैं उन्हें सुन नहीं रहा हूँ, बल्कि पढ़ रहा हूँ।

'ये तुम्हारी इन्सिक्योरटीज़ नहीं हैं, अगर तुम इसे धोखा मानती हो तो मैं तुम्हें सच में धोखा दे रहा हूँ। अभी भी जब तुम उस कोने में जाकर खड़ी हो गई थी, तो मैं किसी और के बारे में सोच रहा था।'

अब मैं उसे ये नहीं कह पाया कि मैं उस वक्त, असल में अबाबील के बारे में सोच रहा था, पता नहीं क्यों, पर शायद मुझे कह देना चाहिए था।

'मैं एक बात और पूछना चाहती हूँ, कि जब तुम मेरे साथ होते हो तो कितनी देर मेरे साथ रहते हो।''
'पूरे समय।'
'झूठ।'
'सच।'
'झूठ बोल रहे हो तुम।'
'देखो असल में...'
'मुझे कुछ नहीं सुनना... मैं जा रही हूँ...।'
'मैं तुम्हें छोड़ने चलता हूँ... रुको।'
'कोई ज़रुरत नहीं है...।'

और वो चली गई, खाली कमरे में मैं अपनी आधी सुनाई हुई कविता,और अपनी आधी बात कह पाने का गुस्सा लिए बैठा रहा।सोचा कम से कम वो आधी कविता अपने घर की पुरानी, बिखरी पड़ी चीज़ो को ही सुना दूं,पर हिम्मत नहीं हुई।उसे घर, आज घर नहीं छोड़ा इसलिए शायद वो यहाँ थी का सुख अभी तक मेरे पास था। मैं क्या सच में कल रात उसके साथ सोते हुए किसी और के बारे में सोच रहा था, किसके बारे में?
हाँ याद आया, मैं जब उसके चहरे पे अपनी उंगलियां फेर रहा था... तो अचानक मुझे वो सुबह याद हो आई, जब मैं अपनी माँ को जलाने के बाद, राख से उनकी अस्थीयाँ बटोर रहा था। मैंने जब तुम्हारी नाक को छुआ तो मुझे वो, माँ की एकमात्र हड़्डी लगी जिसे उस राख में से मैंने ढूढा़ था। उसके बाद मैं काफी देर तक राख के एक कोने में यू ही हाथ घुमाता रहा,हड्डीयाँ ढूढ़ने का झूठा अभिनय करता हुआ, क्योंकि मैं माँ की और हड़्ड़ीयों को नहीं छूना चाहता था... उन्हें छूते ही मेरे मन में तुरंत ये ख्याल दोड़ने लगता कि वो उनके शरीर के किस हिससे की है... ये उनकी मौत से भी ज़्यादा भयानक था।फिर मैं तुम्हारे बारे में सोचने लगा कि जब तुम्हें जलाने के बाद मुझे अगर तुम्हारी अस्थीयों को ढूढ़ना पड़ा तो... और इस विचार से मैंने अपना हाथ तुम्हारी पीढ़ पर ले गया... लगा कि तुम जलाई जा चुकी हो,तुम्हारा ये शरीर राख है और मैं उस राख में से तुम्हारी हड़्ड़ीयाँ टटोल रहा हूँ। तुम अचानक हंसने लगी थी, पर मैं शांत था क्योंकि मैं सच में तुम्हारी हड़डीयाँ टटोल रहा था।
वो सच कहती है मैं हर वक्त लगभग उसे ही देखते हुए कुछ और देखता होता हूँ...।

मैंने सोचा टेबल लेंप बंद कर दूं, पर उसके बंद करते ही कमरे में इतना अंधेरा हो गया
कि मुझसे सहन ही नहीं हुआ... मैंने उसे तुरंत जला दिया।नींद की आदत उसके कारण
एसी पड़ गई थी कि रात के कुछ छोटे-छोटे रिचुअल्स बन गये थे, जिन्हें पूरा किए
बिना नींद ही नहीं आती थी।जैसे उसे घर छोड़ने के बाद अकेले वापिस आते वक्त,
उसके रहने के सुख का दुख ढूढ़ना।वापिस घर आते ही उसे काग़ज़ पे उतार लेना...
वैसे यह अजीब है, जब मैं अपने सबसे कठिन दौर से गुज़र रहा था तो जीवन की खूबसूरती
के बारे में लिख रहा था, और जब भी घर में सुख छलक जाता है तब मैं पीड़ा लिखने का दुख बटोर रहा होता हूँ। शायद यही कारण है कि जब वो घर में होती है तो मैं उसके बारे में लिखना या सोचना ज़्यादा पसंद करता हूँ, जो उसके बदले यहाँ हो सकती थी।कल उसे छोड़ने के बाद ही मैंने ये कविता लिखी थी जिसे वो पूरा नहीं सुन पाई।बाक़ी रिचुअल्स में वो संगीत तुरंत आकर लगा देना जिसे उसके रहते सुनने की इच्छा थी।घर में धुसते ही शरीर से कपड़े और उसके सामने एक तरह का आदमी बने रहने के सारे कवच और कुंड़ल उतार फैकना।नींद के साथ उस सीमा तक खेलना जब तक कि वो एक ही झटके में शय और मात ना दे दे, और फिर चाय पीना, ब्रश करना या कभी कभी नहा लेना.... अलग।
अब ना उसे छोड़ने गया और ना ही रात का वो पहर शुरु हुआ है जहां से मैं अपने रिचुअल्स शुरु कर सकूँ। अचानक मैं फिर से अबाबील के बारे में सोचने लगा, उसी गांव (चौकोड़ी) के एक आदमी ने मुझे बताया था कि इस चिड़िया का ज़िक्र कुरान में भी हुआ है, और ये उड़ते-उड़ते हवा में अपने मूहँ से धूल कण जमा करती है, जिसे थूक-थूक कर वो अपना घोसला बनाती है।मैंने कुछ संगीत लगाने का सोचा पर फिर तय किया कि अभी तो रात जवान है.. पहले चाय बना लेता हूँ,मैं अपने किचिन में चाय बनाने धुसा ही था कि मुझे door bell सुनाई दी, मैंने तुरंत दरवाज़ा खोल दिया। वो बाहर खड़ी थी। मैं कुछ कहता उससे पहले ही वो तेज़ कदमों से चलती हुई भीतर आ गई।

'तुम मुझे मनाने नहीं आ सकते थे, तुम्हें पता है मैं अकेली घर नहीं जा सकती हूँ, मुझे डर लगता है।'

मुझे सच में ये बात नहीं पता थी। मुझे उसका यह चले जाने वाला रुप भी नहीं पता था सो उसका वापिस आ जाना भी मेरे लिए उतना ही नया था जितना उसका चले जाना। दोनों ही परिस्थिती में कैसे व्यवहार करना चाहिए इसका मुझे कोई अंदाज़ा नहीं था। मैं कुछ देर तक चुपचाप ही बैठा रहा। फिर अपने सामान्य व्यवहार के एकदम विपरीत, मैं उसके बगल में जाकर बैठ गया।

'I am sorry... माफ कर दो मुझे..।’

इस बात में जितना सत्य था उतनी चतुरता भी थी, पर इसमें मनऊवल जैसी कोई गंध नहीं थी। पर उसने शायद इन शब्दों के बीच में कुछ सूंघ लिया और वो मान गई।वो मेरी तरफ पलटी और मुस्कुरा दी।उसने अपने हाथ मेरे बालों में फसा लिए, और उनके साथ खेलने लगी।
'मैं जब पहली बार तुमसे मिली थी, याद हैं तुम्हें....मुझे लगा था कि तुम एक हारे हुए आदमी हो जो सबसे नाराज़ रहता हैं। क्या उम्र बताई थी तुमने उस वक्त अपनी?...पेत्तालीस साल... हे ना!'
'वो सिर्फ एक साल पुरानी बात है... i was 43 last year...'
'ठीक है 44... एक साल इधर-उधर होने से क्या फ़र्क पड़ता है।'

वो हंसने लगी थी, मैं जानता था वो मुझे उकसा रही है। कोई और वक्त होता तो शायद मैं जवाब नहीं देता पर मैं जवाब देना चाहता था क्योंकि मैं वो हारे हुए आदमी वाली बात को टालना चाहता था।उसके हाथ मेरे बालों पर से हट गए थे।

'चालीस के बाद,एक साल का भी इधर-उधर होना बहुत माईने रखता है।'
मैं एक मुस्कान को दबाए बोल गया था।

'हाँ.. मुझॆ महसूस भी होता है।'

ये कहते ही उसकी हंसी का एक ठहाका पूरे कमरे में गूंजने लगा।मैं चुप रहा, मानो मुझे ये joke समझ में ही नहीं आया हो।वो थोड़ी देर में शांत हुई...उसके हाथ वापिस मेरे बालों की तलाशी लेने लगे... हाँ मुझे अब उसका बाल सहलाना, अपने बालों की तलाशी ही लग रहा था।

'मैं जब छोटी थी, उस वक्त हमारे घर में बहुत महफ़िले जमा होती थी...।’
उसने अचानक एक दुसरा सुर पकड़ लिया... मैंने इस सुर को बहुत कम ही सुना है खासकर उसके मुहँ से.... वो मेरे हाथों को भी टटोल रही थी... मानो वो सारा कुछ,जो वो बोल रही है... मेरे ही हाथों मे लिखा हो...।

’पापा बहुत शौक़ीन थे बातचीत के, बहसों के... । मैं हमेशा उस महफ़िल की लाड़ली लड़की थी, पर जब भी मुझॆ नज़र अंदाज़ किया जाता मैं अजीब सी हरकतें करने लगती, चाय के कप तोड़ देती, रोने लगती... यंहा तक कि एक बार तो मैंने अपना हाथ तक काट लिया था। बाद में मैं पछताई भी थी... पर आज तक किसी को नहीं पता कि मैंने हाथ जानबूझकर काटा था। आज भी मैं अकेले बैठकर अक़्सर ये सोचती हूँ कि मेरा accident हो गया हैं, लोग मुझॆ देखने आ रहे हैं या मैं बहुत बीमार पड़ गई हूँ। जब मेरा आशीष से संबंध टूटा था तो मैंने मरने के बारे में भी सोचा था.... और ये सोच कर काफ़ी खुश होती थी कि उसको कितना पछतावा होगा.. वो रोएगा, अपना सिर पीटॆगा पर मैं.. मर चुकी होऊगीं।... तुम मेरी बात समझ रहे हो ना...।'

'हाँ...'

मैं बस 'हुं..' ही करना चाहता था.. पर मूँह से 'हाँ..' निकला। मुझे उसकी इस तरह की बातें बहुत अच्छी लगती थी... कहानी जैसी, ऎसी कहानी जिसमें सिर्फ नायीका की भूमिका लिखी हो बस और कुछ नहीं... भूमिका खत्म... कहानी खत्म।


'तुम्हें अजीब लगेगा ये सुनकर कि अब मैं उन हर बच्चों से चिड़ती हूँ, जो अपनी तरफ ध्यान आकर्षित कराने की कोशिश कर रहे होते हैं..। यहाँ तक कि मैं अपने office में भी काफ़ी भड़क जाती हूँ...। मुझे self pity या self sympathy से बहुत चिड़ है। शायद मैं खुद को, अपने आपको ड़ाट रही होती हूँ।'
'हुं...'
'तुम क्या 'हुं' कर रहे हो... मुझे सच में ऎसा लगता है।'

मैं बातचीत में नहीं फसना चाहता था सो मैं चुप रहने का 'हुं'... या... 'हाँ' अपने मूँह से निकाल रहा था।थोड़ी चुप्पी के बाद लगभग उस का सुर पकड़ते हुए मैंने कहा-

'मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि कैसे तुम एक सच को बिल्कुल जैसा का तैसा कह देती हो, जबकि मैं उस सच को कहने में अपनी कहानीओं के, पन्ने के पन्ने भर रहा होता हूँ, तुम्हें देर तो नहीं हो रही है?'
'क्यों तुम सोना चाहते हो?'

उसने तपाक से जवाब दिया।शायद वो पूछना चाह रही थी कि क्यों तुम बोर हो गए?.. मैं बोर नहीं हुआ था मैं तो बस अभी भी उस हारे हुए आदमी के संवांद से डरा बैठा था।

'नहीं, बल्कि मैं तो पूछना चाह रहा था कि तुम कुछ लोगी? ड्रिंक?'
'wine.. चलेगी..।'
'wine हैं नहीं.. अभी।'
'तो क्यों पूछा?...।'
'अरे rum हैं, wisky हैं... और चाय भी है।'
'तो चाय ही चलेगी।'
'पक्का?..

इसे मैं करीब एक साल पहले मिला था, मेरा बिना मेरा कुछ लिखा हुआ पढ़ें, उसने मुझसे कुछ ऎसे सवाल किए कि मैं पहली ही मुलाक़ात में उससे चिढ़ने लगा। फिर कुछ दिनों में उसका फोन आया-' आरती बोल रही हूँ।' अपना नाम उसने मुझे पहली बार फोन पर ही बताया था सो मैं पहचाना नहीं.... उसने कहा मैंने 'एक कहानी लिखी है आपको सुनाना चाहती हूँ'
जब वो घर आई तब मैंने उसे पहचाना, और तुरंत मुझे पछतावा होने लगा कि मैंने इसे क्यों बुला लिया।खैर फस चुका था सो मैंने सोचा सीधे कहानी सुनुगाँ और इसे चलता करुगाँ। जब उसने कहानी सुनाना शुरु की तो मुझे हंसी आने लगी। कहानी का नाम था 'मैं..एक विचार' । दुनियाँ मुझे समझ न सकी जैसी ढरों बातों से पूरी कहानी अटी पड़ी थी।वो हिन्दी साफ बोल नहीं पाती थी पर पूरी कहानी में ऎसे-ऎसे हिन्दी के शब्दों का प्रयोग किया गया था कि मुझे अपनी हिन्दी पे शर्म आने लगी।खैर बहुत मुश्किल से पूरी कहानी खत्म हुई, कहानी खत्म होते ही वो रोने लगी। मेरी कुछ समझ में नहीं आया मैंने उसे, अपनी सीमा में रहकर,बिना उसे छुए.... चुप कराने की कोशिश करता रहा... पर वो चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी... मैं किसी ऎसी बातों का गवाह कभी भी नहीं होना चाहता हूँ, जिन बातों की बुनियाद ही बचकानी हो। इसलिए मैं उन संवादो से डरा बैठा था जिनमें इसके रोने का कारण छुपा हुआ हो.... और मुझे पता है वो ये मुझसे कहना चाहती है...।

’असल में मैंने ये कहानी इसलिए लिखी...’

और वो शुरु हो गई... मैं समझ गया ये अपने पैदा होने की तकलीफ से कहानी शुरु कर रही है... ये काफ़ी लंबी चलने वाली है.. सो मैंने बीच में ही बात काट दी

’सुनों...मैं नहीं सुनना चाहता कि तुमने ये कहानी क्यों लिखी.... मैं कहानी को या लिखे हुए को ज़्यादा महत्व देता हूँ न कि वो क्यों और किसलिए लिखा गया है।’

’नहीं पर ये कहानी मेरी है... और मैं बताना चाहती हूँ कि ये क्यों ऎसी है।’
वो जैसे अपनी बात जल्दी से कह देना चाह्ती हो.... वो तेज़-तेज़ बोलने लगी थी... पर मैंने उसे रोक दिया...।

’देखो... व्यक्तिगत रुप से एक लेखक क्या करता है... या एक कलाकार कैसे रहता है, क्या सोचता है वो कतई महत्वपूर्ण नहीं है... महत्वपूर्ण है कि वो अपनी कला में क्या क्या कहने की क्षमता रखता है...।जैसे मेरी एक दोस्त थी, उसे एक लेखक की कविताएँ बहुत पसंद थी, संजीदगी से भरी हुई, पर जब वो लेखक से मिली तो वो इतनी मायूस हो गई कि उसने उसकी रचनाएं पढ़ना ही बंद कर दी। ये ग़लत है.... वो हमेशा कोई अलग आदमी होता है.. जो कर्म करता है और वो एकदम अलग है जो जीता है।’

अब इसे मेरी चालाकी कह सकते हैं... कि मैंने कैसे इसे अपनी पहली मुलाकात का जवाब भी दे दिया... जिसमें इसने मुझसे कहा था कि ’आप कितना नकारात्मक सोचते हैं...।’ और उसकी बातें सुन्ने से कन्नी भी काट ली...।
वो चुप हो गई थी... पर फिर,मेरी कहानी नहीं सुनने की वजह का शायद नतीजा ये हुआ कि उसने मेरे यहाँ अपना आना बढ़ा दिया... और अब, जितनी उसे मेरी ज़रुरत है,उससे कहीं ज़्यादा मुझे उसके यहाँ आने की आदत पड़ चुकी है। पर मैंने उससे उसकी काहनी लिखने की वजह अभी तक नहीं सुनी... उसने बातों ही बातों में बताने की कोशिश की थी पर मैंने हर बार उसे टोक दिया... और अब मेरे अंदर एक अजीब सा डर भी बैठ गया है कि अगर उसने अपनी कहानी लिखने की वजह मुझे बता दी तो वो यहाँ आना ही बंद कर देगी...।उसके बाद उसने कभी कोई कहानी नहीं लिखी, कुछ छुट-पुट कविताएँ ज़रुर लिखी हैं... पर उसने मुझे कभी वो सुनाई नहीं, बस हमेशा मुझसे कहा एक सूचना की तरह कि ’कल, मैंने कल एक कविता लिखी....। मैंने भी उससे कभी सुनाने की ज़िद नहीं की...।

चाय बन चुकी थी... मैं चाय लेकर बाहर आया वो कुर्सी पर बैठे-बैठे ही सो चुकी थी... मैंने धीरे से चाय उसके बगल में रखी और मेरे हाथ उसके कंधे की तरफ गये.. कि उसे उठा दूँ... पर मैं रुक गया... उसकी आँखे बंद थी.. पर उसके होठों पर बहुत महीन सी मुस्कान थी... अजीब सी.. मानों वो कोई बहुत मज़ेदार किस्सा सुन रही हो...। मैं उसके बगल में बैठ गया...पता नहीं क्या हुआ कि मैं उसकी कहानी के बारे में सोचने लगा... क्यों लिखी होगी उसने वो कहानी? मुझे अचानक एक ग्लानी होने लगी, पता नहीं क्या करण होगा और मैं स्वार्थी आदमी... उसे सुनने से ही इनकार कर दिया...। मैं कितना डरता हूँ, किसी भी किस्म की ज़िम्मेदारी से... हाँ ये एक किस्म की ज़िम्मेदारी ही हो जाती है कि आपको किसी के कारणों और वजहओं की जानकारी है... जैसे आप किसी लड़की से किसी भी तरह के प्रेम में संलग्न क्यों न हो, पर जैसे ही आप उसके माँ, बाप से एक बार मिल लेते हैं, तो आपको एक तरह की ज़िम्मेदारी का एहसास होने लगता है, उसके प्रति नहीं, उसके माँ, बाप के प्रति...।
मैंने अपनी चाय उठाई और खिड़की के पास आकर खड़ा हो गया...। बाहर शांति थी... हर थोड़ी देर में सड़क पर एक आध गाड़ी दिख जाती।तारे आकाश में छाए हुए थे, मंद-मंद हवा चल रही थी..। मैं वापिस मुड़कर उसको देखने लगा... वो अभी भी सो रही थी...। उसे देखते ही मुझे वापिस अबाबील का ख्याल हो आया... मुझे लगने लगा कि ये घर उस पहाड़ी गांव की एक दुकान हैं...अधेंरे से भरी हुई...बिखरी हुई... और इस दुकान जैसे घर में ये अबाबील है... ये कभी-भी इस घर का हिस्सा नहीं हो सकती... ये इस बूढ़े घर के चहरे की झुर्रीयाँ, कभी नहीं हो सकती... ये उस चहरे में हमेशा एक बिंदी की तरह ही शामिल हो सकती है...। ये मेरे घर की बिंदी हैं... और इस विचार से ही मेरे मन में उसके लिए इतना प्रेम उठने लगा कि मेरी इच्छा हुई कि उसे, अबाबील कहकर उठाऊं और उसे कहूँ कि मैं अभी इसी वक्त... तुम्हारी कहानी लिखने की वजह जानना चाहता हूँ...., या मैं उसे अपने बाहों में समेट लू, और कहूँ कि तुम बिंदी हो... मेरी बिंदी, इस घर की बिंदी...।

’क्या देख रहे हो...?’
वो अचानक बोल पड़ी, मैं चौंक गया...।

’अरे! मुझे लगा तुम सो रही हो।’

’ये मेरी बात का जवाब नहीं हुआ...?’

टेबिल लेंप की मधिंम रोशनी में उसकी आंखें मुझे नहीं दिख रही थी... मुझे लगा वो अभी-भी सो ही रही है... बोल कोई ओर ही रहा है.. वो नहीं..।

’तुम्हें ही देख रहा था... तुम बहुत सुंदर लग रही थी।’

इसमें शक़ था,डर था... वो शायद सो ही रही है, की आशा अभी तक खत्म नहीं हुई थी वर्ना ’तुम सुंदर लग रही थी’ ये वाक्य उसके जागते हुए मेरे मुहँ से निकलना नामुमकिन था।मुझे लगने लगा कि मैं एक चोरी करते पकड़ा गया हूँ, फिर मुझसे वहाँ खडे नहीं होते बना... मैं उसके पास चला गया...कुर्सी के किनारे बैठ गया और उसके बालों में जल्दी से अपनी उग्लियाँ फसा दी,और उसके बाल सहलाने लगा...आत्मविश्वास के लिए। वो मुस्कुराती दी...उसके मुस्कुराते ही लगा चोर कोई और था... वो खिड़की के पास कहीं पकड़ा गया था...मैं वो नहीं हूँ, मैं तो वो हूँ जो हमेशा से तुम्हारे बाल सहलाता है...और ऎसा कुछ सोचकर मैं भी उसके साथ मुस्कुराने लगा।

कुछ देर बाद मैं आदतन उसे घर छोड़ने गया... उसने मेरी बनाई हुई चाय पीना भूल गई थी... ये मैंने वापिस आकर देखा। आते वक्त मैं कुछ और नहीं सोच पाया.. हाँ बीच में अबाबील का ख्याल ज़रुर आया... पर वो मुझे उन पहाड़ो पे ले गया, पर मैं अभी पहाड़ो पे जाना नहीं चाह रहा था... सो वो ख्याल भी ज़्यादा देर तक नहीं चल पाया।वापिस आकर नींद से लड़ना भी नहीं पड़ा... वो बिस्तर में धुसते ही मुझे अपनी गिरफ्त में ले चुकी थी।

कुछ ही दिनों में मुझे बाहर जाना पड़ा... जब मैं करीब दो हफ्ते के बाद वापिस आया तो वो जा चुकी थी...। मैंने उसके बारे में बहुत पता भी नहीं किया, ऎसा नहीं था कि मैं उससे मिलना नहीं चाह रहा था... पर,अब इसे मैं अपना आलस कहूँ या ये कि मुझे कहीं पता था कि ये संबंध बस यहीं तक था।मेरे पास इससे ज़्यादा उसे देने के लिए नहीं था, और उसके कहानी लिखने के कारण को छोड़कर उसके पास शायद और कुछ ना बचा हो... पता नहीं। कारण बहुत हो सकते हैं... शायद अगर वो इसी शहर में होती तो हम कुछ समय ना मिलकर, अपने मिलने की बोरियत को मिटा लेते और फिर से वो ही सिलसिला शुरु हो जाता... इसके बारे में भी मैं बस अनुमान ही लगा सकता हूँ...।
इसके कई महीनों बाद मैंने एक ’अबाबील’ नाम की कविता लिखी.. जिसे मैंने उस अधूरी कविता जिसे मैं उसे सुना नहीं पाया था.. के साथ एक हिन्दी पत्रिका में छपवा दी...। मैंने शायद ये जानबूझकर किया था कि दोनों कवितओं को एक साथ छपवाया था, इसी आशा में कि शायद वो कभी कहीं इसे पढ़ेगी और शायद उसे ये पता लग जाएगा कि उस रात में उसके साथ रहते हुए किसके बारे में सोच रहा था।

Thursday, July 3, 2008

एक मरता हुआ आदमी ’थियेटर’...


अभी कुछ ही दिन पहले किसी दिल्ली के हिन्दी अख़बार के किसी पत्रकार ने मेरा इन्टरव्यूह लिया, और वही बासी सवाल, जिनके जवाब देते देते लगभग हर नाटक से जुड़ा व्यक्ति बोर हो चुका। ये कुछ सवाल हैं।
-थियेटर मर रहा है क्या?
- हिन्दी नाटको में लेखक की कमी क्यों हैं?
- हिन्दी थियेटर में पैसा क्यों नहीं है?
- हिन्दी दर्शक?
- नाटको में निर्देशको की कमी?
- ब्ला-ब्ला... ब्ला-ब्ला... ब्ला-ब्ला...?
मैं सच में जानना चाहता हूँ कि वो कौन सा थियेटर नाम का आदमी है जो मर रहा है और जो सिर्फ इन्हीं से मिलता है, हमें कभी दिखाई नहीं देता।उसे कौन सी बीमारी है,जिसकी वजह से ये दुबले हुए जा रहे हैं पर उसका इलाज नहीं हो पा रहा है। मैं आए दिन, हर बार किसी न किसी पुराने थियेटर कर्मी से टकराता हूँ, और वो मुझसे कहता हुआ पाया जाता है कि-“थियेटर तो हम करते थे।अब तो बहुत बुरी हालत है।“ तो क्या थियेटर उनके साथ ही बूढ़ा हो रहा है? हमारे हाथ क्या वो थियेटर लगा है जिसकी दौड़ने की अब क्षमता नहीं रही... वो बस रेंग सकता है?और अगर कुछ ही दिनों में वो मर गया तो हम क्या करेगें...? मैं इस मरते हुए आदमी ’थियेटर’ से कभी नहीं मिला, लेकिन अगर वो मुझे कहीं मिल जाए तो मैं उससे एक सवाल ज़रुर करना चाहूगाँ- “भाई तुम मरते क्यों नहीं हो?’मर जाऊगां का डर’- बनाए रहते हो, मगर मरने का नाम ही नहीं लेते?” मुझे रेंगने वाले, बूढ़े होते हुए थियेटर में कोई दिलचस्पी नहीं है... मैंने उस पत्रकार से एक सवाल किया कि- “भाई तुमने कितने नाटक अभी हाल ही में पढ़े हैं? देखे नहीं पढ़े है?” तो वो चुप हो गया... मगर फिर घूमफिर के वो ही सवाल...। मेरी ये इन्टरव्यूह करने वाले लोगों में एक बहुत ही दिलचस्प बात लगती है कि असल में वो हमेशा अपना ही इन्टरव्यूह ले रहे होते..हाँ सच में... उनके पास बने बनाए सवाल होते हैं जिनका जवाब भी वो जानते हैं... तो जब तक उन्हें वो जवाब नहीं मिल जाता वो अपने प्रश्नों को दाग़ना बंद नहीं करते।फिर मैंने तंग आकर उस पत्रकार से कहां कि “मैं जल्द ही दिल्ली आ रहा हूँ क्या तुम मुझे इस मरते हुए आदमी ’थियेटर’ से मिलवा सकते हो?” वो हंसने लगा। मैंने कहा “मैं मज़ाक नहीं कर रहा, मैं सच में उससे मिलना चाहता हूँ?” बाद में वो अपने प्रश्नों पे अड़ा रहा, और मैं अपनी बात पे कि पहले मैं उससे मिलना चाहता हूँ।इंटरव्यूह नहीं हो पाया... परेशान होकर उसने फोन काट दिया। “हम थियेटर क्यों करते हैं?” मैं चाहता हूँ कि कोई मुझसे ये प्रश्न पूछे... और सच कहता हूँ मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं होगा।मैं चुप हो जाऊगाँ...। पर सच में अगर मैं सोचूं कि हम थियेटर क्यों करते हैं? अगर मैं आज थियेटर करना बंद कर दूं तो एक साल बाद किसी को याद भी नहीं होगा कि मानव नाम का एक आदमी थियेटर किया करता था। कई महीनों की महनत के बाद हम जब एक नाटक खोलते हैं, उसके दूसरे ही दिन समझ में नहीं आता कि क्या करें? थियेटर बहुत क्षणिक कला है,हमेशा से वो एक छोटे से समूह के लिए ही होती है, वो उस समय का पूरा मज़ा देती है।मेरे हिसाब से नाटक करना कुछ सिगरेट पीना जैसा है... जब भी आप दूसरी सिगरेट पी रहे होते हो तो पहली का नशा कभी याद नहीं रहता। और मेरे हिसाब से थियेटर सच्चे अर्थों में सिगरेट पीने की तरह किया जाना चाहिए... नई सिगरेट जलाने का सुख हमेशा बना रहता है पर उसे पीते ही... वो वहीं खत्म, समाप्त। थियेटर में अतीत मृत है, उसका महफिलों में बात करने के अलावा कोई मतलब नहीं हैं। मैं इस किस्म का थियेटर करना चाहता हूँ जो हमेशा जन्मता है, उसी वक्त उसे पैदा होते देखा जा सकता है।अपना समय पूराकरके एक नाटक मरता है और दूसरे नाटक को पैदा होने की जगह देता है। इस हिसाब से थियेटर लगातार मर रहा है और लगातार पैदा हो रहा है। मैं भी नाटक तब तक ही कर सकता हूँ जब तक जन्म देने की क्षमता भीतर भीतर बरकरार है। नाटक का पूरा मज़ा उसके कीए जाने में है उसके बारे में बात करने में नहीं। अब उपर्युक्त लिखे गए सारे प्रश्न मुझे बेमानी लगते है... जिनका जवाब मैं हमेशा एक सवाल से ही देना चाहूगाँ-“अगर आपको वो मरता हुआ आदमी ’थियेटर’ मिले तो क्या आप मुझे उससे मिलवा देगें।“

Sunday, June 22, 2008

विमल को खत..

दोस्त विमल,
तुम्हारा कमेन्ट पढ़ा, चूकि पहले मैं भी कुछ ऎसा ही सोचता था सो वो बातें बहुत कुछ अपनी सी लगी, परंतु मेरे विचार इस संदर्भ में कुछ बदले हैं... जिन्हें बस मैं कह देना चाहता हूँ। यू हबीब साहब,रतन थियम जैसे लोगों की वजह से भारतीय रंगमंच को अलग तरह की भाषा मिली हैं ये सभी जानते हैं..।मैं काफ़ी व्यक्तिगत तौर पर बात करना चाहता हूँ। हबीब साहब के साथ मैं भी शोषण शब्द का प्रयोग कर चुका हूँ,पर अब मेरा मानना है कि जितना भी हबीब साहब ने अभी तक काम किया है, और जितना उसके बदले उन्हें मिला है वो इससे कहीं ज़्यादा पाने का हक़ रखते हैं।इस हिसाब से तो इस देश में उनके साथ भी शोषण ही हुआ है, तो शोषण बहुत बड़ा शब्द है। जैसे मेरा मानना है कि ’विनोद कुमार शुक्ल’ जैसे लेखक को इस देश को सिर आखों पे बिठाना चाहिए पर ऎसा नहीं है।निर्मल वर्मा को उनकी मृत्यू के पहले तक उनके सारे लेखन का राजकमल उन्हें 5000/ रु हर माह... मात्र देता था...तो अब इस सब में हम क्या कहें कि महत्वपूर्ण क्या है, निर्मल वर्मा और विनोद कुमार शुक्ल का काम या वो शोषण जिसके असल में ज़िम्मेदार हम सब हैं। इन सब में जहाँ तक दीपक, या रामचंद्र जैसे अभिनेताओं का सवाल है वो बहुत ही वयक्तिगत प्रश्न है, राम अगर बाहर अभिनय नहीं कर पा रहा तो इसका कारण खुद राम है उसके ऊपर पारिवारिक ज़िम्मेदारीया कहीं ज़्यादा है उसके चार बच्चे हैं।जहाँ तक दीपक की बात है तो वो हबीब साहब को छोड़कर चला गया था फिर उसने अपना एक रंगमंच खोला और लगभग नया थियेटर का ही पुराना काम दोहराता रहा..नशे की लत की वजह से उसे पहला अटेक आया था फिर दूसरा...।इसके ज़िम्मेदार हबीब साहब नहीं हैं।हबीब साहब ने एक सोच का रंगमंच किया है उनकी बदोलत हमें बहुत ही उम्दा रंगमंच देखने को मिला है, ये सोच है, आविष्कार है... इसमें दीपक महत्वपूर्ण नहीं है, अभिनेता उस पूरे आविष्कार उस सोच का एक पुर्ज़ा मात्र है... आविष्कार नहीं...।दीपक के नहीं रहने पर भी वो सारे नाटक अभी भी चल रहे हैं।उस वक्त भी अगर दीपक नहीं होता तो कोई और होता.. पर अगर हबीब तनवीर या रतन थियाम नहीं होते तो हम एक अलग सोच, एक अलग तरह के रंग मंच से ही वंचित रह जाते।रतन थियाम के नाटक देखने के बाद हमें कितने अभिनेता याद रह जाते है? हमें अगर कुछ याद रह जाता है तो वो केनवास जिसपर रतन थियाम रंग भर रहे थे...और एक से बढ़कर एक दृश्य हमारे सामने आते जा रहे थे, और ये हम सबकी जानकारी की कमी हैं असल में हबीब साहब को पैसा शोहरत सब बहुत बाद में मिला है.. बहुत समय तक वो खुद पाई-पाई जमा करके रंगमंच किया है। और ये हमारे देश की हमारी त्रासदी है कि हमने हबीब साहब जैसे लोगों को उनका ढियू नहीं दिया है।
और जहाँ तक दूसरों का भविष्य बनाने का सवाल हैं वो एक बहुत छोटी बात है.... मेरा भविष्य कोई बनाएगा की आशा में अगर मैं जीना शुरु करु तो... माफ करना मैं मज़दूर हो जाना ज़्यादा पसंद करुगां।अ़च्छा रंगमंच करने वाले,अच्छे साहित्यकार यू भी समाज की परिधी पर जीते है तो इसे हम यूं नहीं आंक सकते कि मैंने फला कंपनी को इतने साल दिये पर उसने उसके बदले कुछ भी नहीं दिया।यूं मैं भी दुबेजी को काफी गरियाता रहता हूँ पर मैं ये कभी भी नहीं भूल सकता कि वो थे इसीलिए आज हम हैं... उनका भाषा का रंगमंच था... जो हमारे रंगमंच हैं।
उनके ऊपर लगे आरोप और सवाल उनके काम के सामने बहुत छोटे हैं..।
आशा है आप मेरी बात समझ रहे होगें...।

Saturday, June 21, 2008

हबीब साहब...



जब हम उनके घर पहुचे तो वो सो रहे थे.. हम सब शांत उनके घर में चुपचाप अपनी-अपनी जगह खोजने लगे,मानो गुरु के घर में बहुत से छोटे बच्चे आ गये हो। राम और धन्नू (जो सालों से उनके साथ काम कर रहे हैं।) हमारे साथ थे। दोनों रास्ते भर उनके गुरु की डाँट, फटकार के किस्से सुनाते आ रहे थे।दिन में भारत भवन में हम रवि लाल सांगड़े(रवि काका) से भी मिले थे... वो दो महीनों से हबीब साहब से खफा है क्योंकि उन्होनें, उन्हें किसी बात पर फिर से डाँट दिया था। ये उन दोनों का अजीब संबंध है जो सालों से चल रहा है, रवि काका बता रहे थे मैं तब से उनकी डाँट खा रहा हूँ जब से मैं उनकी गाड़ी एक रुपये में धोता था।खैर हम उनका इंतज़ार कर रहे थे, वो भीतर के कमरे में लेटे हुए थे, हमें दीख रहे थे... अचानक उनकी आवाज़ आई... ’कौन आया है?’
हम सब सकपका गए... हमने अपना परिचय दिया.. वो कहने लगे-’मैं सो नहीं रहा हूँ, बस थोड़ी कमर सीधी कर रहा हूँ आता हूँ...।
हम सब चुपचाप बैठे रहे.. थोड़ी देर बाद अपने कुछ छोटे-छोटे रिचुअल्स को खत्म करके वो हमारे सामने बैठे थे। हम सब शांत थे..उन्होने तुरंत अपना पाईप जलाया और एक सुनहरी मुस्कान के साथ उन्होंने कहा-’और दसो तुसी?’।
और हम सब मुस्कुराने लगे.. सारा असहज धेरा एक मुस्कान में धराशाही हो गया था।फिर हम इधर उधर की बातें करने लगे.. कुछ दीपक (उनके नया थियेटर का अभिनेता जो काफी पहले उनसे अलग हो गया था।) की चिंता की बात चली..(उसे पेरेलेसिस का दूसरा अटेक आ गया है।)पर अधिकतर वो अपनी आत्मकथा की ही बात करते रहे... जिसको लेकर वो बहुत उत्सुक हैं।पेग्विंन इसे दो खंडों में छाप रहा है।फिर उन्होने कहा कि-
’मैं उसका कुछ अंश तुम्हें सुनाता हूँ जो मैंने अभी-अभी पूरा किया है।’
हम सब खुश हो गये। वो उर्दु में लिखे कुछ पन्ने लाए और अपना चश्मा अंदर से मंगवाया हम सब उनके पास खिसक आए।
वो अंश ’मौत’ पे था (१९३० के करीब..)। उस अंश के मध्य में कहीं उन्होंने एक वाक्य पड़ा-’ अम्मी (उनकी माँ) नमाज़ पड़ते वक्त जब भी वज़ू के लिए अपना सिर झुकाती तो वो सफेद छोटा सा तखत उनके लिए बिलकुल पूरा पड़ता।’ अचानक वो इस वाक्य के बाद रुक गये, उन्होने सीधा धन्नू से पूछा अरे वो मेरी अम्मा का सफेद तखत कहां चला गया।’हम सब ज़ोर से हंस दिये लगा कि जो बचपन का किस्सा वो सुना रहे थे वो किस्सा अभी तक चल रहा है... वो अतीत नहीं है... वो वर्तमान है..। धन्नू जवाब दे उससे पहले ही वो हमसे मुख़ातिफ होकर कहने लगे कि असल में मैं वो तखत अपने साथ ही ले आया था। मेरे से भी पुराना है वो, फिर वो धन्नू की तरफ देखने लगे धन्नू ने बताया कि वो आपके बगल में ही रखा है अपने बस उसे रंगवा लिया है।उन्हें याद ही नहीं था कि उन्होने उसे रंग्वा दिया था। फिर उसे नपवाया गया- कहने लगे कि वो उसे पूरे नाप के साथ लिखना चाहते हैं।
फिर उन्होने मौत का ही दूसरा अंश सुनाया... वो एक सिपाही की मौत पे था जिसे इनके आंगन मे धुलाया गया था... उसकी तस्वीर, वो बताते हैं कि आज भी उनके ज़हन में काफ़ी साफ है।
हबीब साहब फिर कहने लगे कि बचपन जो गांव में जिया जाता है वो कितना rich होता है उसकी कितनी सारी अलग-अलग तस्वीरें होती हैं।फिर वो आज कल के बच्चों की चिंता करने लगे, इसी बीच मैंने मेरी एक दोस्त ने उन्हें मेरे नाटक ’पीले स्कूटर वाले आदमी’ की याद दिलाई, उनसे कहां कि इस बार के रंग प्रसंग में है प्लीज़ पढ़े.. तो मुझे आश्चर्य हुआ कि उन्होने वो नाटक देखा था। ’मुझे बहुत पसंद आया था।’ उन्होने कहा। फिर उन्होने रंग प्रसंग निकलवाई,उसे अपने बिस्तर के किनारे रखवा दिया और कहा कि मैं इसे पढ़्ना भी चाहता हूँ..।
जब वो अपनी आत्मकथा सुना रहे थे.. तो अचानक मैं राम के बारे में सोचने लगा.. वो भी उसे बड़े ध्यान से सुन रहा था...। क्या वो अपने बचपन के किस्से नहीं सुना सकता है? उसके क्या कोई किस्से ही नहीं होगें? फिर मुझे अचानक लगा कि हबीब साहब की आत्मकथा कैसी होनी चाहीए?... पता नहीं। जितना मैंने सुना-वो बस कुछ किस्से थे... पढ़ते वक्त वो उतने अच्छे नहीं लग रहे थे..पर. जब हबीब साहब खुद उन किस्सों के बारे में बात करते थे तो वो किस्से ज़्यादा मतलब और अनुभव फैंकते थे। शायद मैं ज़्यादा अपेक्षा कर रहा हूँ... पर ये मेरा मानना है कि लेखक अपनी आत्मकथा से कहीं ज़्यादा सच्चा अपनी बाक़ी कृतियों में होता है।
बाद में हबीब साहब अपने फिल्मों के आफर्स के बारे में बात करके फूले नहीं समा रहे थे।’मैं ही एक एक्टर होऊगाँ जो बुढ़ापे में लांच हो रहा है’ - इसे कहते हुए हबीब साहब खुद बहुत खुश हुए।
जब हम हबीब साहब के घर से निकले तो सभी चुप थे... राम और धन्नू हमारे साथ ही चले, रास्ते में चलते हुए मेरी एक दोस्त ने राम से पूछा कि-’तो अब क्या करोगे आगे कुछ सोचा है।’ राम चुप रहा फिर कहने लगा कि जाऊगाँ बम्बई जाकर स्ट्रगल करुगाँ... अगर कुछ नहीं हुआ तो गांव जाकर खेती करने लगूगाँ...। मुझे याद है मैंने राम को ’मुद्राराक्षस’ नाम के नाटक में देखा था... उसकी ’चाणक्य’ की भूमिका अभी तक मैं भूला नहीं हूँ। वो इतने सालों से लगातार रंगमंच कर रहा है... पंद्रह साल से हबीब साहब के साथ जुड़ा हुआ है.. वो सब कुछ छोड़कर खेती करेगा...। राम के चार बच्चे हैं... वो बम्बई में स्ट्रगल करेगा की बात पता नहीं मैं... कुछ कह नहीं पाया...। मैंने पूछा-’ और "नया थियेटर" उसका क्या होगा?’ तो धन्नु ने कहा कि हबीब साहब एक दिन खुद कह रहे थे कि-’क्या कहते हो.. बंद कर दे इसे..?’
मेरे पास इन सारे सवालों के बहुत ज़्यादा जवाब नहीं थे.. मैं चुपचाप राम को ही देखता रहा... वो थोड़ी देर बाद मुझे देखकर मुस्कुराया.. और मुझे अच्छा लगा...। मैं अभी भी उसे राम नहीं मानता हूँ,मेरे लिए वो एक अजीब सी परिस्थिति से धिरा हुआ राम नहीं है... मैं उसे वहीं चाणक्य के रुप में देखता हूँ... जिसे मैंने अपने थियेटर के शुरुआती दिनों में देखा था..।उस चाणक्य को इस परिस्थिति में मैं नहीं देख सकता हूँ...।
हबीब साहब की आत्मकथा जल्द ही बाज़ार में मिलने लगेगी.. हम सबको उसका इंतज़ार रहेगा।

Thursday, June 19, 2008

चिड़ीखो....











चिड़ीखों भोपाल के पास एक बहुत सुंदर जगह... भोपाल से करीब दो
धंटे की दूरी पर...(ब्यावरा रोड़)

Tuesday, June 10, 2008

writing...


देर से वही... वैसी ही सांसे ले रहा था।एक पैर सांसों की गति से हिल रहा था।आँखें दीवार पर टिकी थी। बचे रह गए चरित्रों में कहानियाँ ढूंढ रहा था।नींद में सने पात्र, सपनों से लग रहे थे।कुछ दृश्य घर से शुरु होके... समुद्र में चले जाते थे,तो कुछ पात्र, नदी में तैरते-तैरते गांव में गुम हो जाते थे।अचानक मैं अपने आपको कोसने लगा... क्या है ये? बस भर पाया मैं इन रतजगों से। तभी मुझे एलियट की बात याद आई।

-There is always a separation between the man who suffers and the artist who creates; and the greater the artist the greater the separation.

एक मुस्कान नाम की लड़की कहानी के एक छोर से दूसरे छोर तक दौड़ गई।देर तक एलियट के शब्दों के बीच खुद को ढूंढ़ता रहा। मैं इन शब्दों में बहुत मुझे मिला नहीं... पर मैं आस पास ही कहीं छुपा हूँ का ख्याल सुख देता रहा।
अबाबील नाम की नई कहानी के बारे में मैंने सोचना शुरु किया, बहुत पहले इसे पहाड़ो पे लिखना शुरु किया था। एक बार उसे वापिस पढ़ा फिर बंद कर के रख दिया।सोचा उपन्यास भी काफी समय से उसी सड़क पे खड़ा मेरा इंतज़ार कर रहा है जहां उसे छोड़ा था।फिर नया नाटक भी है जिसके दो scene लिखकर मैं चुप बैठा हूँ।ये सब कुछ दूर चलकर चुपचाप बैठे हैं, मैंने इन सारे नाटक, कहानी और उपन्यास में एक मुसकान नाम की लड़की का पात्र बढ़ा दिया।:-)

"writing doesn't come from contentment and champagne.That's not where a novel comes from.writers lock them selves in there rooms, they treavel, they vanish and some times lives fall apart."- kiran desai.

writing...


देर से वही... वैसी ही सांसे ले रहा था।एक पैर सांसों की गति से हिल रहा था।आँखें दीवार पर टिकी थी। बचे रह गए चरित्रों में कहानियाँ ढूंढ रहा था।नींद में सने पात्र, सपनों से लग रहे थे।कुछ दृश्य घर से शुरु होके... समुद्र में चले जाते थे,तो कुछ पात्र, नदी में तैरते-तैरते गांव में गुम हो जाते थे।अचानक मैं अपने आपको कोसने लगा... क्या है ये? बस भर पाया मैं इन रतजगों से। तभी मुझे एलियट की बात याद आई।


-There is always a separation between the man who suffers and the artist who creates; and the greater the artist the greater the separation.


एक मुस्कान नाम की लड़की कहानी के एक छोर से दूसरे छोर तक दौड़ गई।देर तक एलियट के शब्दों के बीच खुद को ढूंढ़ता रहा। मैं इन शब्दों में बहुत मुझे मिला नहीं... पर मैं आस पास ही कहीं छुपा हूँ का ख्याल सुख देता रहा।
अबाबील नाम की नई कहानी के बारे में मैंने सोचना शुरु किया, बहुत पहले इसे पहाड़ो पे लिखना शुरु किया था। एक बार उसे वापिस पढ़ा फिर बंद कर के रख दिया।सोचा उपन्यास भी काफी समय से उसी सड़क पे खड़ा मेरा इंतज़ार कर रहा है जहां उसे छोड़ा था।फिर नया नाटक भी है जिसके दो scene लिखकर मैं चुप बैठा हूँ।ये सब कुछ दूर चलकर चुपचाप बैठे हैं, मैंने इन सारे नाटक, कहानी और उपन्यास में एक मुसकान नाम की लड़की का पात्र बढ़ा दिया।:-)


"writing doesn't come from contentment and champagne.That's not where a novel comes from.writers lock them selves in there rooms, they treavel, they vanish and some times lives fall apart."- kiran desai.

Friday, May 16, 2008

पं. सत्यदेव दुबे जी....


कुछ बातें जो दुबेजी के बारे में मुझे इस वक्त याद आती है, वो मैं लिख रहा हूँ।त्रुटियों की माफी।



मैं दुबेजी के साथ 1998 जुड़ा हूँ, एक बार हम लोग पूना गए थे 'इंशा अल्लाह' का शो करने वहाँ पर मुझॆ एक किताब मिली थी, धर्मवीर भारती की 'कुछ चहरे, कुछ चिन्तंन'.... उसमें भारती जी ने दुबेजी के बारे में एक chapter लिखा हैं।उसे पढ़्कर मुझे दुबेजी और इंशा अल्लाह दोनों थोड़े ज़्यादा समझ में आए।

मैं दुबेजी के साथ जब जुड़ा था तब तक वो (जैसा कि मैंने सुना हैं,और जैसा लोग कहते हैं।)अपना सारा बहतर काम कर चुके थे, फिर भी इशां अल्लाह मुझे उनका काफ़ी अच्छा काम लगता है।

उनकी अभिनय को लेकर समझ बहुत ही strong है, वो हर बार actor को उसके झूठे अभिनय से बचाते रहे हैं।हर actor को उन्होनें सबसे पहले उसकी ज़मीन पर ठीक से खड़े रहना सिखाया है, अगर वो ऎसा नहीं कर पाया है तो दुबेजी ने उसे डाट कर, गाली देकर... उसे ज़मीन पे लाकर खड़ा कर दिया है।

-- साफ बोलो।
-- वाक्य के अंत तक जाओ।
-- हर वाक्य के बाद सांस लो।

ये उनके अभिनय के तीन मूल मंत्र हैं।जो काफ़ी सटीक और सही हैं।



मैंने भोपाल में थियेटर करने के दौरांन दुबेजी का नाम सुन रखा था।इच्छा थी कि बंबई में इन्हीं के साथ काम करना है। पर दुबेजी के डरावने किससे, उनसे कहीं ज़्यादा पूरे थियेटर की दुनियाँ में मशहूर हैं, वो सारे किस्से मैं भी सुन रखे थे। पर मैं तय कर चुका था कि जब भी मैं दुबेजी से मिलूगाँ तो सीधा पैर छूकर कहूँगा कि आपके ही साथ काम करना है।सो एक दिन मैं prithvi theatre में दुबेजी को ढूढ ही रहा था कि एक आदमी की आवाज़ आई.. चिल्लाने की... मैंने देखा दुबेजी एक लड़के को बुरी तरह ड़ाट रहे हैं-"अबे... पेर पड़ लेने से तू actor नहीं हो जाएगा".,.." सारे मध्य प्रदेश का ज़िम्मा मैंने थोड़ी उठा रखा है।" वगैराह वगैराह।
मैंने दुबेजी को काफी समय तक नहीं बताया था कि मैं मध्य प्रदेश का हूँ... वो मुझे कश्मीरी समझते थे। सो मैं कई सालो तक 'बंसी कौल' के हिस्से की डाँट खाता रहा, जिनसे मेरा कोई सम्बंध नहीं है।


जिस वक्त दुबेजी एक के बाद एक बेहतरीन नाटक कर रहे थे, उस वक्त उनके साथ प्रो. वसंत देव, भारती जी, भवानीप्रसाद मिश्र जैसे लेखको का उठना बैठना था। भवानी भाई यूं भी एक आधुनिक कवि थे, वो नई तरह की कविताऎ लिख रहे थे।भारती जी का धर्मयुग उस वक्त देश की एक महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका थी। मेरे ख्याल से इसी वजह से दुबेजी की भाषा या आधुनिक हिन्दी पे पकड़ बहुत मज़बूत है जो उनके भाषा के रंगमंच में झलकती है।अब चूकि रंगमंच भाषा प्रधान है तो बाक़ी सारी चीज़े नगण्य हो जाती है। जब भी दुबेजी ने अपने नाटको में सेट लगाने की कोशिश की है, वो हर बार बचकाने लगे हैं।


दुबेजी ने अपने नाटक ईंशा अल्लाह में खुद कहा है कि मैं लेखक नहीं हूँ, वो थियेटर के amizing निर्देशक हैं।जिस तरह वो text को approch करते है उसे समझते है,और जिस तरह वो उसे actor के माध्यम से कहलवात हैं, वो काबिले तारीफ है।भारती जी ने एक जगह कहा है कि-' मैंने खुद अपने पात्रों को इस तरह नहीं समझा था जिस तरह दुबे ने उन्हें किया।'(लगभग ऎसा कुछ...)।
बतौर लेखक मैंने कभी दुबेजी को पसंद नहीं किया।एक लेखक का धैर्य उनके अंदर नहीं है।

दुबेजी यूं पूरी ज़िदगीं अकेले रहे हैं, पर मुझे लगता है कि वो कभी अकेले रहना सीख नहीं पाए।


दुबेजी के मूँह से 70's,80's के थियेटर के किस्से सुनना मुझे आज भी अच्छा लगता है। मैं उन्हें घंटो सुन सकता है। वो दुबेजी के जिये हुए अदभुत दिन थे।मुझे दुबेजी थियेटर की ‘नानी’ जैसे कुछ लगते हैं, जो कभी भी किसी भी बात पर आपको डाँटने का हक रखती है, जिसके पास किस्से हैं… कहानियाँ है और जो आज भी मीलों चलने का दम रखती है।

Wednesday, May 14, 2008

टूटा फूटा कुछ...


वो कौन सा ऎसा भीतर का एक जानवर होता है जिसकी वजह से एक इंसान दूसरे इंसान को मार देता है। मेरे लिए सारी वजह सोचने के बाद भी, सारी वजह कम पड़ जाती है। हमारा इस कदर हिसंक होना हमें क्या दिला देता है अंत में…

Nathuram godse…ने गांधी को मारने की वजह को justify करते हुए अपने अंतिम भाषण में कहा था- (‘his main provocation was the mahatma’s constant and consistent pandering to the muslims.’)- ‘culminating in his last pro-muslim fast which at last goaded me to the conclusion that the existence of Gandhi should be brought to an end immediately.’- guha’s ‘india after Gandhi’

इसके पहले भी गांधी पे एक पंजाबी refugee ‘मदन लाल’ ने bomb फैका था।

मैंने कभी एसी कोई धटना (एक आदमी के, आदमी को मारने वाली) अपनी आंखो से नहीं देखी हैं न ही मैं देखना चाहता हूँ, मैंने ये सब फिल्मों में देखा है-‘कि मैं तुझे जान से मार दूगाँ।‘ और बाद में सच में जान से मार दिया जाना।

इस दुनियाँ की सबसे बड़ी मूर्खता मुझे लगती है जब कोई धर्म के लिए लड़ता है, इतिहास लगभग सारे ऎसे उदाहरणों से भरा पड़ा है।मेरी एक बात समझ में नहीं आई मेरा धर्म हिन्दू हैं…और अगर मैं अपने धर्म का पालन करना चाहता हूँ तो मेरा धर्म मेरे लिए कभी मर ही नहीं सकता है,… किसी और के धर्म की वजह से मेरा धर्म खतरे में कैसे पड़ सकता है?
दूसरा धर्म की श्रेष्ठा का प्रश्न, ये वैसा ही है जैसा ये प्रश्न कि- ‘मेरी माँ तेरी माँ से कहीं ज़्यादा वात्सल्य से भरी है।‘
मैं जानता हूँ ये प्रश्न इतना सरल नहीं है, पर अगर हम बेसिक बातों पे आना चाहें, तो हमें सच में कुछ इसी तरह के तर्क सामने नज़र आते हैं।
ओशो अमेरिका जाता है वहाँ से उसे भगा दिया जाता है कि क्रिश्चेनिटी को खतरा है (और भी बहुत सारी जगह से), जिन्ना ने पाकिस्तान की मांग की और बनाया कि हिन्दुस्तान एक हिन्दु द्वारा चलाया जा रहा, हिन्दुओं के लिए राष्ट्र है.... यहां इस्लाम को खतरा है। हिन्दु डरे रहते हैं कि मुस्लमानों की आबादी बढ़ती जा रही है, वो बांग्लादेश से भी बड़ी तादाद में आ रहे हैं.. हिन्दु धर्म को खतरा है।अरे भाई आप सबके बचाने के चक्कर में सारे धर्म की खूबसूरती ही खत्म हो गई, अब सभी एक कुरुप धर्म को अपने कंधे पर उठाए भागे जा रहे हैं।
मैं खुद एक धार्मिक शहर से आया हूँ, भजन सुनते हुए रोज़ मेरी आँखे खुलती थी, खासकर हरिओम शरण के भजन।सारा संगीत किसी न किसी धर्म से ही उपजा है। नुसरत साहब जब गाते थे तो लगता था कि सीधे अल्लाह से बातें कर रहे हैं। बिस्मिल्लाह खाँ साहब शहनाई सुनते हैं तो हम किसी दूसरी दुनियाँ में पहुच जाते हैं।ये धर्म की शक्ति है,चीखना चिल्लाना नहीं।

–‘लोगों का उनके मरने के बाद भी ज़िन्दा रहने की इच्छा रखना।‘ ये भी बहुत सी समस्याओं का एक मूलभूत कारण है, शायद इसी भावना का एक छोटा सा उद्दाहरण हमें मंदिरो में देखने को मिलता है जब लोग मंदिरो की सीड़ियों पे अपना नाम खुदवा लेते हैं।


मैं मेक्लाड़्गंज में एक लामा से बात कर रहा था, उसने बताया कि दलाई लामा कभी भी अपना खुद का धर्म छोड़ने की सलाह नहीं देते वो कहते है कि बुद्धिज़म (तिब्बत का) को समझो पर अपना मदर रिलिज़न मत छोड़ो।
धर्म इंसान देखे... और इंसान सारे धर्म समझे।
हम एक बात कभी मानने को तैयार नहीं है कि ये सारे धर्म ग्रंथ किसी एक इन्सान ने बैठके लिखे थे।इससे काफ़ी चीज़े दिमाग़ से झड़ जाएगी जो बैकार में अभी लोगो के दिमाग़ में आतंक मचाए पड़ी हैं।

ये शायद मैं पहले भी कर चुका हूँ, गुजरात के दंगो के बाद मैं काफ़ी परेशान था तब मैंने एक कविता लिखी थी('दंगों के हम...' के नाम से जिसे आप मेरे कविताओं के ब्लाग में पढ़ सकते हैं, उसका लिंक दिया हुआ है।), अभी जयपुर धमाको के बाद, मेरे दिमाग में जो भी कुछ टूटा फूटा चल रहा था मैंने लिख दिया। मैं बस इतना ही कर सकता हूँ, लिख सकता हूँ और कुछ नहीं।

Monday, May 12, 2008

ड़ाँ. बिनायक सेन... के समर्थन में...

[edit] Dr. Sen's arrest
On 14 May 2007, Dr. Sen was arrested in Bilaspur, Chhattisgarh state, India. Dr. Sen and the People's Union for Civil Liberties had helped draw attention to the unlawful killing - on 31 March 2007 - of several adivasis [indigenous tribal people] in Santoshpur, Chhattisgarh. Upon orders from the State Human Rights Commission, bodies of the victims were exhumed from a mass grave in the week immediately preceding Dr. Sen's arrest. The Director General of Police in Chhattisgarh also ordered a police probe into the incident on 5 May 2007. According to a police official monitoring the investigation, autopsy reports confirmed that three of the victims were hit by bullets at close range on the head and waist while others were axed to death. [10] This account was corroborated by a videotaped interview with the Santoshpur "sarpanch" [elected village leader] [11](in Hindi). The police official also told the Indo-Asian News Service on 9 May 2007: "It's certain that some police personnel crossed the limits and killed innocent villagers branding them as Maoist militants ... Now the government has to decide whether the cops involved in killings should be arrested or not." [12]
"The government will not arrest the policemen involved in the killings," Chhattisgarh Home Minister Ramvichar Netam told the Indo-Asian News Service on 9 May 2007. [13]
Dr. Sen - who had helped focus attention on these and other unlawful killings - was detained on 14 May 2007. This came after week-long accusations by the police about Dr. Sen absconding; and of passing letters from Narayan Sanyal, a detained 'Naxalite' leader who he had been treating medically in the Raipur jail, to Pijush Guha an alleged Naxalite under detention since 1 May. Dr. Sen, following his arrest, told the media that this charge had no basis since his meetings with prisoners were undertaken openly, with the permission of the Deputy Superintendent of Police and under the close supervision of jail authorities. Dr. Sen also pointed out that contrary to allegations of "absconding", he had been on a holiday (planned long in advance) and had returned as soon as he heard about the allegations.
Dr. Sen was detained under provisions of the Chhattisgarh Special Public Security Act, 2006 (CSPSA), and the Unlawful Activities (Prevention) Act, 1967), which was amended in 2004 to include key aspects of the Prevention of Terrorist Activities Act (POTA), 2002. The POTA was repealed in 2004 following widespread criticism of abuse and human rights violations. The CSPSA and UAPA allow for arbitrary detention without any right of appeal. [14]
On 16 May 2007, Amnesty International issued a call to the Government of Chhattisgarh to "immediately release Dr. Sen unless he is charged with a recognizable criminal offence and take urgent steps to end the harassment of the other human rights defenders in the state." [15]
On 18 May 2007, Dr. Sen appeared in court and asked to be shown the First Information Report, Complaint and the Grounds on which he was being detained. None were shown to him. The police request for transferring him from judicial remand into police custody was rejected by the court. He remained in judicial remand.
On 19 May 2007, the police searched Dr. Sen's house. According to independent observers present during the search and local press reports, no incriminating evidence was found. A complete and detailed inventory of items taken by the police was released by the PUCL. No banned items were found. [16] (- in Hindi).
Items which police have described to the press as incriminating evidence turned out to be a postcard from the jailed Narayan Sanyal dated 3.6.2006, regarding the prisoner's health as well as his legal case, duly signed by the jail authorities and carrying the official jail seal.
On 22 May 2007, Dr. Sen appeared in court again and was sent on judicial remand to Raipur Central Jail until 5 June, 2007. The Court passed an order that Dr. Sen's computer (now in police custody), would be examined by a government expert in the presence of the District Head of the National Informatics Centre, plus a lawyer - with knowledge of computers - representing Dr Sen. Dr Sen protested against attempts to handcuff him, and the court ordered that he should not be handcuffed. Dr Sen's lawyers then moved a bail application.
On 28 May 2007, about 6,000 indigenous people and others demonstrated in Raipur, Chhattisgarh, against the arrest of Dr. Binayak Sen and against the special act under which he was arrested - Chhattisgarh Special Public Security Act, 2005 (CSPSA).
On 31 May 2007, the PUCL held a public meeting in Raipur, Chhattisgarh. Speakers demanded that the state immediately repeal the Chhattisgarh Special Public Security Act, 2005 under which Dr. Binayak Sen was arrested. [17]
Dr. Sen's lawyers told reporters that the Chhattisgarh government "has on some excuse or another been refusing to show them the First Information Report or any other document". [18]
On 7 June 2007, a submission from Dr. Binayak Sen's wife, Dr. Ilina Sen, to the National Human Rights Commission [19] states that no "chargesheet" against Dr. Binayak Sen has been filed so far. The submission states that Dr. Binayak and Dr. Ilina Sen's work "has always been in the public sphere and completely overboard [above board] for the last 20 years and more." It protests "the malafide intent of the state of Chhattisgarh in first identifying its victims, and then seeking to build up concocted cases against them." The submission apprehends a campaign of "media villification" against Dr. Ilina Sen. A special investigating team is stated to have visited the home of Dr. Ilina Sen's mother in Kolkata, enquiring about Dr. Ilina's antecedents.
On 12 June 2007, in an interview with ABC Radio National (Australia), the noted Indian commentator P. Sainath said, "You have a number of studies, a number of reports and investigations done by the People's Union for Civil Liberties, of which Binayak is a leading member, on "fake encounters". The word "encounter" has a very special meaning in India. It means the police kill someone, he may be unarmed, he may be tied to a chair. Then he posthumously becomes a Maoist. That's immediately conferred on you in death. A number of studies on these encounters and on fake killings and on a vigilante war that the government is waging on the Maoists, is what ... reports on those: that's what got Binayak Sen into trouble... The charges brought against him - it's very interesting. The police now have sort of outsourced the smear campaign to the media. So the media bring incredible charges against him which the police then do not repeat in the court." [20]
Noam Chomsky and several other prominent figures issued a Press Statement dated 16 June 2007 alleging that "The fake encounters, rapes, burning of villages and displacement of adivasis [indigenous tribals] in tens of thousands and consequent loss of livelihoods have been extensively chronicled by several independent investigations. Dr Sen's arrest is clearly an attempt to intimidate PUCL and other democratic voices that have been speaking out against human rights violations in the state." [21]
On 20 June 2007 a delegation from the PUCL met the Chief Minister (CM) of Chhattisgarh state. They objected to Dr. Sen - as a human rights defender, office-bearer of the People's Union for Civil Liberties and medical doctor - being made a co-accused in crimes alleged to be committed by the jailed extremist Narayan Sanyal. The CM raised the issue of Dr. Sen's meetings with the jailed Narayan Sanyal. The delegation explained that these visits were for the "medical treatment of Narayan Sanyal and also regarding his legal case. Most important, all these visits took place in the Raipur jail, following procedures laid down in the jail manual." [22] The delegation also explained to the CM that "human rights organizations represent a middle ground which make it possible for opposing forces to dialogue with each other... if human rights defenders are actively persecuted, then it leads to a situation where the state and opposing forces have no scope for dialogue and both have to take to the path of confrontation."
The PUCL delegation raised objections with the Chief Minister about the analysis of Dr. Sen's computer in the absence of Dr. Sen’s advocate and the independent court-appointed witness, raising the possibility of attempts to manufacture false evidence against Dr. Sen. [23] The court had ordered on 22 May 2007 that both these observers should be present during the examination of Dr. Sen's computer.
Responding to the delegation’s view that the Chief Minister is being misled by the police, who appear to be determined to fabricate a case against Dr. Sen, the Chief Minister is reported to have assured them that he would look into the matter.
Meanwhile, the Central Forensic Laboratory in Hyderabad has given a "clean" certificate to Dr. Binayak Sen's computer which was seized during the search of his house. No incriminating evidence was found in the computer.
On 10 August 2007, the Nobel Peace Prize winners Medecins sans Frontieres were sought to be banned from the Dantewada district of Chhattisgarh on the basis that "Maoist insurgents who were injured in encounters with the security forces were being treated by MSF doctors,” according to top District official K.R. Pisda. [24] MSF's India director responded, "Our job is to provide medical help to whoever asks for it. We don’t ask patients about their ideology. We ask them what their medical problem is." [25] The government backed down after a public outcry about the reported ban. However, Dr. Binayak Sen - who was helping secure medical and surgical care for an elderly prisoner, with due police permission - remains in prison.
On 31 August 2007 the Supreme Court of India issued notice to the Chhattisgarh government on a petition seeking Dr. Sen's release from alleged illegal detention. A bench of Justices Ashok Bhan and V S Sirpurkar sought response from the Chhattisgarh government after senior counsel Soli Sorabjee claimed that Dr. Sen was illegally detained since May 14 on fabricated charges of supporting Naxalites. [26]
On 2 November 2007 a Court in Raipur, Chhattisgarh, ordered the Prosecution to hand over to Dr. Binayak Sen the DVD copy of his computer's CPU, which they had been refusing to do on the pretext that it was "not a document". [27]
Dr. Binayak Sen had objected to Trial by Video-conferencing, as he was denied the right to be present and heard by the Trial Court, and was kept in an intimidating situation in a room in the Raipur Central Prison without being able to consult his lawyers. On the first day of hearing by Video-conferencing Dr. Binayak Sen had complained that he could only see the face of the Hon’ble Judge, and not even see his lawyers. The Court ordered that at the time of framing of charges, evidence, cross examination of witnesses, or whenever the Court felt that the personal presence of the accused was necessary, it would ensure a hearing in person.[28]
The PUCL issued a public statement appealing to the Chhattisgarh State authorities "to refrain from “delay tactics” and ensure fair trial in this highly sensitive case of a human rights activist being illegally and fraudulently booked".[29]
Speaking out against the crimes committed by the state-backed Salwa Judum militia has elicited accusations, against even elected legislators, of helping Maoists. On 14 November 2007 it was reported that an elected legislator was accused of being a Maoist spokesman on the basis that the legislator had, in the words of a top district official in Dantewada district of Chhattisgarh, "even advocated abandoning the Salwa Judum civil militia movement". [30] Following strong protests from the legislator's party, the district official was reprimanded by transfer. However, Dr. Sen remains in jail following his outspoken criticism of crimes committed by the state-backed Salwa Judum.
The date for the hearing of Dr. Sen's bail petition in the Supreme Court of India was fixed for Monday, 10 December 2007. A Bench consisting of a senior and a junior judge was appointed to hear the appeal for bail. The initial junior judge was subsequently replaced by another. On 8 December 2007, the Chhattisgarh government invited the senior member of this Bench to Raipur as the chief guest at the inaugural ceremony of a Legal Aid Centre, and extended its hospitality to him till 9 December 2007. The next day, upon the senior judge's return to the Supreme Court in Delhi, the Bench dismissed Dr. Binayak Sen’s appeal for bail within approximately only thirty-five minutes. [31]
On 23 December 2007, a feature article in the press suggested that Dr. Sen has suffered considerable weight loss during his imprisonment. [32] There have been no reports of regular medical examinations or any precautions to avert serious illness, apart from the initial medical examination performed shortly after his arrest. This has led to serious concern about his health.
The same report stated that the Director General of Police (DGP) in Chhattisgarh had conceded Dr. Binayak Sen's peaceful approach. [33] However, the DGP rejected the suggestion that Dr. Sen had been arrested for criticising crimes such as extra-judicial killings in staged "fake encounters". The DGP has stated his belief that "Dalits movements, women empowerment movements, human rights movements, environment protection movements" are all suspect because Maoists want to penetrate and hijack "movements not linked with CPI (Maoist)." [34]
On 31 December 2007, the R.R. Keithan Gold Medal of the Indian Academy of Social Sciences was conferred on Dr. Binayak Sen (in absentia) at a function chaired by Dr. B. N. Mungekar, Member, Planning Commission of India, and Chairperson of the Indian Academy of Social Sciences. [35] Dr. Ilina Sen received the award on behalf of her husband since Dr. Binayak Sen's request for parole to accept the award had been turned down. The citation stated that "the Academy recognizes the resonance between the work of Dr. Binayak Sen in all it's aspects with the values promoted by the Father of the Nation" Mahatma Gandhi.
On 31 March 2008, the Supreme Court of India heard two petitions seeking a direction to the Chhattisgarh state government to refrain from allegedly supporting and encouraging the Salwa Judum. A Bench comprising Chief Justice K G Balakrishnan and Justice Aftab Alam said: “It is a question of law and order. You cannot give arms to somebody (a civilian) and allow him to kill. You will be an abettor of the offence under Section 302 of the Indian Penal Code [murder].” [36]. The Bench said a neutral agency should inquire and assess whether people had joined Salwa Judum camps on their own. Reacting to the Supreme Court observation, Chhattisgarh Home Minister Ram Vichar Netam said his government was also of the view that giving arms to civilians was wrong. Dr. Sen remains in a Chhattisgarh jail following his outspoken criticism of crimes committed by the state-backed civilian militia, the Salwa Judum.
On 11 April 2008, it was revealed that Dr. Binayak Sen had been subjected to solitary confinement for nearly a month. According to a press statement, "Though Dr Sen's status as a regular prisoner has now been restored, following widespread protests against the move, activists have called for a thorough official investigation of the fact that he was kept in isolation for nearly a month. Police officials in Raipur have justified their action by claiming Dr. Sen was kept in isolation 'for his own security' but failed to explain the nature or source of the threat to him." [37]
On 21 April 2008, the Global Health Council announced that Dr. Binayak Sen was selected for the highest international honour in Global Health and Human Rights, the Jonathan Mann Award 2008. The Mann Award is presented annually at the Global Health Councils international conference to "a practitioner who makes significant contributions toward practical work in the field and in difficult circumstances; highlights the linkage of health with human rights; works predominantly in developing countries and with marginalized people; and demonstrates serious and long-term commitment." [38].
The Global Health Council and several prominent global health organizations issued a statement of support for Dr. Sen, requesting that Indian authorities assure the restoration of due process, and find the means to allow the doctor to receive his award in person in Washington, DC on May 29th, 2008, at the 35th Annual International Conference on Global Health. [39] "His good works need to be recognized as a major contribution to India and to global health; they are certainly not a threat to state security", according to the Council.
Sources at Chhattisgarh police headquarters are reported to have said that they rely on certain electronic documents to establish a link between Dr. Sen and Maoists. Girdhari Nayak, inspector general of police in Chhattisgarh is reported to have said "I only know the police are committed to ensure punishment for Sen, who has been charged with conspiracy, treason and anti-national activities." [40]
Rajendra K. Sail, state president of PUCL, is reported to have said: "The Chhattisgarh government will get exposed before the world soon for targeting human rights activists, mainly from PUCL, under the cover of black laws such as the CSPSA (Chhattisgarh Special Public Security Act, 2006), for carrying out campaign against fake civilians encounters, arrests and committing crimes against humanity through Salwa Judum. I have maintained since Sen's arrest last May that the Chhattisgarh government has no evidence against him. We challenge the government to bring charges against him under the Criminal Procedure Code and not hide behind the black laws." [41]
A public statement of support from several leading health organizations including the Harvard School of Public Health and Harvard Medical School declares: "We, the undersigned organizations, wish to convey to the relevant authorities in the government of India and state of Chhattisgarh our sincere pleasure in announcing that a citizen of India, Dr. Binayak Sen, has been selected to receive the prestigious Jonathan Mann Award for Health and Human Rights for 2008... We would also like to convey our concern and dismay that Dr. Sen remains imprisoned, after nearly one year without trial, on allegations that he passed notes from a rebel leader whom he treated in jail to a person outside the prison. Dr. Sen has denied all wrong doing and nothing in his character or history, as a dedicated community leader who has urged a peaceful settlement to this conflict for years, would support the accusations made against him. These allegations have not been substantiated or proven and have prevented Dr. Sen from providing his much-needed health services to the poor in his area, as well as his community leadership activities as an officer of the People's Union for Civil Liberties. We kindly request that the relevant government authorities at the state and national levels address this case fairly and swiftly and consider fully the tremendous contributions that Dr. Sen has brought not only to communities in Chhattisgarh, but to all of India and to the world.
We request that means be found to release Dr. Sen to attend the 35th Annual International Conference on Global Health in Washington, D.C., where he has been invited to receive the Jonathan Mann Award for Global Health and Human Rights in person on May 29, 2008... Dr. Sen's attendance at the awards' ceremony on May 29 will not, in our opinion, jeopardize the judicial process in India, a country that prides itself as the world's largest democracy where human rights and the rule of law are respected and practiced, and we urge you to make this possible." [42]
In an interview with NDTV following the Award, Dr. Sen's wife Dr. Ilina Sen revealed that he has been isolated from the world during his year of imprisonment, with access to only one newspaper which is pro-government. The NDTV feature also depicts Dr. Binayak Sen declaring, "I did not do anything in secret. Whatever I did was in the cause of human rights." Dr. Ilina Sen said that even when Dr. Binayak Sen knew that his arrest was coming, he returned to Chhattisgarh. "We are law abiding people", she said, and expressed the hope that the government would make it possible for Dr. Sen to receive his award in Washington. [43]
On 29 April 2008, Human Rights Watch in New York issued a public statement regarding the trial of Dr. Sen due to begin in Raipur on 30 April 2008: "the district court’s limit of one supporter of the defendant at the trial is unnecessarily restrictive and raises broader concerns about the fairness of the trial." [44]
last entry on: 3 May 2008

[edit] Worldwide condemnation of arrest
Protests against Dr Sen's arrest have been led by prominent personalities such as Noam Chomsky, Nobel Prize winner Amartya Sen, Magsaysay Prize winner Aruna Roy, Booker Prize winner Arundathi Roy, retired judge Rajinder Sachar of the Delhi High Court, film maker Shyam Benegal and many eminent medical professors and scientists in India, the USA, the United Kingdom, Australia and beyond.
Many Indian human rights groups have protested the arrest. A list can be found at InfochangeIndia.org
On 24 May 2007, Amnesty International issued a Public Statement entitled: "India: Chattisgarh government detains human rights defender, refuses to arrest police officials suspected of involvement in unlawful killings of adivasis [indigenous tribes-people]." [45]
On 7 June 2007, the British House of Commons published an Early Day Motion entitled "Arrest of Dr. Binayak Sen" supported by several Members of Parliament across party lines, including Diane Abbott (Labour), Peter Bottomley (Conservative), John Hemming (Liberal Democrat), Dai Davies (Independent, Wales), Mike Weir (Scottish NP), among others. [46].
It begins: "That this House is concerned at the arbitrary arrest of the human rights activist and General Secretary of the Chhattisgarh unit of the People's Union for Civil Liberties (PUCL), Dr Binayak Sen, in the Indian state of Chhattisgarh; notes with concern that this arrest has taken place in the aftermath of the alleged involvement by the police in the unlawful killing of 12 adivasis or tribal people". It ends by calling for Dr. Sen's immediate release and an end to the harassment of the other human rights defenders in the state.
On 9 June 2007, the British Medical Journal published an article about Dr. Sen's arrest. It states that Ramesh Gopalakrishnan, of Amnesty International, offered the following comment to BMJ about the supposed charges: "These offences allow sweeping interpretations of criminal intent. Activists in India are arrested all the time on such charges, which give wide, arbitrary powers to police."
The same BMJ article reports a protest, outside the Indian High Commission in London, whose organiser is quoted as saying, "Dr Sen is a champion of peace and fair play and an internationally respected medical doctor who has devoted his whole life to peaceful service of the poorest people. He should be released immediately." BMJ 2007;334:1184-1185 (9 June)
The Wall Street Journal of 12 November 2007 carried an article about Dr. Binayak Sen entitled "Indian Unrest Ensnares a Doctor - 'Rights Activists' Such as Dr. Sen Caught in Middle" [47] (subscription required); with a follow-up letter in the WSJ of 16 November 2007 entitled "Good Works, Bad Reward". [48]
Doctors across India have started holding free clinics for the poor in tribute to the example of Dr. Sen, and to peacefully campaign for his release. [49] (The Hindu newspaper, Bangalore - April 26th 2008)

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मेरा कोई स्वार्थ नहीं, न किसी से बैर, न मित्रता। प्रत्येक 'तुम्हारे' के लिए, हर 'उसकी' सेवा करता। मैं हूँ जैसे- चौराहे के किनारे पेड़ के तने से उदासीन वैज्ञानिक सा लेटर-बाक्स लटका। -विपिन कुमार अग्रवाल